ब्रिटिश शासन के अंतर्गत आर्थिक एवं सामाजिक नीतियां

भू-राजस्व व्यवस्था
बक्सर युद्ध के उपरांत 1765 ई0 में सम्पन्न इलाहाबाद की संधि से कम्पनी को बंगाल ,बिहार , और उड़ीसा की दीवानी प्राप्त हुई। इसके पश्चात् कम्पनी ने अपने को यहाँ का स्वामी समझा तथा लगान बसूलने का कार्य यहाँ के डिप्टी दीवान के पास ही रहने दिया। इस दौरान कम्पनी ने लगान में काफी वृद्धि की किन्तु लगान व्यवस्था में असंगतियों को देखते हुए वारेन हेस्टिंग्स भू-राजस्व वसूलने का काम 1771 ई0 स्वंय कम्पनी की देख-रेख में शुरू किया। इस अवधि मे वारेंन हेस्टिग्स ने बोली लगाने की प्रथा शुरू किया। इस अवधि में वारेन हेसिटग्सं ने बोली लगाने की प्रथा शुरू की जिसके अंतर्गत उच्चतम बोली लगाने वाले को लगान बसूल का अधिकार दिया गया। प्रारम्भ में इसे पाँच वर्ष के लिए किया गया, लेकिन 1777 ई0 में इसे वार्षिक कर दिया गया। इस दौरान कम्पनी द्वारा निरतर लगान में वृद्धि के कारण किसानों की स्थिति अत्यंत दथनीय हो गई। लगान कृषकों से जबरदस्ती वसूला गयां । भूमि सार संग्रह इजारेदार या तालुक्केदारों द्वारा किया जाता था। वारेन हेस्टिग्स के कौसिल के सदस्य किया जाय, लेकिन इस पर कार्यान्वयन नही हो सका। इसप्रकार वारेन हेस्टिग्ंस की मालगुजारी व्यवस्था पूर्णतः असंतोष जनक सिद्ध हुई जिसके फलस्वरूप बंगाल की अनेक पुरानी जमींदारियों जैसे वर्दमान, पूर्णियों, दीनाजपुर ओर राजशाही का अंत हो गया गया एंव बेदखली का सिल सिला चलता रहा 1784 के पिट्स इंडिया एक्ट द्वारा कार्नवालिस को यह निर्देंश मिला था कि  भारत में भूराजस्व व्यवस्था का जो कम्पनी के लिए एक समस्या बन गई है उसका समाधान करे एवं ऐसी व्याख्या स्थापित करें जिससे कम्पनी को निश्चित तथा अधिक से अधिक लगान की प्राप्ति हो सके। पहले से प्रचलित भूराजस्व पद्धतियों में नीलामी सर्वाधिक बोली लगाने वाले के पक्ष में छोडी जाती थी। किन्तु इजारेदार निलामी बोली से कई गुना एकत्र कर लेते थे। क्योंकि व्यवस्था एकवर्षीय होने के कारण उनका उद्देश्य उसी वर्ष लगान वसूलता होता था। इजातदारों के अत्याचारों से गस्त होकर वंगाली किसानों ने कई बार विद्रोह भी किए । इस निलामी पद्धतियों का विवेचन करते हुए हेनरी पैटुलु कहते है कि भूमि को वर्ष प्रतिवर्ष उठाने का अदूरदभितापूर्ण तरीका अपनाने से जो महानयतानएँ जाती है, उसका स्वाभाविक परिणाम निकल आया वे जमीनें जहाँ खेती होती थी अब वीरान और बंजर पड़ी है, जो कृषक वहाँ रहते थे वे उन्हें छोड़कर चले गये। इसके अतिरिक्त प्रतिवर्ष नये-नये व्यक्ति राजस्व की प्राप्ति नही हो पाती थी। फलतः स्थाई बन्दोबस्त आवश्यक हो गया था।
    कार्नवालियों का विचार था कि स्वस्थ प्रशासन के लिए भुस्वामित्व की सुरक्षा एवं अनिवार्य शर्त्त है तथा स्थाई बन्दोबस्त के अतिरिक्त ओर किसी तरह से इसकी प्राप्ति संभव नही है। स्थाई बन्दोबस्त के लागू किए जाने सेक कई प्रकार के लाभों की प्राप्ति हो सकती है। हेनरी पेटुलू जैसे विचाराकों का मानना था कि भू-सम्पति के अधिकारों की सुरक्षा से भूमि मे यथेष्ट विनियोंग को प्रोत्साहन मिलेगा। स्थाई प्रबन्ध के भूराजस्व निश्चित हो जाएगा एंव ठेकेदार द्वारा भोषण की समस्या समाप्त हो जाएगी।  परिणाम स्वरूप् बंजर भूमि एवं जंगलों को साफ कर कृषक खेती के काम में संलग्न हो जाएगे। कार्नवालिस के विचार में नये जमीदार परती जमीनों को आबाद करेंगें तथा भू सम्पति का मूल्य बढ़ा देगे। इसमे अतिरिक्त स्थाई बन्दोबस्त से सरकारी राजस्व को बार -बार होने से घाटो से सुरक्षा मिलेगी। यह भी विचार किया गया कि बंजार भूमि पर कृषि से न केवल उत्पादन में वृद्धि होगी अपितु जमींदार एवं कृषक समृद्ध होकर ब्रिटिश जीवन पद्धति को अपनायेगे जिससे ब्रिटिश माल के विक्रय को बढ़ावा मिलेगा। लगान वृद्धि की चिन्ता से मुक्त होकर जमींदार भी कृषि उत्पदान की और ध्यान देंगे।
            स्थाई बन्दोवस्त लागू करने से कृषि में सुधार की भी संभावना थी। इससे भूमि के मूल्य में वृद्धि होने से सुधार के मार्ग खुल जाएगे। 1790 के रूप पत्र में कार्नवालिस ने कम्पनी के डायरेक्टरों को लिखा कि ‘‘भूसंपति का मूल्य इतना हो जाएगा जितना हिन्दुस्तान में पहले कभी नहीं था। कलकत्ता के निवासियों के पास जो विशाल पूँजी है उसका उपयोग ने व्याजखोरी के स्थान पर भूमि खरीदने उसका सुधार करने जैसे कामों में करेंगे।‘‘ सुधार दो तरह से संभव होगा प्रथम बंजर भूमि पर कृषि करके तथा सिंचाई के साधनों का विकास और देखभाल करके। इतना ही जंगलों का काटे जाने से तैयार क्षेत्र तथा बंजर भूमि पर खेती किया जाएगा तथा भूस्वामी इतने समर्थ हो जाएगे कि भूसम्पति के प्राप्त लाभ से वे सिंचाई हेतु जलशयों एवं बाँधों की उचित मरम्मत करवाते रहेगे। अंग्रेजों को इस व्यवस्था का सबसे बड़ा लाभ यह दिखाई दिया कि जमींदारों को लगान वृद्धि के भय से छूट देकर निर्यात व्यापार के लिए अधिक सामग्री प्राप्त की जा सकेगी तथा धन निष्कासन को बढ़ावा मिलेगा। इसके अतिरिक्त वित्तीय दृष्टि से सरकार को निश्चित एवं स्थिर आय होती रहेगी। बन्दोवस्त पर जो पर्याप्त व्यय करना पड़ता था उसकी आवश्यकता नहीं होगी। बार-बार प्रंबध के लिए संसाधनों पर किये जाने वाले व्यय एवं समय की बचत होगी।
         स्थाई बन्दोवस्त से पूर्व ब्रिटिश सरकार ने कुछ ऐसी भूमि का वर्गीकरण किया जिसपर कानूनी रूप् से सिर्फ सरकार का अधिकार था। बिना जुते हुए क्षेत्र घास के मैदान, चारागाह एवं जंगल को राजकीय सम्पति मान लिया गया। दूसरे वर्ग की भूमि पर कानूनी स्वामित्व सरकार एवं भूमि पर कृषि करने वाले रैयत जिसे कुछ निश्चित अधिकार होते था, का माना गया। तीसरी श्रेणी की भूमि पर कानूनी अधिकारियों के निहित स्वार्थ थे सरकार, भूस्वामी या जमींदार अथवा सामूहिक रूप से ग्राम एवं वास्तविक रूप से कृषि करने वाले पट्टेदार और सहभागीदार व्यक्ति आते थे। चौथे प्रकार की भूमि पर चार स्वत्वाधिगरी थे- सरकार, सर्वोच्च भूस्वामी, वास्तविक भूस्वामी, पट्ठेदार कृषक तथा सहभागीदार व्यक्ति। भू प्रंबध से पूर्व प्रश्न उठा कि जमींदार की वास्तविक स्थिति क्या है, वह भूस्वामी है या लगान वसूल करनेवाला मात्र अधिकारी है, सर जान शोर जमींदार को भूस्वामी मानता था और वे ही लगान देने के वास्तविक अधिकारी थे। इसके विपरीत जेम्स ग्रांट भूमि पर सरकार का स्वामित्व स्वीकार करता था और उसे जमींदार, कृषक अथाव किसी व्यक्ति के साथ भूमि की लगान सम्बन्धी शर्तो को तय करने का अधिकारी समझता था। लेकिन कोर्ट ऑफ अयरेक्टर्स ने शोर के विचारों को उचित मानते हुए कार्नवालिस को जमींदारों के साथ लगान सम्बन्धी प्रबंध करने की स्वीकृति प्रदान की। भूप्रबंध में तीन बातों का निर्धारण किया जाता था। प्रथम का वह भाग जिसे प्राप्त करने का अधिकार सरकार को था का निर्धारण किया जाता। दूसरे लगान अदा करनेवाले उत्तरदायी व्यक्ति को चिन्हित करना तथा तीसरे भूमि में जिन लोगों का अधिकार था, का विवरण तैयार करना भूराजस्व प्रबंध हेतु सर्वेक्षण मानचित्र के साथ अधिकारों का लेखा रखा जाता था। सही उपज का अनुमान लगाने हेतु मिट्ठी का वर्गीकरण किया जाता था जिसके आधार पर बचत एवं सरकारी लगान का आकलन किया जा सके। मूल्यांकन उपज के आधार पर शुद्ध परिसम्पति पर किया जाता था।
स्थाई बन्दोवस्त के प्रावधानः 10 फरवरी 1790 को लार्ड कार्नवालिस ने भूराजस्व की नवीन व्यवस्थाओं 10 वर्ष के लिए लागू किया। परन्तु डायरेक्टरों की अनुमति मिलने के बार 22 मार्च 1793 का इस व्यवस्था को स्थाई बना दिया गया। यह व्यवस्था बंगाल, बिहार, उडीसा, उत्तरप्रदेश के बनारस संभाग तथा उत्तरी कर्नाटक में लागू किया गया। इस प्रकार स्थाई व्यवस्था के अतंर्गत कुल कृषि भूमि का 19 प्रतिशत क्षेत्र समाहित कर लिया गया। इस व्यवस्था के द्वारा जमींदारों को स्थाई रूप से भूमि के पट्ठे जारी किए गये। न्याय और व्यवस्था को बनाये रखने का दायित्व, अन्तर्देशीय और चुंगी वसूल करने का अधिकार तथा अपनी निजी भूमि को छोड़कर भूराजस्व कर से मुक्त अन्य किसी भूमि पर अधिपत्य बनाये रखने का अधिकार जमींदारों के पास नहीं रहा।
            भूराजस्व सदैव के लिए निर्धारित कर दिया गया जिसे जमींदारों को प्रतिवर्ष जमा करवाना था। 1774 में लगान के रूप में वसूल की जा रही राशि का 90 प्रतिशत जमींदारो से स्थाई रूप से लगान के रूप में वसूल किया जाता था तथा सरकारी लगान का 10 प्रतिशत हिस्सा उन्हें प्राप्त होना था। न्यायालय की स्वीकृति लिये बिना राज्य को इसदर में किसी प्रकार की वृद्धि करने का अधिकार नहीं था। कृषक से लिए जाने वाले समस्त प्रकार के कर समाप्त कर दिए गये। विनिमय ग्प्ट द्वारा सरकार को जमींदारों की सम्पति जब्त करने का अधिकार प्रदान किया गया। कडाई से लगान की वसूली करने के लिए 1794 ई0 में सूर्यास्त सिद्धान्त लागू किया गया। इसके अनुसार सूर्य के डूबने से पूर्व सरकारी खजाने में जमींदारों को धन जमा करना पड़ता था अन्यथा भूमि पर उनका मालिकाना हक छीन लिया जाता था।
                    ज्मींदारों को रैयतों के साथ सम्बन्धों में स्वतंत्र कर दिया गया, किन्तु उन्हें आदेश जारी किए गये ि कवे अपनी रैयत को पट्टेजारी करें तथा उन पट्टों में दोनों पक्षों के पास्परिक सम्बन्धों, लगान की राशि, भूमि पर उनके अधिकार का विवरण तथा सेवाओं का स्पष्ट विवरण हो। रैयत के पट्ठे में उल्लिखित शर्तों का जमींदारों द्वारा उल्लंघन किए जाने पर रैयत को न्यायालय में जाने का अधिकार था। न्यायालय की स्वीकृति प्राप्त किए बिना जमींदार रैयत से अधिक लगान की वसूली नहीं कर सकते थे। पट्ठों की अवधि दस वर्ष रखी गई थी। जिन रैयतों को परम्परागत रूप से अधिकार मिले हुए थे उन्हें भी नया पट्ठा प्राप्त करने का अधिकार मिला। नियमित भुगतान की अवस्था में जमींदार से भूमि हस्तगत नहीं की जा सकती थी। किन्तु लगान की निर्धारित राशि नियमित रूप से सरकार को अदा न करने पर सम्पूर्ण भूमि सरकार द्वारा हस्तगत की जा सकती थी और वर्ष के अंत में अनिवार्य रूप से नीलामी किए जाने की व्यवस्था थी तथा इसके अंतर्गत जमींदार को कारागार में डालने का भी प्रावधान था।
स्थाई बन्दोवस्त के लाभः - इस व्यवस्था के समर्थकों का मानना है कि स्थाई प्रबंध से सरकार प्रतिवर्ष लगान निश्चित करने की परेशानी से मुक्त हो गई एवं प्रबंध के लिए अपेक्षित व्यय की आवश्यकता नहीं रह गई। सरकार के लिए भी भूराजस्व की आय निश्चित हो गई जिसमें सरकार आय के अनुसार व्यय का निर्धारण कर सकती थी। स्थाई व्यवस्था का एक जबरदस्त लाभ यह हुआ कि बंगाली जमींदारों एक ऐसा वर्ग निर्मित हुआ जो कम्पनी सरकार का प्रबल समर्थक था। इसका उल्लेख करते हुए लार्ड विलियम बेंटिक ने कहा था कि ‘‘स्थाई बन्दोवस्त का कम से कम एक बहुत बड़ा फायदा यह हुआ कि धनी भूस्वामियों का एक ऐसा संगठन खड़ा किया गया जो कि तहे दिल से यह चाहता है कि अंग्रेजी राज्य बना रहे ओर इसका जनता पर दबाब बना रहे।‘‘ भारतीय इतिहासकार ए0आर0 देसाई इसकी पुष्टि करते हुए कहते है कि-‘‘राजनीतिक रूप से जमींदार एवं भूसम्पति धारक बिचौलिये ब्रिटिश राज के इतने पक्के समर्थक बन गये कि बंगाल 1857 के सैनिक विद्रोह और विप्लव से पूर्णतया अलग रहा। स्थाई बन्दोवस्त के राजनीतिक उद्देश्य की पूर्त्ति हुई, क्योंकि उसने आर्थिक आधार पर समाज के उत्कृष्ट वर्ग की स्वामिभक्ति प्राप्त करने का मार्ग प्रशस्त कर दिया। इसके अतिरिक्त प्रशासकीय दृष्टि से ब्रिटिश शासन के शुरू के दिनों में जमींदारों से लगान की वसूली आसान और आर्थिक दृष्टि से लाभजनक थी।
        स्थाई  भूमि व्यवस्था से जमींदारों को सर्वाधिक लाभ हुआ क्योंकि भूमि पर उनका वास्तविक अधिकार स्वीकृत कर लिया गया एवं भूस्वामित्व परम्परागत बना दिया गया। भूमि के मूल्य में वृद्धि हुई जिसका लाभ भी जमींदारों को मिला। नया जमींदार वर्ग लगान संग्रह की भूमि ठेके पर देने लगा इससे परजीवी लगान संग्रह करने वालों की सोपानालक संगठन की नींव पड़ी। समस्त प्रदत्त भूमि के वंशानुगत स्वामी के रूप में जमींदार के नीचे प्रथम, द्वितीय और तृतीय कर प्रसंवेदक आते थे। कार्नवालिस ने एक अध्यादेश जारी कर यह घोषित किया कि एक जमींदार की मृत्यु के बाद उसकी सम्पति और भूमि उसके उत्तराधिकारियों में सामान्य चल सम्पत्ति की तरह बाँट दी जएगी जिससे जमींदारों की काफी लाभ हुआ।
हानियाँः (1) स्थाई बन्दोवस्त के कारण सरकारी राजस्व सदा के लिए स्थिर हो गया। अन्य प्रान्तों के भूराजस्व में वृद्धि होती गई किन्तु बंगाल सरकार को इसका लाभ नहीं मिला। इसके अतिरिक्त भूमि के मूल्य में पारिस्थिति वृद्धि का लाभ भी सरकार को नहीं हुआ। स्मिथ के अनुसार- बढा़ हुआ लगान नये जमींदारों की जेबे फुलाने लगा, सरकार को इसके कोई लाभ नहीं हुआ।
(2) स्थाई व्यवस्था को प्रभावित जमींदार वर्ग इस व्यवस्था से दुखी था। ब्रिटेन के जमींदार वर्ग के समान बंगाल के जमींदार से कृषि सुधार हेतु पूँजी लगाने की आशा की गई थी वह पूरी नहीं गई।
(3) उप जमींदारी प्रणाली ने स्वाभाविक रूप से किसानों के अतिरिक्त शोषण को जन्म दिया क्योंकि मुख्य जमींदार द्वारा लगान संग्रह ठेके पर दिये जाने के पर लगान की उस राशि में कभी नहीं करता था जिसे वह पहले स्वयं किसी भी क्षेत्र के किसानों से संग्रह करता था इस तरह किसानों और जमींदारों के बीच किसी भी बिचौलिए का अर्थ था किसानों से अधिक लगान की उगाही और कर के बोझ में वृद्धि। इससे सिर्फ स्थाई जमींदारों की आय में 300 प्रतिशत की वृद्धि हुई। अधिनियम द्वारा निर्धारित तथा अंग्रेजी सरकार किसानों से लिया जानेवाला लगान 1774 के लगान का 90 प्रतिशत अंतिम रूप से जमींदारों द्वारा लिये जाने वाले लगान का सिर्फ 20 प्रतिशत था। राबर्टस ने लिखा है कि केवल जमींदारों के साथ समझौता करके किसानों की सर्वथा उपेक्षा की गई थी।
(4) कृषकों के परिश्रम पर जमींदार वर्ग की समृद्धता बढ़ी, वे लोग बड़ी-बड़ी कोठियाँ बनाकर कलकते में रहने लगे जिससे अनुपस्थित जमींदारी प्रथा शुरूआत हुई।
(5) समय पर राजस्व इकट्ठा नहीं कर पाने के कारण एक तिहाई भूसम्पत्तियों का हस्तान्तरण सार्वजनिक निलामी से हो गया। नदिया राजशाही, विष्णुपुर और दिनाजपुर की भूसम्पत्तियों निलामी से विखंडित हो गई और सरकार ने दूसरे जमींदारों से समझाते किये। बड़े जमींदारों के उपजमींदारों और करिंदो के व्यवहार से जमींदारों और कृषकों के प्रत्यक्ष सम्बन्ध विखंडित हो गये। इतना ही नहीं किसानों की समस्याओं के प्रति ध्यान न देने के कारण कई स्थानों पर किसानों और जमींदारों के बीच संघर्ष होने लगे।
(6) निचले दर्जे किरायेदारों को इससे कोई फायदा नहीं हुआ बार-बार लगान चूकाने में जमींदार असमर्थ रहे और उनकी जागीरें सरकार के लाभ के लिए बिकती रही। धूर्त और धन लोलूप व्यापारियों का एक ऐसा वर्ग सामने आया जिसने इन जमींदारियों को खरीद लिया। ये किसान से एक एक पैसे वसूल करने के लिए तरह तरह का हथकंडा अपनाते थे। दूसरी ओर इन्हें कृषि की उपज और सिंचाई का प्रबंध करने की ओर कोई ध्यान नहीं था फलतः कृषि अर्थव्यवस्था चौपट होने लगी।
रैयतवाड़ी व्यवस्था :- किसानों के साथ व्यक्तिगत रूप से किये गये लगान समझौते को रैयतवाड़ी व्यवस्था कहा जाता है। रैयत से तात्पर्य सामान्य किसान से था जिसके पास हल, दो बैल और एक गाड़ी होती थी और जिसे वह फालतू समय में किराये पर ढुलाई के काम में लेता था। लार्ड हेस्टिंगस के पूर्व मद्रास में महालवाड़ी पद्धति लागू करने का प्रयत्न किया गया था लेकिन थामस मुनरों ने इस क्षेत्र के लिए महालवाड़ी को उपयुक्त नहीं माना क्योंकि बंगाल के समान मद्रास में बड़े भू स्वामी नहीं थे जिसके साथ भूमि सम्बन्धी समझौते किये जा सके। सरकार ने 1792 से 1802 के बीच लगभग सभी जमींदारों की भूमि अपने अधिकार में लेकर परम्परागत व्यवस्था को बदल दिया था। इसके अतिरिक्त दक्षिण में अंग्रेजी शासन की स्थापना के पूर्व ही सशक्त किसान आन्दोलन ने सामंती शोषण को कम कर दिया था। अतः यहाँ किसान ही भूस्वामी थे।
1792 ई0 में रैयतवाड़ी व्यवस्था को सर्वप्रथम बारामहल जिले में कर्नल रोड ने लागू किया। लगान समझौता किसानों के साथ उसे 10 वर्ष की अवधि के लिए किया गया लेकिन कोई विशेष सफलता नहीं मिली। 1797 ई0 में राजस्व बोर्ड रैयतवाड़ी को समाप्त करने का निर्देश दिया। निजाम से प्राप्त भूमि का कलक्टर हेक्टर मुनरों को बनाया गया तो उसने इस क्षेत्र में रैयतवाड़ी व्यवस्था लागु की। 1809 ई0 में यह व्यवस्था 1825 ई0 में लागू की गई इसके साथ ही बरार, बर्मा, असम और कुर्ग के कुछ हिस्सों में लागू किया गया। इस प्रकार इस व्यवस्था के अंतर्गत कुल ब्रिटिश भारत की कुल भूमि का 51 प्रतिशत हिस्सा शामिल हो गया।
प्रावधान :- भू प्रबंध के सरकारी पत्रों में कहीं भी रैयत को भू स्वामी नहीं कहा गया है। बम्बई के भूमि रिकार्ड में उसे अधिगृहिता कहा गया है जिसका भूमि पर कब्जा था और उसका अधिकार वंश परंपरागत माना गया, जिसका हस्तांतरण किया जा सकता था और जिसका यह दायित्व था कि सरकारी लगान जो भी उसे जमा करवाये। यही बात मद्रास न्यायालयों में रैयतों के लिए प्रचलित थी। राजकीय अधिकारियों एवं रैयतों के मध्य किसी बिचौलिये का प्रावधान नहीं रखा गया था सरकार ही कृषकों से सारा लगान वसूल करती थी। हर रैयत बिना किसी पारस्परिक गारंटी के व्यक्तिगत रूप से कर देने योग्य माना गया। इस व्यवस्था में भूमि का पट्टेदार जब चाहे उचित नोटिस देकर जो भूमि उसके पास पट्टे पर थी उसे या उसके किसी भाग को छोड़ सकता था और इस प्रकार सरकारी मालगुजारी अदा करने के दायित्व से मुक्त हो सकता था। लगान की अदायगी नहीं होने पर भूमि जप्त की जा सकती थी एवं लगान देते रहने पर चिरकाल तक अपनी भूमि पर स्वत्व रह सकता था। प्रारम्भ में भूराजस्व 30 से 50 प्रतिशत तय किया गया लेकिन 1855 ई0 में विस्तृत सर्वेक्षण के बाद वास्तविक रूप से लगान 50 प्रतिशत लागू किया गया। भू राजस्व की समय समय पर पुनर्समीक्षा होती थी। साथ ही यह अधिकार था कि वह कर समझौते की पुर्नसमीक्षा के दौरान या किसी भी समय पर भूमि के उपयोग को मना कर सके। कलक्टर को सरकार की ओर से बन्दोबस्त करने और लगान वसुलने की जिम्मेदारी सौपी गई। लगान की दर जानने के लिए सरकार को अधिक गहराई से हिसाब का अध्ययन करना, जुताई की वास्तविक स्थिति जाना तथा संसाधनों की अधिकतम जानकारी प्राप्त करना आवश्यक माना जाता था।
बम्बई क्षेत्र में भू राजस्व का प्रबंध 1796 ई0 से ही स्टुअर्ट एल्फींस्टन के नेतृत्व में हो रहा था। 1835 ई0 में बिनगेट बम्बई भूमि सर्वेक्षण का अधीक्षक नियुक्त किया गया उसने 1847 ई0 में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की थी जिस पर गोल्डस्मीथ, डेविडसन और विगनेट के हस्ताक्षर थे। इसके बाद रैयतवाड़ी प्रथा बम्बई क्षेत्र में भी लागू कर दी गई। यहाँ बंजर भूमि पर स्वामित्व सरकार के पास था, लेकिन इस जमीन में सरकार और काश्तकार का बराबर हिस्सा माना जाता था। लगान भूमि के मूल्य के आधार पर नियत किया न कि उपज के आधार पर।
रैयतवाड़ी प्रथा भी कृषकों के लिए काफी हानिकारक सिद्ध हुई क्योंकि भू राजस्व की मात्रा अधिक थी। किसी वर्ष फसल खराब होने से लगान में छूट की संभावना नही ंके बराबर थी। प्रत्येक 30 वर्षों के पश्चात पुर्नसमीक्षा का सुझाव दिया गया। फलतः कृषक 30 वर्ष पश्चात संभावित वृद्धि से आतंकित रहते थे। और इसलिए न तो अधिक उपज के लिए और न नई भूमि में खेती करने के लिए प्रोत्साहित होते थे। अत्यधिक बढ़े हुए लगान के परिणाम स्वरूप लगान समय पर न दे पाने के कारण कृषकों की भूमि तथा सम्पत्तियों को नीलाम किया जाने लगा। 8.50 लाख कृषकों की 19 लाख एकड़ भूमि ग्यारह वर्षों में अंग्रेजी सरकार ने अपने लगान पूरा करने के लिए नीलाम कर दी। रैयतवाड़ी पद्धति में भू राजस्व की मांग अत्यधिक होने के कारण उन क्षेत्रों में जमींदारों के मध्य वर्ग का विकास नहीं हो सकता। लेकिन भूमि से सम्बन्धित अधिकारों का लेखा आवश्य तैयार हो गया था। इन अधिकारों को न्यायालय द्वारा मनवाया जा सकता था। अचल सम्पत्ति पर व्यक्तिगत अधिकार कायम हो गया। इससे गाँव के सामुदायिक बन्धनों की ढ़ीला करने तथा तोड़ने में सहायता मिली। भूमि अन्य वस्तुओं की भाँति सम्पत्ति मान ली गई जिसका आसानी से हस्तांतरण किया जा सकता था।
महालवाड़ी प्रथा :- महल का तात्पर्य सम्पूर्ण ग्राम या जागीर होता था। इस पद्धति में राजस्व व्यवस्था प्रत्येक महल के साथ स्थापित की गई। सरकार ने किसी एक व्यक्ति को पूरे गाँव का मालिक नहीं माना और न सरकारी भू राजस्व अदा करने के लिए पूर्णरूप से उसे उत्तरदायी ठहराया। यद्यपि सुविधा के लिए ग्रामीण भूमि के भागीदारों में से प्रमुख को लम्बरदार बना दिया और गाँव की ओर से हस्ताक्षर करने के लिए अधिकृत कर दिया। इस प्रथा में गाँव की ओर से उसे हस्ताक्षर करने के लिए अधिकृत कर दिया। इस  प्रथा में गाँव में भागीदारों में संयुक्त रूप् से मालिकाना अधिकार निहित हेते थे। बन्दोबस्त के समय सभी भागीदारों के साथ समझौता किया गया तथा भूराजस्व दायित्व पृथक्-पृथक् प्रत्यके भागीदार का रहा नये भूमि खरीदने  वालों की स्थिति भी अन्य भागीदारों के समान मान की गई।
    महालवाली व्यवस्था उतरप्रदेश, मध्यप्रांत तथा पंजाब के अंतिरिक्त संतांतरित क्षेत्र जिसे  अवध के नवाब ने कम्पनी  को 1801 की संधि द्वारा सौपा था। इसमें सात जिले-इराना, मुरादाबाद, फर्रूखावाद, इलाहाबाद, कानपुर गोरखपुर और इरावा शमिल के तथा विजित क्षेत्र, जो रेग्यूलेशन 9 के द्वारा सुरजी अर्जुनगाँव की संधि द्वारा सिन्धियाँ सें प्रात्प हुए थे जिसमें अलीगढ़, सहारनपुर, आगरा, और अलीगढ़, के जिले शामिल मे लागू की गई। यह व्यवस्था कुल राजस्व क्षेत्र के 30 प्रतिशत भागों में लागू की गई थी।
प्रावधानः- इस व्यवस्था  में गाँव की समस्त भूमि जिम्मेदारी सभी भूमिपतियों पर संयुक्त रूप् से जली गई तथा सामुहिक रूप् से गाँव या महाल के साथ बन्दोबस्त किया गया। लगान कम से कम 10 से 12 वर्ष के लिए तथा अधिक से अधिक 20 से 25 वर्ष के लिए तय किया गया। जहाँ जमींदार लगान वसूलने थे वहाँ 30 प्रतिशत तथा जहाँ भूमि ग्राम समाज की सम्मिलित भूमि थी वह कर भूमि किराये का 95 प्रतिशत तय किया गया। महालवाडी प्रणाली के अंतर्गत गाँव की समस्त भूमि के अतिरेक मूल्य को आधार मान लिया। जाता था भूराजस्व इस अति रेक मूल्य का एक भाग होता थां। सरकार के कार्यकाल में यह अंश 80 प्रतिशत से भी अधिक था।1822 ई0 मेकं अतिरेक मूल्य का 83.3 प्रतिशत अंश उडीसा में भूराजस्व के रूप में निश्चित किया गया। उसे 1840 ई0 में 65 प्रतिशत किया गया एंव 1901 ई0 में उसे घटाकर 54 प्रतिशत कर दिया गया। 1855 ई0 में सहारपूर के नियम के अनुसार भूजरास्व को अतिरेक मूल्यों का लगभग 50 प्रतिशत किया गया।
    महालवाड़ी व्यवस्था को सुव्यवस्थित आयुक्त बोर्ड को सचिव हॉक्ट मकेजी ने सुझाव दिया कि भूमि का सवैक्षण किया जाए, व्यक्तियों अधिकारों का लेख तैयार किया जाए, लगान की राशि तय की जाए तथा भूमिकर प्रधान या लम्बदार द्वारा संग्रह करने कों व्यवस्था की जाए। 1822 के रेग्यूलेशन-7 द्वारा प्रत्येक समझौते से पूर्व बहुत विस्तृत एवं गहराई से भूमि की जाँच कराने का आदेश दिया गया। नई भूमि योजना मार्टिन वर्ड को निर्देशन में तैयार की गई, इसलिए वर्ड को उत्तरी भारत में भूमिकर व्यवस्था का प्रवर्त्तक माना जाता है। मार्टिन वर्ड व्यवस्था के अनुसार एक भाग की भूमि का सर्वेक्षण किया गया था, जिसमें खेत की परीधियाँ निश्चित की जाती थी तत्पश्चात बंजर और उपजाऊँ भूमि स्पष्ट की जाती थी। इसके बाद सम्पूर्ण क्षेत्र तथा समस्त गाँव का भूमिकर निश्चित किया जाता था। भूमिकर तय करने के लिए मानचित्रों और पंजियों का उपयोग किया जाता था। भूमिकर के केवल नकद लेनें का प्रावधान था। 1833 ई0 में विलियम बेंटिक द्वारा रेग्यलेशन-9 पारित करके महालवाडी पद्धति को व्यवस्ति ढाँचा प्रदान किया गया। आंगरा पंजाब, सेन्ट्रल प्रोविंसेज में सरकार ने कृषकों से सीधा सर्म्पक नही किया बल्कि एक नये मुखिया वर्ग का निर्माण किया , किन्तु एसें करते समय सरकार ने एक कृषक को अपनी भूमि कें अधिकार बेंचने अथवा उसकी जमानत पर ऋण लेने के अधिकार प्रदान कर दिए। भूराजसव की निर्धारित राशि की प्राप्ति सुनिश्चित करने हेंत ऐसी व्यवस्था आवश्यक मानी गई। कृषकों को भूमि विक्रय का अधिकार दिये जाने का परिणाम यह हुआ कि साहुकारों ने ऋण के बदले किसानों की जमीने क्रय करना प्रारम्भ करा दिया था।
कृषि का वाणिज्यीकरण
हस्तकला दके विनाश, आंतरिक व्यापार से भारतीयों को वंचित किये जाने, भारतीय जमींदारों की लूट, लगान की भारी मात्रा आदि तत्वों ने आम नागरिकों की क्रयशक्तिकों कम कर दिया जिससे भारत में भुगतान संतुष्टफलन की समस्या उत्पन्न हो गई। क्योंकि आयातहीत वस्तुओं के लिए भूस्य, कंपनी के शेयर धारकों को हिस्सा, अवकाश प्राप्त सैनिको  और नागरिक  के पेंशन हेतु कम्पनी को धन की आवश्यता थी। इसपर जनसाधारण की क्रयशक्ति कम होनें और अतिरिक्तों वस्तुओं से धन दोहन के फलस्वरूप् भारतीय शक्तियों में इतनी जान नही बच गई थी। कि उसका और अधिक दोहन कर इस समस्या का समाधान किया जा सके। फलतः इन समस्याओं को सुलझानों और क्रयशक्ति बढ़ाने का एक ही तरीक शेष था कृषि का विकास 1840 तक यह स्पष्ट हो गया था कि बिं्रटेन भारत के बाजारों मे अपना माल तब तक नही भर सकता था जब तक कि वह भारत को विनिमय योग्य कुद वस्तुओं के उत्पादन के लायक नहीं बना देता। अतः कम्पनी पर दबाव लगाया गया कि वह भारत में सिंचाई के साधनों का विकास करे तथा व्यावसायिक फसलों की किस्मों में सुधार करने ही दिशा में कदम उठाये। पूंजी वादी व्यवस्था कें  बढने नये भूमि सम्बन्धों तथा अत्यधिक लगान के कारण भारतीय किसानों को नकद पैसे की आवश्यकता हुई, जिसके लिए उसने ऐसे फसल उगाना शुरू किया जिसे बाजार में क्रय विक्रय कर सके। उत्पादन  के स्वरूप् में आये इस परिवर्तन को कृषि के वाणिज्यीकरण की संज्ञा दी गई। वाणिज्यीकरण के प्रभाव में आने के कारण अब फसलो का उत्पादन ग्रामीणोंं के लिए नही अपितु राष्ट्रीय अथवा अतंर्राष्ट्रीय मंडियों के लिए किया जानें लगा। कपास, पटसन, तिलहन, गन्ना, मुगँफली, तम्बाकु, चाय, रबड़ आदि प्रमुख वाणिज्यिक फसलें थी। भारत में कृषि के वाणिज्यी करण की आदि अ्रग्रसवित होने के कई कारण थेः-
ः-प्राक् ब्रिटिश काल ग्रामीण अर्था व्यवस्था आत्म निर्भर थी। गाँव की आवश्यकता की सभी वस्तुएँ गॉवों में ही निर्मित दी जाती थी। और उनका विनियम भी गाँव की जनता तक ही सीमित था। ग्रामीण हस्त शिल्प उद्योग कृषक अर्थव्यवस्था का आधार स्तंभ था जिसका विनाश करना इसलिए आवश्यक था कि स्थानीय ग्रामीण हस्तशिल्पियों को हराकर ग्रामीणों क्षेत्रों में ब्रिटिश माल की सपत बढ़ाना थ इसके लिए सर्वप्रथम अंग्रेजों ने भारतीय हस्तशिल्प उद्योगों को नष्ट किया फलतः विधि कामगार कृषि करने को बाध्य हो गये। इम्पीरियल गजरियर के अनुसार 1891 से 1901 तक की अल्प अवधि में ही आधे भारतीय कामगारों को अपना व्यवसाय छोड़कर कृषि कार्य  में प्रवृत होना पड़ा। इस प्रकार नकद फसलो के उत्पादन हेतु वांछित कृषि श्रमिक कम पारिश्रामिक में सुलभ हो जाते थे। कनिंघम का मानना है कि प्रयास द्वारा व्यापार-व्यवसाय को नष्ट करके भारत को कृषि प्रधान देश बनाया गया- स्वावलम्बी ग्रामीण अर्थव्यवस्था कृषि के वाणिज्यी करण की दिशा में प्रमुख रूकावट थी जिसे एक झटके मे ही समाप्त कर दिया गयी। ब्रिटिश सरकार द्वारा प्रचलित  भूमि व्यवस्थाओं ने रैयता को भूमि का मालिक बना दिया । भारत में जमीन की निजी मिल्कीया की प्रथा के कारण जमीन अब धन्य वस्तु हो गई। जिसे रहे न रखा जा सकता था। या खरीदा, बेचा जा सकता था। समय पर मालगुजारी का भुगतान न करने के कारण कुछ बड़ी जमीदारियों विखंडित होकर बिक गई। अतः अधिक परिश्रम द्वारा ही अधिक उत्पादन करके ही कृषक भूमि पर अधिकार बनाये रख सकते थे अन्यथा भूमि निलामी से बकाया राशि की वसूली की जा सकती थी। साहुकारों का ऋण अदा रखने के लिए भी अधिक भावों में विक्रय योग्य फसलों का उत्पादन किया जाना कृषकों के लिए आवश्यक हो गया था।
    ब्रिटिश भूराजस्व व्यवस्था ने किसानों को खेती पर अधिक ध्यान देनें तथा अधिक उत्पादन के लिए बाध्य कर दिया जिससे बढ़े हुए भूराजस्व का भगतान किया जा सके। अंग्रेजी मालगुजारी के दबाव के काशत्कारों को अधिक उत्पादन और अंततोगत्वा वाणिज्यि फसलों के उत्पादन के लिए प्रेरित किया यातायात के सुविधा का विकास भारतीय कृषि में नये परिर्वतन को जन्म दिया। इस परिवर्तन की मुख्य विशेषता यह थी कि अब घेरलू उपयोग के बदले बाजार में विक्री के लिए चीजों का उत्पादन होने लगा। खेती की जानेवाली औद्योगिकी फसलों के क्षेत्र. विशिष्टि करण दिखाई देने लगा। निर्यात व्यापार बढ़ा और साथ ही दूर तक देश का अंदरूनी व्यापार भी।
    लगान की अधिकता, महॅगाई, कम या अधिक वारिश तथा सामाजिक दायित्वों की पूर्त्ति हेतु किसान समय-समय पर साहुकारों से ऋण लेने को बाध्य होते थे इससे अंग्रेज पूंजीपति भलिभांति परिचित थे। अतः वान्छित फसलों की प्राप्ति के लिए ब्रिटिश पूजीपतियों एवं उद्योग पतियों ने अग्रिम राशि देना प्रारम्भ किया। अग्रिम व्यवस्था के कारण किसान एक निश्चित फसल उगाने के लिए बाध्य थे एवं जिनके द्वारा अग्रिम भुगतान की गई थी आवश्यक रूप से उसे ही फसल बेचनी हेती थी। इस प्रकार किसानों को पर्याप्त हानि उठानी पड़ती थी। भूमि की विशिष्टतओं के कारण अनेक जगहों पर ऐसी फसलों उत्पादित की जाने लगी जिनकी पैदावार भी अधिक हो तथा उनके विक्रय द्वारा अधिक लाभ प्राप्त किया जा सके।
स्वरूपः- प्राक् ब्रिटिश भारत में कृषि फसलों में उत्पादन में विविधता दिखाई देती है। पंजाब, सीमाप्रान्त, बरार और बम्बई में गेंहू अधिक बायो जाता था। संयुक्त प्रान्त, मदास, मध्यप्रातं , बम्बई, असम, संयुक्त प्रान्त और बर्मा में चावल उगाया जाता था, पटसन की खेती गंगा एवं अन्य नदियों द्वारा बिछाई गई नई मिट्टी के क्षेत्र बंगाल कूच बिहार, असम, उडीसा, में की जाती थी। भारत से निर्यात की जाने वाली वस्तुओं में 33 प्रतिशत भाग कपास का होता थां। कपास की पैदावार, बम्बई, सिन्ध, भारत की रियसातें पंजाब बिहार, बंगाल उडीसा ओर संयुक्त प्रान्त के कुछ भागों में की जाती थी। कृषि के वाणिज्यी करण के कारण कृषि के स्वरूप में  मूलभूत परिवर्तन हुआ। अपनी विशिष्टताओं कें कारण कई स्थानों में अब केवल एक ही फसल उगाई, जाने वाली जैसे बंगाल  में जूट के उत्पादन पर, पंजाब में केवल गेंहूँ की फसल की खेती को बनारस, बिहार, बंगाल, तथा मध्य भारत व मालवा में बढाया गया वर्मा में चावल की खेती की जाने लगी। अपने व्यापरिक हितों को दृष्टि में रखकर सरकार ने इन कृषि उत्पादानों को बढ़ाने के लिए अग्रिम राशि दी। 1853 के बाद तो ब्रिटिश पूॅजी पतियों द्वारा भारत में पूॅजिनिवेंश के कारण नील, चाय, कॉफी, रबर आदि  की खेती पर बल दिया गया। पहला कृषि परीक्षाण  फार्म 1863 ई0 में मद्रास में बनाया गया तथा 1830 में मद्रास मेकं एक कृषि कॉलेज खोला गया। इसके अतिरिक्त पूना के कॉलेजो में वैज्ञानिकों ढंग से कृषि की शिक्षा दी जाने लगी।
    इस प्रकार ब्रिटिशा नीतियों के कारण वाणिज्यिक फसलों के उत्पादन  की प्रवृत्ति बढ़ी क्योकि भूराजस्व का युगतान तथा साहुकारों के ऋण की अदायगी अधिक पैदावार देने वाली तथा विक्रय करने पर अधिक लाभ देने वाली फसलों की पैदा बार से ही संभव था। 1895 से 1913-14 तक समस्त औद्योगिक फसलों वाले बुवाई क्षेत्र में 62 प्रतिशत की वृद्धि हुई, कपास क्षेत्र 63 प्रतिशत, जूट, 38 प्रतिशत, अनाज का क्षेंत्र 37.4 प्रतिशत उत्पादन बढा़। परिणामतः विश्व बाजार में औद्योगिक फसलों के निर्यात में वृद्धि हुई। जहाँ पहले गेहूॅ बोया जाता था वहाँ अब कपास, जूट, नील, अफीम, चाय की खेती होने लगी। ऐसे क्षेत्र जहाँ अनाज की फसलें प्रमुख की वहाँ गन्ना तिलहन आदि पैदा की जाने लगी।
ग्रामीण समाज पर प्रभावः- कृषि के वाणिज्यीकरण ने व्यापरिक पूँजी ओर सूदखोरी को जन्म दिया ओर ग्रामीण समाज में कृषकों के बीच के अंतर को और अधिक बढ़ाया । इससे सामान्य किसान की उपार के लिए महाजनों पर निर्भरता बढ गई। यह धन मंदी के मौसम में जीविको पार्जन के लिए कर्ज के रूप में लेना पड़ा। जैसे व्यावसायीकरण बढता गया भूराजस्व के भूगतान के लिए भी देनदार व्यापारी नकद आपूर्ति करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभातें रहे महाजन आयातीत औद्योगिक उपभोक्ता। वस्तुओं , विशेषकर मैनचेस्टर के कारण का ग्रामीण बाजारों मे ंएक प्रमुख एजेन्ट बनकर उभरे।
    जब गरीब खेतिहार बाजार के लिए फसले उगा रहे थे। वस्तुतः उस समय के वे देनदार या महाजन के हाथों गिरवी हो चुके थे। खेतिहारों का थोड़ा सम्पन्न वर्ग तुलनात्मक रूप् दसे अपने सामानों का भंडारण कर सकते थे और कराई के बद लोग अपनी उपज को बाजार तक ले जाकर महाजनों ओर द्वारा गाँव में दी जाने वाली कीमत से ज्यादा कीमत पर बेंच सकते थे। इसने अलावा वे इस बात का निर्णय कर सकते थे कि कौन सी फसल उगाई जाए जबकि गरीब खेतीहार वही फसल उगाने पर मजबूर था जो महाजन चाहता था। कुछ क्षेत्र में सम्पन्न किसान ही गरीब किसानों के महाजन बन बैठे और इस प्रकार विभेदीकरण या विशिष्ट करण की प्रक्रिया तीव्र हो गई।
    पैसो के लेन देन के इस व्यापार के चलते बड़ी संख्या में खेतीहारों की जमीन छिनप गई और गैर कृषिकरण  की प्रक्रिया के कारण वे भूमिहीन श्रमिको में परिवर्तित हो गये। गैर कृषिकरण और भूमिहीन श्रमिकों की बडी संख्या ओैपनिवेशिक काल की एक प्रमुख विशेषता के रूप मे उभर कर समाने आई। वाणिज्यीकरण के कारण किसान धीरे-धीरे व्यापारियो पर निर्भर होता गया और अपनी बेहतर मासी हालत के कारण वयापारियों ने किसानों की गरीबों का पूरा फायदा उठाया। अग्रिम व्यवस्था के कारण किसान एक निश्चित फसल के उत्पादन के लिए बाध्य थे एंव जिनके द्वारा अग्रिम भुगतान किया जाता था उसी को फसल बेचना पडा था। इस व्यवस्था का लाभ स्थानीय दलाल और व्यापारियों ने उठाया किसानों के खेत पर खड़ी फसल को सस्ते दरों पर क्रय करने की एक प्रथा सी बन गई थी। किसान अपनी तात्कालिक  आवश्यकताओं की पूर्त्ति हेतु फसल को मडी में ने ले जाकर कटाई के दौरान बिक्रय कर भारी हानि उठाने को बाघ्य थे।
ग्रामीण ऋण ग्रस्तता
अंग्रेजों की कृषि एवं राजस्व नीति ने न केवल भारतीय परम्परागत अर्थव्यवस्था को तोड़ा अपितु आर्थिक क्षेत्र में हुए परिवर्त्तनों से सामाजिक ढ़ाँचा भी चरमरा गया। ग्रामीण किसानों की गरीबी और तंगहाली ने उन्हें महाजनों से चरण लेने के लिए बाध्य किया। ऋण से जुड़ी हुई समस्याओं का विवेचन करते हुए पाश्चात्य विद्वानों ने इसके प्रमुख कारण के रूप में सदैव भारतीयों की आरामतलबी, फिजुल खर्ची, अपव्यय, विवाह, गमी और विभिन्न उत्सवों पर अधिक विनियोग को लिया है। राष्ट्रवादी इतिहासकारों का मानना है कि कृषकों की ये सामाजिक परम्परायें नई थी। 19वीं शताब्दी में मात्र इतना परिवर्त्तन हुआ था कि सरकार की राजस्व माँग बढ़ती गई और कृषकों के पास इतना शेष नहीं रहता था कि वे अपने सामाजिक उत्तरदायित्वों को पूरा कर सकें। भारतीय कृषकों के ऋणों की विशेषता यह थी कि ये ऋण उत्पादन में नहीं लगाये जाते थे। ये ऋण बहुधा सरकारी लगान या अपना जीवन निर्वाह या सामाजिक उत्तरदायित्वों को पूरा करने के लिए होते थे। 1875 ई0 में दक्कन रायट्स कमीशन ने शाही विवाह आदि पर होने वाले खर्च को ऋणग्रस्तता का प्रमुख कारण नहीं माना था। इस सम्बन्ध में विद्यालंकार ने अपने पुस्तक ‘कृषक भारत‘ में लिखा है कि वास्तव में यह काफी स्पष्ट कि भूस्वामियों के वंशजों द्वारा छोटी कृषक सम्पत्ति का दमन, साम्राज्यवादी कर बोझ तथा सामंतवादी साम्राज्यवादी शोषण के परिणाम स्वरूप छोटे उत्पादक की अत्यधिक दरिद्रता, किसानों के अत्यधिक गिरवी होना ऋणग्रस्तता के वास्तविक कारण थे। 1933-34 में बंगाल में ऋणग्रस्तता के संदर्भ में करवाएँ गए जाँच से पता चलता है कि 24.2 प्रतिशत था लगान देने के लिए, 23.7 प्रतिशत धन पूँजी के विकास के लिए तथा 22.3 प्रतिशत धन सामाजिक और धार्मिक कार्यों के लिए कृषकों द्वारा ऋण लिये जाते थे।
जमीन की मालगुजारी और लगान के बोझ ने ग्रामीण ऋणग्रस्तता को जन्म दिया। पहले महाजनों को सामान्यतः भूमि रेहन रखने, ऋणराशि की वसूलीन होने पर भूमि को निलाम करने के अधिकार नहीं थे। ब्रिटिश शासन में सारी परिस्थितियाँ बदल गई। इस शासन प्रणाली ने महाजन को कर्जदार की कुर्की करने और जमीन का हस्तांतरण करने का अधिकार दे दिया और इनकी मदद के लिए पुलिस और कानून को सख्त बना दिया गया। इस प्रकार सूदखोर महाजन पूँजीवादी शोषण की समूची व्यवस्था की धूरी बन गया। वैकिंग समिति ने किसानों की ऋणग्रस्तता को दो भागों में विभाजित किया है। 1. मूल तथा 2. चालू ऋण। क्योंकि अधिकांश ऋणी किसान फसल के बाद भी अपने चालू ऋणों को भी नहीं चूका पाते थे, इसलिए बचा हुआ शेष भाग मूल ऋण में जूड़ जाता था। यह मूल ऋण लम्बे समय तक किसानों के लिए समस्या बनी रहती थी। कई मामलों में तो किसान इस ऋण के भार से तमाम उम्र छूटकारा नहीं पाते थे फलतः किसान की मृत्यु के बाद बकाया ऋण अगली पीढ़ी को मिल जाता था। इस आधार पर वंशानुगत ऋणग्रस्तता का जन्म हुआ। किसानों के ऋण से मुक्त न हो पाने या ऋणग्रस्त बने रहने का एक प्रमुख कारण चक्रवृद्धि ब्याज की परम्परा थी। प्राक्ब्रिटिश काल में चक्रवृद्धि ब्याज के स्थान पर औसत ब्याज दर का प्रचलन था। किसान सामान्यतः गरीब और अशिक्षित थे, अतः अधिक राशि अंकित कर लेना, मूल से अधिक लिखना या जमाराशि की हिसाब में प्रविष्टि न करने, जैसे प्रपंच भी साहुकारों द्वारा किये जाने की जानकारी मिलती है। इस तरह किसान द्वारा ली गई फौरी राशि चक्रवृद्धि ब्याज से बढ़कर दुगूनी-तिगूनी और अंत में किसान के भुगतान क्षमता से बाहर चली जाती थी। इसके बाद किसान खेत मजदूर बन जाते या उस महाजन के खेतों को बटाई पर जोतने लगते थे और जो कुछ पैदा करते थे उसका बड़ा हिस्सा वे लगान और सूद के रूप में महाजन को दे देते थे। फिर सूदखोर महाजन छोटे किसानों को अपना मजदूर बना लेता था।
सरकार की औद्योगिकरण कीनीति ने साहुकारी व्यवस्था को प्रश्रय दिया। उद्योगों के विकास हेतु कोई प्रयत्न नहीं किये गये। साहुकार वर्ग ने भूमि को पूँजी विनियम का अच्छा साधन समझा। अंग्रेजों ने भूमि में व्यक्तिगत स्वामित्व का अधिकार प्रदान कर दिया। परिणामतः बैंकरों और साहुकारों को पूँजी लगाने के लिए अन्य क्षेत्रों की अपेक्षा भूमि अत्यधिक आकर्षक तथा सुरक्षित लगी। प्रायः प्रत्येक भूमि बंदीबस्त में भूराजस्व की मात्रा अधिक निर्धारित की जाती थी। फलतः फौरी कृषक ऋण लेकर लगान का भुगतान करते थे। ऋण वसूली की अंग्रेजी पद्धति में साहूकारों को प्रर्याप्त सुविधायें थी। ऋण वसूली हेतु साहूकारों द्वारा जमीने नीलाम करवा दी जाती थी। स्वामित्व प्राप्त कृषक वर्ग भूमिहीन मजदूर की श्रेणी में परिवर्तित होता गया।
ए0आर0 देशाई ने समय समय पर होने वाले कृषि संकट के अतिरिक्त सूखा और अत्यधिक वर्षा जैसे गैर सामाजिक तथ्यों को कृषकों की ऋणग्रस्तता का कारण माना है। भारतीय किसान बूरे दिनों के लिए धनराशि का संचय नहीं कर पाता था। मानसून अच्छा नहीं होने पर अधिकांश किसानों के पास लगान जमा कराने के लिए पैसा नहीं रहता था और इसलिए वे कर्ज के जाल में फँसते गये। भूमिकर के अतिरिक्त किसान को अन्य उपभोक्ता वस्तुओं किरोसिन तेल और नमक जैसे उत्पादों पर भी कर देना पड़ता था। इस प्रकार गरीब किसान जमीन की आय का एक बड़ा हिस्सा राज्य को दे देता था। जंगलों पर सरकारी एकाधिपत्य के कारण जलावन या गृह निर्माण के लिए किसान जंगल से लकड़ी नहीं ला सकता था। उसे खाद के बदले जलावन के रूप में गोबर का इस्तेमाल करना पड़ा। इसके चलते जमीन की उपज घटी और किसानों की गरीबी बढ़ी। इस प्रकार, छोटे टुकड़ों में खेतों का विभाजन, बाजार की अनियमितगति, अस्थिर जलवायु, पशुओं व मनुष्यों में निरंतर होने वाली महामारी, फसल की अत्यंत अविश्वसनीयता आदि इन सभी घटकों ने ऋणग्रस्तता को और अधिक बढ़ावा दिया क्योंकि खेत में गेहूँ और चारे कमी ने कृषकों को महाजनों के आगे घुटने टेकने को मजबुर कर दिया।
ब्रिटिश शासनकाल में किसानों की ऋणग्रस्तता बराबर बढ़ती गई। 1880 ई0 तक एक तिहाई कृषकों का ऋण इतना हो गया था कि उनके लिए ऋणमुक्त होना असंभव था। बैंकिंग समिति की रिपोर्ट के अनुसार पंजाब में ऋणग्रस्तता की कुल राशि 1921 में 90 करोड़ रूपये से 1935 में 135 करोड़ रूप्ये हो गई थी। एडवर्ड मैकलगान के अनुसार 1911 ई0 में केवल ब्रिटिश भारत में समस्त ऋणराशि लगभग 300 करोड़ थी, 1925 ई0 में एम0एल0 डार्लिंग के अनुसार लगभग 600 करोड़, 1929 में सेन्ट्रल बैंकिंग इन्क्वारी कमिटी की रिपोर्ट के अनुसार 900 करोड़ और 1937 में एग्रीकल्चरल क्रेडिट डिपार्टमेंट के अनुसार 1800 करोड़ थी। एक अनुमान के अनुसार साहूकारों की कृषक ऋणग्रस्तता का निरपेक्ष योग 1932 तक 220 अरब रूपये हो चूका था और करीब 80 प्रतिशत किसान साहूकारों के ऋणी थी।
साहूकार कृषकों का शोषण मात्र सूदखोरी द्वारा ही नहीं करता था अपितु वह व्यापारी तथा विदेशी व भारतीय फर्मो का दलाल होने के नाते वह कृषि उत्पादन को बेचने वाले और औद्योगिक माल के खरीददार के रूप में बिना किसी बाधा के भारत के गरीब व मझोले किसान का शोषण करता था। किसान अपने उत्पाद को गाँव के घुमक्कड़ व्यापारियों को बेचना पंसद करते थे क्योंकि उन्हें साल भर उससे कस्बे की वस्तुयें ऋण पर मिल जाया करती थीं। साहुकार वर्ग किसानों को करने के बाजार तक स्वतंत्र पहुँच से वंचित करता था और एकाधिकारी एजेंसियों के साथ जुड़े गाँव व करने के बाजार में कीमतों के भारी अंतर का लाभ लेता था। इस प्रकार वे कृषि उत्पाद मूल्य का औसतन 20 से 50 प्रतिशत और कभी-कभी 50 से भी अधिक पर कब्जा कर लेते थे।
परिणाम :- बैंकिंग समिति के अनुसार ऋणग्रस्तता अंततः कृषक वर्ग से गैर खेतिहर वर्ग की ओर तथा साहूकार को भूमि के हस्तांतरण की ओर, प्रहासित आर्थिक स्तरवाले भूमिहीन सर्वद्वारा के निर्माण की ओर ले जाता है। लगान की अदायगी अथवा साहूकारों के ऋण की वसूली हेतु सम्पूर्ण भारत में जमीने बड़ी तादाद में नीलाम की गई। विशेष रूप से निलामी द्वारा भमि अपरिचित एवं अनिवासी लोगों के पास केन्द्रीत हो रही थी जो व्यापारिक अथवा महाजनी वर्ग से सम्बद्ध थे उनके लिए पूँजी विनिमय का अच्छा साधन बन गया था। इस तरह किसानों की बढ़ती ऋणग्रस्तता के कारण रैयतवाड़ी इलाकों में बड़े पैमाने पर जमीन काश्तकारों के हाथों से निकलकर सूदखोर महाजनों के हाथ में जाने लगी और जमींदारी इलाकों में बड़े पैमाने पर किसानो की बेदखली हुई।
ऋणग्रस्तता का अंतिम परिणाम यह होता है कि खेतिहर वर्ग अपनी जमीन का हस्तांतरण गैर खेतिहर सूदखोर के नाम कर देता है जिससे एक ऐसे भूमिहीन सर्वहारा वर्ग की उत्पत्ति होती है जो आर्थिक रूप से काफी कमजोर होता है। परिणामतः खेतिहर के लिए दूसरों की जमीन पर खेती करने के अतिरिक्त कोई चारा नहीं रहता था तथा वे कृषि श्रमिक बन जाते थे तथा खेती पर निर्भर लोगों की संस्था में वृद्धि हो जाती थी।
ग्रामीण ऋण ग्रस्तता का सबसे बड़ा परिणाम के रूप में निजी स्वामित्व की स्थापना और इसके हस्तांतरण के आधार पर अपकेन्द्रीय प्रवृत्तियों का जन्म हुआ। कृषक द्वारा साहूकार के ऋण या सरकारी लगान की राशि अदान कर पाने की स्थिति में सम्पूर्ण खेत के एक भाग की नीलामी कर उपरोक्त अदायगी करनी होती थी। इस तरह बड़े पैमाने पर भूमि का उपविभाजन हुआ। इसके अतिरिक्त ब्रिटिश काल में भू राजस्व की अत्यधिक मांग तथा कृषक ऋण ग्रस्तता ने भारत में अकाल की समस्या को अधिक वीभत्स बना दिया। भारी लगान के कारण अच्छे वर्षों में बुरी फसल वाले वर्षों के लिए कृषक कुछ भी नहीं बचा पाता था फलतः वह आसानी से अकाल और मृत्यु का शिकार बन जाता था। यह उसकी बचत शक्ति का अभाव ही था जो सुखे की स्थिति को भी भयंकर अकाल का रूप दे देता था।
कृषि नीति का समाज पर प्रभाव :- आत्मनिर्भर ग्रामीण अर्थव्यवस्था के विघटन के साथ ही सामाजिक क्षेत्र में परिवर्त्तन परिलक्षित होने लगे। ब्रिटिश कृषि नीति के परिणाम स्वरूप बंगाल में नया जमींदार वर्ग अस्तित्व में आया। इसी प्रकरा कृषि श्रमिकों की उत्पत्ति ब्रिटिश भू राजस्व व्यवस्था का ही परिणाम था। ब्रिटिश सरकार ने कृषकों को गाँव की जमीन पर अपने परम्परागत अधिकार से वंचित कर दिया था साथ ही उन्हें चारागाह एवं समीपवर्त्ती जंगल के निःशुल्क उपभोग का अधिकार भी न रहा। गाँव की साघल अर्थ व्यवस्था और व्यवस्था के अनुरक्षय संतोषण के लिए इस जमीन काक निर्णायक मूल्य था। नये राज्य के समीवर्त्ती भूमि पर गावों के स्वत्व और उसके निःशुल्क उपयोग के अधिकार को समाप्त कर दिया। कृषि नीति से गाँवों में सरकारी हस्तक्षेप में वृद्धि हुई तालुक्केदार और सरकारी नौकरों का गाँवों में प्रवेश हुआ जिससे गाँवों का गणतांत्रिक रूप विनष्ट हुआ। अत्यधिक लगान के कारण जमीनों की कुर्की और नीलामी को बढ़ावा दिया। फलतः ग्रामीणों में मुकदमें बाजी की प्रवृत्ति बढ़ी तथा गाँवों में होने वाली विवादों का निपटारा न्यायालयों में होने लगा। कृषि के वाणिज्यीकरण के लिए ब्रिटिश सरकार ने हस्तशिल्प उद्योग के विनाश को आवश्यक समझा। ग्रामीण हस्तकारी उद्योग के विघटन का एक परिणाम बड़ी संख्या में कारीगरों का कृषि कर्म मं प्रवृत्त होने के रूप में देखा जाता है। वस्तुतः विविध कामगारों को हस्तकारी उद्योग से हटाकर कृषि द्वारा कच्चे माल के उत्पादन हेतु उन्मुख करना अंग्रेजी कृषि नीति का अंग था। ए0आर0 देसाई का मानना है कि आत्मनिर्भर ग्रामीण अर्थतंत्र के दो आधार स्तम्यों ग्राम कृषि और ग्रामोद्योग के संतुलन के नष्ट हो जाने पर आत्मनिर्भर गाँव के अस्तित्व का आर्थिक आधार कमजोर हो गया।
प्राक् ब्रिटिश काल में गाँव की सम्पूर्ण कृषि भूमि का स्वामी होता था एवं गाँव द्वारा परिवार को संयुक्त रूप से भूमि प्रदान की जाती थी। किन्तु औपनिवेशिक सरकार द्वारा वैयक्तिक भूस्वामित्व की स्थापना एवं भूमि को हस्तांतरणीय वस्तु बना दिये जाने से संयुक्त परिवार टूटने लगे। इसके अतिरिक्त गाँव के सामुदायिक जीवन एवं पारस्परिक सुरक्षा की भावना भी क्षीण होने लगी। देसाई के अनुसार ग्रामीण सहयोग ग्रामीण आत्मपर्याप्तता संयुक्त था और गाँव की स्वपर्याप्तता के समाप्त हो जाने पर वहाँ के लोगों की सहयोग भावना का भी अंत हो गया। इस सहयोग भाव को बचाया नहीं जा सकता था क्योंकि यह स्वपर्याप्तता से जुड़ा हुआ था। वैयक्तिक स्वामित्व की स्थापना के साथ ही भूमि के उपविभाजन एवं विखंडन प्रक्रिया ने पारिवारिक विवादों एवं झगड़ों को जन्म दिया। भूमि के एकमात्र उत्पादन साधन होने से कृषकों, जमींदारों तथा साहूकारों में वाद विवाद तथा झगड़े बढ़ते गये।
ग्रामीण स्वावलम्बी अर्थव्यवस्था के विघटनों ने गाँवों के पार्थक्य के समाप्त कर उनकी अर्थ व्यवस्था को राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था का अंग बना दिया जो ऐतिहासिक रूप से आवश्यक थी। जनसाधारण के लिए रेल और बस जैसे यातायात के साधनों के विकास से सामाजिक विनिमय की संभावना तेजी से बढ़ी और गाँव के लोगों का भौतिक, सामाजिक एवं सांस्कृकितक पार्थक्य समाप्त होने लगा। अंग्रेजी सरकार द्वारा निरंतर लगान वृद्धि तथा कृषि श्रमिकों के अत्याचार एवं शोषण के परिणाम स्वरूप कृषकों में राजनीतिक चेतना का उदय हुआ। अपने अन्याय के विरूद्ध विरोध जाहिर करने की प्रबल आकांक्षा की परिणति असहयोग आन्दोलन एवं भारत छोड़ों आन्दोलन में बड़ी संस्था में कृषकों के सम्मिलित होने के रूप में व्यक्त हुई। अंग्रेजी शासन की अन्याय पूर्ण एवं क्रूर नीतियों से तंग आकर किसान विद्रोह करने के लिए उतावले हो रहे थे। उन्हें ऐसे अवसर की तलाश थी जिसके माध्यम से अपना असंतोष प्रकट कर सके, वह अवसर उन्हें असहयोग आन्दोलन एवं भारत छोड़ों आन्दोलन के रूप में मिल गया जिसमें उन्होंने अपने विद्रोह की भावना की खुलकर अभिव्यक्ति की। इस प्रकार साम्राज्यवादी सरकार की कृषिनीति राष्ट्रीय भावना के दूत एवं राष्ट्रव्यापी विकास का कारण सिद्ध हुई।
सरकार की कृषि नीति के कारण गाँवों की आत्मनिर्भरता एवं यहाँ के लोगों के सीमित सहयोग का विनाश कर देश का जो पूँजीवादी एकीकरण हुआ उसने अर्थतंत्र एवं सामाजिक सहकर्मण के उच्चस्तरीय रूपों के आगमन के लिए मार्ग प्रशस्त किया। इसमें राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के संगठन और देश के पैमाने पर सहयोग का रास्ता तैयार किया। देश के एकीकरण के पहले भारतीय जनजीवन अनेक गाँवों में विखरा हुआ था और इन गाँवों में परस्पर सामाजिक या आर्थिक विनिमय नही ंके बराबर था। इसीलिए इनका कोई सम्मिलित स्वार्थ नहीं था। पूँजीवादी एकीकरण ही इन आकारहीन पिण्ड से भारतीय राष्ट्र के उद्भव का भौतिक आधार सिद्ध हुआ






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