आदिकाल की प्रवृतियां

 हिंदी साहित्य के इतिहास का समारंभ सामान्यतः सं. 1050 विक्रम से माना जाता है। सं. 1050 से सं.375 विक्रम तक के समय को हिंदी साहित्य के इतिहासकारों ने आदिकाल ,प्रारंभिक काल, उन्मेष काल , बीज वपन काल,सिद्ध- सामंत काल, वीरगाथा काल ,अपभ्रंश काल ,संधि काल ,संक्रमण काल तथा चारण काल नामक कई नामकरण उपबंधों से अभिहित किया गया है। इनमें दो नाम ही अधिक प्रचलित एवं सर्वमान्य रहे हैं। वीरगाथा काल और आदिकाल। इस काल में अधिकतर रासो ग्रंथ विरचित हुए हैं, जैसा कि विजयपाल रासो, हम्मीर रासो, खुमान रासो, विसलदेव रासो, पृथ्वीराज रासो, परमाल रासो इस काल की प्रमुख प्रबंध काव्य रहे हैं। विद्यापति कृत कीर्तिपताका और विद्यापति पदावली का भी इस काल के साहित्य में विशेष महत्व है। इसका समय आदिकाल के बाद का है ।सिद्ध साहित्य, जैन साहित्य और लोक साहित्य इस कालावधि में प्रचुर मात्रा में रचे गए हैं। प्रत्येक साहित्यिक काल की कुछ सामान्य विशेषताएं प्रवृतियां और काव्यगत विशेषताएं होती हैं। डॉक्टर हरीश चंद्र वर्मा ने हिंदी साहित्य का आदिकाल ग्रंथ में इन प्रवृत्तियों को रास एवं रासान्वयी काव्यधारा ,नाथ संत ,वैष्णव ,सूफी काव्य धारा और विविध रचनाओं को इन उपशीर्षकों में विभक्त करना चाहा है ।इस काल की प्रवृतियां या यूं कहें की विशेषताओं को निम्न शीर्षकों के अंदर रखकर वर्णित, विवेचित और विश्लेषित किया जा सकता है।

1. वीर रस का प्रधान्य

यह सर्वमान्य है कि इस काल के साहित्य में वीर रस का प्रधान्य  है ।इसलिए इस काल को वीरगाथा काल माना गया है ।इस काल के साहित्य में वीर रस का इतना सुंदर परिपाक हुआ है कि कदाचित्  परवर्ती हिंदी साहित्य में वीर रस का इतना पुष्ट रूप मिलना दुर्लभ है ।सभी रासो ग्रंथ वीर रसात्मक ग्रंथ है। वीर रस के प्रधान्य का कारण यह है कि उस समय युद्धों के बादल चारों ओर मंडरा रहे थे। देश छोटे-छोटे राज्यों के रूप में विभक्त था। इन राज्यों के शासक एक दूसरे पर आक्रमण करते रहते थे। यह युद्ध राज्य विस्तार की लालसा से या फिर एक राजा,दूसरे राजा की सुंदर कन्या या सुंदर रानी को हस्तगत करने के उद्देश्य से परिचालित होते थे। पृथ्वीराज रासो , बीसलदेव रासो आदि ग्रंथों में इन युद्धों का मूल कारण रूपवती स्त्री या या सुंदरियां ही हुआ करती थी। तत्कालीन समाज में बालकों, युवकों ,युवतियों ,वृद्धों में भी एक अदम्य उत्साह और जोश था ।उस समय के लोगों में व्याप्त वीरता का चित्रण इन शब्दों में किया जा सकता है:

"बारस ले कूकर जिए, और तेरह ले जिए सियार ।

बरस अठारह क्षत्रिय जिए,आगे जीवन को धिक्कार।।

ऐसी मानसिक परिस्थितियों वाले तत्कालीन काव्य में वीर रस का सर्वाधिक चित्रण स्वाभाविक ही है ।आदिकाल के कुछ ही वीरकाव्यों में साहित्यिक सौंदर्य मिलता है ,अधिकतर में केवल वर्णन की प्रधानता है। साहित्यिक सौन्दर्य की दृष्टि से पृथ्वीराज रासो विशेष उल्लेखनीय है। इसमें अजमेर और दिल्ली के शासक पृथ्वीराज तृतीय की जीवन गाथा है ।पृथ्वीराज चौहान द्वारा कन्नौज के शासक जयचंद की पुत्री संयोगिता का हरण करके विवाह करने की घटना से जयचंद के साथ उसका मनोमालिन्य बढ़ता है और परिणामस्वरूप शहाबुद्दीन मुहम्मद गौरी जैसी विदेशी शक्तियां भारत में प्रवेश कर जाती हैं। पृथ्वीराज द्वारा 17बार गौरी को परास्त करके छोड़ देने की भूलों का दुष्परिणाम यह होता है की अगली लड़ाई में पृथ्वीराज की पराजय और मृत्यु होती है ।व्यक्तिगत अहंकार देशहित पर किस तरह बलि चढ़ा दी जाती है इस रासो काव्य में उसका भली-भांति चित्रण मिलता है।

पृथ्वीराज रासो सभी काव्य में सर्वाधिक लोकप्रिय हुआ है। इसलिए इसके छोटे-छोटे अनेक रूप मिलते हैं तथा कथानक में अनेक प्रक्षिप्त अंश का समावेश हो गया है ।अन्य रासो ग्रंथों में इतना प्रक्षेप नहीं मिलता ।इन रासो ग्रंथों में वर्णित राजा के नाम के आधार पर नामकरण मिलता है जिससे पता चलता है कि इसमें किस राजा के जीवन और युद्ध का वर्णन है। विजयपाल रासो नाम से भले ही रासो काव्य है पर यह एक प्रेमाख्यान काव्य है और इसमें राजा विजयपाल की प्रेम कथा है।  हम्मीर रासो में राजा हमीर के युद्धों का वर्णन है ।परमाल रासो में परमाल राजा की युद्धों का वर्णन है और इसी का एक अंश अल्हा खंड के रूप में आज भी हिंदी क्षेत्र में ग्राम अंचलों में काफी लोकप्रिय है और ढोलक मंजीरों के साथ इसका गायन और वादन होता है। अन्य अनेक विशेषताओं के रहते हुए इस काल की उल्लेखनीय विशेषता अथवा प्रतिपाद्य विषय वीर रस ही रहा है। पृथ्वीराज रासो से एक उदाहरण दृष्टव्य है:

उट्टि राज प्रिथिराज बाग मनो लग्ग मनो वीर नट। 

कढ़त तेग मनवेग लगत मानो बीजु झट्ट घट।।

2. युद्धों का सजीव चित्रण:

वीरगाथा काव्य में वीर रस के साथ ही कवियों ने युद्ध कौशल की प्रस्तुति अनेक रूपों में की है ।वास्तविकता यह है कि आदिकालीन अधिकांश साहित्य रासो से संबंधित हैं। इसमें कवि का लक्ष्य अपने आश्रयदाता राजा की सूरवीरता तथा पराक्रम को दर्शाना रहा -इसलिए उनके युद्ध कौशल को अतिशय एवं कल्पना के आधार पर प्रस्तुत किया।

युद्धों का चित्रण इस काल के ग्रंथों का मुख्य विषय रहा है और यह वर्णन इतना अधिक सुंदर ,सजीव एवं यथार्थ है कि कदाचित संस्कृत साहित्य भी इस दिशा में इन काव्यों की समकक्षता नहीं कर सकता। रासो ग्रंथों में युद्धों का व्यापक वर्णन दृष्टिगत होते हैं । पृथ्वीराज रासो में पृथ्वीराज, जयचंद , गौरी आदि के युद्धों के दृश्य विशेष रूप से दृष्टव्य है। चंदवरदाई केवल कवि न थे, पृथ्वीराज के सखा और उनके दरबार के सामंत भी थे। अतः उनके पृथ्वीराज रासो में युद्धों का वर्णन अत्यंत यथार्थ बन पड़ा है । केवल चंदवरदाई ही नहीं अपितु सभी चरणों कवियों का युद्ध- चित्रण अत्यंत स्वभाविक है । केवल चंद्रवरदाई ही नहीं सभी चरण कवियों का युद्ध चित्रण अत्यंत स्वाभाविक है।आल्हा और उदल की 52 लड़ाईयों का चित्रांकन हुआ है। इस काल के चरण कभी केवल मासिजीवी ही नहीं थे परंतु करवालग्राही भी थे । वे स्वयं युद्ध स्थलों में जाकर युद्धों को अपनी आंखों से देखते थे और अपने आश्रयदाता को उत्साहित एवं प्रेरित करने के लिए काव्य सृजन करते थे ।इतना ही नहीं , आवश्यकता पड़ने पर वे स्वयं भी कलम फेंक तलवार उठा अपने आश्रयदाता और अपनी मातृभूमि की रक्षार्थ रणभूमि में कूद पड़ते थे। वे कवि होने के साथ-साथ अच्छे योद्धा भी थे। उनका युद्ध ज्ञान व्यवहारिक ज्ञान था इसे युग की विशिष्टता माना जा सकता है।

हिंदी के आदिकाल की वीरगाथाएं सारे हिंदी साहित्य में अपनी सानी नहीं रखती। दोनों ओर  की सेनाओं के एकत्र होने पर युद्ध की साज-सज्जा, बाज तथा आक्रमणकी रीतियों का जैसा वर्णन इस युग के कवियों ने किया है संभवत वैसा परवर्ती कवि नहीं कर पाए । युद्ध का चरमोत्कर्ष तथा रणभूमि की शोभा इन पंक्तियों में दृष्टव्य है:

थकि रहे सूर्य कौतुक गगन, रगन मगन भई सोन घर । 

हरद हरषि वीर जग्गे, हुलसि हुरेऊ रंग नब रत बर।।

 डॉक्टर श्यामसुंदर दास का यह कथन सर्वथा न्यायसंगत प्रतीत होता है कि "इस काल के कवियों का युद्ध वर्णन इतना मार्मिक और सजीव हुआ कि उनके सामने पीछे के कवियों की अनुप्राप्त गर्वित किंतु निर्जीव रचनाएं नकल सी जान पड़ती है ।कर्कश पदावली के बीच वीर भावों से भरी हिंदी के आदि युग की ये कविता सारे हिंदी साहित्य में अपनी समता नहीं रखती।"

3. श्रृंगार रस का प्रतिपादन:

इस काल के काव्य में वीर रस के साथ-साथ श्रृंगार रस का ही सुंदर अंकन हुआ है राजपूत राजा जहां अपने आत्मसम्मान एवं गौरव के रक्षार्थ अपने पराक्रम शौर्य एवं वीरता का परिचय देने हमसे नहीं छुपते थे वहां सुंदर राजकुमारी उससे शादी करने का कोई ना कोई राजा लालायित रहता था इस काल में रचित काव्य ग्रंथों में बड़े दूधों का मूल कारण कोई ना कोई राजकुमारी ही होती थी ऐसी परिस्थिति में तत्कालीन साहित्य में श्रृंगार रस का आनंद आता है स्वभाविक था श्रृंगार के सहयोग और वियोग दोनों पक्षों का वर्णन आदिकालीन साहित्य में उपलब्ध है रातों में संयोग और वियोग श्रृंगार के उदाहरण पर्याप्त मात्रा में दृष्टिगत होते हैं संयोग श्रृंगार में सर्द ऋतु वर्णन रूप सौंदर्य वर्णन अधिकारियों की सुंदर योजनाए पद्मावती की कि वह संधि नख शिख वर्णन आदि काव्य रूढ़ियों का चित्रण अत्यंत सुंदर बन पड़ा है राष्ट्र गथों में वीर और श्रृंगार रस को इकट्ठे देखकर ऐसा लगता है कि राजपूत राजाओं का भी जीवित लव हते लक्ष्मी मृत्यु 24 रंगना ही था।

वीर काव्य में वीर रस मुख्य रूप से आया है और उनके सहायक रसों के रूप में रूद्र विभाग से भयानक आदि भी आवश्यकतानुसार आए हैं सभी रासो काव्य प्रबंध काव्य रचनाएं हैं इसलिए रचनाएं हैं वीर के बाद इसमें श्रृंगार रस के वह महत्व दिया गया है वीरता दिखाने की आवश्यकता भी आए हैं जब किसी राजा ने सुंदरी के लिए किया है जाकी कन्या सुंदर देखी तापीय चाैधरी तरवारा सुंदरी हरण तथा अथवा बलपूर्वक विवाह के कारण हुए युद्धों में इनका लेना दिखाई पड़ता है और दोनों पक्षों में से किसी एक की मृत्यु के बाद ही कथा का अंत होता है विवाह के बाद भोग विलासिता के वर्णन होने चाहिए वरना काव्य का प्रबंधन प्रबंधन पूरा नहीं होता इसलिए इनका खुल दृश्य भी हैं और वियोग श्रृंगार के भी।

4. कल्पना का बाहुल्य तथा ऐतिहासिकता का अभाव

आदिकालीन साहित्य में चारणकाव्य में कल्पना का बाहुल्य है। इस विषय में कवियों की उड़ान काफी दूर तक होती है ।कल्पना के द्वारा इन कवियों ने प्रत्येक वस्तु को रंगीन और अद्भुत बनाने का प्रयास किया है। साधारण से साधारण घटना को कल्पना के बल पर ही असाधारण और चमत्कार पर बना दिया गया है। अपने चरित्र नायकों में गुणों के प्रदर्शन के हेतु भी इन्होंने कल्पना का आश्रय ग्रहण किया है। आश्रयदाताओं की वीरता और युद्ध कौशल में इन कवियों की चाटुकारिता विशेष रही है इसीलिए  ये तथ्य की कल्पना का श्रेय लेते हैं। इसके साथ ही आदिकाल में रचित प्रायः सभी रसात्मक ग्रंथों की प्रामाणिकता संदिग्ध है। अतः इसमें ऐतिहासिकता का अभाव है। इन काव्य ग्रंथों में इतिहास विख्यात चरित्र नायकों को लिया गया है लेकिन उनका वर्णन इतिहास की कसौटी पर खरा नहीं उतरता है। इनके द्वारा दिए गए और घटनाओं से इनका कहीं कोई मेल नहीं है ।इन कवियों में इतिहास की अपेक्षा कल्पना की प्रधानता है। इतिहास के विषय को लेकर चलने वाले कवि में जो सावधानी होनी चाहिए वह इन काव्य निर्माताओं में नहीं दिखाई पड़ती ।ऐतिहासिक दृष्टि से यह सभी संदिग्ध है ।

5. राष्ट्रीयता का अभाव:

आदिकालीन काव्य में राष्ट्रीयता का अभाव है और यह संपूर्ण राष्ट्र का प्रतिनिधित्व नहीं करता ।उस समय देश छोटे-छोटे राज्यों में विभाजित था और राष्ट्रीय भावना का पूर्णतः अभाव था ।राष्ट्रीय शब्द उस समय संपूर्ण भारतवर्ष के लिए नहीं बल्कि अपने अपने प्रदेश एवं राज्य के लिए ही प्रयुक्त होता था। जब तत्कालीन राजाओं ने अपने सौ- पचास गावों को ही राष्ट्र समझ लिया था तो फिर उनके आश्रित कवियों को उन्हीं के पदचिन्हों पर ही चलना था। वस्तुतः यह काल देशी- विदेशी आक्रमणों, छल ,प्रपंच तथा धन विलासिता से युक्त था। चाटुकारिता में राष्ट्रीयता कहीं दब गई थी।

6. आश्रयदाताओं की प्रशंसा:

आदिकाल के अधिकांश कवि राजाओं या सामंतों के आश्रय में रहते थे ।उनको आश्रय तभी तक प्राप्त थे,जब तक वे उनसे प्रसन्न रहे।इसलिए यह स्वाभाविक ही था कि कवि लोग अपने आश्रयदाताओं को प्रसन्न करने के लिए उनका यशोगान करते थे । रासो ग्रंथों में कवियों ने अपने आश्रयदाताओं की धर्मवीरता, दानवीरता, युद्ध- कुशलता, ऐश्वर्य आदि का वर्णन बढ़ा चढ़ाकर ओजस्वी भाषा में किया करते थे ।इस काल के कवियों की दृष्टि अपने चरित नायक की श्रेष्ठता तथा उसके विरोधी राजा की हीनता और चारित्रिक दुर्बलताओं के वर्णन में रहती थी । जीविका  और निश्चित साहित्य साधना के लिए ऐसा करना आवश्यक भी था। वे आश्रित कवि राजा के मित्र हुआ करते थे, इसलिए युद्ध क्षेत्र तक में साथ निभाते थे ।घटनाओं को बदलने और कल्पना के समावेश के कारण इन रासो ग्रंथों की प्रमाणिकता संदिग्ध हो गई है और विद्वानों को वास्तविक स्थिति जानने के लिए काफी कड़ा परिश्रम करना पड़ा है। उस काल का धार्मिक साहित्य अवश्य जन-जीवन के साथ जुड़ा रहा। सिद्ध,नाथ ,जैन आदि धार्मिक वर्गों ने परंपरागत वैराग्य, नैतिकता ,आस्था आदि से प्रेरित होकर भोगविलासी राजाओं और उनके आश्रितों से मुख मोड़े रखा और कभी -कभी उनकी मनोवृतियों तथा जीवन- पद्धति की आलोचना भी की है।

7. हिंदी कविता का प्रारंभिक रूप:

आदिकालीन साहित्य की प्रमाणिकता संदिग्ध होते हुए भी इनके प्रारंभिक काव्य रूप एवं साहित्यिक महत्व को भुलाया नहीं जा सकता। इसका समारंभ कविता से ही हुआ। हिंदी भाषा के आदिमस्वरूप की परिचायक प्रवृतियां कविता में ही मिलती हैं। संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश में गद्य तथा पद्य दोनों में साहित्य लिखने की परंपरा थी,फिर भी हिंदी में केवल पद्य लेखन की परंपरा अपनाने का कारण संभवत यह था कि हिंदी के प्रारंभिक स्वरूप को साहित्य में मान्यता दिलाना आवश्यकता था। लोकभाषा के प्रारंभिक स्वरूप को साहित्य में मान्यता दिला कर ही भाषा विकास की प्रक्रिया को सशक्त किया जा सकता था। इस काल में केवल डिंगल ,ब्रजभाषा ,मैथिली और खड़ी बोली के विकास को कविता द्वारा तीव्रता और मान्यता प्रदान की गई और इन भाषाओं को साहित्यिक रूप दिया गया । आदिकालीन कवियों ने समकालीन शासकों के जीवन और आचरण को कविता में बांधकर भारतीय इतिहास के लिए मूल्यवान सामग्री एकत्र कर दी है। इस एकीकरण में भले ही एक पक्षीयता या अतिरिक्त प्रशंसा का भाव दिखाएं पड़े, किंतु वास्तविकता की परीक्षा अन्य कृतियों से तुलनात्मक अध्ययन करके ही की जा सकती है।

8. सांस्कृतिक महत्व

सांस्कृतिक महत्व के आदिकाल में रचा गया साहित्य अत्यंत महत्वपूर्ण है। संस्कृत, पालि ,प्राकृत और अपभ्रंश ग्रंथों के अतिरिक्त आदिकाल का महत्व हिंदी ग्रंथों के ऐतिहासिक प्रमाण ढूंढने  की दृष्टि से भी है। 19वीं शताब्दी में इस काल के साहित्य इतिहास ने इसी दृष्टि से देश -विदेश के विद्वानों और साहित्येतिहास लेखकों का ध्यान आकर्षित किया ।इस साहित्य को अधिकाधिक प्राचीन सिद्ध करने और उससे ऐतिहासिक सामग्री प्राप्त करने का विद्वानों ने प्रयास किया है। इसके अतिरिक्त भाषा विज्ञान की दृष्टि से भी इस साहित्य का महत्व है। सबसे बढ़कर इस काल के साहित्य का सांस्कृतिक महत्व है। डॉक्टर लक्ष्मीसागर वाष्णेय के शब्दों में "उससे भारत की एक सुदीर्घ सांस्कृतिक परंपरा पर प्रकाश पड़ता है और  तत्कालीन मनुष्य को उसकी आशा -आकांक्षाओं, सफलताओं- दुर्बलताओं  आदि के साथ खड़ा कर देता है" ।जैसा कि गोरखनाथ द्वारा प्रवर्तित संप्रदाय का अध्ययन करने से तत्कालीन अनेक सामाजिक और धार्मिक परिस्थितियों पर प्रकाश पड़ता है ।उस समय के अन्य अनेक धार्मिक संप्रदायों का इतिहास इस दृष्टि से अत्यंत रोचक है। इस प्रकार योगियों, सहजयानियों और तांत्रिकों के ग्रंथों से उलटवासियों का संग्रह किया जा सकता है। सांस्कृतिक अध्ययन की दृष्टि से आदिकालिन साहित्य के अध्ययन से तत्कालीन महान सांस्कृतिक उथल-पुथल का परिचय प्राप्त होता है। 

9. भाषा और प्रबंध काव्य लेखन:

आदिकाल में हिंदी भाषा और साहित्य का उदय हुआ था। आरंभिक काल में किसी भाषा का विकास शैशव अवस्था में होता था, इसलिए उससे यह आशा नहीं की जानी चाहिए कि उसमें प्रौढ साहित्य लिखा जा सकता है। किंतु आदिकाल के डिंगल, पिंगल, मैथिली और खड़ी बोली के साहित्य को देखकर ऐसा नहीं लगता कि यह एक भाषा की तुतलाहट है । डिंगल पर अवश्य अपभ्रंश भाषा की छाया है, पर मैथिली में विद्यापति ने जो रस बरस आया है उसे चखकर भाषा की साहित्यिक प्रौढ़ता का आस्वादन होता है। ब्रजभाषा और खड़ी बोली में खुसरो का साहित्य मिलता है, किंतु उनकी प्राचीनता संदिग्ध है।

इन ग्रंथों में डिंगल और पिंगल मिश्रित राजस्थानी भाषा का प्रयोग हुआ है ।उस समय की साहित्यिक राजस्थानी भाषा को आज के विद्वान डिंगल की संज्ञा देते हैं जो वीरत्व के स्वर के लिए बहुत ही उपयुक्त है । चारण अपनी कविता को बहुत ऊंचे स्वर में पढ़ते थे और यह डिंगल भाषा उसके लिए उपयुक्त थी। उस समय की अपभ्रंश मिश्रित संस्कृत साहित्यिक भाषा पिंगल के नाम से भी अभिहित की जाती थी। मैथिली, ब्रज, खड़ीबोली में केवल मुक्तक काव्य मिलता है जो भाषाओं के उदयकाल में संभावित लगता है, किन्तु डिंगल में छोटे-छोटे अनेक प्रबंध काव्यों की रचना होते देखकर आश्चर्य होता है ।पृथ्वीराज रासो जैसे विशाल महाकाव्य से लेकर परमाल रासो या अल्लाह खंड जैसे खंडकाव्य को देखा जा सकता है । इन रासो काव्य ग्रंथों में साहित्यिक प्रौढ़ता के साथ शिल्पगत प्रौढ़ता के भी दर्शन होते हैं ।उस काल की ऐतिहासिक परिस्थितियों के बीच में प्रबंध काव्य में कथा पात्रों के लचक भरे जीवन को पूरी बारीकी के साथ प्रस्तुत किया गया है। इसमें युद्ध श्रेष्ठता के विविध दृश्य होने के कारण लोकप्रियता के तत्व विद्यमान है। इस काल के ग्रंथों का विशेष महत्व है। भाषा के धरातल पर विद्वानों में मतभेद व्याप्त है। कुछ विद्वानों का यहां तक मानना है कि बीसलदेव रासो तथा पृथ्वीराज रासो अपने मूल रूप में परिणिष्ठित अपभ्रंश में रचित थे ,पिंगल का रूप बाद में आया है। इस प्रकार भाषा और काव्य को लेकर विद्वानों में मतभेद होना स्वाभाविक है। इन रचनाओं की प्रामाणिकता संदिग्ध है। 

10. अलंकार एवं छंद प्रयोग:

वीरकाव्यों में वीर रस की प्रधानता और वीरोचित वर्णन में अतिशयोक्ति की प्रधानता सेअतिशयोक्ति अलंकार का बहुत प्रयोग किया गया है ।उपमा ,रूपक, उत्प्रेक्षा, यमक आदि सभी प्रकार के अलंकारों के उदाहरण इन काव्यों में मिलते हैं। वस्तुतः ये सभी प्रबंध काव्य है, इसलिए प्रायः सभी अलंकारों और छंदों का प्रयोग इसमें मिलता है। छंदों का जितना विविध प्रयोग इस काल के काव्य में हुआ है उतना पूर्ववर्ती साहित्य में नहीं हुआ है ।दोहा, तोटक, तोमर , गाहा, गाथा, आर्या रोजा, कुंडलियां आदि छंदों का प्रयोग बड़ी कलात्मकता के साथ हुआ है। इनका परिवर्तन चमत्कार उत्पन्न करने के लिए नहीं, अपितु अतिशय भाव द्योतन  के लिए किया है । फलतः छंद परिवर्तन में कहीं भी अस्वाभाविकता नहीं आई है। डॉ हजारी प्रसाद द्विवेदी कहते हैं "रासो के छंद जब बदलते हैं  तो श्रोता के चित में प्रसंगानुकूल नवीन कंपन उत्पन्न करते हैं।" अतः कहा  जा सकता है कि आदिकालीन साहित्य अलंकारों और छंदों के प्रयोग में विशिष्टता प्राप्त किए  हैं।

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