विद्यापति

 आदिकालीन कवियों में सबसे अधिक विवादास्पद कवि विद्यापति को माना जाता है। इस कवि को आदिकाल में सम्मिलित किया जाए या भक्ति काल में अधिकांश इतिहासकारों में मतैक्य नहीं है। अधिकांश विद्वानों ने आदिकाल की सीमा अवधि 1400 साल तक स्वीकार की है ।जबकि विद्यापति का समय इसके बाद का है। इन्हे अनेक कारणों से भक्ति काल में भी सम्मिलित नहीं किया जा सकता ।इसके मूल में इस कवि का भक्त की अपेक्षा श्रृंगारी होना है ।इस प्रकार यह कवि आदिकाल तथा भक्तिकाल से सर्वथा अलग प्रतीत होता है ।इसकी शृंगारिकता का सम्यक विकास रीतिकाल में हुआ। यही स्थिति इस कवि की भाषा और काव्य रूपों की है ।इन्होंने संस्कृत, अपभ्रंश और मैथिली तीनों भाषाओं में साहित्य रचा है। कीर्तिलता तथा कीर्तिपताका इस कवि की चरित काव्य परंपरा में विशिष्ट रचनाएं हैं। इनकी पदावली का अपना महत्व है।

विद्यापति का वंश पंडित विद्वानों का था। वंश परंपरा में विख्यात संत जयदेव हुए हैं। जयदेव के पुत्र गणपति ठाकुर थे, जो अपने समय में संस्कृत के प्रसिद्ध विद्वान थे और मिथिला नरेश के सभा पंडित थे। उन्होंने भक्ति तरंगिणी की रचना की थी । इस भांति विद्यापति का जन्म एक ऐसे परिवार में हुआ ,जो अपनी विद्वता एवं बुद्धिमान के लिए प्रसिद्ध था और जिसके  ऊपर सरस्वती तथा लक्ष्मी दोनों कृपालु थी। मिथिला के महाराज शिवसिंह विद्यापति के आश्रयदाता थे। विद्यापति ने अपनी प्रतिभा और विद्वता द्वारा दिल्ली के सम्राट को प्रसन्न करके शिवसिंह महाराज को मुक्त कराया था। महाराज ने इनके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करते हुए इनका यथोचित सम्मान किया। इन्हें अभिनव जयदेव की उपाधि से विभूषित किया और गांव दान- स्वरूप प्रदान किया। विसपी नामक ग्राम में इनका जन्म माना जाता है। जन्म का समय सन 1360 स्वीकार की जाती है तथा मृत्यु 1948-49 में मानी जाती है।

विद्यापति हिंदी के ऐसे कवि हैं, जिन्होंने सम्भवतः सर्वाधिक उपाधियां प्राप्त की थी ।अभिनव जयदेव, दशावधान , कविशेखर , कविकंठहार ,कवि रंजन ,राज पंडित ,लेखन कवि, सरस कवि, कविरत्न ,नवकवि, मैथिली कोकिल प्रभृति  उपाधियों से लोक विश्रुत कवि है ।विद्यापति संस्कृत ,प्राकृत, अपभ्रंश, मैथिली भाषाओं के प्रकांड विद्वान थे ।इन भाषाओं पर उनका  समान अधिकार था । शैव सर्वस्व सार, भूपरिक्रमा ,पुरुष परीक्षा, विभागसार आदि इनके संस्कृत में रचित ग्रंथ है। कीर्तिलता और कीर्तिपताका अवहट्ट में रची गई है, परंतु उन्होंने अनुभव किया कि लोक भाषा में हुई रचना जनमानस के अधिक निकट पहुंच सकती है। अतः उन्होंने लोक भाषा मैथिली में रचना की। विद्यापति की कृति का आधार उनकी लोक भाषा की कृति पदावली है। उनके अनुसार संस्कृत भाषा केवल विद्वानों को अच्छी लगती है और प्राकृत भाषा उस मर्म को प्राप्त नहीं कर पाती । देशी भाषा सबको सुंदर लगती है अतः मैं अवहट्ट में काव्य रचना करता हूं ।लोकभाषा में रचना करने पर कवि को गौरव का अनुभव प्रतीत होता है। इनकी लोक भाषा की कृतियां कृतिलता कृति पताका और पदावली इतनी लोकप्रिय हुई कि बांग्ला, मैथिली और हिंदी के विद्वान उन्हें अपनी भाषा की कृतियां मानने लगे हैं, इससे इस विवादास्पद कवि का महत्व स्वयं स्पष्ट हो जाता है।

विद्यापति के ग्रंथों के अध्ययन से यह ज्ञात होता है कि वह बहुमुखी प्रतिभा के धनी व्यक्ति थे। अनेक विषयों पर उनके ज्ञान का अधिकार था। भूगोल ,इतिहास ,नीति ,व्यवहारिक ज्ञान और अर्थशास्त्र आदि की उन्हें जानकारी थी । विद्यापति के काव्य में वीरता, भक्ति ,श्रृंगार और नीति की प्रवृतियां आदि एक साथ दृष्टिगोचर होती हैं। पदावली में इन्होंने गीत गोविंद की परंपरा को अपनाया है ।राधा और कृष्ण को नायिका के रूप में चित्रित किया है। कुछ पद भक्ति संबंधी भी है ।भक्ति के पदों में शिव और दुर्गा की स्तुति की गई है। कुछ अंशों में समाज की परिस्थिति की ओर संकेत किए गए है।

पदावली के अतिरिक्त कृतिलता का भी विशेष महत्व है। इसमें कवि ने अपने चरित्र नायक कीर्तिसिंह सेंगर की वीरता आदि की प्रशंसा करते हुए कहीं भी ऐतिहासिक तथ्यों की अवहेलना नहीं की है। इसमें कहीं-कहीं गद्य की भाषा भी प्रयुक्त हुआ है। इसलिए कुछ विद्वान इस रचना को चंपू स्वीकार करते हैं। तत्कालीन मिथिला भाषा का भी इसमें प्रयोग हुआ है। इस रचना की भाषा के संबंध में डॉ राम अवध द्ववेदी लिखते हैं कि "कृतिलता की भाषा परिनिष्ठित अपभ्रंश है किंतु उसमें कुछ-कुछ मैथिली का भी मिश्रण है। गद्य और पद्य दोनों ही काम में लाए गए हैं ।अतः यह एक रचना केवल कविता में लिखे हुए अपभ्रंश चरित काव्यों से कुछ भिन्न हैं। समसामयिक इतिहास के अध्ययन के लिए कीर्तिलता में विश्वसनीय सामग्री मिलती है। इसे आदिकाल की प्रमाणिक रचना माना जा सकता है। कीर्ति पताका की रचना भी अपभ्रंश में हुई है और उसमें चरित्र काव्यों की प्राचीन परिपाटी का अपेक्षाकृत अधिक निर्वाह हुआ है। कीर्तिपताका में राजा शिव सिंह एवं कुछ मुस्लिम आक्रमणकारियों के युद्ध का वर्णन ओजस्वी शैली में किया गया है।

डॉक्टर ग्रियर्सन आदि विद्वान विद्यापति को भक्त कवि मानते आ रहे हैं। डॉक्टर ग्रियर्सन ने तो यहां तक कह दिया कि जितनी ऑकुलता पदावली के विरह पदों में मिलती है, वह केवल जीवात्मा- परमात्मा को पाने में ही हो सकती है। परंतु वास्तव में वे भक्त ना होकर श्रृंगारी कवि ही है ।पदावली के अध्ययन से पता चलता है कि बहुत थोड़े पद भक्तिपरक हैं। एक बहुत बड़ी संख्या श्रृंगार प्रधान पदों की ही है। श्रृंगार में कवि ने संयोग और वियोग दोनों का चित्रण किया है। लोकगीतों की सरलता, स्वाभाविकता, स्वच्छंदता इनके गीतों में स्पष्ट है। हिंदी साहित्य में इस कवि की विशिष्टता अनेक धरातलों पर मान्य है।


Comments

Popular posts from this blog

प्रख्यात आलोचक हजारी प्रसाद द्विवेदी

साम्प्रदायिकता का उद्भव एवं विकास

ब्रिटिश राज के अन्तर्गत स्त्री-शिक्षा