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शंकराचार्य : विचार एवं दर्शन

बौद्धिक स्तर पर बुद्ध के चिंतन की जड़े हिलानेवाले मध्ययुगीन संतों एवं विचारकों में शंकराचार्य अग्रगण्य थे।इस काल में दार्शनिक ज्ञानमार्गियों में सबसे अधिक ख्याति शंकराचार्य को ही प्राप्त हुई थी।बौद्धों का प्रभाव घटाने तथा वेदों-ब्राह्मणों की   महत्ता को स्थापित करने के लिए शंकराचार्य ने अपने आध्यात्मिक चिंतन में अद्वैतवाद के सिद्धांत पर जोर दिया। ज्ञान मार्ग के साथ-साथ शंकर ने निर्गुण ब्रह्म की उपासना का भी प्रचार किया।साथ ही साथ ईश्वर को शिव का स्वरूप देकर  जनसाधारण के लिए शैव उपासना और पंडितों के लिए ज्ञान मार्ग के द्वारा एकेश्वरवाद का मार्ग प्रशस्त किया।शंकराचार्य का जन्म उत्तरी त्रावणकोर में अलवाय नदी के तट पर कलाड के नाम्बुदरी ब्राह्मण के घर 788 ई.में हुआ था। बहुत छोटी उम्र में ही पिता का देहांत हो गया था।उसी समय से शंकराचार्य सन्यासी हो गए।गौडपाद के शिष्य गोविन्द योगी उनको दीक्षा दी थी।अपनी छोटी सी जिंदगी में ही उन्होंने सम्पूर्ण भारत का भ्रमण किया और कठोर रूप से संगतिपूर्ण ब्रह्मवाद के अपने नए दर्शन का प्रचार किया। शंकराचार्य ने शास्त्रार्थ और वाद-विवाद में अपनी बुद्धि की प्रखर

आरंभिक हिन्दी

आरम्भिक हिन्दी से मतलब है,अपभ्रंश एवं अवहट्ट के बाद और खड़ी बोली के साथ हिन्दी के मानक रूप स्थिर एवं प्रचलित होने से पूर्व की अवस्था।आरम्भिक हिन्दी का फलक कई दृष्टियों से व्यापक एवं विविधतामूलक है।शुरू में हिन्दी भाषा समुच्चय के लिए प्रयुक्त होती थी।13वीं-14वीं शती में देशी भाषा को हिन्दी या हिंदवी नाम देने में अबुल हसन या अमीर खुसरो का नाम उल्लेखनीय है।15वीं-16वीं शती में देशी भाषा के समर्थन में जायसी का कथन है-"तुर्की,अरबी,हिंदवी भाषा जेति अहिं;जामे मरण प्रेम का,सवै सराहै ताहिं।"यह द्रष्टव्य है कि जायसी की कविता की भाषा अवधी है और खुसरो की देशी भाषा देहलवी।इससे स्पष्ट होता है कि उन दिनों दिल्ली के आस-पास से लेकर अवध तक के प्रांत की देशी भाषा को हिन्दी या हिंदवी नाम से अभिहित किया जाता था।दक्खिनी हिन्दी के लेखकों ने अपनी भाषा को हिन्दी या हिंदवी ही कहा है।इससे अलग भारतीय परम्परा से सम्बंधित कवि संस्कृत आदि भाषाओं की तुलना में देशी भाषा के लिए केवल भाषा या भाखा का प्रयोग करते है;जैसे      'संस्कृत है कूपजल,भाषा बहता नीर'-कबीर      'का भाखा का संस्कृत,प्रेम चाहिए

नौसेना का विद्रोह 1946

द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद शाही भारतीय नौसेना का विद्रोह संभवतः सबसे सीधा और साम्राज्य विरोधी टकराव था।ये भारतीय नौसैनिक विभिन्न देशों में प्रस्थापित होने के क्रम में शेष विश्व से भलीभांति परिचय प्राप्त कर चुके थे,अपने आला अधिकारियों के नस्लभेदी,अहंकारवादी प्रवृति को बर्दास्त नहीं कर पा रहे थे।इसके अतिरिक्त जनसाधारण से अलग-थलग रहते हुए भी देश में व्याप्त अशांति ;खासकर आज़ाद हिन्द फौज के सिपाहियों के विरुद्ध चल रहे मुकदमें के प्रति पूर्णतः सजग थे।उनके अंदर धीरे -धीरे जल रहा लावा अचानक उस भोजन को लेकर प्रस्फुटित हो गया जो उन्हें वर्षों से दिया ज रहा था।18फ़रवरी 1946 को बम्बई बंदरगाह में नौसैनिक प्रशिक्षण पोत 'तलवार'पर पदस्थापित नाविक खराब भोजन और नस्लवादी बर्ताव के विरोध में भूख हड़ताल पर बैठ गए ।अगले दिन उस क्षेत्र में लंगर डाले 22 अन्य जहाज इस हड़ताल में शामिल हो गए और तुरंत ही यह विरोध प्रदर्शन समुद्र तट पर कैसल और फोर्ट की बैरकों तक फाइल गया।विरोधी बेड़ों के मस्तूलों पर तिरंगे(कांग्रेस)चाँद(मुस्लिम लीग)तथा हंसिया-हथोड़े(कम्युनिस्ट पार्टी)के निशान वाले झंडे लगाकर अपनी एकजुटता का प्र

प्रख्यात आलोचक हजारी प्रसाद द्विवेदी

हजारी प्रसाद द्विवेदी का आलोचक व्यक्तित्व अन्य आलोचकों की तुलना में इसलिए विशिष्ट हो जाता है कि उनमें एक ओर आचार्यत्व की गरीमा है तो दूसरी ओर गहरी सृजनात्मक ऊर्जा।चिंतन एवं भावुकता का यह दुर्लभ संयोग बिरले लेखकों में दिखाई देता है।उनका आलोचक व्यक्तित्व मूलतः एक सर्जनात्मक व्यक्तित्व है जो अत्यंत जीवंत,सरस एवं गतिशील है।उनमें जो भाव प्रवणता एवं भावोच्छवास है वह सम्भवतः रवीन्द्रनाथ टैगोर से प्रभावित है।जिसके कारण आलोचक द्विवेदीजी को विशुद्ध आलोचक नहीं मानते है।हजारी प्रसाद द्विवेदी जी की दृष्टि मुख्यतः शोधपरक तथा ऐतिहासिक-सांस्कृतिक है।यह उनकी आलोचना को क्षतिग्रस्त नहीं करती बरन उसे और भी अर्थवान एवं महत्वपूर्ण बनाती है।इनमें एक रचनात्मक संलग्नता है;जिसके कारण वे बड़ी तन्मयता एवं सहृदयता के साथ किसी कवि का मूल्यांकन करते थे।वे साहित्य को या साहित्यकार को एक व्यापक ऐतिहासिक-सांस्कृतिक परिदृश्य में रखकर,उस समय के धर्म,राजनीति और लोक जीवन के साथ रखकर उसका विश्लेषण-मूल्यांकन करते थे।द्विवेदीजी की दृष्टि शोधपरक थी,पर वे पुरानी पोथियों और शास्त्रों तक ही सीमित नहीं रहते थे और न उनकी व्याख्या म

प्राकृत भाषा और उसकी विशेषतायें

प्राचीन भारतीय आर्यभाषा काल में जनभाषा पर आधारित वैदिक एवं लौकिक संस्कृत भाषा के दो रूप साहित्य में प्रयुक्त होते थे।दूसरे रूप यानी लौकिक संस्कृत को पाणिनि ने व्याकरणिक संरचना में व्यवस्थित कर उसे सद के लिए मानक रूप प्रदान कर दिया।लेकिन जनभाषा ने इस व्याकरणिक बन्धन को अस्वीकार कर अबाध गति से परिवर्तित होती रही उऔर विकसित होती रही।जनभाषा के इस मध्यकालीन स्वरूप को ही प्राकृत की संज्ञा दी गयी।विद्वानों ने इसका काल निर्धारण करते हुए इसके काल को 500बी.सी.1000ए.डी.बताया है।मोटे तौर पर इन 1500 वर्षों कु प्राकृत भाषा को तीन कालखण्डों में विभाजित किया ज सकता है-1.प्रथम प्राकृत 500 BC से 1 AD तक;जिसमें पालि और अभिलेखी प्राकृत शामिल है। 2.द्वितीय प्राकृत ,1AD से 500AD तक और 3.तृतीय प्राकृत,500AD से 1000AD तक जो अपने मूलरूप में अपभ्रंश है। इसप्रकार प्राकृत जनभाषा के रूप में वैदिक संस्कृत युग में थी,मध्यकाल में इसका एकछत्र साम्राज्य था तथा आधुनिक युग में भी यह विद्यमान थी।कालक्रम में साहित्यिक और संपर्क भाषा के रूप में प्रतिष्ठित होनेवाली होनेवाली प्राकृतों की संज्ञा भी बदलती रही।प्राकृत शब्द अलंक

सिंधुघाटी सभ्यता की भौतिक विशेषता

सिंधुघाटी सभ्यता का भौगलिक विस्तार सिंध से प्रारम्भ होकर दक्षिण और दक्षिण - पश्चिम में हुआ है।हड़प्पा सभ्यता के अवशेष जिस भौगोलिक क्षेत्र में पाये गए है;वह सम्पूर्ण क्षेत्र त्रिभुज के आकार का है तथा भौतिक अवशेषों में अद्भुत साम्य है। इस सभ्यता का कोई भी समुदाय चाहें वह राजस्थान में रहता हो या पंजाब या महाराष्ट्र या सिंध में बॉट, माप-तौल के सामान एक ही प्रकार का इस्तेमाल करते थे।उनकी लिपि एक थी,ताँबे और कांसे से निर्मित औजारों के आकार-प्रकार समान थे।उनके कुछ नगरों में बनीं इमारतों, किलों आदि की बनावटों में एकरूपताएँ थीं। ईंटों का अनुपात 4:2:1 था। इनकी वस्तीयों की पहचान इनके गुलाबी रंग के बरत्तनों से होती है जिस पर काले रंग से पेड़ एवं पशु-पक्षियों के चित्र बने होते थे साथ ही उन पर ज्यामिति के चित्र भी अंकित होते थे। हड़प्पा,मोहनजोदड़ और कालीबंगां के रक्षा प्राचीर समलम्ब चतुर्भुज के समान थे। मोहनजोदड़ो से पक्की ईंटों और लोथल,रंगपुर तथा कालीबंगां से कच्ची ईंटों के प्रयोग का साक्ष्य मिला है।मोहनजोदड़ो से पशुपति शिव की एक मुहर मिली है जिसकी पहचान आदिशिव के रूप में गयी है।यह शिव ही हड़प्पा सभ्यत

बिहार पंचायतीराज अधिनियम 1993

सत्ता के विकेंद्रीकरण को तीसरी सरकार के रूप में पंचायतों में केन्द्रीभूत करने के उद्देश्य से 23 अप्रैल 1993 को संविधान के 73वें संशोधन किया गया।इसके पीछे यह मंशा कायम थी कि सत्ता के श्रोत को निचले स्तर तक ले जाया जाय और जनता की इच्छाओं एवं अपेक्षाओं के अनुरूप विकास का मॉडल स्थापित किया जाय जिसमें जनता की सम्पूर्ण भागीदारी सुनिश्चित हो।इसी संविधानिक प्रावधानों के अनुरूप बिहार पंचायती राज अधिनियम,1993 पारित किया गया।इसके अंतर्गत बिहार में त्रिस्तरीय पंचायती राज के गठन का प्रावधान है।सबसे निचले स्तर पर ग्राम पंचायतों का गठन होता है।प्रखण्ड स्तर पर पंचायत समितियाँ गठित की जाती है,यह मध्य स्तर कही जाती है।सबसे ऊपरी स्तर पर जिला परिषदों का गठन होता है।बिहार पंचायती राज अधिनियम के अंतर्गत कुछ अनिवार्य एवं कुछ ऐच्छिक प्रावधान रखे गए है। ग्राम सभा :-73वें सविधान संशोधन अधिनियम के अंतर्गत ग्राम सभा का गठन सभी राज्यों के लिए अनिवार्य बनाया गया है।इसे विकेन्द्रित प्रशासन के सबसे निचले स्तर पर सभी स्थानीय गतिविधियों के केंद्र बिंदु के रूप में प्रतिस्थापित किया गया है।बिहार में ग्राम सभा की साल म