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भारतेंदुकालीन भारत में महिलाओं की दशा एवं दिशा

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परम्परागत दृष्टि से स्त्री के प्रति व्यवस्था का रवैया निश्चित मानदडों एवं आदर्शां के नियत व्यवहारों से संचालित होता रहा है, जिसमें स्त्री को तय कर दी गई भूमिका में निर्धारित आचार-संहिता के अनुसार जीना है, जिनके निर्धारण का अधिकार शताब्दियों से पुरुषों ने अपने पास सुरक्षित रखा है। समय के बदलते तापमान में, बदलते सामाजिक संदर्भां में अपनी अधीनस्थ की भूमिका, शोषण, असमानता से मुक्ति के प्रयत्न एवं दोहरे मानदण्डों के बीच अपनी बदलती सामाजिक भूमिका के बावजूद स्त्री अस्मिता का प्रश्न जटिल से जटिलतर होता गया है। उसकी अधीनता की भूमिका असमानता को जन्म देती है, और शोषण के अवसर को व्यापक बना देती है। मानव विकासक्रम में यह ऐतिहासिक तथ्य सर्वोपरि है कि आदिम युग से लेकर आधुनिक काल तक परस्पर विरोधी वर्गोंवाली सभी सामाजिक संस्थाओं के समाज और परिवार में महिलाओं की स्थिति मातहत की रही है। समाज सदैव पुरुषों का रहा है, राजनीतिक सत्ता हमेशा पुरुषों के हाथ में रही है तथा स्त्री हमेशा अलगाव में रही है। सता सम्पत्तियोंऔर संतान से च्यूत स्त्री ‘वस्तु’ मात्र बनकर रह गई है। कभी उसे दैवी शक्ति प्रदान कर स

भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की सामाजिक चेतना

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भारतेन्दु एक ओर परम्परागत भारतीय समाज की मध्यकालीन अवस्था की उपज थे तो दूसरी ओर परम्परा और मध्यकालीनता की सीमाओं को तोड़कर अपने अनुकूल एक आधुनिक समाज की कल्पना भी एक रहे थे। सामाजिक चेतना जगाने की दृष्टि से भारतेन्दु कबीर के परवर्ती रहे है। देनों ने क्रांति की चेतना जगाई, अपने युग के समाज में व्याप्त पाखण्ड, दुराचार तथा कुरीतियों पर जबरदस्त प्रहार कर उन्हें मिटाने की प्रबल चेष्टा की। आचार्य शुक्ल ने सही अर्थों में भारतेन्दु को नए युग का प्रवर्तक कहा है। शुक्लजी के अनुसार ‘‘उन्होंने हमारे जीवन के साथ हमारे साहित्य को फिर से लगा दिया। बडे़ भारी विच्छेद से उन्होंने हमें बचाया। उन्होनें पहली बार हिन्दी साहित्य को सामाजिक चेतना की ऐतिहासिक अनिवार्यता एवं अनुरूपता प्रदान की। साहित्य के आनन्दवादी दृष्टिकोण को सामाजिक उपयोगिता के दृष्टिकोण से जोड़ा।1’’ भारतेन्दु का युगान्तकारी महत्त्व है कि उन्होंने अपने प्रदेष की सांस्कृतिक आवष्यकताओं को पहचाना। साहित्यिक हिन्दी को सँवारा, साहित्य के साथ हिन्दी के नये आन्दोलन को जन्म दिया, हिन्दी साहित्य में राष्ट्रीय एवं जनवादी तत्वों को प्रतिष्ठित किया।

भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की भूमिका

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भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की भूमिका भारत का राष्ट्रीय आन्दोलन ब्रिटिश- भारतीय मुठभेड़ का परिणाम था। इसका जन्म पारम्परिक देषभक्ति से हुआ, जो भूमि, भाषा और पंथ से लगाव की एक सामाजिक स्तर पर सक्रिय भावना थी।1 किसी भी गुलाम देष में राष्ट्रीय चेतना नवजागरण के विकास का अगला चरण हुआ करती है। भारत में स्वतंत्रता संघर्ष की भावना अंग्रेजी साम्राज्यवाद के दवाब से ही पनपी थी। अंग्रेजी शोषण के अखिल भारतीय स्वरूप के खिलाफ अखिल भारतीय प्रतिक्रिया के रूप में राष्ट्रीय चेतना विकसित हुई थी। बढ़ते नस्ली तनाव, धर्मान्तरण के डर और बेंथमवादी प्रषासकों के सुधारवादी उत्साह ने पढे़-लिखे भारतवासियों को मजबूर कर दिया कि वे ठहरकर अपनी संस्कृति पर एक नजर डालें। वरनार्ड कोहन ने इसे ‘संस्कृति का मूर्त्तन’ कहा है, जिससे षिक्षित भारतवासियों ने अपनी संस्कृति को ऐसी ठोस इकाई के रूप में निरूपित किया, जिसका आसानी से उद्धरण दिया जा सके, तुलना की जा सके और खास उद्देष्यों के लिए उपयोग किया जा सके। यह नई सांस्कृति परियोजना, जिसने अपने आपको अंषतः उन्नीसवीं शताब्दी के सामाजिक और धार्मिक सुधारों के

महिला सशक्तिकरण पर लेख:

स्त्रियों की दासता और दोयम दर्जे की सामाजिक स्थिति का प्राचीन काल में साहसिक एवं तर्कपूर्ण प्रतिवाद किया गया था। मध्यकाल की शताब्दियों के लम्बे गतिरोध के दौर में स्त्री मुक्ति की वैचारिक पीठिका तैयार करने की दिशा में उद्यम लगभग रुके रहे और प्रतिरोध की धारा भी अत्यंत क्षीण रही। आधुनिक विश्व - इतिहास की ब्रह्मवेला में पुनर्जागरण काल के मानवतावाद और धर्मसुधार आन्दोलनों ने पितृसŸात्मकता की दारुण दासता के विरुद्ध स्त्री समुदाय में भी नई चेतना के बीज बोये जिनका प्रस्फुटन प्रबोधन काल में हुआ। जो देश औपनिवेशिक गुलामी के नीचे दबे होने के कारण मानवतावाद और तर्क बुद्धिवाद के नवोन्मेष से अप्रभावित रहे और  जहाँ इतिहास की गति कुछ विलम्बित रही, वहॉँ भी राष्ट्रीय जागरण और मुक्ति संघर्ष के काल में स्त्री समुदाय में अपनी मुक्ति की नई चेतना संचारित हुई। हालाँकि उनकी अपनी इतिहासजनित विशिष्ट कमजोरियाँॅ थीं जो आज भी बनी हुई है और इन उŸार औपनिवेशिक समाजों में स्त्री आन्दोलन के वैचारिक सबलता और व्यापक आधार देने का काम किसी एक प्रबल वेगवाही सामाजिक झंझावात को आमंत्रण देने के दौरान ही पूरा किया जा सकता है।

महिला सशक्तिकरण:सामाजिक द्वंद्व

महिला सशक्तिकरण एवं सामाजिक द्वन्द्व  19वीं शताब्दी महिलाओं की शताब्दी के रूप में उभर कर सामने आई।  यह वह दौर था जब सम्पूर्ण विश्व में महिलाओं की अच्छाई-बुराई, प्रकृति, क्षमताएँ एवं उर्वरा को लेकर गर्मागर्म बहसें चल रही थी। स्त्री की ‘स्थिति‘ पुनः व्याख्यायित हुई। भारतीय मानस पर यूरोप के स्वतंत्रता, तार्किकता और मानवीयता के विचार के सहवŸार् प्रभाव ने एक खुलापन प्रारम्भ किया एवं अन्य प्रश्नों के साथ ही स्त्री-प्रश्नों को विचार के केन्द्र में रखा गया। इन प्रश्नों पर अंग्रेज व भारतीय समाज सुधारकों दोनों ने विचार किया। जहाँ प्रारम्भ में तटस्थ अंग्रेजों के लिए ये प्रश्न स्त्रियों की दयनीय स्थिति में औपनिवेशिक राज्य के संरक्षण एवं दखल की आवश्यकता से जन्में थे, औपनिवेशिक विचारधारा के निर्णायक औजार बन गये थे, वहीं भारतीय बुद्विजीवियों ने दोहरे मूल्यबोधों के साथ इस विषय पर विचार किया। एक ओर प्राचीन युग में प्रासांगिक मूल्य खोजने की मुहिम चली तो दूसरी ओर पाश्चात्य प्रभाव के प्रकाश में आए नये विचारां ने उन्हें उद्वेलित किया। मूल्यों की टकराहट से अनिश्चय की स्थिति पैदा हुई।1 भारतीय सुधारक पूर्