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How We prepare Bihar Stet Exam 2025

  Here is a sample   story-style page write-up   for Bihar STET Exam 2025 that you can use for blogs, study notes, or video scripts. It builds a motivational flow around preparation. Bihar STET Exam 2025: A Story of Determination Ravi Kumar, a young aspiring teacher from a small town in Bihar, had always dreamt of standing in front of a classroom, inspiring young minds. For him, the  Bihar STET Exam 2025  was not just an examination—it was an opportunity to shape his future and serve society. Every morning, Ravi woke up before sunrise with a single thought:  “If I want to be a teacher, I must prove myself in this exam.”  He made a strict timetable, balancing both  Paper 1  and  Paper 2  preparation. The Struggle Begins At first, the syllabus looked overwhelming—Child Development and Pedagogy, Languages, Mathematics, Environmental Studies, Social Science, and even intricate topics like Science and Reasoning. Ravi felt nervous, but he...

हिंदी उपन्यास में सांप्रदायिक चेतना

 बहुभाषी अत्यंत जटिल सामाजिक संरचना वाले विविध धर्म एवं संप्रदाय वाले देश भारत में सांप्रदायिकता एवं सांप्रदायिक समस्या सदियों से मूलभूत समस्या के रूप में रही है संप्रदायिक मनु भावना और उससे अवांछित रूप काल के अपने विशिष्ट संदर्भों में अपने-अपने ढंग से अतीत के भारतीय इतिहास का भी उसी तरह हिस्सा रहे जैसे कि वे आधुनिक भारत के हमारे अपने समय में हमारी अपनी चिंता का अभिन्न और आत्यंतिक हिस्सा है भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में जहां सभी धर्म जातियों एवं वर्गों के लोग शांति पूर्ण पूर्ण पूजा के साथ सह अस्तित्व की भावना से रहते हैं उसी भूमि को इस भावना ने रोग ग्रस्त कर दिया है सदियों से एक साथ एक भूमि पर हत्या रहे हिंदू मुसलमानों के बीच धीरे-धीरे पनपता घूर अविश्वास भयानक संप्रदायिकता का रूप ले लिया है लेकिन देखा जाए तो भारतीय समाज में इसकी जड़ें प्राचीन काल से ही गहरी और मजबूत है समय के बदलाव के साथ यह कट्टरता और उदारता का चोला धारण कर लेती है सत्ता पर काबिज रहने के लिए समाज के विभक्ति करण की प्रक्रिया अपनाने का कार्य सदियों से अनवरत रूप से चलता आ रहा है। की समस्याओं का रेखांकन सिर्फ इतिहास क...

Blue Water Policy

16 -17 वीं शताब्दी में पुर्तगालियों ने हिंद महासागर और दक्षिणी तट पर अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया था। इसके पीछे दो प्रमुख कारण थे, एक, एशियाई जहाजों की तुलना में उनकी नौसैनिकों की श्रेष्ठता और दूसरा भूमि पर कुछ अत्यंत महत्वपूर्ण चौकियों की स्थापना, जो उसके जहाजी बेड़ों और व्यापारिक गतिविधियों के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण आधार का कार्य करती थी। इसके अतिरिक्त उन्होंने स्थानीय लोगों को भी जीत कर लिया था, जिससे उन्हें काफी सहायता मिलती। पुर्तगालियों के नौसैनिक एवं व्यापारिक  जहाजों के चालक तथा सैनिक प्रायः  स्थानीय लोग हुआ करते थे। पड़ोसी राज्यों में राजदूत तथा जासूस भारतीयों को ही बना कर भेजा जाता था । उनके द्वारा उपलब्ध सूचनाएं अति महत्वपूर्ण होती थी। जिससे किसी आक्रमण को टालने या किसी शत्रु की दुर्बलताओ का आसानी से पता लगाया जा सकता था । हिंद महासागर पर नियंत्रण स्थापित करने में पुर्तगालियों ने युद्ध के अतिरिक्त कुशल रणनीति तथा कड़े व्यापारी पर नियंत्रण का सहारा लिया। इसके लिए उन्होंने अन्य देशों के साथ व्यापार करने पर कड़े प्रतिबंध लगाए। पुर्तगाल तथा गोवा से जारी निर्देशों और आज्ञ...

भारत में आर्यों का आगमन

भारत में आर्य भाषा भाषियों का आगमन 1500 ईसवी पूर्व के कुछ पहले हुआ था। आर्यों की जानकारी सर्वप्रथम ऋग्वेद में मिलती है। इनका प्रारंभिक जीवन पशुचारी था और कृषि उनका गौण व्यवसाय था। आर्यों का मूल निवास आल्पस पर्वत के पूर्वी क्षेत्र जो यूरेशिया कहलाता है, कहीं पर बताया जाता है। लेकिन इतिहासकारों में आर्यों के मूल स्थान को लेकर मतैक्य नहीं है ,उदाहरणस्वरूप , गंगानाथ झा इन्हें ब्रह्मर्षि देश का मानते हैं। जबकि डी एस त्रवेदी आर्यों का मूल स्थान मुल्तान स्थित देविका क्षेत्र को बताते हैं । एल डी कल्ल का मानना है कि आर्य कहीं कश्मीर तथा हिमालय क्षेत्र में बसते थे। तिलक ने तो इन्हें उतरी ध्रुव का बतलाया है । मैक्समूलर ने  आर्यों के मूल स्थान को मध्य एशिया स्थित किया है। गाइस महोदय डेन्यूब नदी के किनारे स्थित हंगरी प्रदेश को आर्यों का मूल स्थान बताया है, जबकि गार्डन चाइल्ड, मेयर और पीक ने आर्यों को दक्षिणी रूस का होना निश्चित किया है। आर्यों के समाज में पुरुष की प्रधानता थी उनके जीवन में घोड़े का सबसे अधिक महत्व था । पालतू घोड़े पहली बार 6000 ईस्वी पूर्व में काला सागर और यूराल पर्वत क्षेत्र म...

पृथ्वीराज रासो की प्रामाणिकता

 चंद्रवरदाई कृत पृथ्वीराज रासो आदिकाल का सर्वाधिक महत्वपूर्ण एवं विशालकाय महाकाव्य है। यह ऐतिहासिक काव्य परंपरा में विवादास्पद है ,जिसमें कवि ने अपने बालसखा एवं आश्रयदाता महाराज पृथ्वीराज तृतीय के जीवन और युद्धों का व्यापक प्रभावपूर्ण और यथार्थ चित्रण 1500 पृष्ठों और 68 सर्गों में किया है। इसमें कुल 1, 00,000 छंद है ।यह ग्रंथ संवाद -शैली में है। कवि की पत्नी प्रश्न करती है और कवि उसका उत्तर देता है। इसमें यज्ञ कुंड से चार क्षत्रीय कुलों की उत्पत्ति तथा चौहानों की अजमेर राज्य स्थापना से लेकर पृथ्वीराज के पकड़े जाने तक का विस्तृत वर्णन है ।ऐसा लगता है कि ग्रंथ का अंतिम भाग चंद के पुत्र जल्हण ने पूर्ण किया था ।पृथ्वीराज रासो की साहित्यिक गरिमा को सभी विद्वानों ने मुक्त कंठ से स्वीकारा है। यह एक सफल महाकाव्य है जिसमें वीर और श्रृंगार दोनों रसों का सुंदर परिपाक हुआ है। कर्नल टॉड ने सर्वप्रथम इस महाकाव्य को प्रामाणिक मानकर और इसकी काव्य गरिमा की मुक्त कंठ से प्रशंसा करते हुए बंगाल एशियाटिक सोसाइटी  से इसका प्रकाशन आरंभ करवाया ।उसी समय डॉक्टर ह्वूलर को कश्मीर की यात्रा करते समय कश्मी...

आदिकाल की प्रवृतियां

 हिंदी साहित्य के इतिहास का समारंभ सामान्यतः सं. 1050 विक्रम से माना जाता है। सं. 1050 से सं.375 विक्रम तक के समय को हिंदी साहित्य के इतिहासकारों ने आदिकाल ,प्रारंभिक काल, उन्मेष काल , बीज वपन काल,सिद्ध- सामंत काल, वीरगाथा काल ,अपभ्रंश काल ,संधि काल ,संक्रमण काल तथा चारण काल नामक कई नामकरण उपबंधों से अभिहित किया गया है। इनमें दो नाम ही अधिक प्रचलित एवं सर्वमान्य रहे हैं। वीरगाथा काल और आदिकाल। इस काल में अधिकतर रासो ग्रंथ विरचित हुए हैं, जैसा कि विजयपाल रासो, हम्मीर रासो, खुमान रासो, विसलदेव रासो, पृथ्वीराज रासो, परमाल रासो इस काल की प्रमुख प्रबंध काव्य रहे हैं। विद्यापति कृत कीर्तिपताका और विद्यापति पदावली का भी इस काल के साहित्य में विशेष महत्व है। इसका समय आदिकाल के बाद का है ।सिद्ध साहित्य, जैन साहित्य और लोक साहित्य इस कालावधि में प्रचुर मात्रा में रचे गए हैं। प्रत्येक साहित्यिक काल की कुछ सामान्य विशेषताएं प्रवृतियां और काव्यगत विशेषताएं होती हैं। डॉक्टर हरीश चंद्र वर्मा ने हिंदी साहित्य का आदिकाल ग्रंथ में इन प्रवृत्तियों को रास एवं रासान्वयी काव्यधारा ,नाथ संत ,वैष्णव ,सूफी...

विद्यापति

 आदिकालीन कवियों में सबसे अधिक विवादास्पद कवि विद्यापति को माना जाता है। इस कवि को आदिकाल में सम्मिलित किया जाए या भक्ति काल में अधिकांश इतिहासकारों में मतैक्य नहीं है। अधिकांश विद्वानों ने आदिकाल की सीमा अवधि 1400 साल तक स्वीकार की है ।जबकि विद्यापति का समय इसके बाद का है। इन्हे अनेक कारणों से भक्ति काल में भी सम्मिलित नहीं किया जा सकता ।इसके मूल में इस कवि का भक्त की अपेक्षा श्रृंगारी होना है ।इस प्रकार यह कवि आदिकाल तथा भक्तिकाल से सर्वथा अलग प्रतीत होता है ।इसकी शृंगारिकता का सम्यक विकास रीतिकाल में हुआ। यही स्थिति इस कवि की भाषा और काव्य रूपों की है ।इन्होंने संस्कृत, अपभ्रंश और मैथिली तीनों भाषाओं में साहित्य रचा है। कीर्तिलता तथा कीर्तिपताका इस कवि की चरित काव्य परंपरा में विशिष्ट रचनाएं हैं। इनकी पदावली का अपना महत्व है। विद्यापति का वंश पंडित विद्वानों का था। वंश परंपरा में विख्यात संत जयदेव हुए हैं। जयदेव के पुत्र गणपति ठाकुर थे, जो अपने समय में संस्कृत के प्रसिद्ध विद्वान थे और मिथिला नरेश के सभा पंडित थे। उन्होंने भक्ति तरंगिणी की रचना की थी । इस भांति विद्यापति का जन्म...