विक्रमशिला विश्वविद्यालय

8वीं शताब्दी में बिहार एवं बंगाल में शासन की बागडोर संभालनेवाले पाल शासकों का शिक्षा के प्रसार में अप्रतिम योगदान था। उन्होंने शिक्षा के विकास के लिए बड़े-बड़े बौद्ध मठों,विहारों एवं विश्वविद्यालयों की स्थापना करवाई। इसमे बिहार का विक्रमशिला विश्वविद्यालय अंतरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय के रूप में ख्यातिप्राप्त था।इसकी भौगोलिक  स्थिति भागलपुर से लगभग 30 किमी.पूर्व में पत्थरघाट नामक पहाड़ी पर बताई जाती है।
          बौद्ध शिक्षा के प्रमुख केंद्र के रूप में विक्रमशिला महाविहार की स्थापना पालवंशीय शासक धर्मपाल (775-800ई,)ने करवाई थी।यहां160 विहार तथा व्याख्यान के लिए अनेक कक्ष बने हुए थे।इस  विश्वविद्यालय के अंतर्गत छः महाविद्यालय कार्यरत थे।प्रत्येक महाविद्यालय में एक केंद्रीय कक्ष,जिसे "विज्ञान भवन" कहा जाता था तथा 108 अध्यापक थे।सभी महाविद्यालयों के प्रवेशद्वार पर एक-एक द्वारपंडितों की नियुक्ति की गयी थी।द्वारपंडितों द्वारा परीक्षण के पश्चात ही महाविद्यालय में दाखिले की प्रक्रिया शुरू होती थी।इसमें उन्हीं विद्यार्थियों को प्रवेश मिलता था ,जिन्हें द्वारपंड़ितों की अनुमति प्राप्त होती थी।छः द्वारों की अवस्थिति इस प्रकार थी-प्रथम केंद्रीय द्वार,द्वितीय केंद्रीय द्वार,पूर्व द्वार,पश्चिम द्वार,उत्तर द्वार एवं दक्षिण द्वार।पाठ्यक्रम में व्याकरण,तर्कशास्त्र,मीमांसा,तंत्र एवं विधिवाद आदि प्रमुख थे।यहाँ के स्नातकों कोअध्ययन के पश्चात उपाधियाँ प्रदान की जाती थी।वर्ष में एक दीक्षांत समारोह का आयोजन होता था जिसमें तत्कालीन पाल शासक कुलाधिपति की हैसियत से भाग लेते थे और उन्हीं के हाथों स्नातकों को पंडित की उपाधि प्रदान की जाती थी।उच्च शिक्षाप्राप्त अध्येताओं को महापंडित,उपाध्याय और आचार्य की उपाधि से विभूषित किया जाता था।
       11वीं-12वीं शताब्दी में विक्रमशिला विश्वविद्यालय भारत का सर्वाधिक सम्पन्न ,सुसंगठित एवं प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय बन गया था।ऐसे साक्ष्य प्राप्त है कि इस विश्वविद्यालय का प्रशासनिक परिषद ही नालंदा विश्वविद्यालय का कार्यभार देखता था।इस समय यहाँ तीन हजार विद्यार्थी रहकर शिक्षा ग्रहण करते थे।इसमें से अधिकांश विद्यार्थी तिब्बत के निवासी थे।तिब्बती छात्रों के आवास के लिए विश्वविद्यालय में एक विशिष्ट अतिथिगृह निर्मित था।यहाँ एक सम्पन्न एवं विशाल पुस्तकालय भी था।विश्वविद्यालय का प्रबंधन करने के लिए  मुख्य सभयाध्यक्ष की देख-रेख में एक परिषद निर्मित थी,जिसके सदस्य विभिन्न प्रशासनिक कार्यों को सम्पन्न करते थे।इसमें नवागंतुकों को शिक्षित करने का कार्य ,नौकरों की व्यवस्था,खाद्य एवं ईंधन की आपूर्ति एवं मठ के कार्यों का आवंटन आदि शामिल था।शैक्षणिक व्यवस्था की जिम्मेदारी छः पंडितों की थी।इसके लिये एक समिति कार्यरत् थी जिसका एक अध्यक्ष होता था।
       विक्रमशिला विश्वविद्यालय अपने महान आचार्यों के लिए विख्यात था।आचार्य दीपंकर श्रीज्ञान इस विश्वविद्यालय के कुलपति थे,जो हीनयान,महायान,वैशेषिक और तर्कशास्त्र के  प्रकाण्ड विद्वान थे।तिब्बती स्रोतों से पता चलता है कि उन्होंने लगभग 200 ग्रंथों की रचना की थी।11वीं शताब्दी में वे तिब्बती नरेश चनचब  के निमंत्रण पर तिब्बत गए और वहाँ बौद्ध धर्म में आई विकृतियों को समाप्त किया।तंत्रवाद के महापंडित अभयांकर गुप्त बारहवीं शताब्दी में विक्रमशिला विश्वविद्यालय के आचार्य थे।संस्कृत एवं तिब्बती भाषा पर इनकी जबरदस्त पकड़ थी। इन्होंने इस भाषा में कई ग्रंथों की रचना की है।अन्य आचार्यों में रक्षित,ज्ञानपाद,वैरोचन,ज्ञानश्री,रत्नाकर मिश्र, रत्नव्रज,तथागत रक्षित,जेतारी एवं शांतिरक्षित प्रमुख थे।1203ई.में बख्तियार ख़िलजी ने दुर्ग के भ्रम में पड़कर इस विश्वविद्यालय को नष्ट कर दिया ।यहाँ निवास कर रहे भिक्षुओं की निर्मम हत्या की गयी तथा ग्रंथों को जला दिया गया।असहाय कुलपति शाक्य श्रीभद्र इस गौरवशाली शिक्षण संस्थान को पत्तन के गर्त में जाते हुए देखते भर रहे ।

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