भारत में महिला सशक्तिकरण का विकास
स्त्री जीवन का संघर्ष
कई शताब्दियों से गुजरते हुए मानव समाज, विकास के उच्चŸार बिन्दु को प्राप्त किया है, अनेक संघर्ष के अनुभव को लेकर मानव समाज आगे बढ़ा है। वैज्ञानिक विश्लेषण के सामने पुरातनपंथी संस्कार कदम-कदम पर धाराशाई हुए है। वर्ग-विभेद, जातीय-विद्वेष एवं स्त्री-पुरूष के बीच विभाजन प्रकृति का कोई शाश्वत नियम नहीं है, जो अनादि काल तक अनवरत एवं अबाधित ढ़ंग से चलता रहेगा। ऐतिहासिक रूप से दृष्टिगत होता है कि इसके विरूद्ध एक साथ संघर्ष चल रहे है। किसी भी कालखण्ड में महिलाओं की भूमिका बदलती रही है, कभी केन्द्र में, तो कभी परिधि में। सशक्तिकरण के इस दौर में वह हाशिए पर खड़ी नहीं रह सकती, भरपूर उर्जा और गरिमा के साथ छलांग लगा रही है। घर की चाहरदीवारी अब पृष्ठभूमि में चली गई है। खिड़की से निकल वह विस्तृत फलक पर उड़ान भरने को दस्तक दे रही है। कहीं धमक के साथ यह परिवŸार्न दीख रहा है, तो कहीं मौन क्रांति के साथ सबकुछ चुपचाप बदल रहा है। विश्व के प्रगतिशील देशों की राजनीतिक, सामाजिक एवं आर्थिक प्रगति इस बात का प्रमाण है कि किसी भी देश की वांछित प्रगति के लिए उस देश की महिलाओं की भागीदारी आवश्यक एवं महत्वपूर्ण है। कोई भी देश कितना लोकतांत्रिक है और कितना विकसित है, इस बात पर निर्भर करता है कि उस देश की महिलाओं की स्थिति क्या है? उनकी तरक्की से ही देश का भविष्य एवं वŸार्मान तय होता है। उनके संघर्ष को इतिहास में स्थान मिलनी ही चाहिए, उनकी कोशिशों को आवाज मिलनी चाहिए, तभी सही मायने में समाज आगे बढ़ेगा।1 भारत सहित पूरे विश्व में महिला सशक्तिकरण नामक शब्दावली का प्रयोग काफी जोर-शोर से किया जा रहा है। भारत के संदर्भ मे पचास के दशक से ही महिला कल्याण, महिलाओं की समानता एवं महिला अधिकारिता की अनुगूँज सुनाई पड़ने लगी थी। महिला सशक्तिकरण नामक शब्दावली पहले से प्रयुक्त शब्दावली की तुलना में कहीं अधिक सशक्त एवं सारगर्भित है, क्योंकि इसमें अधिकारों एवं शक्तियों का समवेत् रूप से विकास परिलक्षित होता है। महिला सशक्तिकरण का तात्पर्य एक ऐसी सामाजिक प्रक्रिया से है जिसमें महिलाओं के लिए सर्वसम्पन्न और विकसित होने हेतु संभावनाआें के द्वार खुले, नये विकल्प तैयार हो, तथा प्रतिभाओं के विकास हेतु संभावनाआें के पर्याप्त अवसर प्राप्त हो। यूनाइटेड नेशंस हाई कमिश्नर फॉर ह्यूमन राइट्स ने लिखा है कि ‘यह औरतों को शक्ति, क्षमता और काबिलियत देता है ताकि वे अपने जीवन-स्तर को सुधार कर अपने जीवन की दिशा को स्वयं निर्धारित कर सके।’ यह वह प्रक्रिया है जो महिलाओं को सत्ता की कार्यशैली समझने की शक्ति देता है ताकि वे सŸा के श्रोतों पर नियंत्रण कर सके। वास्तव में सशक्तिकरण एक राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक एवं मानसिक प्रक्रिया है जिसके लिए समाज में आवश्यक कानूनों, सुरक्षात्मक प्रावधानों एवं उनके भली-भाँति क्रियान्वयन हेतु एक सक्षम प्राधिकार का होना आवश्यक है। कैम्ब्रिज शब्दकोष ने सशक्तिकरण को ‘प्राधिकृत‘ करने के रूप में परिभाषित किया है। सशक्तिकरण की बात समाज के कमजोर वर्ग के लिए की जाती है। जिसमें गरीब, महिलायें, समाज के अत्यंत दलित एवं पिछड़े वर्ग के लोग सम्मिलित है। औरतों को सशक्त बनाने का तात्पर्य है, संसाधनों पर उनका नियंत्रण स्थापित करना , ताकि वे अपने जीवन के विषय में निर्णय ले सके या दूसरां के द्वारा स्वयं के विषय में लिए गये निर्णयों को प्रभावित कर सके। एक व्यक्ति सशक्त तभी कहा जा सकता है, जब उसका समाज के एक बड़े हिस्से के शक्ति संसाधन पर स्वामित्व होता है। वह संसाधन कई रूपों में हो सकता है, निजी सम्पिŸा, शिक्षा, सूचना, ज्ञान, पद, सामाजिक प्रतिष्ठा, नेतृत्व तथा प्रभाव। जाहिरा तौर पर जो अशक्त है, उसे ही सशक्त करने की आवश्यकता है और यह एक ध्रुवसत्य है कि पुरातनकाल से भारतीय समाज में महिलायें बहुत पिछड़ी अवस्था में थी और अब भी अधिकांश महिलायें पिछली कतार में ही खड़ी है। नारी सशक्तिकरण नारीवाद से भिन्न अवधारणा है। दोनां एक दूसरे से भिन्न होते हुए भी परस्पर विरोधी प्रवृŸा नहीं अपनाते। नारीवाद एक दर्शन है, जिसका उद्देश्य समाज में नारी की विशेष स्थिति के कारणों का पता लगाना और उसकी बेहतरी के लिए वैकल्पिक समाधान प्रस्तुत करना है। जबकि सशक्तिकरण एक आन्दोलन है, एक कार्य-योजना है, एक सतत् प्रक्रिया है जिसे मुख्यतः सरकार, सामाजिक कार्यकŸार् एवं गैर सरकारी संगठन करते है। नारीवाद परिस्थितियों के बारे में बताता है और उस दिशा में प्रयास करने का कार्य नारी सशक्तिकरण करता है। नारीवाद राजनैतिक आन्दोलन का सामाजिक सिद्धान्त है, जो स्त्रियों के अनुभवों से जनित है। सशक्तिकरण का उद्द्ेश्य लेंगिक असमानता की प्रकृति एवं कारणों को समझना तथा इसके फलस्वरूप पैदा होनेवाले लैंगिक भेदभाव की राजनीति एवं शक्ति संतुलन के सिद्धान्तों पर इसके असर की व्याख्या करना है। वास्तव में नारी सशक्तिकरण का उद्देश्य नारी के प्रति होने वाले शोषण के खिलाफ संघर्ष है। नारी के शोषण के सूत्र जहाँ एक तरफ गलत ढंग से सामाजिककरण से जुड़ते है, वहीं दूसरी तरफ प्रजनन व यौन’-सम्बन्धी शोषण से भी। तुलनात्मक व्यवस्था और आर्थिक परावलम्बन स्त्री के शोषण को और गहरा करते है। स्त्री अस्मिता की लड़ाई आधी दुनियाँ को मनुष्य का दर्जा दिलाने की लड़ाई है। स्त्री सबलीकरण उसे स्त्री के आवरण से बाहर आकर मनुष्यत्व की दिशा में अग्रसर होने के लिए प्रेरित करता है।इतिहास की यह सच्चाई निविर्वाद है कि परस्पर विरोधी वर्गांवाली सभी सामाजिक संरचनाओं में, समाज एवं परिवार में, स्त्री की स्थिति मातहत की रही है, और इसे धर्म की स्वीकृति प्राप्त रही है। यह भी इतिहास का एक तथ्य है कि पूँजीवादी उत्पादन प्रणाली में ऐसी स्थितियाँ पैदा की गई है कि सामाजिक उत्पादन में स्त्री-मजदूरों और अन्य नौकरीपेशा स्त्रियों की भागीदारी बढ़ती चली गई, लेकिन उनकी श्रमशक्ति सबसे सस्ती थी और उनकी पहले से कायम घरेलू गुलामी भी बरकरार थी। इस बुनियाद पर यौन-भेद, यौन उत्पीड़न तथा लैंगिक आधार पर पार्थक्य, निर्वसन और उपनिवेशन के जटिल सांस्कृतिक-सामाजिक मूल्यों एवं संरथाओं का एक समूचा तंत्र निर्मित-विकसित हुआ है। नारी अस्मिता के प्रश्न को मार्क्सवादियों एवं समाजवादियों ने बडे़ पैमाने पर उठाया एंगेल्स ने परिवार, निजी सम्पिŸा और राज्य की उत्पिŸा‘ नामक अपनी पुस्तक में पहली बार नारी समस्या को एक वैज्ञानिक आधार पर विचार का विषय बनाया था। लम्बे वैज्ञानिक पर्यवेक्षण के बाद एंगेल्स इस निर्ष्कष पर पहुँचे थे कि आधुनिक वैयक्तिक परिवार नारी की प्रत्यक्ष या परोक्ष घरेलू दास्ताँ पर आधारित है। स्त्रियों की मुक्ति की पहली शŸार् यह है कि समस्त नारी जाति पुनः सार्वजनिक उद्यम में प्रवेश करे और इसके लिए आवश्यक है कि समाज की आर्थिक ईकाई होने का वैयक्तिक परिवारिक का गुण नष्ट कर दिया जाय।2 प्रबोधनकाल के विचारकां ने स्त्रियों की उत्पीड़ित स्थिति को मनुष्य के प्राकृतिक अधिकारों का उलंघन माना था। जाँ आँतुआ कोंदोर्स की मान्यता थी कि स्त्रियों के बारें में समाज में मौजूद गहरे पूर्वाग्रह उनकी असमानतापूर्ण सामाजिक स्थिति के मूलभूत कारण है। लेकिन प्रबोधनकाल के दौर में बौद्धिक व्यक्तिवाद ने जिन सिद्धान्तों एवं मानवाधिकारों की बात की गई थी, उन्हें महिलाओं पर लागू नहीं किया जाता था। इसके पीछे तर्क था कि स्त्रियाँ अपनी प्रवृŸा से ही बौद्धिक रूप से पूर्ण विकसित होने में असमर्थ है। वाल्टेयर, दिदरो, मान्टेस्क्यू एवं रूसो जैसे बुद्धिवादी विचारक भी स्त्रियों को मूलतः भावनाओं और आवेगों की उपज समझते थे, जो पत्नियों एवं माताओं के रूप में एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है, लेकिन सार्वजनिक क्षेत्र के लिए सार्वजनिक कारणों से ही वे उपयुक्त नहीं है।3 इसके बावजूद संगठित नारी आन्दोलन की शुरूआत फ्रांसीसी क्रांति के दौरान हुई। यह वहीं समय था जब स्त्री अधिकारों के लिए संघर्ष को समर्पित पहली पत्रिका का प्रकाशन शुरू हुआ था और वीमेन्स रिवोल्यूशनरी क्लबों का गठन हुआ था जो संभवतः आधुनिक विश्व इतिहास का प्रथम स्त्री - संगठन था। नागरिक अधिकार पत्र के मॉडल पर ओलिम्पी द गूूजें ने स्त्री और स्त्री नागरिक के अधिकारों की घोषणा‘ तैयार की। इस घोषणा पत्र में स्त्रियों पर पुरूषों के शासन का विरोध किया गया था और सार्विक मताधिकार को अमल में लाने के लिए स्त्री-पुरूष के बीच पूर्ण सामाजिक-राजनीतिक समानता की माँग की गई थी।4मेरी वालस्टानक्रॉफ्ट की 1792 में प्रकाशित पुस्तक ‘विन्डीकेशन ऑफ द राइट्स ऑफ वीमेन‘ महिला अधिकारों को प्रमुखता से पेश करनेवाली पहली पुस्तक साबित हुई। उन्होंने महिला और पुरूष की समानता पर बल दिया तथा इस बात पर जोर दिया कि महिलाओं औेर पुरूषों के बीच का फर्क उनकी निजी प्रकृति से नहीं बल्कि शिक्षा और महिलाओं को मिलनेवाले सामाजिक परिवेश की वजह से है। इंगलैण्ड की इतिहासकार कैथरीन मैकाले ने अपने ‘शिक्षा पर पत्रों‘ (1790) में यहाँ तक माँग उठाई थी कि लड़कों के पाठ्यक्रम में भी ऐसे विषयों को शामिल किया जाना चाहिए जो मूलतः स्त्रियां की दक्षता के विषय माने जाते है। समान अधिकारों की इस माँग से महिलाओं के मतदान के अधिकार, उनके कानूनी अधिकार तथा अंत में राजनीति और रोजगार के क्षेत्र मे पुरूषों के साथ समान स्तर पर भागीदारी से जुडे़ हुए सारे ऐतिहासिक आन्दोलनों का जन्म हुआ।5महिला अधिकारिता से सम्बन्धित विचारधारा सेंट साइमन, फुरियर तथा राबर्ट ओवेन जैसे काल्पनिक समाजवादियों के चिंतन के माध्यम से और आगे बढ़ी। उनके अनुसार स्त्री-पुरूष को समान अधिकार वर्तमान व्यवस्था के अंतर्गत नहीं मिल सकता, इसे पूरी तरह बदलना होगा। अन्ना व्हिलर के साथ लिखी अपनी पुस्तक में विलियम थाम्पसन ने जेम्स मिल की स्थापनाओं की जमकर खिल्ली उड़ाई; जिसमें कहा गया था कि महिलाओं का अपने पति या पिता से अलग कोई हित नहीं होता, इसलिए उनके स्वतंत्र राजनीतिक प्रतिनिधित्व की कोई जरूरत नहीं हैं। थाम्पसन ने सिर्फ महिलाओं के लिए पूर्ण राजनीतिक अधिकारों और उनकी समान बौद्धिक क्षमताओं की बात नहीं की अपितु एक क्रांतिकारी कदम के रूप में उन्होंने महिलाओं को शारीरिक दृष्टि से भी पुरूषों की तुलना में कहीं ज्यादा श्रेष्ठ बतलाया। उन्होंने यहाँ तक कहा कि महिलाओं के समान अधिकार तभी सार्थक होंगे जब निजी सम्पिŸा और प्रतियोगिता के स्थान पर समाज का आधार साझा मिल्कियत और सहकार होगा। 19वीं सदी तक महिलाओं के लिए समान अधिकार की माँग एक प्रमुख राजनीतिक प्रश्न के रूप में उभर कर सतह पर आ गया था। शिक्षा, कानून, राजनीति एवं अर्थ-विŸा- जगत में महिलाओं की सहभागिता को लेकर जन-आन्दोलनों की शुरूआत हो गई थी। इसमें जॉन स्टुअर्ट मिल, हैरिएट टेलर और एलिजाबेथ केंडी स्टैन्टन की प्रभावी भूमिका रही थी। स्टैन्टन ने ‘सेनेकॉफल कंवेन्शन ऑफ 1848‘ लिखा जो 1776 ई0 के अमेरिकी स्वतंत्रता की घोषणा के तर्ज पर लिखा गया एक ऐसा घोषणापत्र था, जिसमें महिलाओं के लिए मतदान का अधिकार, सम्पिŸा का अधिकार, शिक्षा का अधिकार, रोजगार का अधिकार तथा राजनीति औेर गिरिजाघरों में सार्वजनिक भागीदारी के अधिकार की माँग उठाई गई थी। स्टैन्टन ने महिलाओं की गुलामी के पीछे धर्म की भूमिका की साफ पहचान की थी तथा सभी प्रकार के संगठित धर्म को महिलाओं का शत्रु बताया।6 1869 में प्रकाशित अपनी पुस्तक ‘ऑन द सब्जेक्शन ऑॅफ वीमेन‘ में जॉन स्टुअर्ट मिल ने प्रबोधनकाल के विवेकवाद को आधार बनाते हुए महिलाओं की गुलामी को पहले के इतिहास का एक बर्बर अध्याय बतलाया था। उन्होंने इस बात को माना कि महिलाएँ कई अर्थों में पुरूषों से कमजोर दिखाई देती है, लेकिन इसकी वजह खुद महिलाएँ नहीं वरन् उन पर पड़नेवाले सामाजिक दबाव औेर गलत शिक्षा है। कुल मिलाकर 19वीं शताब्दी के अंत तक स्थिति यह बन गई थी कि महिलाएँ अब सार्वजनिक जीवन और राजनीतिक बहसों से बाहर की भूमिका में दिखाई पड़ने लगी थी। एशिया और लातिनी अमेरिकी देशों में पुनर्जागरण या प्रबोधन जैसी कोई प्रक्रिया घटित न होने के कारण इन देशों के सामाजिक जीवन और मूल्य जनवादी मूल्यों एवं मान्यताओं के बंधन में जकड़ा हुआ था। फिर भी उन्नीसवीं सदी से नारी मुक्ति की जो चेतना तीसरी दुनियाँ के देशों के नारी समुदाय में संचारित हुई, उसकी प्रतिक्रिया राष्ट्रीय मुक्ति संघर्षों के दौर से शुरू हुई थी। 19वीं शताब्दी के अंतिम दशकां में लातिनी अमेरिकी देशों में स्त्रियों के संगठनों के बनने की प्रक्रिया शुरू हो चुकी थी, हालाँकि यह मध्यवर्गीय शिक्षित मिश्रित आबादी के नीचे मूल इंडियन आबादी तक नहींं पहुँच पाई थी। तुर्की, ईरान और मिश्र में नारीवादी आन्दोलन की शुरूआत 20वीं शताब्दी में ही आकर हो सकी। अरब, अफ्रीका और पश्चिमी एशिया के अन्य अधिकांश देशों में स्त्रियाँ अपने सामाजिक अधिकारों से पूरी तरह वंचित होकर मध्ययुगीन पितृसŸात्मक गुलामी ओैर सामन्ती पार्थक्य का शिकार शेखों औेर शाहों की कैद में थी। एशिया के अन्य कई देशों में यद्यपि नारी मुक्ति आन्दोलन की शुरूआत उन्नीसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में ही हो चुकी थी, पर इसे व्यापक आधार नहीं मिल सका था। भारत में नारीवाद का विकास महिला आन्दोलन से पृथक 19वीं शताब्दी के अंतिम दशकों में हुआ तथा 20वीं शताब्दी के प्रारम्भिक वर्षों में परिपक्वावस्था में पहुँचा। इस दौर में इसकी उत्पिŸा के पीछे विभिन्न कारणों की भूमिका महत्वपूर्ण रही जिनमें प्रमुख है- औपनिवेशिक अर्थव्यवस्था की उत्पिŸा, सामाजिक सुधार आन्दोलनों द्वारा उत्पन्न संभावनाएँ, आधुनिकता का नया दौर, जो विभिन्न परिस्थितियों और मापदण्डों के आधार पर लिंग, नस्ल, स्तर, वर्ग, जाति और धर्म के आधार पर एक-दूसरे को काफी हद तक प्रभावित करते हुए तर्क प्रस्तुत करने की इजाजत देता था।7 1970 के दौरान दूसरी नारीवादी लहर आई जिसमें पुराने मुद्दे उठाये गये तथा लैंगिक अनुपस्थिति को एक श्रेणीकरण के रूप में जोरदार तरीके से प्रस्तुत किया गया। 19वीं शताब्दी के अंतिम दो दशकां में बहस की जो लम्बी प्रक्रिया चली, उसमें सुधारवादी, प्रतिक्रियावादी और सरकारी तंत्र की दलीलें तो सुनाई पड़ रही थी; लेकिन कहीं भी महिलाओं का स्वर नहीं सुनाई दे रहा था जिसको लेकर इतना कोहराम मचा हुआ था। यह कहना आसान नहीं है कि महिलाओं ने किस प्रकार सुधारों को स्वीकार या अस्वीकार किया जो सीधे-सीधे उनके हितों से जुड़ा हुआ था। किस प्रकार से उनकी सशक्तिकरण के लिए उठाए गये कदमों के विरूद्ध रीति-रिवाज और विश्वास की आड़ लेकर उनकी प्रतिक्रिया के उठते ज्वार को विफल करने का प्रयत्न किया गया था। देश के कुछ भागों में महिलाओं ने सुधारवादी आन्दोलनों को समर्थन प्रदान किया तथा पितृसŸात्मक व्यवस्था के सामने सार्थक चुनौती प्रस्तुत की।
बाद के अध्ययन से पता चलता है कि आधुनिक भारतीय सामाजिक अध्ययन के लिए एक महत्वपूर्ण पहलू यह है कि औपनिवेशिक भारत और उपनिवेश स्थापित करनेवालों के बीच सांस्कृतिक सर्वोच्चता स्थापित करनेवाले संघर्ष में महिलाओं की श्रेणी को एक प्रतीक के रूप में प्रयोग किया गया था। डाँगमोर एंजेल्स के अनुसार इस समय औपनिवेशिक भारत में पितृसŸात्मक समाज को विक्टोरियाई मूल्यों से लगातार चुनौती मिल रही थी। फिर भी कहा जा सकता है कि इतिहास में लैंगिक अध्ययन की शुरूआत से राजनीतिक एवं सामाजिक परिदृश्य में महिलाओं की भागीदारी पर ध्यान दिया जाने लगा। पद्मा अनागोल समाजसुधार आन्दोलन को उपनिवेशवाद का एक उप-उत्पाद मानने से इंकार करती है, क्योंकि शिक्षा, विधिक एवं प्रशासनिक संस्थाओं की स्थापना, परिवहन एवं संचार के नये साधन तथा देशी एवं अंगेजी मुद्रण तकनीक एवं प्रेस अभी भी महिलाओं की पहुँच से बाहर ही थे। पश्चिम भारत में कुछ महिलाओं ने नारी प्रश्न पर अपनी मुखर प्रतिक्रिया व्यक्त की। उन्होंने पुराने धर्म के अन्दर लैंगिक असमानता के विभेदकारी तत्व को आलोचना का केन्द्र बनाया तथ ईसाई धर्म को अपना लिया। यह धर्म परिवŸार्ण खासतौर पर हिन्दूधर्म के उन पुरूषवादी प्रवृŸा के खिलाफ, जो नारीत्व को संदेह की दृष्टि से देखते थे औेर समस्त नारी जाति से घृणा करते थे, असंतोष की अभिव्यक्ति था। इन नारीवादियों ने लैंगिक विभेद के आधार पर हिन्दू धर्म को अस्वीकार कर दिया तथा अपने लेखों के माध्यम से ईसाई मिशनरियों के लोककल्याणकारी तत्वों की विवेचना कर पेशेवर अंदाज में अपनी सामाजिक वैधता की मुहर लगवाई। लेकिन इनकी खासियत यह थी कि इन्होंने न तो अपने को किसी चर्च से जोड़ा औेर न अपने आंतरिक मामले में धर्म विवाचक के रूप में पादरियों के हस्तक्षेप को ही स्वीकार किया। इन्होंने अपने सामाजिक कार्यां के संचालन के लिए न कभी किसी विदेशी एजेन्सी द्वारा प्रदŸा विŸाय सहायता को ही स्वीकार किया। इसप्रकार उन्होंने अपने लिए एक अलग प्रकार के नारीवाद की उत्पिŸा की जिससे उन्हें इससे जुड़े आन्दोलनों को नेतृत्व देने की स्वतंत्रता हासिल हो गई। फिर भी पश्चिमी देशों के नारीवादियों के साथ एक लम्बे समय तक इनका सम्पर्क बना रहा जिन्होंने महिलाओं को पाश्चात्य मूल्यों, इसाईयत तथा आधुनिक सभ्यता से जोड़ने का प्रयास किया। परिणामस्वरूप वे राष्ट्रीय स्वतंत्रता आन्दोलन एवं राष्ट्रहित तथा राष्ट्र के विकास के कार्य से पृथक् हो गई। इसके दो गंभीर प्रभाव पड़े-पहला इसने राष्ट्रवादी मूल्यों और सिद्धान्तों के विरूद्ध प्रभावकारी अवरोध का कार्य किया। यह अवरोध नई रणनीति के तहत महिला आन्दोलन के इर्द-गिर्द एक घेरे के रूप में बनाई गई थी; जिसमें सामाजिक, न्यायिक एवं धार्मिक बंधन से मुक्ति का दावा किया गया था और यह सब धर्म परिवŸार्न के रूप में पूरा होना था। दूसरा, उसने रमाबाई राणाडे जैसी महिलाओं के लिए मार्ग प्रशस्त किया जो उचित अवसर पर भारतीय नारीवाद को ईसाई नारीवाद से पृथक ला खड़ा किया। यद्यपि ये महिलायें भी हिन्दू धर्म एवं रीति-रिवाजों के प्रति सशंकित थी फिर भी उन्होंने पंडिता रमाबाई जैसी ईसाई सहयोगियों की तरह इसे अस्वीकार नहीं किया वह अभी भी हिन्दू समाज के निर्मित संरचनात्मक ढाँचे में ही कार्य कर रही थी तथा इस धर्म की सीमाओं में बँधी हुई थी।9हिन्दूवादियों ने अपना पृथक् संस्थान स्थापित किया तथा नवीन कार्यक्रम के अनुसार कार्य प्रारम्भ किया। इनके आन्दोलन का विकास महाराष्ट्रीयन महिला आन्दोलन के साथ हो रहा था। सर्वप्रथम, इन्होंने महिलाओं को अपने लक्ष्य के प्रति जागरूक कर उन्हें संगठित किया तथा दूसरा, सार्वजनिक कार्य में महिलाओं की भागीदारी को बढ़ाया। उनका नारीवाद कम स्तर पर फैले होने तथा अनुग्रह करने की क्षमता को मूŸार्रूप देने के कारण बड़े हिन्दू समाज की आलोचनाओं से परे था। 1870 के मध्य में 50 से 70 औरतें प्रत्येक शनिवार को प्रार्थना समाज के हाल में प्रमुख समाज सुधारकों के व्याख्यान सुनने के लिए एकत्रित होती थी। इन महिलाओं का उद्देश्य सिर्फ भाषण सुनना नहीं था अपितु वह भाषण की कला में महारत हासिल करना चाहती थी ताकि वे अपने अधिकारों की माँग करते हुए अपनी बात स्पष्टता के साथ रख सके। इन्होंने 1880 के दशक में स्त्रीयांचा सभा (महिला समिति) गठित करने में सफलता पाई। यह संगठन सप्ताह में सिर्फ एक बार महिलाओं की सभा आयोजित करता था, जहाँ शिक्षित महिलायें लेखों को पढ़ती थी, भाषण दिया करती थी तथा विभिन्न विषयों पर दूसरी महिलाओं को दिशा प्रदान करती थी। इन लेखों औेर भाषणों की विषयवस्तु महिला शिक्षा रहती थी, जो इस अवधि में महाराष्ट्रीयन समाज में पूर्वाग्रह का विषय बना हुआ था। इनका उद्दे्श्य महिला शिक्षा के प्रति समाज में व्याप्त पूर्वाग्रह पर निर्णायक बढ़त हासिल करना था। 1880 के दौरान नारीवादी संगठन और मजबूत हुए तथा इनका प्रसार धुलिया, पूना, नासिक तथा शोलापुर जैसे महाराष्ट्र के कई शहरी इलाकों मेंं हुआ। इन इलाकों में महिला आन्दोलन को तीव्रता प्रदान करने के लिए कार्यकŸार्ओं को संगठित किया गया तथा व्यापक कार्यक्रम एवं प्रशिक्षण के माध्यम से उन्हें सक्रिय किया गया। इस समय महिलायें प्राचीन ग्रंथों के साथ-साथ पाश्चात्य साहित्य, दर्शन ओैर नारीवादी लेखों का अध्ययन कर रही थी। केशुबाई कानितकर, रूकमाबाई, आनन्दीबाई जोशी तथा रमाबाई रानाडे से चर्चा के क्रम में वह जेन आस्टिन, जेम्स मिल, जार्ज इलियट के लेखन एवं समाज पर पड़ने वाले उनके प्रभावों पर धड़ल्ले से बातें कर रही थी। साथ ही जेम्स मिल की पुस्तक ’सब्जेक्शन आँफ वीमेन’ पर बहस के दौरान ब्रिटिश भारत और पितृदेश की महिलाओं का तुलनात्मक विवेचन कर भारतीय महिलाओं के कष्टों की मुक्ति का उपाय भी खोज रही थी। महिला संगठनों के तत्वावधान में महाराष्ट्र के अनेक शहरों में स्त्री सभायें मशरूम की तरह पनप रहे थे। रमाबाई राणाडे द्वारा स्थापित हिन्दू लेडीज क्लब, यशोदाबाई की वनिता समाज (अमरावती) गिरिजाबाई केलकर की भगिनी मंडल (जलगाँव) प्रमुख थे तथा इन सबका प्रतिनिधित्व शोलापुर स्थित श्री सरस्वती मंदिर कर रहा था। इन महिलाओं के सामाजिक संजाल, खासकर महिलाओं के पुराने संगठनों में संरचनात्मक परिवŸार्न, उनके बीच होनेवाले धार्मिक संस्कार ‘हल्दी-कुमकुम‘ जो पश्चिमी एवं दक्षिणी भारत के महिलाओं द्वारा सम्पन्न किए जाते थे तथा कीŸार्न जहाँ गाजे-बाजे के साथ स्त्री-पुरूष सामुहिक रूप से ईश्वर भक्ति किया करते थे, के माध्यम से नारीवादी आन्दोलन को काफी मजबूती मिली। इन धार्मिक सामुहिकीकरण ने महिला संगठनों को सार्वजनिक मंच उपलब्ध कराया जहाँ से वे महिला शिक्षा की आवश्यकता, साम्पिŸाक अधिकार, आजीविका का प्रश्न, बालविवाह की बुराईयाँ तथा बलात् वैधव्य आदि विषयों पर जनता को संबोधित कर सके। रमाबाई रानाडे औेर अन्नपूर्णाबाई जैसी महिलाओं ने कार्यक्रमों, पढ़ाई, व्याख्यान तथा प्रतियोगिताओं के माध्यम से मराठी महिलाओं को सक्रिय बनाकर सामाजिक स्तर पर उनकी भागीदारी का क्षितिज विस्तृत कर दिया था।10 महाराष्ट्र में नारीवादियों की वृहद् राजनीतिक क्षमता तब उजागर हुई जब पहली बार स्वतंत्र रूप से महिलाओं का संगठन ‘आर्य महिला समाज‘ अस्तित्व में आया। पंडिता रमाबाई ने कई महिला समूहों को जोड़कर इस संगठन को खड़ा किया था इस समाज ने महिलाओं की आवश्यकताओं और आकांक्षाओं को प्रमुखता प्रदान की तथा महिला समस्याओं को मजबूती के साथ सार्वजनिक मंच से उठाया। यद्यपि आर्य महिला समाज पंडिता रमाबाई के मस्तिष्क की उपज थी, लेकिन हिन्दू महिलाओं के बीच इसे लोकप्रिय बनाने में रमाबाई रानाडे औेर काशीबाई कानितकर जैसी महिलाओं ने काफी श्रम किया था। इन्होंने न केवल गली-गली घूमकर इस समिति की सभाओं में महिलाओं की भागीदारी सुनिश्चित की अपितु 1883 ई0 में पंडिता रमाबाई के इंगलैण्ड प्रवास के दौरान क्रमशः पूना एवं बम्बई शाखाओं के अध्यक्ष पद को भी संभाला।हिन्दू नारीवादियों ने सामाजिक सुधार आन्दोलन के दौरान उठे महिला प्रश्नों पर अपने विचार बड़ी साफगोई से प्रस्तुत किया। विचारों की अभिव्यक्ति के लिए उन्होंने प्रेस औेर समाचार पत्रों का सहारा लिया। इनमें उन्होंने ‘सम्पादक के नाम पत्र‘ सामाजिक मुद्दों से सरोकार रखनेवाली पत्रिकाओं में पाठकां के सुझाव को प्रमुखता प्रदान की। इन्होंने महाराष्ट्र में एक स्वतंत्र महिला प्रेस का विकास कर लिया था तथा भाषा के रूप में मराठी को चुना। इस प्रकार से इन नारीवादियों ने महाराष्ट्र के एक बड़े महिला समूह को अपने संगठन से जोड़कर महिला भगिनीवर्ग‘ की अवधारणा को विकसित करने में सफलता पायी। पद्मा अनागोल लिखती है कि मैने कम से कम 10 ऐसी पत्रिकाओं की पहचान की है जिनकी सम्पादक महिला (करत्रीस) थी, जो 19वीं शताब्दी के अंतिम दशकों में महिला प्रेस के अंतर्गत कार्य करती थी। ये पत्रिकायें साप्ताहिक, अर्द्धमासिक और मासिक होती थी, जिनमें महिलाओं के उद्देश्यपूर्ण साक्षात्कार छपे रहते थे। ये पत्रिकाएँ थी आर्य भगिनी, सम्पादक आनन्दी बाई एवं मैनाकबाई लैण्ड, सौभाग्य संभार, सम्पादक, सारूबाई, गोवा (कोल्हापुर), सुबोधिनी सम्पादक ,चीमाबाई कदम (पूना), महाराष्ट्र महिला, सम्पादक, मनोरमा मिश्रा (मुम्बई), स्त्रीयांची मैत्रिणी, सम्पादक, ए0 ए0 अवाँट।11महिला प्रेस ने महिला सुधारकां को वह जगह उपलब्ध कराई, जहाँ वह स्वतंत्रतापूर्वक सामाजिक सुधार से सम्बन्धित मुद्दों पर चर्चा कर सकती थी तथा महिलाओं के जीवन में पड़नेवाले प्रभावों को रेखांकित कर सकती थी। इन मुद्दो में शिक्षा, घरेलू खर्च, राष्ट्रीय एवं धार्मिक अस्मिता की रक्षा, शहरी बनाम ग्रामीण जीवन, वैधव्य के दौरान लागू होने वाले कायदे कानून एवं निषेधाज्ञाएँ प्रमुख था। इन विषयों पर शशि थारू और के0 लोलिता के लेख अक्सर छपते थे। सचमुच इन संस्करणों का महिला पाठकों के लिए बहुत महत्व था कभी-कभी इन पत्रिकाओं का सम्पूर्ण भाग महिलाओं से सम्बन्धित मुद्दो को ही समर्पित होता था। यदि इस समय के मराठी साहित्य का सही तरीके से आकलन किया जाए तो मराठी महिला लेखिकाओं की संख्या काफी उत्साहजनक है। इनमें से अनेक महिलाओ ने सामाजिक सुधार आन्दोलन के दौरान महिलाओं की स्थिति को अपने लेखन के माध्यम से अभिव्यक्त किया।1860-1920 की कालावधि में महाराष्ट्र की महिलाओं द्वारा हो रहे प्रभावपूर्ण लेखन पर पुनर्जागरण एवं पाश्चात्य प्रभाव की स्पष्ट छाप परिलक्षित होती है। इन्होंने उपन्यास लेखन, निबन्ध एवं लघु कहानियों के माध्यम से स्त्री-विमर्श को आगे बढ़ाया। प्रेस एवं प्रकाशन के सुदृढ विकास ने महिलाओं को अपने विचार एक दूसरे तक पहुँचाने के लिए अभिव्यक्ति का सुगम एवं सस्ता माध्यम उपलब्ध कराया, जो इससे पूर्व उन्हें कभी हासिल नहीं हुआ था। उन्होंने अपने लिए मराठी भाषा का एक अलग समृद्ध शब्दभंडार विकसित कर लिया था जिसका उपयोग अपने लेखनकार्य में धड़ल्ले से कर रही थी। मसलन भगिनीवर्ग, स्त्रीहक, स्त्रीवर्ग, स्त्री-अनुभव, पुरूष जाति एवं पुरूषार्थ आदि। ये शब्द महाराष्ट्र में नारीवाद के सिद्धान्त और विधि को समझने के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है। आर्यभगिनी शब्द का प्रयोग बहन के रूप में किया जाता था, जो इस युग में सम्बोधन का एक प्रचलित तरीका था।12 इस प्रकार का नारीवादी आन्दोलन महाराष्ट्र के अतिरिक्त भारत के अन्य क्षेत्रों में संगठित रूप से दिखाई नहीं देता। बंगाल की यदा-कदा महिलाओं ने कुछ महिला संगठन खड़े करने की कोशिश की किन्तु उन्हें उतनी सफलता नहीं मिली जितनी कि मराठियों को।19वीं शताब्दी में समाजसुधार आन्दोलन कुछ व्यक्तियों के निजी प्रयास, कुछ हद तक उच्चवर्गीय शिक्षित शहरी व्यक्तियों एवं दो-तीन उल्लेखनीय या स्मरणीय महिलाओं के प्रयास का परिणाम था। इन लोगों ने सामाजिक जीवन में गहरे धसे बुराईयां की पहचान की तथा उसे दूर करने का प्रयास किया। उनका ध्यान इस ओर गया कि इंगलैण्ड के उभरते औद्योगिक समाज औेर भारत के पतनोन्मुखी सामन्ती समाज मे कोई समानता नहीं है। इन्होंने जिन बुराईयों की खोज की उनका सम्बन्ध अधिक प्रगतिशील लैंगिक प्रसंगो से जुड़ा मामला था। उन्होंने यह महसूस किया कि सतीप्रथा, बालविवाह, बालिका शिशुहत्या, बलात् वैधव्य, सजातीय एवं सगंत्रिय विवाह की प्रथा, पर्दाप्रथा एवं वेश्यावृŸा राष्ट्रीय विकास के मार्ग में भयंकर बाधायें है। लेकिन तथ्य यह है कि सुधार प्रयत्न व्यापक रूप से पारिवारिक सम्बन्धों और महिलाओं से जुड़ा मुद्दा था। आधुनिक अनुसंधानों से मुस्लिम एवं निचले तबके के समाज के अध्ययन से पता चला है कि इन सुधारों में सारा ध्यान उच्चवर्गीय महिलाओं की स्थिति, शिक्षा, एवं उनके वैवाहिक परम्पराओं पर केन्द्रित किया गया है, जिनका विरोध नये ब्रिटिश-भारत के कानून से था। इतिहासलेखन के दौरान इतिहासकारों ने समाजसुधारों को प्रेरित करनेवाले तीन प्रमुख कारणों पर प्रकाश डाला है, वे है- (क)ईसाई मिशनरियों का आगमन एवं प्रचार कार्य, (ख)नई औपनिवेशिक शिक्षा एवं (ग)धार्मिक सुधार आन्दोलन, जिसने मानवीय संवेदानाओं को पुनर्जीवित एवं मजबूती प्रदान करने का कार्य किया था इस सम्पूर्ण शताब्दी में सुधारवादियों ने सुधार के कई पहलुओं को एक साथ उठाया तथा अनेक कार्यक्रम चलाये, लेकिन वह उतने प्रभावकारी साबित नहीं हुए क्योंकि बड़े सुधारवादी भी अपनी कार्यवाहियों को देशव्यापी न बनाकर उसे अपने धर्म, जाति, वर्ग एवं क्षेत्र तक सीमित रखे, जो उन्हें सुधारों के मार्ग से विचलित करनेवाला था। साथ ही सभी सुधारकां की अपनी खास कार्यशैली, निश्चित कार्यप्रणाली तथा सामाजिक सरोकार का एक खास पैटर्न था, जो उनके चरित्र एवं व्यक्तित्व पर प्रश्नचिह्न खड़े करता है। महानगरीय क्षेत्र की उत्पिŸा एवं प्रगति, प्रिंट मीडिया का विकास, पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन, संचार माध्यमों तक जनता की पहुँच तथा नये शिक्षित मध्यवर्ग का उदय आदि ने उनके संवाद को सहज बना दिया होगा। उन्हें इतनी स्वतंत्रता तो मिल ही गई होगी कि वे अपने तर्कों, अवधारणाओं एवं विचारों से एक-दूसरे को अवगत करा सके तथा जनता के मध्य जाकर प्रतिपक्ष के हमलों का कड़ा प्रतिवाद कर सके। सुधारवादियों ने महानगारों को ही अपनी गतिविधियों का केन्द्र बनाया। वे गाँवों, तालुकों एवं छोटे शहरों को या यों कहा जाय कि अधिसंख्य जनता को अपने कार्यक्रमों से जोड़ने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई। इसलिए जिन क्षेत्रों में उन्होंने महिलाओं से सम्बन्धित मुद्दों के आधार पर आन्दोलन खड़े किए ,वहाँ की परिस्थितियों, उनके परिचर्चा के मुद्दों, जनता को अपने कार्यक्रमों की ओर उन्मुख करने की तकनीकों, प्रयासां, सफलताओं एवं विफलताओं का नये सिरे से आकलन करने की आवश्यकता है। इसके अतिरिक्त इतिहासलेखन के क्रम में तत्कालीन समाचारपत्रों, निबंधों एवं उपन्यासों में वर्णित सुधारवादियों के व्यक्तित्व, प्रयास और कार्यक्रम, रीति, नीति एवं दर्शन, नाट्यघरों मे प्रदर्शित नाटकों में तत्कालीन समाज का चित्रण, जनता द्वारा व्यक्त की गई प्रतिक्रियायें तथा विपरीत विचारधाराओं का प्रतिनिधित्व करनेवाले व्यक्तियों को समाज के मुख्यधारा में लाने के उनके प्रयासों का सूक्ष्म निरीक्षण आवश्यक हो जाता है।13भारतीय इतिहासलेखन की यह एक विडम्बनापूर्ण सच्चाई है कि औपनिवेशिक काल का इतिहास लिखते हुए देशी भाषाओं में प्रकाशित होनेवाली पत्र-पत्रिकाओं, निबंधो, नाटकों तथा उपन्यासों का महत्वपूर्ण श्रोत के रूप में अभी तक कम ही प्रयोग हुआ है। जन इतिहास, सम्पूर्ण इतिहास औेर नीचे से इतिहास पर बल देने के बावजूद भी अधिकांश इतिहासकार मुख्यतः अभिलेखागारों और पुस्तकालयों में उपलब्ध उस समय के सरकारी दस्तावेजों, राष्ट्रीय संगठनों के आधारभूत दस्तावेजों, नीति वक्तव्यों, मुखपत्रों औेर प्रमुख नेताओं के पत्र-व्यवहारों एवं उनकी कृŸायों को ही श्रोत के रूप में इस्तेमाल करते है। उन्नीसवीं शताब्दी के समाजसुधार आन्दोलनों ओैर बंगाल एवं महाराष्ट्र में नवजागरण का ऐतिहासिक अध्ययन करते हुए कुछ ही ऐसे इतिहासकार है जिन्होंने बांग्ला एवं मराठी पत्र-पत्रिकाओं एवं उपन्यासां का श्रोत एवं संदर्भ के रूप में इस्तेमाल किया है।14 अभी भी हिन्दी क्षेत्र का वह सम्पूर्ण इलाका, जो कभी भी इतिहास में सामिजक गतिविधियों का केन्द्र नहीं रहा, सिर्फ अपने राजनीतिक एवं कृषक आन्दोलनों के लिए ही चर्चित रहा है, अपने श्रोतो के आधार पर सामाजिक इतिहासलेखन का मुखापेक्षी है।ऐतिहासिक अध्ययन का उद्द्ेश्य किसी सत्य का अनुसंधान नहीं है, बल्कि कुछ ऐसे प्रश्न पूछना है जिसमें इतिहास के इलाके से ज्यादा भागीदारी दिखे। इतिहासलेखन पर परिचर्चा के क्रम में विद्वानों के एक समूह ने प्रस्तावित किया है कि हमारे लिए इस सीमित इतिहास से आगे बढ़कर यह जानने की कोशिश ज्यादा जरूरी है कि घटनाओं को लोगों ने किस रूप में अपने इतिहासों मे देखा है। भले ही इन इतिहासों में इतिहास की प्रामाणिकता का अभाव हो। ज्यादा जरूरी यह देखना है कि लोगों ने भूतकाल की घटनाओं का आत्मइतिहास किस प्रकार से लिखने की कोशिश की है। कुछ इतिहासकार हिस्टोरिकल सोशियोलॉजी या सोशियोलॉजिकल हिस्ट्री, जो अमेरिकी विश्वविद्यालयों में प्रतिष्ठित स्थान बना चुका है, उसे भारतीय इतिहासलेखन में प्रभावी ढ़ंग से समावेशित करने के पक्षधर है। वŸार्मान युग में इतिहास की यह शाखा एक बहुत ही सशक्त धारा के रूप में उभरता जा रहा है जिसके अंतर्गत मुख्यतया आज के समाज में अनेकता, उपेक्षित परम्परायें, उपेक्षित ज्ञान, जो सामाजिक एवं आर्थिक रूप से निम्न स्तर पर है, उनकी स्थिति, अनुभव औेर सांस्कृतिक परम्परायें इत्यादि का ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में शोध एवं अध्ययन करना उचित माना गया है। कुछ विद्वानों का विश्वास है कि धर्मग्रंथों एवं अतीत के उपलब्ध अभिलेखों से केवल उदाहरण प्रस्तुत करना ही ऐतिहासिक विश्लेषण नहीं है। इस प्रकार के लेखन से मिथ्या निष्कर्ष या अतिश्योक्तियाँ ही निकल सकती है। जिन समाजशास्त्रियों को परिकल्पना निगमन विधि ;भ्लचवजीमजपबव.कमकनबजपअम डमजीवकद्ध द्वारा अव्याख्यावादी विधियों ;त्मकनबजपवदपेज च्तवबमकनतमेद्ध में महारत हासिल है, वे भी ऐतिहासिक सामग्री के आधार पर महिलाओं की स्थिति का अध्ययन करना यदि असम्भव नहीं तो श्रमसाध्य आवश्य मानते है।15 इसलिए अधिकतर समाजशास्त्री महिलाआें की स्थिति के विश्लेषण के लिए अआनुभाविक वैयक्तिक अध्ययन विधि ;छवददृम्उचपतपबंस बेंम ेजनकलद्ध का इस्तेमाल करते है। इस विधि में पितृसŸात्मक सामाजिक व्यवस्था के संदर्भ में उनका आकलन किया जाता है या यौन असमानता और स्त्रियों की स्थिति के बीच सम्बन्ध के आधार पर पुरूषों के प्रभुत्व की स्थिति का आकलन किया जाता है, जो इतिहाससिद्ध भी है तथा सांस्कृतिक दृष्टि से मान्य भी है। रवीन्द्रनाथ टैगोर के शब्दों में कहा जाय तो आज के प्रश्न जिस परम्परा से सार्थक है, उसे इतिहास में जगह मिलनी ही चाहिए। इतिहासकार जब 19वीं शताब्दी के दौरान सुधार के प्रयत्नों की चर्चा करता है तो वह बामुश्किल अपने को मौजूदा व्यवस्था एवं परम्पराओं की बुराईयों, लैंगिक व्यवहार एवं उनके अंतरंग परिवŸार्न जो समय के साथ दृष्टिगत होते है, वर्ग एवं जाति, श्रम का पैटर्न एवं क्षेत्र से जोड़ पाता है। उदाहरण के तौर पर सतीप्रथा या विधवा पुनर्विवाह पर व्याख्यान के दौरान इतिहासकार लैंगिक सम्बन्धों पर उतनी स्पष्टता के साथ अपने विचार व्यक्त नहींं कर पाता कि क्यों एक अमानवीय बुराई होने के बावजूद भी आत्मदाह को पवित्र मानते हुए सामाजिक स्वीकृति मिली हुई थी ? जबकि दयाशीलता एवं परोपकारिता से लबरेज औेर मानवीय संवेदना को उच्च बिन्दु तक पहुँचानेवाली विधवापुनर्विवाह प्रथा पर प्रतिबंध लगा हुआ था। इसके पीछे कौन से तर्क, विचारणा तथा दर्शन कार्य कर रहे थे या वे कौन से विशिष्ट तत्व प्रभावकारी थे, जिसे सुधारक समझने में असमर्थ थे? इसके अतिरिक्त तत्कालीन समाज में वह कौन-सी अंतरंग धारा प्रवाहित हो रही थी, जो सारे सुधार प्रयासों का मुँह मोड़ रही थी, व्यापक चर्चा की अपेक्षा रखता है। साथ ही सुधारकां की सफलता को भी नये प्रकाश में देखने की आवश्यकता है जिसमें उन्होंने लैंगिक मानदंड एवं परम्पराओं के अस्पष्ट एवं घुँघलके में भी एक नये क्षितिज को प्राप्त किया था, जो तत्कालीन समय में असंभव था। अधिकतर सुधारक इस असाधारण चूक का शिकार हो गये थे कि कानून बनाकर ही सामजिक बुराईयों से निजात पाया जा सकता है। जबकि औपनिवेशिक भारत में कानून बनानेवाली प्रशासनिक व्यवस्था अभी पूरी नहीं हुई थी औेर उसका थोड़ा-बहुत ही हस्तक्षेप शासन संचालन में था। छोटे-मोटे विवादों को सुलझाने के लिए न्यायिक अदालतों मे इन कानूनों को लागू किया जाता था। इस समय भारतीय न्यायालयों में तीन तरह के कानून लागू थे- हिन्दू कानून, मुस्लिम पर्सनल लाँ और परम्परागत कानून। औपनिवेशिक सरकार जनता से सम्बन्धित मामलों को परम्परागत कानून के दायरें में सुलझाने का प्रयत्न करती थी। ये परम्परागत कानून भारत के विभिन्न समुदायों में प्रचलित धर्मग्रंथ, विधिग्रंथों एवं परम्पराओं से परिचालित होते थे। सरकार इन मामलों में तभी हस्तक्षेप करती थी जब जनता का एक बहुत बड़ा भाग इस तरह की मंशा रखता था जैसा कि सतीप्रथा और बालविवाह के संदर्भ में हुआ था। बंगाल प्रेसीडेंसी में न्याय-निर्णयन में पर्सनल लॉ ओैर परम्पराओं को ही वरीयता दी जाती थी। विवाह की स्थिति में धर्मग्रंथ मान्य थे। यही कारण है कि सती या विधवापुनर्विवाह के संदर्भोंं में अपने तर्कों को स्थापित करने के लिए राममोहन राय एवं ईश्वचन्द्र विद्यासागर ने प्राचीन धर्मग्रंथों की नये सिरे से व्याख्या की थी। मुम्बई प्रेसीडेंसी में 19वीं शताब्दी के प्रथम दशक में स्थानीय परम्पराओं को कठोरता से लागू किया जाता था। न्यायालयों में व्यवहृत कानून अधिकतर जाति प्रमुखों के न्याय एवं पूर्व दृष्टांतों के आधार पर निर्मित किए गये थे। दक्षिण भारत में लागू कानून परम्परागत संस्कृत ग्रंथ एवं देशी ब्राह्मणीय धर्मग्रंथ पर आधारित थे। दोनों में विवाद की स्थिति में परम्परा को महत्व दिया जाता था। मसलन, नायर एवं तीयर लोगों में अलग वैवाहिक प्रथा प्रचलित थी, मातृकुल की सम्पिŸा और गृह पर तारवाड व्यवस्था के अंतर्गत माताओं का स्वामित्व होता था। उन्नीसवीं शताब्दी के अंतिम दशक तक इस अनैतिक प्रथा के साथ कोई छेड़-छाड़ नहीं की गई थी, जब तक कि पुरूष समाज सामुहिक रूप से घर एवं सम्पिŸा पर स्वामित्व के लिए आन्दोलित नहीं हो गये। पंजाब में हिन्दू, मुस्लिम, सिक्ख एवं अनुसूचित जातियों के पारम्परिक कानूनों को ही अनुमति मिली हुई थी। इस्लामिक कानून हदीस के अनुसार जुपैति, खोजा, मोमिन एवं मोपल्ला आदि के लिए कोई अलग वैविहक रीति नहीं थी, फिर भी व्यवहार में इनके लिए अलग नियम एवं कानून बनाए गये थे। इसप्रकार, भारत मे विधि- व्यवस्था का जो ढ़ाँचा निर्मित किया गया था, वह सुधारवादी प्रयासों को एक निर्धारित सीमा रेखा के अंदर ही सीमित करता था। फलतः सुधारकां ने इन कानूनों की अपनी तरह से व्याख्या करनी शुरू कर दी थी, जो काफी हद तक कट्टरपंथियां एवं पुनरूत्थानवादियों की तकनीक से साम्य रखता था इसलिए उन्होंने पुराने धर्मग्रंथों की लगातार आलोचना की तथा इस बात का आग्रह किया कि इन धर्मग्रंथों के अतिरिक्त भी कुछ है जिसे स्वीकारा जाना चाहिए। 19वीं शताब्दी के मध्य में खोजा एवं मोमिन के वैवाहिक रीति को इस्लामिक कानून के अंतर्गत सब-डीविजन स्तर पर मान्यता प्रदान कर दी गई थी। निम्नवर्ग की हिन्दू विधवाएँ 1856 के विधवापुनर्विवाह की उस धारा को लगातार चुनौती दे रही थी जिसमें उनके सम्पिŸा के अधिकार को खत्म कर दिया गया था। ब्रिटिश भारतीय सेना में भू-स्वामी वर्ग के जाटों एवं सिक्खों के भŸार् होने के बाद ब्रिटिश सरकार ने स्वामिभक्त बनाये रखने के लिए उनके हितों का विशेष ख्याल रखा था। पंजाबी एवं जाट समुदाय की विधवाओं को अपने वैवाहिक परिवार के बाहर विवाह की अनुमति नहीं मिली थी, उन्हें सदैव विवाह सम्बन्ध अपने ही कुल में बनाने के लिए मजबूर किया जाता था, यहाँ तक कि वह विधवा का जीवन व्यतीत करना चाहती थी, तो भी उन्हें वैवाहिक जीवन बिताने के लिए बाध्य किया जाता था। सामाजिक इतिहासलेखन के क्रम में कुछ महिला सुधारकां यथा पंडिता रमाबाई जैसी महिलाओं का स्तुतिगान करने की अपेक्षा समस्त महिला समाजसुधारकां के उद्द्ेश्य को समाहित करना चाहिए, जो अपनी सामाजिक स्थिति में सुधार करने हेतु जनता के बीच आई थीं। 16 बहुधा यह कहा जाता है कि पुरूष राष्ट्रवादियों का चरित्र सदैव द्वैधपूर्ण रहा, जनता में अलग और महिलाओं के बीच अलग। महिला लेखिकाओं ने अपने घरेलू एकांतवास के दिनां में अपने पति या संगे-सम्बन्धी से थोड़ी सी शिक्षा प्राप्त कर अपनी व्यथा कथा या आत्मपीड़ा को कविताओं के माध्यम से व्यक्त किए जिसे महिला विचार के नाम से पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित किया जाता था, जो हमेशा ही आलोचनात्मक रहे थे। उदाहरण के तौर पर रायसुन्दरी देवी को लिया जा सकता हे, जो उच्चवर्गीय परिवार की ग्रामीण घरेलू महिला थी, ने बहुत ही भयभीत लहजे में महिलाओं के पढ़ने-लिखने के प्रति अपने विचारों को व्यक्त किया था। ये विचार उनकी आत्मकथा ‘अमार जीवोन‘ में 1876 ई0 में प्रकाशित हुआ था। वास्तव में यह किसी महिला द्वारा बांग्ला भाषा में लिखा पहला उपन्यास था। इतिहास में रायसुन्दरी देवी17 पहली महिला है जिसने अपने प्रयास से स्वशिक्षा द्वारा शब्दों पर महारत हासिल किया था। महाराष्ट्र की ताराबाई शिन्दे ने स्त्री-पुरूष तुलना में महिलाओं के छुपे संसार को विस्तृत कर दिया। 1882 में प्रकाशित 37 पृष्ठोंवाली इस पुस्तक में पुरूषों को भगवान माननेवाली मानसिकता पर जोरदार हमला किया गया है। पुरूषों से उन्होंने न्याय की भीख नहीं माँगी है बल्कि उनकी नैतिकता को खुली चुनौती दी है। 1885 में कलकŸा से प्रकाशित कोलीमाई घटक अर्नी तथा 1913 में प्रकाशित निस्तारिणी देवी की सकलेर कथा, हेमवती सेन के संस्मरण , आदि महिलाओं की आत्मपीड़ा की ही अभिव्यक्ति है। इस कार्य को प्रबुद्ध उदारवादी सुधारक भी नहींं कर सके क्योंकि वे महिलाओ के व्यक्तिगत जीवन में झाँकने में असमर्थ रहे। कुल मिलाकर जहाँ पुरूष सुधारकों ने विवाह संस्कार, सतीप्रथा, बलात् वैधव्य आदि को अपने व्याख्यानों में केन्द्रीय मुद्दा बनाया वहीं महिलाओं ने अपनी जीवन की व्यथा कथा, घरेलू जीवन में उत्पीड़न, शोषण एवं शिक्षा के अभाव को अपने लेखों के माध्यम से जनता के सामने रखा। नारियों के उत्पीड़न का आधार उस पर शारीरिक प्रभुत्व नहीं बल्कि संस्कृति, धर्म, भाषा औेर ज्ञान पर पुरूषों का नियंत्रण है। उसके कारण महिलायें उसी प्रकार सोचती है और आचरण करती है जिसप्रकार पुरूष चाहता है। पुरूष कभी भी महिलाओं की अनुभूतियों को यथार्थ रूप में व्यक्त नहीं कर सकता, इसलिए पुरूषों द्वारा लिखा गया सारा साहित्य और वŸार्मान सांस्कृतिक एवं अकादमिक कार्य पुरूष दृष्टिकोण से भरा हुआ है। नारियाँ ही नारी जीवन की सच्चाई को व्यक्त कर सकती है तथा वह भी तभी जब वह पुरूषप्रधान समाज द्वारा लाद दी गई नैतिकता, संस्कार ओैर भाषा से अपने को पूरी तरह मुक्त कर ले।18
19वीं शताब्दी के अंतिम चार दशकों में एक ऐसी राजनीतिक संरचना जिसे सीधे-सादे शब्दों में पुनरूत्थानवादी-राष्ट्रवादी ढाँचा कहा जा सकता है, खड़ी की गई थी; जिसकी सांस्कृतिक राष्ट्रवाद, पुराने गौरव की प्राप्ति एवं स्त्री को हीन समझने की प्रवृŸा प्रमुख विशेषता थी। साथ ही देश में एक मिश्रित मध्यवर्ग भी तैयार हो रहा था जिसमें समाचारपत्रों के मालिक, शहरी क्षेत्रों के ब्राह्मण तथा शिक्षित वर्ग आदि शिमल थे। कुछ ऐसे परम्परावादी भी थे जो राष्ट्रवादी प्रभावपूर्ण लेखन द्वारा हिन्दुओं के धार्मिक मामलों में औपनिवेशिक हस्तक्षेप की तीव्र आलोचना कर रहे थे तथा उनका एकमात्र उद्देश्य औपनिवेशिक नीति के अल्पज्ञान के आधार पर महत्वपूर्ण समाजसुधारों का विरोध करना था। ठीक इसके विपरीत उदारवादी राष्ट्रवादियों की एक धारा इंडियन एसोसियेशन तथा भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से आम जनता को जोड़कर राष्ट्रीय स्वतंत्रता संघर्ष को विस्तार देना चाहती थी। पुनरूत्थानवादी शाखा बिना ब्रिटिश हस्तक्षेप के देशीय साधनों का उपयोग कर भारतीयों की स्थिति में सुधार लाना चाहती थी जबकि उदारवादी शाखा अपरिवŸार्नीय विशिष्टता की बात करती थी। राष्ट्रवादी-पुनरूत्थानवादियों ने राष्ट्रीयता को बढ़ावा देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई तथा इनका झुकाव कुछ निश्चित सुधारों के प्रति हुआ। आर्यसमाज ने कुछ सुधारवादी कदम उठाया था, जिनमें शामिल विषय थे महिला शिक्षा, विधवापुनर्विवाह तथा विवाह की उम्र बढ़ाया जाना। वैवाहिक प्रश्नों पर राष्ट्रवादी-पुनरूत्थानवादी कितने गंभीर थे, इसका अंदाजा बालविवाह के प्रश्न पर सहज ही लगाया जा सकता है। एज ऑफ कंसेंट बिल 1891 पर बहस के दौरान इनके द्वारा निर्णायक दबाव बनाया गया। इस दौरान वे बालविवाह के पक्ष में तर्क प्रस्तुत करते हुए एक सर्वथा अलग दूसरे क्षेत्र में ही प्रविष्ट हो गये, जिससे उन्हें हिन्दू कट्टरपंथियों औेर समाजसुधार विरोधियों का समर्थन हासिल हो सके। साथ ही वे महिला उत्पीड़न, दलन, दुःख, दर्द और अनुशासन की बात करते हुए आनन्दित भी होने लगे थे। चार्ल्स हेइमसाथ के अनुसार एज ऑफ कंसेंट बिल ने पुनरूत्थानवादियों को राष्ट्रीय स्वतंत्रता आन्दोलन के लिए चलनेवाले संघर्ष की मुख्यधारा में ला खड़ा किया।20अधिकांश उदारवादी सुधारकों ने अपने सुधार प्रयासां को न्यायोचित ठहराने के लिए पुराने प्रामाणिक धर्मग्रंथों एवं परम्पराओं का सहारा लिया ताकि उन्हें सामाजिक स्वीकृति प्राप्त हो जाय। उन्होंने यह दर्शाने का प्रयत्न किया कि सरकार द्वारा किए गये सुधारों से हिन्दूधर्म के किसी भी मानदंड या विधि का उलंघन नहीं हुआ है। उन्होंने महिलाओं को विधिक आधार पर सामाजिक वैधता प्रदान करने की कोशिश की है। दूसरी तरफ ठीक इसीप्रकार की बात साहित्यिक ग्रंथों के आधार पर पुनरूत्थानवादी भी कर रहे थे। लेकिन मजे की बात यह है कि इन सुधार प्रयत्नों से उन महिलाओं को जोड़ने की कवायद नदारद थी जिनका उपभोग समस्त स्त्री जाति को करना था। तकनीकी तौर पर उदारवादी सुधार प्रक्रिया, प्रतिक्रियावादी सुधार प्रक्रिया से थोड़ी भिन्न थी। जहाँ उदारवादी लैंगिक आधार पर दोहरे मापदंड, महिला शिक्षा पर प्रतिबंध एवं विधवापुनर्विवाह की बात कर रहे थे वही प्रतिक्रियावादी इस बात पर बल दे रहे थे कि सामुदायिक स्तर पर महिलाओं की भागीदारी कैसे बढ़ाई जाय तथा लड़कियों को उनके घरों में ही बेहतर शिक्षा कैसे उपलब्ध कराई जाय या उनके लिए शिक्षा का माध्यम कौन सी भाषा होनी चाहिए, उन्हें धार्मिक शिक्षा दी जानी चाहिए या नहीं? सिक्ख सुधारवादी आन्दोलन में भी महिलाओं को बेहतर शिक्षा देने एवं सामुदायिक जीवन में बेहतर करने के लिए प्रोत्साहित किया गया था, जिस समाज में महिलाओं पर निगरानी अनिवार्य समझा जाता था, यह बड़े साहस की बात थी।19वीं शताब्दी का अंतिम दशक हिन्दुओं में समाजसुधार को लेकर सबसे अधिक हलचल मचानेवाला दशक रहा था। हिन्दुओं द्वारा समाजसुधार का जो कार्यक्रम चलाया जा रहा था उसका मुस्लिम समाज से किसी प्रकार का अंतर्विरोध नहीं था। मुस्लिमों द्वारा सती होने की मांग तथा विधवापुनर्विवाह की निन्दा या इस पर किसी प्रकार का प्रतिबंध लगाने की बात नहीं की गई थी। वास्तविकता तो यह थी कि जब हिन्दू प्रभाव में आकर फरायजी आन्दोलन के तहत मुसलमानों को भी विधवापुनर्विवाह लिए प्रोत्साहित किया जा रहा था, ठीक इसी समय उŸार भारत में मुस्लिम महिलाओं के लिए विद्यालय स्थापित किए जा रहे थे। सुदूर क्षेत्रों के एकांतवासी मुस्लिम कबीलों की महिलाओं के प्रति धार्मिक नीति के कठोरपन को मृदु बनाया जा रहा था एवं उन्हें इस्लामी शिक्षा दिए जाने का प्रयत्न किया जा रहा था। हिन्दुओं में होने वाले समाजसुधार का सहवŸार् प्रभाव यह हुआ कि मुस्लिम समुदाय से कुछ ऐसी महिला सुधारक सामने आई जिन्होंने महिला जाति के अधिकारों को प्रमुखता से उठाया, लड़कियों के लिए विद्यालयों की स्थापना की तथा पर्दाप्रथा के कारण महिलाओं के एकांतवासी जीवन की कटु आलोचना की। समाजसुधार के प्रमुख नेता मध्यवर्ग के बुद्धिजीवी थे या फिर अंग्रेजी स्कूलों में पढ़े-लिखे नये जमींदार परिवार के लोग। उन्होंने यह महसूस किया कि सतीप्रथा, आजीवन वैधव्य, बालविवाह, अपनी ही जाति में विवाह करने की प्रथा और पर्दाप्रथा राष्ट्रीय विकास के मार्ग में भयंकर बाधाएँ है। 1894 ई0 में आर0 जी0 भंडारकर ने कहा था कि यदि हमें पश्चिम की प्रगतिशील जातियों के साथ कदम से कदम मिलाकर चलना है तो हमारी सामाजिक संस्थाओं में सुधार होना ही चाहिए, सामाजिक एवं नैतिक विकास के बिना राजनैतिक विकास की बात सोचना मिथ्या है।21 किन्तु इन बाधाओं को दूर करने के लिए इन सुधारकों ने जिन हथियारों का इस्तेमाल किया, वे पश्चिम के प्रगतिशील राष्ट्रां के हथियार नहीं थे, वरन् प्राचीन भारतीय समाज के ही हथियार थे। ये बुद्धिवाद औेर उपयोगितावाद के शास्त्रागार से निकले हुए तर्क या विवेक के हथियार नहीं थे, ये तो वे हथियार थे जिनका आधार धर्मशास्त्रों के आधिकारिक वचन थे।22इन सुधारकों ने युगों पुरानी सामाजिक बुराईयों की असंगतियाँं दिखाकर जनमत को अपने पक्ष में करने की कोशिश कभी नहीं की। उल्टे उन्होंने अपने दृष्टिकोण के अनुरूप लोगां को यह विश्वास दिलाया कि सामाजिक सुधार पवित्र धर्मग्रंथां के अनुकूल है। इस तत्व ने सुधारकों को जो धर्मशास्त्र के उद्वरणों के आधार पर सामाजिक परिवŸार्नों को उचित सिद्ध करने की कोशिश करते थे और सनातनी या रूढ़िवादी हिन्दुओं, जो उन्हीं ग्रंथों से उद्धरण देकर मौजूदा सामाजिक प्रथाओं को बनाए रखने के लिए प्रयत्नशील थे, के बीच कटु विवाद को जन्म दिया। ब्रिटिश नौकरशाही का समर्थन प्राप्त करने के लिए उन्होंने जो ज्ञापन और स्मरण पत्र दिए उनमें विवेक और प्रगतिशील सामाजिक दृष्टि को प्रभावित करने पर उतना बल नहीं था, अपितु बल इस बात पर था कि ये सुधार पुराने धर्मग्रंथों के आलोक में ही किए जाएँ। एक हद तक यह पुनरूत्थानवादी दृष्टि उन अंग्रेजों की ही नीति का परिणाम थी जो अपने शासन के आरम्भ से ही भारत के धार्मिक एवं सामाजिक मामलों में दखल नहीं देना चाहते थे, इस नीति का खुलासा उन्होंने 1858 में ही जाकर किया था। बंगाल, पंजाब औेर महाराष्ट्र में जो धर्मसुधार आन्दोलन चला, उसमें धर्मग्रथां की भूमिका स्पष्ट तौर पर देखी जा सकती है। बंगाल में सतीप्रथा के खिलाफ राममोहन राय ने एक सशक्त सुधार आन्दोलन की शुरूआत की। 1818 ई0 में उन्होंने सतीप्रथा के खिलाफ अपनी पहली पुस्तिका प्रकाशित कर यह दिखाने की कोशिश की कि शास्त्रों के अनुसार यह स्त्रीमुक्ति का सर्वश्रेष्ठ मार्ग नहीं है।24 इसी प्रकार उनके विरोधियों ने यह सिद्ध करने की कोशिश की कि यह प्रथा प्राचीन हिन्दू धर्मगं्रथों के अनुसार मान्य है। उन्होंने 1828 ई0 में धर्मसभा नामक संस्था की स्थापना की। इसके संचालक राजा राधकांतदेव थे, जिन्होंने प्रसिद्ध आधुनिक संस्कृतकोश ‘शब्दकल्पदू्रम‘ का संपादन किया था, उन्हें भारी संख्या में पंडितों का समर्थन प्राप्त था। विधवापुर्नविवाह के लिए चले आन्दोलन में सुधारकों को काफी हद तक सफलता मिली। इस दिशा में प्राचीन ग्रंथों के महत्व को ज्यादा अच्छे ढ़ंग से प्रचारित प्रसारित किया गया। ईश्वरचन्द्र विद्यासागर पहले व्यक्ति थे जिन्होंने स्मृति साहित्य की छान-बीन करके स्थापित किया कि विधवापुनर्विवाह शास्त्रविहित है।25 सुधारवादियों ने पराशर के उस वचन का सहारा लिया जिसमें कुछ दशाओं में विधवाओं के पुनर्विवाह की बात कही गई थी। कट्टरपंथियों एवं रूढ़िवादियों ने इसे सिरे से खारिज करते हुए कहा कि प्राचीनकाल में पराशर स्मृति को प्रामाणिक नहीं माना जाता था। निरपेक्ष दृष्टि से देखा जाय तो उनका कथन ठीक ही था, क्योंकि पराशर स्मृति को जिसकी दृष्टि अन्य स्मृतियों की तुलना में उदार थी, 8 वीं सदी के आस-पास अंतिम रूप से संकलित किया गया था। अतः गुप्तयुग से पहले उसे अधिक प्रतिष्ठा प्राप्त नहीं थी। पराशर स्मृति में पाए गये वचन नारद और कुछ परवर्ती पुराणों यथा गरूड़ एवं अग्नि आदि पुराणों से उधार में लिए गये थे। समाजसुधार आन्दोलन के दौरान सुधारों के लिए किए जानेवाले संघर्ष से प्राचीन ग्रंथों के अध्ययन को बड़ा बल मिला। यह संघर्ष नजीरों की लड़ाई की लम्बी श्रृंखला के रूप में चलता रहा। 19वीं शताब्दी में सुधार के सभी समर्थक संस्कृत के प्रकाण्ड विद्वान थे। वस्तुतः प्राचीन ग्रंथों के अध्ययन से आधुनिक सुधारों को प्रेरणा नहीं मिली थी बल्कि इसके विपरीत आधुनिक सुधारों ने प्राचीन ग्रंथों के अध्ययन की ओर लोगों को प्रेरित किया था। बदले में सुधारकों को इन ग्रंथों से एक ऐसी जुबान मिली थी जिससे वे बातचीत कर सके। इस प्रकार यद्यपि सुधार की मूल प्रेरणा आधुनिक जीवन पद्धति से ही प्राप्त हुई थी, सुधारकां द्वारा प्राचीन मूल्यों के पुनरूत्थान से केवल उन सुधारों को आगे बढ़ाने में आसानी हुई। सुधारकां ने प्राचीन ग्रंथों में से उन्हीं ग्रंथों का चुनाव किया जो उनका पक्षपोषण करते थे तथा उन ग्रंथां को अपने विचारों का रंग देकर प्रस्तुत किया। दिलचस्प बात यह है ब्रिटिश प्रशासकों के साथ बातचीत के क्रम में भी यहीं तकनीक अपनाई गई और वे अपने तर्कों पर अटल रहे। किन्तु इतना तो तय है कि ब्रिटिश शासकां को अपनी युक्तियों से प्रभावित करने ओैर भारतीय जनमत को अपेक्षित मोड़ देने में प्राचीन सामाजिक संस्थाओं को ऐसे रूप में प्रस्तुत करने की कोशिश की गई जो आधुनिक मानस को सहज ही ग्राह्य हो सके। यह सर्वविदित तथ्य है कि भारत में परम्परागत रूप से इतिहास के प्रामाणिक श्रोतों के अभाव में पौराणिक मिथकीय कथाओं और शास्त्रों ने ही इतिहास की भूमिका का निर्वाह किया है। लेकिन नये ऐतिहासिक अनुसंधानों से कुछ नये तथ्य प्रकाश में आए है जिनका प्रयोग सामाजिक इतिहास, खासकर महिलाओं का इतिहास लिखने में किया जा सकता है। 19वीं शताब्दी में प्रचलित सतीप्रथा, बालविवाह, कन्या शिशुहत्या, बलात् वैधव्य, विधवा विवाह पर लेखन कार्य करते हुए नये श्रोतों का प्रयेग बहुप्रतीक्षित है। कुछ इतिहासकारों के अनुसार किवदंतियों, कहानियों, लेखों, निबन्धों, साक्षात्कारों के अतिरिक्त तत्कालीन समाज के अध्ययन के लिए अखबार की कतरनों का भी प्रयोग वखूबी किया जा सकता है। हमें उन कार्यों पर ज्यादा केन्द्रित होना चाहिए, जिसे नामचीन सुधारकों ने न कर अज्ञात नाम के लोगों ने अंजाम दिया। हमें महिलाओं के घरेलू जीवन में प्रवेश कर उनके अपने अनुभवों का वर्णन करना चाहिए। साहित्यिक श्रोतों के अतिरिक्त अभिलेखीय साक्ष्य और विदेशियों के भ्रमण के वृतांत तत्कालीन समय में प्रचलित सतीप्रथा की व्यापक जानकारी उपलब्ध कराते है। सती का सबसे पुराना अभिलेखीय साक्ष्य 510 ई0 का भानुगुप्त का एरण अभिलेख है। मध्यप्रदेश के पश्चिमी भाग और राजस्थान में कई सती स्मारक शिलायें प्रकाश में आई है। इटली के शिक्षाशास्त्री एल0 पी0 टेस्सीटॉरी ने 1920 के दशक में बीकानेर एवं जयपुर स्टेट में कार्य करने के दौरान बहुत से सती शिलालेखों का संकलन किया था। निसंदेह बिहार के उच्च जातियोंवाले गाँवों में भी सती स्थान पाए जाते है। इन स्थानों के साथ दंतकथाएँ जुड़ी हुई है। इनमें से वास्तव में कुछ ऐसे स्थान है, जहाँ विधवाएँ सामाजिक दबाव अथवा पतियों के प्रति निरंतर निष्ठा में गड़े अपने विश्वास के कारण जल गई थी। एक ऐसी ही सती शिला चुरू जिले के हुडेरा जोगिया से 14 वीं0 सदी का प्राप्त हुआ जिसमें संवत् 1309 बैशाख सदी को राठौड़ नरहरिदास की स्त्री पोहड़ किसना के सती होने की सूचना मिलती है। भोगवा (मैनपुरी) से मुहम्मद गोरी के समय का तीन सती चौरा प्राप्त हुआ है जिसमें यमुना सती स्मारक काफी प्रसिद्ध है। ये तीन महिलायें यमुना, ज्वाला और शीतला तुर्क आक्रमण का सामना करते हुए वीरगति को प्राप्त हुई थी। इसी तरह अमझौर तहसील से 25 सती स्मारकां की निशानदेही की गई है जिसका सम्बन्ध राठौड़ों से बताया गया है। इस दिशा में अभी काफी अनुसंधान किए जाने है, क्योंकि उत्तरांचल एवं हिमाचल प्रदेश के पहाड़ी इलाकों में कई ऐसी सती शिलाएँ खड़ी है जिनकी अभी निशानदेही बाकी है। तत्कालीन समय में प्रचलित सतीप्रथा का उदाहरण समसामयिक पत्र-पत्रिकाओं एवं साहित्यिक ग्रंथों में प्रस्तुत किया गया है। जेम्स मिल द्वारा ब्रिटिशकालीन भारत का इतिहास 1817 ई0 में तीन खण्डों में प्रकाशित किया गया था, जिसमें गतिहीन भारतीय समाज की आलोचना की गई थी तथा महिलाओं के सामाजिक पतन के लिए हिन्दू धर्म के विधि- निषेधों को दोषी ठहराया गया था। 1818 ई0 में दो खण्डों में प्रकाशित विलियम वार्ड की हिस्ट्री लिटरेचर एण्ड माइक्रोलॉजी ऑफ हिन्दू सतीप्रथा पर व्यापक प्रकाश डालता है। इसके अतिरिक्त 1868 ई0 में हाउस ऑफ कॉमन्स के आदेश पर कलकŸा रिव्यू में गवर्नर जनरलों एवं डायरेक्टरों के बीच सती सम्बन्धी मामलां बनाम विधवा एवं स्वैच्छिक सती सम्बन्धी पत्राचार को प्रकाशित करवाया गया था।26 ये पत्र इतिहासलेखन में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते है। जे. पेप्स की पुस्तक सती क्राई टू बिटेन (1828), आई0 ए0 एस0 वुशवी की बर्निग विडो (1855), कोलबू्रक्र की डाइजेस्ट आँफ हिन्दू लॉ , पार्लियामेन्ट्री पेपर्स, 1821, 1825,1829, कलकŸा रिव्यू में छपा रेवरेण्ड जे लंग का आलेख द बैंकस ऑफ भागीरथी (1846) प्रमुख साहित्यिक श्रोत साबित हो सकते हे। रेवरेण्ड ने बांगपाड़ा में भागीरथी नदी के किनारे एक व्यक्ति की मृत्यु के पश्चात् तीन दिनों तक सतियों की चितायें जलने का उल्लेख किया है जिसमें कुल मिलाकर 37 विधवायें जलाई गई थी। इसके अतिरिक्त बंगाल क्रिमिनल जुडीसियल कंसलटेशन्स, बोर्ड आँफ रेवेन्यू को लिखे विभिन्न जिलों के कलेक्टरां के समाचार पत्र, जिसमें शाहाबाद के कलेक्टर फांसिस बुकानन और मांटगुमरी के पत्र प्रमुख है ।इस समय के पत्र मसलन फेड्स ऑफ इंडिया, इंडिया गजट, संवाद कौमुदी, इंडिया गजट, बंगदर्शन पत्रिका और बंगाल हरकारू, सती मामले को लेकर ज्यादा संवेदनशील थे। 1850 के अंतिम तथा 1860 के प्रारम्भ में जितने भी विधवापुनर्विवाह सम्पन्न हुए उनका वर्णन ब्रह्मसमाज के इतिहास और आत्मकथात्मक वृतांतों में मिलता है। विधवाविवाह सम्बधित मुख्य श्रोत शांतिपुर के जुलाहों द्वारा महिलाओं के साड़ी के किनारों पर रचित कुछ पक्तियाँ है, जिसमें विद्यासागर के दीर्घजीवी होने की कामना की गई है। इससे यह निष्कर्ष निकालना उचित नहीं होगा कि यह आन्दोलन भद्रलोक की सीमाक्षेत्र से निकल कर समाज के निम्न जाति का प्रतिनिधित्व करने वाली जुलाहा जाति तक में प्रविष्ट हो गया था। हो सकता है कि यह उन्माद क्षणिक हो और समय बीतने के साथ ही कमजोर पड़ गया हो। विधवापुनर्विवाह से सम्बन्धित जो श्रोत है, वे केवल कलकŸा के उच्चवर्गीय एवं सम्पन्न लोगों के लोकप्रिय विवाहों का उल्लेख करते है, जबकि निम्न जाति के किसी भी विवाह समारोह का विवरण प्रस्तुत करने में ये साक्ष्य विफल है। यहाँ तक कि इन्द्रमित्र द्वारा लिखित करूणासागर विद्यासागर नामक पुस्तक के 737 पृष्ठों में विद्यासागर से सम्बन्धित किस्से कहानियाँ संग्रहीत है, जबकि सिर्फ 62 पृष्ठों में ही विधवापुनर्विवाह से सम्बन्धित आख्यानों का वर्णन मिलता है। तत्कालीन समाचरपत्रों में विद्यासागर के व्यक्तित्व को एक शहरी शिक्षित, भद्रलोक से सम्बन्धित समाजसुधारक के रूप में प्रस्तुत किया गया है जिसका कार्यक्षेत्र कलकŸा तक सीमित था। तत्वबोधिनी पत्रिका ने अपने अगस्त-सितम्बर के अंक में लिखा था कि नवम्बर 1856 में शिरिषचन्द्र विधारत्न के विवाह के उपरान्त जहाँ चौबिस महिनों में पाँच विधवाविवाह सम्पन्न हुए थे वहीं अपेक्षाकृत छोटे शहर हुगली में इस दोरान सात विधवापुनर्विवाह सम्पन्न कराये गये थे। पत्र ने इन स्थानों की पहचान रामजीवनपुर, खिरपाई, चन्द्रकोना, बासूली के रूप में की थी। सोमप्रकाश ईश्वरचन्द्र विद्यासागर के ग्रामीण प्रभाव को बेहतर बताते हुए 1862 ई0 के तीन महिनों के अन्दर 20-22 विधवापुनर्विवाह के आयोजन की सूचना देता है। वह आगे लिखता है कि ऐसे अनेक विवाह 1865 ई0 तक इन इलाकों में होते रहे। आगे चलकर विधवापुनर्विवाह सिर्फ उच्च जाति के लोगों तक ही सीमित नहीं रहा। 1864-65 में आयोजित जिन 20-24 विधवापुनर्विवाह का वर्णन शंभूचरण विधारत्न ने किया है उसमें ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैद्य, जुलाहे और तेली जाति के लोग भी शामिल थे।27जुलाई 1867 में ईश्वरचन्द्र विद्यासागर द्वारा हिन्दू पैटियाट को कुछ पत्र लिखे गये थे। इन पत्रों से संकेत मिलता है कि किस प्रकार ग्रामीण इलाकों में विधवा पुनर्विवाह आन्दोलन को संगठित किया गया था। इसमें आनेवाली कठिनाईयों, आयोजन के दौरान होनेवाले खर्चो तथा दलपतियों एवं छोटे ग्रुपों को अपने पक्ष में करने के प्रयत्नों का वर्णन है। उन वर्गों को किस प्रकार विधवापुनर्विवाह के लिए राजी किया गया जो हिन्दू धर्म, रीति-नीति और परम्पराओं से अपरिचित थे। 1863 ई0 में ब्रह्यसमाजियों द्वारा वामाबोधिनी पत्रिका का प्रकाशन प्रारम्भ हुआ, जिसमें अधिकांश लेख महिलाओं द्वारा लिखे जाते थे, सिर्फ सम्पादकीय ईश्वरचन्द्र विद्यासागर का होता था। ठीक इसी समय कैलाशवासिनी देवी द्वारा लिखित पुस्तक हिन्दू महिलागनेर हीनावस्था का प्रकाशन हुआ था। इस पुस्तक में महिलाओं की अक्षमताओं के रोंगटे खड़े कर देनेवाला वृतांत दिया गया है। इस पुस्तक को विद्यासागर के विरोधी उनके बालविवाह पर लिखित निबंध का प्रत्युŸार मानते थे तथा इसके उदाहरणों को विरोधस्वरूप प्रस्तुत करते थे। लेखिका ने बचपन के बाद कन्याओं के साथ होने वाले असमान व्यवहार को रेखांकित किया है। इस पुस्तक में महिलाओं के उपवास, परिवार द्वारा उन्हें अशिक्षित रखने तथा अल्पवय में शादी होने की घटना का उल्लेख मिलता है। वैवाहिक जीवन, सादगीपूर्ण वैधव्य जीवन कुलीनवाद तथा उसके परिणामस्वरूप महिलाओं द्वारा वेश्यावृŸा का धंधा अपनाना, तथा यौन शोषण से मुक्ति हेतु एक विधवा का कलकŸा से मथुरा जाना तथा पंडों के जाल में फँसकर फिर वहीं शारीरिक शोषण एवं उत्पीड़न का जो लेखा-जोखा प्रस्तुत किया गया है, बड़ा ही हृदयविदारक है। वह हिन्दू धर्म पर कटाक्ष करते हुए कहती है‘‘ हिन्दू धर्म के आश्चयों को सिर्फ ईश्वर ही समझ सकता है“।28 पंडिता रमाबाई ने 1882 ई0 में ‘मोरल फॉर वीमेन‘ तथा 1888 ई0 में द हाई कास्ट हिन्दू वीमेन की रचना की थी। वह एक विद्रोही, शिक्षित, पितृसŸा की कटु आलोचक के रूप में 1870 के नागरिक समाज के एक बड़े विस्फोट के रूप में मौजूद रही। इस पुस्तक में रमाबाई ने मनुसंहिता के चूने हुए सूत्र सावधनीपूर्वक उद्घृत किए है। इन उद्धरणों में शुद्धता बनाये रखने के लिए उन्होंने एक से अधिक अनुवाद तथा उनके मूल अनुवाद का सहारा लिया। उनका एकमात्र उद्देश्य यह था कि जीर्ण-शीर्ण प्रथाओं और खतरनाक रिवाजां को प्रकाश में लाया जाय। उनका विश्वास था कि स्त्रियों की इस त्रासदी का उद्घाटन लोगां में करूणा का भाव जगाएगा और वे उनके उत्थान के लिए प्रेरित होंगे।2919वीं शताब्दी के साहित्यिक श्रोत, जो भी उपलब्ध है, वे महिलाओं के दुःख सहने की ताकत की प्रशंसा करते है। एज ऑफ कंसेंट समिति की 1928-29 ई0 में छपी रिपोर्ट में कहा गया था कि बालविवाह होने के बावजूद जवानी में वैधव्य प्राप्त करने पर भी वह संयम के साथ सादगीपूर्ण जीवन व्यतीत करती थी। इस रिपोर्ट में बंगाल के अतिरिक्त संयुक्त प्रान्त, बिहार, उड़ीसा एवं बरार में बालविवाह के प्रचलन की बात कही गई है। बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय के उपन्यासों यथा ‘आनन्दमठ‘ में बालविवाह, सादगीपूर्ण वैधन्य जीवन तथा सतीप्रथा को राष्ट्रीय अस्मिता के प्रश्न से जोड़कर देखा गया है तथा इसका वर्णन बड़े ही आत्माभिमान एवं गौरव के साथ किया गया है। प्रसाद दास गोस्वामी कृत कोलीमय घटक नामक एक मैन्यूअल कलकŸा से प्राप्त हुआ है, जो इस बात की वकालत करता हे कि विधवाओं को आत्मसंयम से काम लेना चाहिए जबकि बाल विधवाओं के लिए वह पुनर्विवाह की पैरवी करता है। नये अनुसंधानों से पता चलता है कि 1880 के दशक में बालविवाह बड़े गर्म जोशी से उल्लास भरे वातावरण में सम्पन्न किया जाता था।सुलभ समाचार , हिन्दू पैट्रियाट, सुरभि ओं पत्रिका, ढाका प्रकाश, मुर्शिदाबाद पत्रिका, द एडुशन गजट, द बंगाली, अमृतबाजार पत्रिका, बंगवासी ,दैनिक 'ओ‘ समाचार चन्द्रिका , वर्द्धमान, संजीवनी, तथा घूमकेतु आदि पत्र-पत्रिकाओं ने 19वीं शताब्दी के अंतिम दशक में विवाह की उम्र बढ़ाये जाने वाले एज आँफ कंसेंट बिल विवाद में गहरी रूचि प्रदर्शित की थी। 22 जुलाई 1887 के अंक में सुलभ समाचार ने बालविवाह के आयोजन में उपस्थित लोगां के उल्लास का वर्णन किया है। इसी तरह 1905 ई0 में भारत भ्रमण पर आये ब्रिटिश यात्री जॉन लॉ ने भी बालविवाह के आयोजन का वर्णन विश्व में दिखाई पड़ने वाले सबसे सुन्दर दृश्यों में किया है।30 हिन्दू पैटियाट ने 25 जुलाई 1887 के अंक के अपने लम्बे सम्पादकीय में जिसका शीर्षक था ‘‘द बोगस साइंस‘ में समाज सुधारकों के वैज्ञानिक ज्ञान, उनके श्रोत, श्रोत की विश्वसनीयता, साक्ष्य की प्रकृति, साक्ष्य की व्याख्या व उनके निष्कर्ष पर तीखा व्यंग्य किया है। पत्र ने बालविवाह के समर्थकां के इस तर्क को कि उष्णकटिबंधीय जलवायु में बच्चे कमजोर ही पैदा होते है, एक बेहद कमजोर ओैर भूस भूसा तर्क बताया था। सहवास की उम्र 10 से 12 वर्ष किए जाने को उचित ठहराते हुए पत्र कहता है कि व्यवहारिक रूप में 14 या 16 वर्ष की लड़की पाँच रुपये के नोट को खुलेआम सुरक्षित लेकर नहीं चल सकती तो 12 वर्ष की लड़की अपने साथ दुष्कर्म करनेवाले व्यक्ति को किस प्रकार रोक सकती है ? ढाका प्रकाश, एडुकेशन गजट तथा भारतीय लोक स्वास्थ्य समिति के अवैतनिक सचिव सिमन्स द्वारा बंगाल सरकार के मुख्य सचिव को लिखे पत्र31 में बालविवाहों के दुष्परिणामों की चर्चा करते हुए हरिमैती द्वारा उड़िया लड़की फूलमनी के साथ अत्याचार एवं बलात्कार की घटना का विस्तार से वर्णन किया गया है। ढाका प्रकाश लिखता है कि एक पूर्ण वयस्क पति अपनी बालिका पत्नी को पीटते-पीटते इसलिए मार डाला कि उसने उसके साथ विस्तर पर सोने से इंकार कर दिया था।32 इसप्रकार एंज ऑफ कंसेंट बिल भारत के सामाजिक एवं सांस्कृतिक इतिहासकारों के अध्ययन के लिए एक अत्यंत ही महत्वपूर्ण विषय बन चुका है। इस विषय पर जितना इतिहासलेखन हुआ है, काफी प्रभावशाली है। विगत 50 सालों के दौरान सर्वोत्कृष्ट साहित्य का एक बहुत बड़ा भाग इस विषय पर उपलब्ध है। 1960 के दशक के अमेरिकी इतिहासकार इस बात से सहमत है कि आधुनिक भारत में राष्ट्रवाद की उत्पिŸा के पीछे विभिन्न सामाजिक मुद्दों पर कानून निर्माण का बहुत बड़ा हाथ था। इस प्रकार कहा जा सकता है कि नये ऐतिहासिक अनुसंधान कार्य, सम्पूर्ण सामाजिक सुधार आन्दोलन खासकर महिलाओं की अधिकारिता को बढ़ाने के लिए किए गये सुधार प्रयत्न एवं आन्दोलन नये सिरे से पुनर्लेखन की माँग कर रहे है। जिसमें राजनीतिक सता परिवर्तन, वर्ग एवं श्रम का पैटर्न, शिक्षा तथा जनता के बीच कार्यशील धार्मिक कार्यप्रणाली एवं प्रक्रिया को शामिल किए जाने की आवश्यकता है। पूर्व में हुए सामाजिक इतिहासलेखन सिर्फ एवं सिर्फ हिन्दू समाज पर केन्द्रित थे, नये साक्ष्य भारत में मौजूद सभी धार्मिक समूहों, उनके विचारों एवं लैंगिक सम्बन्धों को इसके अंतर्गत लाने की अपेक्षा रखते है। प्रस्तुत पुस्तक में सभी धर्मां एवं जातियों में प्राचीन काल से आधुनिक काल तक प्रचलित लैंगिक सम्बन्ध, महिलाओं की समाज में स्थिति, धार्मिक परम्परायें, प्रथायें तथा दर्शन को शामिल करने का प्रयत्न किया गया है। महिलाओं की दुरावस्था के लिए जिम्मेदार कारणों पर प्रकाश डालते हुए समाज सुधारकों द्वारा महिला सशक्तिकरण के लिए चलाये जा रहे कार्यक्रमों को विवेचित, विश्लेषित एवं निगमित करने का प्रयास हुआ है। साथ ही इस पुस्तक में सुधारकां के प्रयासों की सफलताओं, विफलताओं के वर्णन के साथ ही उनके अंतर्द्वन्द्व और सामाजिक विरोध को भी उजागर करने की कोशिश की गई है।
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31 संक्षिप्त महाभारत,खण्ड -1, गीता प्रेस, गोरखपुर, विक्रम संवत् 2026, आदिपर्व पृ0- 59
32 आर0 एम0 दास, वीमेन इन मनु एण्ड हिज सेवेन कमेन्टेटर्स, वाराणसी, 1962, अध्याय -9, पृ0 - 250
33 जयनारायण पाण्डेय, सिन्धु सभ्यता, प्रामानिक पब्लिकेशन्स, इलाहाबाद 1986, पृ0 - 6
34 आर डब्ल्यू0 फ्रेजर, ब्रिटिश इंडिया तृतीय संस्करण, लंदन, टीफीसर अनवीन प्रेस, 1896 पृ0 - 164
35 पंडिता रमाबाई, द हाई कास्ट हिन्दू वीमेन (अनु0) शंभू जोशी, संवाद प्रकाशन, मेरठ, 2006, पृ0-78
36 डब्ल्यू0 जी0 विल्किन्सन, मॉडर्न हिन्दूइज्म, 1887, कलकŸा डक्कर स्पिक्स एण्ड कम्पनी।
37 अरविन्द शर्मा, सती हिस्टोरिकल एण्ड फेनोमेनी लॉजिक एसेज, मोतीलाल बनारसीदास, दिल्ली 1988 पृ0 - 2
38 दशरथ ओझा, अर्ली चौहान डायनेस्टीज, दिल्ली, 1975, पृ0 - 290
39 अलेक्जेण्डर डो, हिस्ट्री ऑफ हिन्दुस्तान, खण्ड - 1, 1812, पृ0 - 130
40 पी0 थॉमस, थ्रू द एजेज, एशिया पब्लिशिंग हाउस, न्यूर्याक, 1964, अध्याय - 9, पृ0 - 263
41 कुरआन मजीद (अनु0) मुहम्मद फारुख खॉँ, मकतबा अल हसनात दिल्ली, 1994, क्रम - 4, अन - निसा , आयात - 34, पृ0 - 84
42 के0 एम0 अशरफ, हिन्दुस्तान के निवासियों का जीवन और उनकी परिस्थितियॉँ, शिक्षा मंत्रालय भारत सरकार, 1969, पृ0 - 160
43 सी0 एम0 बक, फेयर एण्ड फेस्टिवल्स ऑफ इंडिया, कलकता, प्रथम संस्करण, पृ0- 51
44 रेखा मिश्र, वीमेन इन मुगल इंडिया (1526-1748), नवम्बर 1967, पृ0 - 12
45 सुशील चन्द्र दŸा, इंडिया पास्ट एण्ड प्रेजेण्ट, लंदन, पृ0 - 177 - 178
46 कल्पना दास गुप्त, वीमेन ऑन द इंडियन सीन, नई दिल्ली, 1967, पृ0 - 78
47 एम0 ए0 रहीम, सोशल एण्ड कल्चरल हिस्ट्री ऑफ बंगाल, कराची विश्वविद्यालय, 1967, पृ0 - 113
48 एम0 एम0 जफ्फर, सम कल्चरल आस्पेक्ट्स ऑफ मुस्लिम रूल इन इंडिया, पृ0 -198 - 99
49 यदुनाथ सरकार, चैतन्याज पिलग्रिमेजेस एण्ड टीचिंग्स, कलकता, 1913 पृ0 - 190
50 एल0 एम0 क्रम्प, द लेडी ऑफ द लोटस, ऑक्सफोर्ड प्रेस, लंदन, 1926 पृ0 - 9
51 यूनेस्को वीमेन एण्ड एडुकेशन, पेरिस, 1953, अध्याय - 1, पृ0 - 58
52 एम0 ए0 रहीम, सोशल एण्ड कल्चरल हिस्ट्री ऑफ बंगाल, कराची, प्रथम संस्करण 1970, पृ0 - 83
53 अबुल फजल, आइन ए अकबरी (ब्लॉक) एशियाटिक सोसायटी ऑफ बंगाल, कलकता, द्वितीय संस्करण 1927 पृ0 -287
54 विलियम वार्ड द व्यू ऑफ हिस्ट्री लिटरेचर एण्ड माइथोलॉजी ऑफ द हिन्दूज, खण्ड - 1, मिशन प्रेस 1818, भाग - 1, अध्याय - 3, पृ0 - 202
55 टी0 सी0 दासगुप्त, आस्पेक्ट्स ऑफ बंगाली सोसायटी फ्रॉम ओल्ड बंगाली लिटरेचर, कलकता विश्वविद्यालय, प्रथम संस्करण पृ0 - 3
56 डॉवरी सिस्टम, विवेकानन्द केन्द्र पत्रिका, अगस्त 1973, पृ0 - 114
57 अहमद शुकरी, मुहम्मडन लॉ ऑफ मैरेज एण्ड डायवोर्स, 1917, पृ0 - 117
58 इशुरीदास, डोमेस्टिक मैनर एण्ड कस्टम ऑफ द नादर्न इंडिया, बनारस, 1866, अध्याय - 12, पृ0 - 153
59 डब्ल्यू0 क्रुक, द पीपुल ऑफ इंडिया, दिल्ली, 1967, पृ0 - 173
60 हरिश्चन्द्र वर्मा, मध्यकालीन भारत खण्ड -1, हिन्दी माध्यम कार्यान्वयन, निदेशालय दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली, 1985, पृ0 - 332
61 नागरी प्रचारिणी सभा पत्रिका, विक्रम संवत् 2017, वर्ष - 65, संख्या - 4, में नर्मदेश्वर चतुर्वेदी का आलेख भारत में देवदासी।
62 चन्द्रगुŸा स्टडीज इन द कल्ट ऑफ मंदर गौडेस इन एंशियेन्ट इंडिया, विकास प्रकाशन दिल्ली, 1973, पृ0 - 8-9
63 अफसाना ए - बादशाहाँॅ या तारीख - ए- अफगानी ब्रिटिश संग्रहालय में रखी गई माइक्रोफिल्म की प्रतिलिपि के0 पी0 जयसवाल रिसर्च इंस्टीट्यूट पटना, खण्ड - 2, पृ0 - 2
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