ब्रिटिश राज्य की स्थापना
युरोपीय शक्तियों का उदय
12वीं शताब्दी में धर्मयुद्वों के बाद यूरोप में पूर्वी देशों के माल की मांगक में अत्यधिक वृद्धि हुई। यहाँ के लोगों में हीरे-जवाहरात जड़ी-बुटियों, सुगंधियों, रेशम तथा कपड़े जैसी विलासिता वस्तुओं की मांग बढ़ी। कालीट, सूरत, कोचीन, भडौच,खंभात आदि बंदरगाहों से पश्चिमी देशों को मसालों का व्यापार होता था। दक्षिणों पूर्वी एशिया के मसाले रेशम, चीनी मिट्टी , लाख आदि चीनी वस्तुए पहले मालावार तट पर लाई जाती थी और वहाँ से जहाजों में लादकर फारस को खाड़ी और लालसागर के बंहरगाहो को भेजा जाता था। वहाँ से जलमार्ग से जेनेवा और वेनिश के व्यापारी यूरोप के जातें थे। गुजरात को भारी मात्रा में सूती कपड़े का निर्यात होता था। प्रारभिक चरम में इस समस्त व्यापारों पर अरब व्यापारियों का वर्चस्व था, लेकिन बाद में इस पर पूर्तगालियों का वर्चस्व हो गया। 15वी शताब्दी के उत्तर्राष्ट थे। 17वीं शताब्दी के पूर्वाहें तक कई यूरोपियों भक्त्यिं ने भारत के व्यापार के लिए प्रंवेश किया। इनमें क्रमशः पुर्त्तगाली , उच, अंग्रेज और फ्रांसीसी भारत आए।
पुर्त्तगालीः-भारत के साथ व्यापार का नया मार्ग खोजने का श्रेय पुत्तर्गलियों को है। पुर्त्तगाली व्यापार का मुख्य उदेश्य पूर्वी व्यापार से तुर्की, अरबों और वेनेशियो को बाहर करना तथा तुर्की की बढ़ती भक्ति को कम करके एशिया और अफ्रीका कें गैर ईसाइंर्यों को ईसाई बनाना था। इन दोनों लक्ष्यों की पूर्त्ति के लिए पोप ने भी समर्थन प्रदान किया। 1453 में एक आदेशपत्र जारी किया जिसमें पुर्त्तगाल को सदा में लिए वह भूमि प्रदान की गई थी जो वह अफ्रीका के नोर अंतरीय और भारत के बीच खोज सके। इसमें शर्त्त यह रखी गई की कि वहाँ के निवासियों को इसाई बनाना आवश्यक है।
15वी शताब्दी में पुर्त्तगाल के भाझक डॉन हेनिरक जिसे हेनरी द नेवीगेंटर कहा जाता था ने भारत के लिए एक सीधे समुद्री मार्ग की खोज आरम्भ कर दी थी। 17 मई। 1498 ई0 को अब्दुल मजोद के मार्गदर्शन में बास्कों-दि-गामा कालीकट पहुँचा , वहाँ कालीकट के राजा जोमीरिन ने उसका भव्य स्वागत किया। तत्पश्रचात वास्कों ने कालीकट से कोचीन की यात्रा की तथा एक कारखाने की स्िापना की। फ्रांसीस्कों-डि-अल्मेंड़ा भारत में आनेवाले पहला पुर्त्तगाली गवर्नर था। 1505 से 1509 ई तक भारत में रहा। उसे मिलना, अन्जाडिया और कन्नानूर में मिला निर्माण करने का विशेष निर्देश प्राप्त हुआ था। अल्मेडा के बाद अल्फांसों अल्बुर्कक 1509-1515 ई पुर्त्तगाली गवर्नर बना। इरो भारत मेंं पुर्त्तगाली राज्य का वास्तविक संस्थापक माना जाता हैं 1510 ई में गोवा पर अधिकार कर लिया गया तथा उसे प्रमुख पुर्त्तगाली व्यापारिक केन्द्र बनाया गया। इससे पूर्व गोवा बीजापुर के सुल्तान के अधिकार में या। 1515 ई में अल्बुर्कक ने फारस की खाड़ी में स्थित द्वीप ओंर्मूज पर अपना अधिकार कर लिया। नुनो दि कुन्हें ने 1530 ई0 में प्रशासन का मुख्य केन्द्र कोचीन के स्िान पर गोवा मे बनाया। 1534 में दिल और बसीन तथा 1538 ई0 में दमन की जीत लिया गया। बसीन पर अधिकार करनें के एवज मं कुन्हों ने हुमायूँ के विरूऋ गुजरात के शासन बहादूरशाह का साथ दिया था। इस समय बंगाल में पुर्त्तगालियों का प्रमुख केन्द्र हुगली बना। 1538 ई0 में अबे पुर्तगाली गवर्नर ग्रेसियो द नुनोन्हा ने दमन, सालसेट, चौल, बम्बई, सेंट थामस तथा हुगली को पुर्तगाली केन्द्र के रूप में स्िापित किया। उसने श्रीलंका के अधिकांश मागें। पर अधिकार कर लिया। 1542 ई0 में नये गवर्नर मार्टिन फ्रासीसी के साथा प्रसिद्ध संत फ्रांसीस जेवियर भारत आये। लेकिन डॉन जोड़ो क्रास्टों के बाद भारत में पुर्त्तगाली शाक्ति का पतन प्रारम्भ हो गया। मुगल शासक शाहजहाँ के समय में पुतगालियों ने हुगली पर अपना अधिकारा खो दिया। 1739 में बसीन और सालेसट मरोठों के अधिकार में चला गया और मुम्बई दहेज के रूप में अंग्र्रजो को मिल गया।
पुर्त्तगालियों की सफलता के कारण 16वी -17वी शताब्दी में पुर्त्तगाली का हिन्द महासागर और्र दक्षिण तट पर प्रमुख बना रहा जिसमें ंपीछे दो प्रमुख कारण थे-1.एशियाई जहाजों की तुलना में उनकी नौसेना की श्रेष्ठता और 2.भूमि पर कुछ अत्यंत महत्वपूर्ण चौकियों की स्थापना जों उसके जहाजों बेड़ों और व्यापारिक गतिविधियों के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण आधार का कार्य करती थी। इसके अतिरिक्त उन्हें स्थानीय लोगों को भी विजय में सहायता मिलती थी। पुर्तगालियों के नौसैनिक एवं व्यापारिक जहाजें के चालक तथा सैनिक आयः स्थानीय लोग ही हुआ करते थे। पडोसो राज्यों मं जासूस तथा राजदूत भारतीयों को ही बनाकर भेजा जाता था। इसके द्वारा उपलब्ध सूचनाओं अति महत्वपूर्ण होती था। उसके द्वारा उपलब्ध सूचनाओं अति महत्वपूर्ण होती थी जिससे किसी आक्रमण को टालने या किसी भतु की दुर्बलतओं का आसानी से पता लगाया जा सकता था।
हिंद महासागर पर नियंत्रण स्थापित करने में पुर्तगालियों ने यह के अतिरिक्त कुशल स्थनीति तथा कड़े व्यापारिक नियत्रण का सहारा लिया। कोचीन के शासक के प्रति अतिशत मित्रता का भव परिलक्षित किया गया जिससे कालीकट और कोचीन के शासकों में कटुता पैदा हो गई। काचोन का शासक पुर्तगालियों का अधीनस्थ बन गया। इसीप्रकार घोड़े के व्यापार पर नियंत्रण स्थापित करने के लिए पुर्तगालियों ने कुटनीतिक चालों का सहारा लिया।। दिनया के राज्य उत्तम किस्म के अरबी एवं ईरानी घोड़ो में दिलचरणों रखते थे और उन्हें अपनी सेना में रखने के लिए व्यापक पैमाने पर खरीदते थे। गोवा घोड़ो के आयात का प्रमुख बंदरगाहा था। पुतगालियों के अधिकार ने गोवा के आने के बाद उनका घोड़ो के व्यापार पर एकाधिकार स्थापित हो गया था। फलतः पुर्तगालियों से मित्रता रखने वाले राज्य ही घोड़ो के खरीद के लिए अपने एजेन्ट गोआ भेंज सकते थे ।इस प्रकार पुर्तगालियों ने घोडे के व्यापार को भी राजनीतिक के रूप में प्रयोग किया और दक्षिणी राज्यों को एक दूसरें के निखद् भड़काने में इसका प्रयोग किया।
हिंद महासागर के अन्य देशों के साथ व्यापार करने पर पुर्तगालियों ने कड़े प्रतिबंध लगाये। पुर्तगाल तथा गोवा से जारी निर्देशों और आज्ञप्तियों में कहा गया था कि मसालों के व्यापार पर पूर्णरूपेण पुर्तगाली सम्राट एवं उसके अभिकर्त्ताओं का ही अधिकार है। इस नीति का उल्लंघन करने वालो के साथ कड़ा वर्त्ताव किया जाएगा। पुर्त्तगाल ने इस बात का भी प्रयास किया कि एशिया में मसालों का व्यापार सम्राट के अभिकर्ताओं तक ही समिति रहे और यूरोप भेजे जानेवाले मसाले केवल पुर्त्तगाली जहाजों द्वारा। आशा अंतरीय के मार्ग से ही भेजे जाएंँ। एशियों में विभिन्न स्थानों के लिए जाने वाली समुद्री यात्राओं पर पुर्तगालियों ने एकाधिकार नियंत्रण स्थापित कर रखा था। इसके अनूसार विशेंंष वर्ष में विशेष जहाज ही इन देशों की यात्रा पर जा सकता था। ऐसे जहाजो में माल रखने का स्थान वास्तविक मूल्य से बहुत अधिक मूल्य पर बेचा जाता था। इस प्रकार अधिकांश यात्राओं सबसे ऊँची बोली लगानेवाली को बेची जाती थी।
पुर्तगाली ने िंहंद महासागर में होने वाले व्यापार को और अधिक नियंत्रित करने के लिए कर लगाने का प्रयत्न किया। अपनी कार्टेज- आर्मेडा काफिला व्यवस्था जिसे व्ल्यू वाटर पॉलिसी भी कहा जाता था के द्वारा अरभियाई व्यापार पर गहरा प्रभाव डाला। उसका प्रमुख साधन कार्टेज या परमिट होता था जिसके पीछे और आर्मेडा की भक्ति होती थी। पुर्तगालियों अपने आपकों सागर का स्वामी कहते थे और कार्टेज-आर्मेडा- व्यवस्था को उचित ठहराते थे। इस व्यवस्था के अनुसार कोई भी भारतीय या अरबी जहाज पुर्तगाली अधिकारियों के परमिट के बिना अरब सागर में नही जा सकता था। अरबी एवं भारतीय व्यापारियों को काली मिर्च एवं गोला-बारूद ले जाने की अनुमति नही दी गई थी। वे निषिद्ध व्यापार में गले होने के संदेह में पर जहाजों की तलाश ले सकते थे, जो जहाज तलासी देने से इंकार करते थे उन्हें युंद्ध की लुट के माल की भाँति समझा जाता था और या तो उन्हें डूबा दिया जाता था या उनपर कब्जा कर लिया जाता था और उनमें सवार स्त्री-पुरूषों को गुलाम बना लिया जाता था ।यह व्यवस्था सभी राज्योंपर समान रूप् से लागू की गई थी। एक बार तो मुगल सम्राट तक को भी सूरत से मोखा जाने के लिए अपने जहाजों के िए पुर्तगालियों से परमिट लेनी पड़ी थी।
कार्टेज के लिए व्यापारियों को शुल्क देनी पड़ती थी। पुर्तगालियों की आमदनी उठा चुगी शुल्क से होती थी जो हरेक जहाज को किसी दुर्ग से गुजरने पर देनी पड़ती थी। 16वी सदी में व्यापार को अधिक नियंत्रित करने के लिए काफिला पद्धति का सहारा लिया इसमें स्थानीय व्यापारी जहाजों का छोटा सा काफीला होता था। जिसकी रक्षा के लिए पुर्तगाली बेड़ा साथा चलता था। जिसका मुख्य उद्देश्य इनकी सुरक्षा करना था। संरक्षका डाकुओं से रक्षा करना तथा 2. यह सुनिश्चित करना कि इनमें से कोई जहाज पुर्तगाली व्यवस्था के बाहर जाकर व्यापार न कर सके।
भारत पर पुर्तगालियों का प्रभाव- हिंद महासागर में पुंर्तगाली नियंत्रण के महत्वपूर्ण सामाजिक आर्थिक एवं राजनीतिक प्रभाव पड़े। 16वी शताब्दी में पुर्तगालियों के आगमन से लगभग 50 वर्षो के लिए लाल सागर के माध्यम से भूमध्य सागर और वेनिस के व्यापार पर प्रतिकूल प्रभाव पडा। 1550 से पुर्तगालियों के मसाला व्यापार एवं लिस्बन पहुचने वाली कुलराशि में गिरावट आई। अंतरीय मार्ग खुल जाने से पुर्तगालियों को विशाल लाभांश प्राप्त हुए। यह लाभांश 26 प्रतिशत तक होता था। इसके अतिरिक्त पुर्तगाली एशियाओं में बड़ी मात्रा मेंं मसालों का वितरण करते थे तथा घोड़े का व्यापार भी करते थे। भारत में पुर्तगालियों की समृद्धि राजस्व पर आधारित थी जो बड़ी सीमा तक व्यापार एवं व्यापार को नियंत्रिण करने वाले कार्टेज जैसे उपायों पर आश्रित था।
पुर्त्तगाली कतिपय राजनीतिक परिवर्त्तनों के लिए उत्तरदायी थे। समुद्र में अन्य लोगों की गतिविधियों को नियंत्रित करने के अधिकार की धारणा एशियाई व्यापारियों के लिए नई की और यूरोपीय परंपरा पर आधारित थी। वस्तुतः इस परम्परा को यहाँ कर लाकर पुर्तगालियों ने एशियाई सामुद्रिक गतिविधियों में राजनीति का समावेश कर दिया। समुद्र पर अपना नियंत्रण स्थापित करने के क्रम मेंं उन्होने अनेक महत्वपूर्ण एशियाई बंदरगाह नगरो पर अधिकार कर लिया जिसमें मलक्का, गोवा, दीव और होर्मुज प्रमुख थे। कभी-कभी पुर्त्तगाली अपने व्यापारिक हितो की रक्षा करने के लिए कड़े कदम उठाते थे और स्थानीय व्यापारियों या शासकों को दबाते थे।
पुर्तगालियों की नृशंसता का अधिकर शिकार मुसलमान होते थे। उनके जहाजों को डुबाये जाने की आंशका अधिक होती थी। जो मुसलमान पुर्तगालियों का प्रतिरोध करते थे उनको भांति के घाट उत्तर दिया जाता था। पुर्तगलियों के इस मुस्लिम विरोधी पुर्वग्रह के पीछे धार्मिक कारण भी था। 15वी 16वी शताब्दी में पुर्तगालियों शासकों का ध्यये केवल व्यापार में लाभ कमाना ही नही अपितु ईसाई धर्म का प्रचार करना भी था।
हिंद महासागर में अपना प्रमुख स्थापित करके पुर्तगालियों व्यापार मार्गो व्यापार व्यवहार उत्पादों एवं उत्पादन की तकनीको मे कोई मूल भूत परिवर्तन नही ला सके। उनके व्यापार नियमों की काटैग व्यवस्था अपने आप में पूर्ण नही थी। इसी प्रकार अंतरोपमार्ग को खोजने यूरेशियाई व्यापार का अन्य मार्ग मात्र खोला। एशियाईं व्यापार पर यूरोप का गहरा प्रभाव बादमें 18वीं शताब्दी मे ही जाकर पड़ा।
पुर्तगालियों के हस्तक्षेप से भारतीय जहाज रानी का स्वरूप, बदला, विशिष्ट, बंदरगाहों और उनसे सम्बद्ध भू-भागो की समृद्धि में तीव्र परिवर्तन आया और भारतीय समुद्री व्यापार में समय समय पर उतार-चढाव आया। पद्रहवी शताब्दीतउ भारतीय और अरब व्यापारी मिलकर व्यापार करते थे। उनमें सहयोग था और लाभांश को शांतिपूर्वक आपस में बाँटे लेते थे। हिदं महासागर में पुर्तगालियों के नियंत्रण के बाद इसमें निधन उत्पन्न हो गया। 16 वी शताब्दी के अंत तक समुद्री व्यापार पर पुर्तगालियों की निगरानी का परिणाम यह हुआ कि कोई भी भारतीय जहाज पुर्तगालि अधिकारियों या गोवा के व्यापारियों के साथ अप्रत्यक्ष समझौता लिए बिना पूर्वी अफ्रीका या मसाला द्वीपों में जाने का साहस नही कर सकता था। काली मिर्चका व्यापार की भारतीय मालवहकों के हाथों से निकल गया। 1511 ई0 में मलक्का पर पुर्तगालियों का अधिकार होने के पश्चात उस बंहरगाहक पर भारतीय जहाजों का जाना बहुत कम हे या गया। इसप्रकार 16वी शताब्दी के अतं तक लाल सागर भारत के समुद्र पार व्यापार का प्रमुख बंदरगाह बन गया ।
अधिकांश भारतीय शासक विशेषकर ने जो विशाल भू-भारतीय साम्राज्यों के अधिपति थे पुर्तगालियों की सामुद्रिक गतिविधियों से अप्रभावित होने के कारण या ाते उनके प्रति उदासीन थे या आवश्यकता पड़ने पर उनके सामुद्रिक नियंत्रण तटों के कुछ शासको पर ही पुर्तगालियों गतिविधियों का विपरीत प्रभाव पड़ा था। कालीकट के अमेरिका और निच कें मामत्रक शासकों के पुर्तगालियों को माँगें असहज प्रतीत हुई और उन्होने इसका विरोध किया। 1535 में बहादुरशाह ने पुर्तगालियों को इस आशा को देष में पैर जमने दिया कि वे मुगलो के विरूद्ध उनकी सहायता करेगेंं। यहाँ तक अकबर ने भी पुर्तगलियों को निःशुल्क कार्टेज प्राप्त किया था। पुर्तगालियों की उपस्थिति का प्रभाव सभी जगहों पर समान नहीं था। पश्चिमो क्षेत्र की की तुलना में पूर्वी एशिया में उनका प्रभाव अधिक अनौपचारिक संभांतिपूर्व था। बंगाल की खाड़ी क्षेत्र में पुर्तगाली प्रभाव बहुत कम पड़ा। पुर्तगालियों की उपस्थिति ने मलाबार को निश्चित रूप से प्रभावित किया क्योंकि यहाँ स्थानीय व्यापारियों एवं पुतगालियों के हितों के बीच सीधा टकराव था। कालीकट का पत्तन हुआ और कोचीन? समृद्ध शहर के रूप में उदित हुआ। पुगर्तलियों के अधीन गोवा नवीन उँच्चाइयों को छु सदा। गुजराती व्यापार पहले की भाँति बढ़ा-चढ़ा रहा, जिसका आंशिक श्रेय पुर्तगालियों नीतियों को जाता है। क्योंकि उनका सारा ध्यान लाल सागर पर केन्द्रित रहा। पुर्त्तगालियों के कर नियंत्रण के कारण ही हरमुज का विकास हुआ जबकि कुछ समय के लिए लाल सागर के व्यापार में एकाधिकार स्थापित करने के प्रयत्न के बावजहूद भी उन्हें सफलता नहीं मिली।
पुर्तगालियों एवं भारतीयों के बीच सामाजिक आदान-प्रदान, सांस्कृतिक संस्कारण और आर्थिक सैन्य एवं राजनैतिक सहयोग के साक्ष्य मिलते है। कुछ पुर्तगालियों ने स्थानीय स्त्रियों से विवाह किया जिससे जातीय आदान-प्रदान बढ़ा। पुर्तगाली ईसाई मिशनरी भारत में लोगो का धर्मपरिवर्तन करने की दिशा में अग्रसार हुए। शुरूआत में इसकी गतिधामी हो रही परन्तु 1540 कें पश्चात् गोवा में प्रति सुधारवाद विचारधारा एवं ईसाईयों के आगमान से परिवर्तन की प्रक्रिया तेज हुई।
धर्म परिवर्तन को बढ़ावा देने के लिए 1540 से गोवा के सभी मंदिर नष्ट कर दिए गये। 1573 में बोर्ड और 1584 में साल सेट में मंदिरों को विनष्ट किया गया। पुर्तगाली सरकार द्वारा हिन्दुओं के प्रति अनेक भेदभाव पूर्ण व्यवहार किया जाता था। ईसाई धर्म प्रचारकों राज्य द्वारा अनेक प्रकार में सहायता प्रदान को जाती थी ओर नागरिक अधिकारी पादरियों के सामने अक्सर झुक जाया करते थे। 1560 ई0 में गोवा पादरियों के सामने अक्सर झुक जाया करते थे। 1560 ई0 में गोवा में ईसाई धर्म न्यायालय की स्थापना को गई ताकि किसी भी प्रकार के धर्मद्रोह को दंडित किया जा सके। धर्मपरिर्वतन के मामलें में पुर्तगालियों को विशेष सफलता नही मिली। मुसलमानों के बीच मिशनरियों को लगभग नही के बराबर सफलता मिली, क्योंकिक उनका जिद्दी स्वभाव इसमें आड़े आया। हिन्दुओं में भी मिशनकियो के विरूद्ध कड़ा प्रतिरोध हुआ। जब पुर्तगालियों ने मंदिरों को नष्ट कर दिया तो ब्राह्मणां ने पवित्र मूत्तियों विग्रहों को वहाँ से उठा ले गयें और पुर्तगालियों अधिकार वाले क्षेत्रों से ठीक बाहर प्रतिष्ठित कर दिया। मिशरियों को सर्वाधिक सफलता गोवा में मिली जहाँ 1600 ई0 तक दो तिहाई जनसंख्या ईसाई बन चुकी थी। 1590 ई0 में पुर्तगालियों वायसरायों ने सम्राट से कहा कि वह चाहता है कि पुर्तगालि अधिकार बाले भारत में सभी मंदिर गिरा दिये जाय परन्तु यह दीन में संभवन नही है। क्योंकि ऐसा करने पर सारे बनिए दीन छोड़कर चले जाएगें और इस साभ जनक र्दुग में व्यापार हथ पर जाएगा। फलतः शत्रहवी शताब्दी में धर्म परिवर्तन का अभियान कुछ मिथिल पड़ा।
जे सुइरों का सकारात्मक योगदान यह रहा कि उन्होने भारत के लोगों के साथ आदान-प्रदान किया जिससे सामाजिक समन्वय में सहायाता मिले।एंशियाई ज्ञान के प्रति उनकी प्रतिबद्धता और उनका अपना छापाखाना होने के कारण भारत के कुछ क्षेत्रों में शिक्षा के विकास मे उनका बड़ा योगदान रहा।
उचः- ह-यूगेन लिनस्फोटरी की पुस्तक से प्रभावित होकर करने मिल ही हॉटमैन के प्रथम उच अभियानद ल सुमात्रा और बटाय पहुचाँ तथा वहाँ से 1597 ई0 में भारत आया। 1592 ई0 में एमर्स्टडम के व्यापारियों ने उच कम्पनी की स्थापना की थी। परन्तु भारत से व्यापार करने के लिए 20 मार्च 1602 ई0 को प्रथम उच यूनाइटेड़ ईस्ट इंड़िया कम्पनी का गठन हुआ जो कई कम्पनियों के सम्मिलन से बनी थी। बाद मे इस कम्पनी का नाम वेरीनिग्ड़े- इस्ट-इंडीज रखा गया। उच ईस्ट इंडिया के 17 निदेशक इस कंपनी का प्रशासन संभालतें थे, जिन्हें भद्रजन गअप्प् के नाम से जाना जाता था। हालॉकि उच सरकार के पास इसकी वास्तविक भक्ति थीः लेकिन डायरेक्टरों का कहना था पुर्व में जीतें गये क्षेत्रों और अडड़ों को राष्ट्रीय अभियान नही माना जाना चाहिए ओर इन्हें निज सम्पन्ति के रूप में मान्यता दी जानी चाहिए। इस कंपनी को प्रारम्भ से ही युद्ध करने, संधि, प्रवेंश पर अधिकार तथा किलेबन्दी करने का अधिकार प्रदान किया गया था।
1605 ई0 में वान-डी-हागेन ने मुसलीपतनम में प्रथम उच फैक्टरी की स्थापना की। इसके बाद पेट्टापोलों (निजामपतनम) देवानातंपनम (जहाँ अग्रेजों ने सेंट डेविड फोर्ट का निर्माण करवाया था) आदि स्थानों में उचों का विस्तार हुआ। गोलकुण्डा राज्य नें सीमा शुल्क के रूप में उचों द्वारा केवल 500 पैगोड़ा प्रतिवर्ष अदा करने पर मुक्त रूप् में व्यापार करने के लिए उन्हें स्वर्णिम फरमान प्रदान किया था। 1610 ई0 में फोर्ट जेल कोरिया तथा 1616 ई0 में सूरत में किलोका निर्माण करवाया। प्रारम्भ में उचाँ का मुख्यालम पुलीकट में था उसे 1690 ई 0 में नागापतनम में स्थानान्तरित कर दिया गया। उचों के प्रति गोलकुडा के शाखाओं का रूख सकारात्मक था, इन्होने आयात निर्यात पर 4प्रतिशत सीमाशुल्क लगाकर उचों को व्यापार करने की इजाजत दे दी। गोलकुडा नरेश ने कपड़ों के व्यापार 12 प्रतिशत की छुट प्रदान की थी। बंगाल में सर्वप्रथम 1627 ई0 में उच फैक्टरी पीपली में स्थापित की गई तथा चिन्सुरा मे गुस्टावसन नाम फोर्ट का निर्माण करवाया गया।
प्रारम्भिक चरण में उच व्यापारियों ने मसालों के व्यापार में अपनी रूचि दिखाई। परन्तु बाद मे वे मसालों के स्थान पर भारतीय कपड़ों के निर्यात में अत्यधिक दिलचस्पी लेने लगे। इनके पीछे प्रमुख कारण यह था कि 17वी सदी मे भारत से यूरोप के साथ किए जानेवाले व्यापार में कपड़ा व्यापार को यूरोपीय व्यापार की बाई भुजा कहा जाता था। यूरोप और अफीमा में विभिन्न प्रकार के भारतीय वस्त्रों की भयंकर मांग की। परिणाम यह हुआ कि उचों और अंग्रेजों के बीच कपड़े के व्यापार को लेकर कई संघर्ष कई संघर्ष हुए। अंग्रेज तथा पुर्तगाली मिलकर उचों को वेदारा के युद्ध में पराजित किया। भारत में अब उचों ने अपने को देशी व्यापार तक ही सीमित कर लिया। 1773 तक उन्होनें धीरे-धीरे अपने भारतीय अड्डों को छोडना। शुरू कर दिया। 1793 में तक अंग्रेजों ने उचों की पुरी तरह से भारत से निकल दिया। उच व्यापार पद्धतिः- उच ईस्ट इंडियो कम्पनी एक नये प्रकार की व्यापारिक संस्था थी तथा उच सफलता का रहस्य था यह नया प्रयोंग जिसके द्वारा इन्होने पुर्तगालियों की व्यापारिक सर्वोच्चता को तोड़ दिया । वांक ने पुर्व विकसित व्यापारिक संगठन का स्थान लेकर न केवल एशियाई व्यापार पर एकाधिकार स्थापित किया बल्कि व्यापारिक मार्ग पर अपनी सर्वोच्चता स्थापित की समुद्री यातायत, नौसेनिक बड़े तथा उसके कर्मचारियों पर भी अपना नियंत्रण स्थापित कर लिया। इसप्रकार संयोजित ढंग से उप कंपनी ने मूल्य व मुनाफे पर नियंत्रण रखकर मुनाफे और ऋण का पुनः निवेंश करके स्थाई एकत्र कर ली ाजे एशिया के व्यापार में दीर्घकालीन लागत कें लिए आवश्यक थी।
एशियाई सम्पर्क के आरम्मिक दौर में उच तथा इंग्लिश कम्पनियों मूल रूप् से काली मिर्च तथा अन्य मसालों के व्यापार तक ही रूचि राखती थी। ये मसाले मुख्यतः इंडोनिशयों मे मिलते थे इसलिए उच कम्पनी का वह प्रमुख केन्दमुख गया था। काली मिर्च दक्षिण- पश्चिम भारत के मलावार तट पर भी मिलती थी तथा श्रींलंका में इलायची प्राप्त होती थी। ये दोनो ही क्षेत्र पुर्तगालियों के प्रभाव मे थे इसलिए इन्हें कुछ वर्ष इंतजार करना पड़ा उन व्यापारियों ने पुर्तगालियों की सर्वाच्चता को तोड़ने के लिए उनके जहाजों तथा अड्ड्ों पर प्रहार किया। गोवा और मलक्का की समुद्री नाकाबंदी कर पुर्तगाली व्यापार को अवरूद्ध कर दिया गया। 1641 में मलक्का तथा 1658 में श्रीलंका से उचों ने पुर्तगालियों भक्ति को निकाल बाहर किया।
भारत में उच संगठन दूर तक के प्रदेशों मे उच फैक्टरियों द्वारा फैला हुआ था। भारतीया वस्त्रों का व्यापार इसका महत्वपूर्ण अंश था। भारत में व्यापार करने के लिए उचों ने एक नया तरीका अपनाया जो भारतीय प्रथा के अनुकूल था। जहाज लहने के पहले ही बिचौलियों को अग्रिम रकम दे ही जाती थी जिससे बुनकरों को कार्य करते के लिए अनुबंधित कर लिया जाता था। कभी-कभी डच व्यापारी कारीगरों को सीधा रोजगार दिया करते थे जिससे भारतीय कारगर उन्हीं पर निर्भर करते थे। गोलकुण्डा के एक गॉव के निवासी लगान अदा नहीं कर सके थे जिसे डच कंपनी द्वारा अदा किया गया और बदले में पूरे गाँव के लोगों की सेवाएँ कम्पनी को उपलब्ध कराई गईं। तेजी से बढ़ते उच्च व्यापार के परिणाम स्वरूप भारत में बिचौलियों की सहकारिता विकसित होने लगी क्योंकि इस व्यापार को चलाने के लिए कपडों की अधिक से अधिक पूर्ति करना आवश्यक था। यह सहकारिता काटेल के रूप में थी जिसने डच कम्पनी के साथ मिलकर उत्पादकों को बहुत अधिक शोषन किया। इसके दो लाभ हुए- (1) डच व्यापारियों को इससे खूब लाभ हुआ और (2) सहकारिता के फलस्वरूप व्यापारियों के बीच आपसी प्रतिस्पर्धा नहीं रही।
उत्पादन की गुणवता बनाये रखने तथा निम्न कोटि के माल की सफाई को रोकने के लिए उचों ने 1650 के दशक में कासिम बाजार में स्वयं रेश्म की चक्री की उद्योग स्थापित किया जिसमें उहजार कारीगार वेतन पर रखे गये। अंग्रेजः- 1599 ई0 में पूर्व से व्यापार करने के लिए अंग्रेज व्यापारियों ने एक कम्पनी जिसे गॉन कम्पनी‘ कटा जाता था का गठन किया। 31 दिसम्बर 1600 को ब्रिटिश महारानी एलिजाबेथ ने एक रॉयल चार्टर द्वारा 15 वर्ष के लिए इसे पूर्व से व्यापार करने का एकाधिकार प्रदान किया था। आगे चलकर यह कम्पनी ईस्ट इंडिया कम्पनी कहलाई। 1608 ई0 में इस कम्पनी ने भारत के पश्चिमी भाग सूरत में एक फैक्टरी थी। कम्पनी ने 1608 ई0 में कैप्टन हॉकिन्स को मुगल शासक जहाँगीर के दरबार में व्यापार हेतु शाही आज्ञापत्र लेने के लिए भेजा था। हॉकिन्स पूर्वी देशों के विषय में व्यापक जानकारी रखता था तथा तुर्की भाषा अच्छी तरह बोल सकता था। वह जहाँगीर के साथ अवसर तुर्की में बात किया करता था तथा उसके साथ पार्टी में गाया करता था। परिणामस्वरूप् हॉकिन्स एक शाही फरमान प्राप्त करने में सफल रहा जिसके द्वारा पश्चिम तट के अनेक स्थानों पर ईस्ट इंडिया कम्पनी को फैक्टरियाँ खोलने की अनुमति मिल गई। इसके साथ ही जहाँगीर ने हॉकिन्स को 400 का मनसब प्रदान कियां 1613 ई0 में इस फरमान के आधार पर थॉमस एलवर्थ के नेतृव्य में सूरत में फैक्टरी स्थापित करने का कार्य शुरू किया गया। 1615 ई में एक और शाही राजदूत सर रॉमस रो के रूप् मे जहाँगीर के दरबार में भेजा गया जो चार वर्ष तक दरबार में रहा। टॉमस रो के प्रयत्न से कंपनी को सूरत के अतिरिक्त मुगल साम्राज्य के सभी भागों में व्यापार करने और फैक्टरीयाँ खोलने की अनुमति मिल गई। इसके बाद कम्पनी आगरा, अहमदाबाद, का सिमबाजार, पटना, हुगली, राजमहल और कलकत्ता आदि में अपनी फैक्ट्रियाँ खोलने में सफल रहीं।
व्यापारिक प्रतिस्पर्धा में अंग्रेजों को पुर्तगालियों के विरोध का सामना करना पड़ा। पुर्तगालियों ने खाली नामक जहाज के नेतृव्य में आ रहे तीन अंग्रेजी व्यापारियों जहाजों को जिसका नेतृव्य ‘कैप्टन हेनरी मिडिलटन‘ कर रहा था, वापस भेज दिया। तत्पश्चात कैप्टन रॉमस वेस्ट द्वारा सूरत के निकट समुद्री युद्ध में पुर्तगालियों की भंयकर पराजय हुई। 1630 ई0 की मैड्रिड की संधि के द्वारा अंग्रेजो और पुर्तगालियों के बीच अंग्रेजो और पुर्तगालियों के बीच झगडे की समाप्ति का निश्चय किया गया। उसके बाद डचों और अंग्रेजो के बीच 1654 से 1667 तक रूक-रूककर संघर्ष चलता रहा। अंत में 1667 ई0 में अंग्रेजों ने इंडोनेशिया को डचों के लिए पूर्णतः छोड दिया तथा डचों ने भारत में स्थित अंग्रेजों वस्तियों को न छूने का वायदा किया।
दक्षिण भारत में कारखाने स्थापित करने का मुख्य उद्देश्य फारस और बंटाम को वस्त्र निर्यात करना था। 1611 ई0 में अंग्रेजों ने दक्षिण में अपनी पहली फैक्टरी मच्छलोपतनम में स्थापित की। 1632 ई0 में गोलकुण्डा,1639 ई0 में मद्रास तथा 1936 ई0 में अरमागाँव में करखाना स्थापित किया गया। इसके बाद जल्दी ही मद्रास को व्यापारिक केन्द्र के रूप में परिवर्तित कर दिया गया जिसका पट्टा 1639 ई0 में वहाँ के वोडयार शासक से प्राप्त हुआ था। यहाँ अंग्रजों ने अपनी फैक्टरी के ईद-गीर्द एक छोटा किला बनाया जिसका नामक फोर्ट सेंट जार्ज रखा गया। 1661 ई0 में चार्ल्स द्वितीय ने 10 पौंड वार्षिक किराये पर ईस्ट इंडिया कम्पनी को बम्बई प्रदान कर दिया जिससे उसे 1662 ई0 में पुर्तगालियों से दहेज स्वरूप् मिला था। बम्बई 1668 ई0 में पुर्तगालियांं से अंग्रेजो को हस्तगत किया गया। इसके बम्बई की किलेबंदी कर दी गई। पश्चिमी तट पर कम्पनी के मुख्याल के रूप मे सूरत का स्थान बम्बई ने ले लिया। बम्बई के गवर्नर जेराल्ड औगियरा ने कहा था कि अब समय का तकाजा है कि आप अपने हाथों में तलवार लेकर अपने साम्राज्य का प्रबंध करे।
पूर्वी भारत में कंपनी ने सर्वप्रथम 1633 ई0 में अपनी फैक्टरी उड़ीसा के हरिपुर में स्थापित की 1657 ई में उन्हें हुगली में व्यापार करने की इजाजत मिल गईै तथा हुगली, पटना, कासिम बाजार और राजमहल में कारखाने स्थापित किए गयें 1651 ई0 में शाहभुजा ने 3000 रूपये प्रतिवर्ष के शुल्क पर अंग्रेजों व्यापारियों के अतिश्योक्तिपूर्वक आचल के बाद औंरग जेंब ने 1630 ई0 में एक फरमान जारी कर अंग्रेजो से 2प्रतिशत की चुंगी और --का जाजिया माँगा। 1668 ई0 में ईस्ट इंडिया कम्पनी के बंगाल के गवर्नर जोसिया चाइल्द के उकसाने पर कुछ व्यापारियों ने दो मुगल जहाजों कों रोक दिया जिससे मक्का हज करने आनेवाले यात्री सवार थे। उन यात्रियों को बंदी बना लिया गया। परिणामस्वरूप् मुगल गर्वनर भण्इस्ता खाँ का अंग्रेजो से युद्ध हुआ। इसकें बाद औरंजेगब ने सिदी को बम्बई की घेराबदी का आदेश दिया तथा सूरत के अंग्रेजो को बंदी बना दिया गया। परिमाण यह हुआ कि जॉन चाइल्ड को औरंगजेब से माफी माँगनी पडी 15 लाख रूपये जर्माना देना पड़ा और जोसिया चाइल्ड को वापस लंदन भेजना पडा।
1690 में औरंगजेब ने एक फरमान जारी कर कलकता मेंं करखाना स्थापित करने ंकी मंजूरी अंग्रेजो को देही। जाब चार्नाक के नेत्तत्व मे सुतानाटी मे एक कारखाना स्थापित किया गया। 1696 मे इसका विरोध वर्द्धमान के जमींदार भोभासिंह ने किया। इसके बाद सूतानाटी के किलेबदी कर दी गई था इसी वर्ष कलकता में फोर्ट विलियम का निर्माण करवाया गया। 1698 ई0 में राजकुमार अजीमुश्शान ने अंग्रेजों को सूतानीटी गोविन्दपुर और कलीकट की जमीदारों 1200 रूपये में खरीदने की इजाजत दे दी। फलतः तीनों को मिलकर जॉब चार्वाक ने कलकता शहर की नीवं डाली।
1694 ई0 में हाउस ऑफ कॉमन्स ने एक प्रावधान द्वारा यह घोषित किया कि प्रत्येक नागरिक को ईस्ट इंडिज से व्यापार करने का समान अधिकार है। एक विधेयक द्वारा 1698 ई0 मे एक नई कंपनी जेनरल सोसायटी का गठन किया गया जिसेन सरकार को 52 मिलियन कर्ज देकर भारतीय व्यापार पर एकाधिकार प्राप्त किया था। राजा विलियम तृतीय ने 1698 ई0 में ही एक अन्य कंपनी इंगलिस कंपनी ट्रेडिग इन द ईस्ट नाम से स्थापित की इस कंपनी के लिए व्यापारिक सुविधायें प्राप्त करने के लिए विलियम नोरिभ के नेतृत्व में नौरिम मिशन औरजेब के दबार में भेजा गया। ईस्ट इडिया कम्पनी ने इस नई कंपनी के सारे शेयर खरीदकर भारत में व्यापार करने की अनुमति नही दी। परिमाणस्वरूप् 22 जूलाइ्र 1702 को चार्टर ऑफ यूनियन के द्वारा दोनो कम्पनियों का विलय हो गया और नई कंपनी का नाम दी यूनाइटेंड कंपनी ऑफ मचेटेस ऑफ इंगलैड ट्रंडिग टू दी ईस्ट इंडीज रखा गया । यह विलय 1708-09 में गोडोलफीन के अलर्नके फैसले के अनुसार कार्य रूप् मे परिणत हुआ। 1714 ई0 में कम्पनी के लिए अधिक सुविधायों प्राप्त करने हेतु कलकता मद्रास एवं मुम्बई प्रेसीडेंसियों की और से जॉन सरमन को फर्रूखसीयर दके दरबार में भेजा गया। डॉ0 विलियम हैमिल्टन के सहयोग से सरमन ने जुलाई 1717 ई0 को तीन फरमान प्राप्त किए। इसके अतंर्गत कंपनी को बंगाल में 3000 वार्षिक प्राप्ति के पहले सभी प्रकार के सीमा शुल्क तथा आयात निर्यात कर से मुक्तकर दिया गया। कंपनी को कलकता के चारो और जमीन किराये पर लेने की इजाजत मिली सूरत मेंं कपनी को 10 हजार वार्षिक अदायगी करने के बदले सभी प्रकार के आयात-निर्यात पर छुट प्रदान की गई तथा कंपनी द्वारा जारी सिक्के जो बम्बई में गढे जाते थे, सम्पूर्ण मुगल साम्राज्य के अधीन माने जाने लगे। इस फरमान को इतिहासकार ओर्मे ने कम्पनी का मैग्नाकार्टा कहा है।
ईस्ट इंडिया कम्पनी का स्वरूप् प्रारम्भ से ही एक निजी कम्पनी का था। कम्पनी में एलिजाबेथा का मुख्य हिस्सा था, बाद में जेम्स प्रथम ने कंपनी को काफी, प्रश्रय दिया 1661 ई0 में कम्पनी को नये अधिकार के अपने किलों की सुरक्षा के लिए सैनिक जहाज सैनिक तथा गोला बारूद भेजने, सेनापति और अधिकारी नियुक्त करने का अधिकार चार्ल्स द्वितीय द्वारा प्रदान किया गया। बदले में कम्पनी ने चार्ल्स को 1़7लाख वौण्ड को रकम कर्ज स्वरूप् प्रदान की चीन 1683 ई0 के अधिकार पत्र द्वारा कम्पनी को किसी अन्य शक्ति के साथ युद्ध अथवा भांति रखने का पूर्ण अधिकार प्रदान कर दिया गया। 1686 के अधिकार पत्र से कम्पनी को एडमिरल अन्य समुद्री अधिकारियों को नियुक्त करने का अधिकार प्राप्त हुआ तथा सिक्कों कके अंकण के अधिकार भी मिले।ह 1693 मूं पूँजी लगाने की सीमा 5 लाख 10 हजार पौड से बढाकर 7 लाख 44 हजार पौड कर दी गई। 1694 के अधिकार पत्र द्वारा अधिकारियों की नियुक्ति में चक्रीय त्वजंजपवदंस ेलेजमउ नियम आवश्यक बना दिया गया। कम्पनी का प्रशासन कोर्ट ऑफ प्रोपराइटर्स और कार्ट और डायरेक्टर्स द्वारा संचालित होता था। कोर्ट ऑफ डायरेक्टर्स के चुनाव में उन्ही साझेदारी को मतदान करने का अधिकार था जिनके पास कम से कम 500 पौण्ड का शेयर होता था। यह कम्पनी के डायरेक्टरी की आम सभा थी। इसके द्वारा कोर्ट ऑफ डाइरेक्टर्स का चयन किया जाता था। इस कोर्ट में 24 डायरेक्टरों को चुनाव द्वारा नियुक्त किया जाता था। प्रतिवर्ष नियमित रूप् से इसके 6 सदस्य बदले जाते थे। ये शहरी जहारानी तथा भारत में स्थित असंगठित व्यापारी वर्ग के हितो का प्रतिनिधित्व करते थे। भारत मे काम करने कें लिए कम्पनी की सभी नियुक्तियों इन्ही डायरेक्टरो द्वारा की जाती थी। यह अत्यतं प्रभावशाली संस्था थी।
फ्रासींसी
1611 ई0 में फ्रांस के बारहवे लुई ने पूर्वी व्यापार करकने के लिए एक कम्पनी को पूर्णाधिकार पत्र प्रदान किया। परन्तु यह कंपनी सुधारू रूप् से कार्य नही कर सही। 1664 ई0 में कोल्बर्ट और लुई- चौदहवे के नेत्तत्व में एक नई कंपनी फ्रेंच ईस्ट इडिया कम्पनी की स्थापना हुई। कम्पनी ने व्यापार प्रारम्भ करने के साथ ही हिन्द महासागर में बारवोन तथा मॉरीास नामक दो द्वीपों पर अधिकार कर दिया। भारत में उद्योग स्थापित करने का प्रथम प्रयास दिसम्बर 1667 ई0 में किया गया जब जनरल फांसिस करने ने सूरत में एक कारखाना स्थापित किया। गोलकुडा के सुल्तान के क्षेत्राधिकार में मरकाश ने दूसरा कारखाना 1669 ई0 मेंं मच्छली पत्तनम में स्थापित किया। 1672 ई0 में गर्वनर जनरल फ्रांसिस मार्टिन ने वाली कोन्डापुरम बीजापुर के शासक शेर खान लोदी हो फैक्टरी स्थापित करने हेतु भूमि प्राप्त की और वहाँ एक बस्ती का निर्माण किया। बंगाल में फ्रांसीसियों ने एक बस्ती का निर्माण किया। बंगाल में फ्रासीसियों ने 1690 ई0 में चन्द्रनगर में एक कारखाना स्थापित किया 1693 ई0 में पांडिचेरी को उचों ने फ्रांसीसियों से छिन लिया परन्तु 1657 ई0 मे रिजविक को संधि द्वारा पांडिचेरी पुनः प्राप्त हो गया। 1725 में माही और 1739 ई0 में कारिकल पर फ्रांसीसियों का अधिकार स्थापित हुआ। 1735 ई0 में हयूमाँ पांडिचेरी का गवर्नर बना तो उसे दिल्ली सरकार से सिक्के बनाने की अनुमति मिल गई पुर्वी प्रदेश में चन्द्रनगर वाला सोर और कासिम बाजार और कलकता प्रमुख फ्रांसीसियों बस्तियों थी। 1740 ई0 में डुप्ले के आने के बाद फ्रांसीसियों की राजनीतिक महत्वाकाक्षां शुरू हुई जो भारत मे एक फ्रांसीसि साम्राज्य स्थपित करने की थी। फ्रांसीसी कंपनी का नाम 1720 ई0 में परपेचुअल कंपनी ऑफ इंडीज रखा गया। यह पूर्णतः सरकारी नियंत्रण में था। फ्रासीसी सरकार इसे अनुदान कर्जे ओर दूसरी सुविधाये देकर उसकी सहायता करती थी। वाणिज्यिक विस्तार ने अंग्रेजों और फ्रसीसी के बीच संघर्ष को आवश्यक बना दिया। फलतः सर्घ श्रेष्ठत के लिए तीन कर्नाटक युद्ध लड़े गया।
प्रथम कर्नाटक युद्ध (1746-48)ः- इस युद्ध का ताल्कालिक कारण आक्ट्रिया के राजकुमार के उत्तराधिकार का युद्ध था। यह प्रथम युद्ध थी जिसकी शुरूआत भारत से बाहर हुअर् थी और अंत भी एकसला- भैपल की संधि से भारत के बाहर ही हुआ। 1742 ई0 मे यूरोप में फ्रांस और इंगलैण्ड का युद्ध शुरू हुआ यूरोप का यह युद्ध शीघ्र ही भारत तक पहुँच गया और यहाँ देनों कंपनियों आपस में टकराने लगी। भारत में इस समय फ्रांसीसी गवर्नर जनरल डूप्ले था जिसकी नीति थी कि भारतीय शासकों के आपसी झगडों में अनुशासित और आधुनिक फ्रांसीसी सेना के द्वारा हस्तक्षेप किया जाय और एक से खिलाफ दूसरे का साथ देकर विजेता से मुद्रा व्यापार और क्षेत्र सम्बन्धी लाभ प्राप्त किए जाय। 1748 ई0 में कर्नाटक और हैदराबाद की स्थिति ने उसकें की अपनी नीति को कार्यान्वित करने का मौका प्रदान का मौका प्रदान किया। कर्नाटक में चांदा साहब ने नावव अनवारूद्दीन के खिलाफ षडयंत्र करना प्रारम्भ कर दिया और हैराबाद में निजामुल मुल्क आसफजाह के मरने के बाद उसके बाद उसके नेटे नासिर जंग और पोते मुजफ्फार जंग में सत्ता के लिए गृहयुद्ध छिड़ गया । इस स्थिति से फायदा उठाते हुए डुल्पे ने चांदा साहब और मुजफ्फार जंग के साथ एक गुप्त समझौता किया जिसमें अपने प्रशिक्षित फ्रांसीसी और भारतीय सेनिकों द्वारा मदद देने का वचन दिया। डूप्ले ने अंग्रेजो को हराकर मद्रास पर अधिकार कर दिया। डुप्ले ने अंग्रेजो को हराकर मद्रास पर अधिकार कर लिया। डुप्ले की सहायता मारीशस स्थित फ्रांसीसी गवर्नर डुडौं ने किया। कर्नाटक के नाबव अनवारूद्दीन को कैप्टन पाराडाइज ने अडयार नदी के तट पर सेंट टोमें नामक जगह पर पराजित किया। नबाव की सेना का नेत्त्व महफूज खॉ ने किया जबकि पाराडाइज की सेना में मात्र 230 यूरोपीयन थे। फ्रांसीसी एडमिरल ला वॉरडाउनेआर्स ने डुप्ले की आज्ञा को नकारते हुए 4 लाख पांउड में मद्रास अंग्रेजो को वापस कर दिया। फ्रांस ओंर इंगलैड़ के सम्राट के बीच एक्स-ला-भैपल की संधि हुई जिससे उत्तधिकार का युद्ध समाप्त घोषित किया गया।। इसके बाद प्रथम कर्नाटक युद्ध का भी पराक्षेप हो गया।
दुसरा कर्नाटक युद्ध (1749-54) हैराबाद का गृहयुद्ध द्वितीय कर्नाटक युद्ध का कारण बना। 1749 ई0 मे चादां साहब मुजफ्फार जंग और डुप्ले ने मिलकर अम्बुर के युद्ध में अनवारूद्दीन कों हराकर मार डाला उसका बेटा मुहम्मद अली त्रिचुरापल्ली भाग गया। शेष कर्नाटक चंदा साहब के अधिकार में आ गया। उसने फ्रांसीसियों की सेना के बदले उपहरस्वरूप् पांडिचेरी के निकट 80 गाँव प्रदान किया।फ्रांसीसीयों को हैदराबाद में भी सफलता मिलाने नासिर जंग युद्ध मे मारा गया और मुजफ्फार जगं दक्कन का सूबेंदार बनया गया। नये निजाम ने पांडिचेरी के निकट जमीन और मसुलीपत्तनम फ्रांसीसी कंपनी को उपहार स्वरूप प्रदान किया। उसने कम्पनी को पाँच लाख तथा कंपनी की सेनाओं को भी पाँचलाख रूपये दिए। इसके अतिरिक्त डुल्पे को 20 लाख रूप्यों के साथ एक लाख वार्षिक आयवासी जमीन भी प्रदान की गई। साथ ही डुल्पे को कृष्णा नदी से लेकर कन्याकुमारी तक के मुगल क्षेत्रों का ऑनरेरी गवर्नर नियुक्त यिका गया। डुप्ले ने बुओ को फ्रांसीसी को एक टुकड़ों के साथ हैदराबाद में नियुक्त किया। दुर्घटना वश मुजफ्फारजंग मारा गया। बुसी दु्रगगति से निजामुल मुल्क के तीसरे बेटे शालाबतजंग को गददी पर बैठा दिया। बदले मे सलाबतजंग ने उतरी सरकार का क्षेत्र जिसमें चार जिले मुस्तफानगर एल्लौर राजामुन्द्री तथा चिकाकोल या मिलने फ्रासीसी को प्रदान किया।
फ्रांसीसीयों कें प्रभाव कम करने के लिए नासिरजंग और मुहम्मदअली के बीच एक समझौता हुआ। कलाइब नासिरजंग से मिला तथा प्रस्ताव रखा कि कर्नाटक की राजधानी अर्काट पर हमला करके त्रिचुरापल्ली में घिरें मुहमद अली पर फ्रांसीसी का दबाव कम किया जा सकता है। क्लाइब 200 अंग्रेज और 300 भारतीय सैनिकों को लेकर अर्काट पर हमलाकर जीत लिया। चांदा साहब और फ्रासीसीयों ने मजबूर होकर त्रिचुरापल्ली का घेरा उठा लिया।1752 ई0 मं लोखो के नेत्तत्व में अंग्रेजों ने त्रिचुरापल्ली में फ्रासीसीयों को पराजित किया 1754 ई0 को डूप्ले को वापस फ्रांसबुला लिया गया तथा गोडहू को फ्रांसीसी प्रदेशों का गवर्नर नियुक्त किया गया। इसने 1755 ई0 में अंग्रेजो के साथ पांडिचेरी की संधि की। संधि को भर्तो के अनुसार मुहम्मद अली को कर्नाटक का नवाब मान लिया गया। अग्रेंजों और फ्रांसीसी दोनो ने मुगल सम्राट या अन्य नरेशों द्वारा ही गई उपाधियों को व्यागना का फैसला किया। इस संधि के सम्बन्ध में डूप्ले ने लिखा कि गाडेइ ने अपने देश के विनाश और सम्मान पर हस्ताक्षर किए।
तृतीय कर्नाटक युद्ध (1757-63) यूरोप में अंग्रेजो और फ्रासीसीयों के बीच 1756 ई0 में सप्तवर्षीय युद्ध प्रारम्भ होने से भारत में भी कम्पनियों के मध्य तनाव उत्पन्न हो गया। भारत मे युद्ध की शुरूआत 1757 ई0 में कलाइव और बाटसन द्वारा फ्रांसीसी बस्ती चन्द्रनगर पर अधिकारी से प्रांरभ हुआ। फ्रांसीसी सरकार ने काउटं वाली को लड़ने के लिए भारत भेजा जिसके पास सारै सौनिक असैनिक अधिकार सुरजित थे लेकिन जल सेना पर अधिकार द एक का था। लालों ने सेंट फोर्ट डेविड पर आक्रमण कर उसे जीत लिया। पॉकक के नेत्त्व मे अंग्रेजो नौसेना ने फ्रांसीसीयों को लगातार तीन युद्ध में पराजित किया।1759 ई0 मे द एक वापस चला गया। अंतिम और निर्णायक लडाई 22 जनवरी 1760 को वांडीवास में लडा़ गया। अंग्रेजों सेना का नेतृत्व जनरल सर आयर कूट तथा फ्रांसीसी सेना का नेतृत्व लाली कर रहा था। वाड़ीवास के युद्ध मे फ्रासीसीयों की करारी हार हुई। बुस्सी पकड़ा गया तथा लाली को भरण को खोज में पांडिचेरी भागना पड़ा। अंग्रेजों ने पांडिचरी घेर लिया। अतंतः 16 जनवरी 1761 ई0 को पांडिचेंरी ने अंगं्रेजों ने के सामने आत्म समर्पण कर दिया। युद्ध समाप्त हो गया। तथा फ्रांसीसीयों ने भारत में अपने सारे उपनिवेश खो दिए। 1763 ई0 मे सप्तवर्षीय युद्ध समाप्त होने के बाद फ्रांसीसीयों को पांडिचेरी तथा कुछ अन्य फ्रांसीसी प्रदेश वापस किए गये लेकिन उनको किले बंदी के अधिकार से वंचित किए गये लेकिन उनकों किलें बंदी के अधिकार सें वंचित कर दिया गया। कांउट दी लाली को वापस फ्रांस बुला लिया गया। और उस पर महाभियोग चलाकर फाँसी दे दी गई। वांडिवासा के युद्ध के महत्व पर मालेसन का विचार है कि वाडिवास के युद्ध ने उस महान भवन को जिसे डयूमाँ और डूप्ले ने निर्मित किया था, ध्वस्त कर दिया।
ब्रिटिश सत्ता का विस्तार एवं संगठन
बंगाल में ब्रिटिश सत्ता का विस्तार
यूरोपीय अर्थव्यवस्था में सामंतवाह से पूँजीवादी की और एवं फिर व्यापारिक पूँजीवादी से ओैद्योगिक पूँजीवादी में हुए परिवर्तनो के कारण औपनिवेशिक साम्राज्य स्थापित करने के लिए बहुत सी यूरोपीय भक्तियों के बीच बड़ी प्रतियोगिता हुई। साम्राजवाद की इस प्रक्रिया में 17वी शताब्दी से ही बंगाल उच, फ्रांसीसी और अंग्रेजो कंपनियों के बीच युद्ध का मैदान बना गया। यह मुख्यतः बंगाल मे अच्छे व्यापारिक संभावानओं तथा सम्पन्न संसाधानों के कारण था। और इसलिए कई विदेंशों कम्पनियाँ आकर्षित हुई थी। ईस्ट इंडिया कम्पनी ओर उकसे अधिकारियों की बढती हुई व्यापारिक रूचि के कारण बंगाल के नवाबों के साथ ंसंघर्ष को जन्म दिया। बंगाल की राजनीति में अतंनिहित कमजोरी ने अंग्रेजों को नवाब के विरूद्ध युद्ध में विजय प्राप्त करने में बड़ी मदद को। विभिन्न गुटों के शासकों से अलगाव ने बाहय् भक्तियों के लिए व्यवस्था को तोड़ने के लिए प्रेरित किया। फलतः बंगाल पर अंग्रेजों का प्रमुख कायम हुआ। इस तरह अंग्रेज व्यापारी एक साम्रावादी के रूप में परिणत हो गये।
परिस्थितियाँः- 18वीं शताब्दी मे बंगाल से यूरोप को निरंतर कच्वें उत्पादों जैसे भोरा, चावल,नील, काली मिर्च, चीनी ,रेशम सूती कपड़े एंव कढाई- बुनाई के सामान आदि का निर्यात होता था प्रारभ्मिक 18वीं शताब्दी में ब्रिटेन को एशिया से होने वाले आयात का 60 प्रतिशत सामान बंगाल से ही जाता था। बंगाल की व्यापारियों क्षमताओ ही अंग्रेजों द्वारा इस प्रदेश में ली जानेवाली रूचि का स्वाभविक कारण थी। अग्रेजों का बंगाल के साथ सम्बन्ध 1630 कें दशक में शुरू हुआ । पूर्व मूं प्रथम अंग्रेजों कम्पनी की स्थापना 1633 में उड़ीसा के बालासोर मे हुई और फिर हुगली, कासिम बाजार, पटना और ढाका में। 1690 के आसपास अंग्रेजो कम्पनी को सुतानाती, कालिकाता और गोविन्दपुर नाम के तीन गाँवों, के जमीदारो का अधिकार प्राप्त हो गया और कम्पनी द्वारा कलकता की स्थापना के साथ ही बंगाल में अंग्रेजो व्यापारिक बस्ती को बसाने की प्रक्रिया पूर्ण हो चूकी थी 1680 तक बंगाल मे कम्पनी का वार्षिक निवेश 1 लाख 50 हजार पौड़ तक पहुँच गया। प्रान्तीय सूबेदार कम्पनी को दिये जाने वाले विभेषाधिकारों का समर्थन नहीं करते थे क्योकि इससे अनेक राजस्व को भारी नुकसान पहुचता था। इसलिए प्रान्तीय प्रभासन की ओर से अंग्रजी कम्पनी पर प्रान्त में व्यापार के लिए अधिक अदायगी के लिए सदैव भारी दबाव रहता था। अंग्रेजो ने अपनी और से अनेक साधनों का प्रयोग कर व्यापार पूर्व नियंत्रण स्थापित करने की कोशिश की बंगाल में स्वतंत्र प्रभुत्व को स्थापित करनेवाले विशेषाधिकारों को देने के समर्थन में नही था। फलतः 18 वीं सदी के मध्य से पतले ही अंग्रेजों के व्यापारिक हितों एंव प्रान्तीय सरकार के बीच झगड़ा शुरू हो गया।
जिस समय अंग्रेजो बंगाल की राजनीति के लिए खतरा बनते जा रहे थे उसी समय प्रान्तीय प्रशासन मे भी कुछ अंदरूनी कमजोरियों पैदा हो गई। बंगाल का प्रशासन कुछ विशिष्ट भतौ पर आधारित था जैसे नवाब का शासन स्थानीय कुलीन वर्गा के एक भक्ति भाली समूह के समर्थन पर निर्भर करता था। उसको उन हिन्दू सेढों के समर्थन को भी आवश्यकता थी जिनके नियंत्रण मे वित्तीय प्रशासन था। बड़े जमीदारों का समर्थन प्राप्त करना अतिआवश्यक था क्योकि ने केवल सरकारी कोष को राजस्व देते थे बल्कि आवश्यकता पड़ने पर नवाब को सैनिक सहायता भी प्रदान करते थे तथा अपने क्षेत्र में कानून-व्यवस्था का संचालन करते थे। बैंको के मालिकों एवं व्यापारियों घरानों विशेषकर जगत सेठ का घराना जो बंगाल का सबसे बड़ा वित्तीय घराना था के समर्थन की आवश्यकता थी। नवाब की सफलता तभी तक निश्यित थी जब तक इन परस्पर विरोधी गुट वाले समूहों की आशाओं की पूर्त्ति होती थी। 1757 से 1765 तक बंगाल का इतिहास नवाब से अंग्रेजो को राजनैतिक सत्ता के क्रमिक हस्तातरण का इतिहास हैं। इन आढ वर्षा में बंगाल के ऊपर तीन नवाबों सिराजुदौला, मीर जफर और मीर कासिम ने आदान किया। परन्तु वे नवाब की प्रभुसत्ता को कायम रखने में असफल रहे और अतंतः शासन का नियंत्रण अंग्रेजो के हाथ में चला गया।
सिराजुदौला और पलासी का युद्ध
अलीवदी खाँ की मृत्यु के बाद 10 अप्रैल 1756 में सिराजुदौला बंगाल का शासक बना। राज्यारोहण के समय उसी उम्र 25 वर्ष थी यूरोपीय विद्वानों के अनुसार वह अत्यधिक क्रूर दम्भो और असावधान शासक था। प्रशासनिक नीतियों तथा व्यवहार के सम्बन्ध में उसके केई निश्चित सिद्धान्त नही थे। लेकिन मुस्लिम इतिहास कारों ने इस मत का संडन किया है। आरम्भ में सिराजुदौला ने यूरोपीययों के साथ अपने सम्बन्ध मधुर बनाये रखने का प्रयत्न किया। उसने उनकों सुरक्षा का आश्वासन दिया, लेकिन साथ ही उसने इन लोगो को चेतवनी भी दी कि उसके शासन में गडबड़ी करने का प्रयत्न न करें। सिराज के उत्तराधिकार का विरोध उसकी चाची घसीटी बेगम तथा पूर्णिमा के सूबेदार उसने चचेरे भाई शौकतजंग ने किया। इसके अतिरिक्त जगत सेठ, उमीचरै राजवल्लम, रायदुर्लम और मीरजॉफर ने भी सिराज के उत्तराधिकार का विरोध किया था।
फ्रांसीसी की लड़ाई के लिए उत्तरदायी परिस्थितियाँः-भारत में ब्रिटिश राजनीतिक सत्ता का आरंभ 1757 के प्लासी के युद्ध को माना जाता है।जब बगाल के नावब सिराजुदौला को ईस्ट इंडिया कम्पनी की सेना ने परास्त कर दिया । इस संघर्ष के पीछे कई उत्तरदायी कारण थेः-
1.वर्ष 1717 ई0 में मुगल सम्राट के एक माही फरमान द्वारा अंग्र्रेजों को विशेषधिकार मिले हुए थे। इस फरमाश के अनुसार कम्पनी को बिना कर चुकाने बंगाल से अपने सामान्य का आयात निर्यात करने की आजादी मिली हुई थी ओर उन्हें दस्तक जारी करने का अधिकार प्राप्त था। कंपनी के कर्म चारियाँ को भी निजी व्यापार की छुट प्राप्त थी। यह फरमान कंपनी और बंगाल के नवाब के बीच झगड़े को जड़ की। इससे बंगाल को सरकार को राजस्व की हानि होती थी। दूसरे कंपनी को दस्तक जारी करने का जो अधिकार मिला था, उसका दुरूपयोग कंपनी के कर्मचारी अपने निजी व्यापार पर भी करना चुकाने के लिए करते थे। मुर्शिद कुली खान से लेकर अली खाँ तक बंगाल के सभी तनाबों ने 1717 के फरमान की अंग्रेजो की व्याख्या पर आपत्ति की तथा कम्पनी करी देने के लिए बाध्य किया था एवं दस्तकों के दुरूपयोग पर सख्ती से पाबंदी लगा दी थी। सिराजने अंग्रेजों से मांग की कि वे जिन शर्त्तो पर मुर्शिदकुली खान के समय में व्यापार करते थे, उन्ही भतों पर अब भी व्यापार करें अग्रेजों ने इस बात को मानने से इंकार कर दिया। थे अपने मालो पर नवाब को कर चुकाने के लिए तैयार नही थे। इसके विपरीत उन्होने उन भारतीय मालों पर भारी कर लगा दिए जो कलकता आते थे।
2.दुसरा कारण यह था कि अंगेजो ने नवाब से आज्ञा लिए बिना ही कलकता की किलेबदी करना शुरू कर दी क्योंकि उन्हे चन्द्रनगर स्थित फ्रासींसीयो से टकराव को स्थिति बन रही थी। सिराज ने इस सम्पूर्ण कार्यवाही को अपने की सम्प्रभुता का उलंघन माना। उसने अंगेजो और फ्रासीसीयों दोनो को आज्ञा दी कि वे कलकता ओर चन्द्ररनगर की अपने किलेबन्दियों गिरा दे और एक दूसरे से लड़ने से बाज आएँ। फ्रांसीसी कम्पनी ने इस आज्ञा का पालन किया पर अंग्रेजो ने इसे मानने से इंकार कर दिया। वह नवाब की इच्छा के विपरीत बंगाल जमें रहने और अपनी भर्तो पर व्यापार करने पर अड़े थे। फलतः सिराज ने उनसे अपने देश के कानून मनवाने का निर्णय किया।
3.अंग्रेजो ने सिराजुदौला के राज्याभिषेक के अवसर पर परम्परागत नजराना देने की उपेक्षा की थी जिससे सिराज बेहद नाराज था।
4. अंग्रेजो ने सिराजुदौला के विरोधियों को प्रोत्साहित किया तथा प्रांत के घेंरलू नीतियाँ में भी हस्तक्षेप करने लगे उन्होने घसीटी बेंगम ओर भौकता से गुत समझौता कर लिया तथा हिन्इ राजाओं ओर सेठों के साथ भी नवाब के विरूद्ध साँठ-साँठ करने के लिए सम्बन्ध स्थापित करने आरम्भ कर दिए। इन सब बातों को नवाब अत्यंत गंभीर माना।
5. नवाब उस समय और अधिक नाराज हुआ जब घसोटी बेगम के प्रमुख सहायक ढ़ाका के राजबल्लम के पुत्र कृष्णवल्लभ को उसे नवाब को सौंपने से कलकत्ता के अंग्रेज अधिकारियों ने इन्कार कर दिया। कृष्णवल्लभ ने बेगम के होरों तथा सम्पत्ति को हथियाकर कलकत्ता में अंग्रेजों को भरल में भाग गया था। ब्रिटिश अफसरों ने सिराजुद्दौला द्वारा लगाये गये आरोपों को निराधार बताया। लेकिन अंग्रेज इतिहासकार हिल का मानना है कि ‘‘सिराजुद्दौला के उन समस्त आरोपों में कुछ अंग तक सच्चाई थी जो उसने अंग्रेजों पर आक्रमण के लिए लगाये थे।
ज्ब अंग्रेज अधिकारियों द्वारा नबाव ने जो आपत्तियाँ दर्ज की थी उसपर कोई ध्यान नहीं दिया गया तब सिराज में अंग्रेजों को समस्त फैक्टरियाँ बंद कर देने का आदेश दिया। आदेश की अवहेलना होने पर नवाब के 15 जून 1756 को फोर्ट विलियम का घेरा डाल दिया तथा 20 जून 1756 को इस पर अधिकार कर लिया। गर्वनर ड्रेक और अन्य अंग्रेज नागरिक पृष्ठ द्वार से भागने में सफल रहे तथा कलकत्ते से 20 मील दूर फुल्टा द्वीप पर भरल ली जिसे उसकी जहाजरानी सम्बन्धी श्रेष्ठता ने सुरक्षित बना दिया था तथा मद्रास को मिलने वाली सहायता का इंतजार करने लगे। नवाब कलकत्ता को मानिक चैद के हवाले कर स्वयं जीत की खुशी मनाने मुर्शिदाबाद आ गया।
ब्लैकहोल की घटना :- ब्लैकहोल कहानी के रचयिता जे0 जैद0 हॉलवेल माने जाते है जो शेष जीवित 23 प्राप्तियों में से एक थे। इनके अनुसार युद्ध की आमप्रणाली के अनुसार अंग्रेजों बंदियों को जिसमें स्त्रियाँ और बच्चे भी शामिल थे, एक कहा में बंद कहा में बंद कर दिया गया। 118 फूट लम्बे और 14 फीट 10 इंच चौडे़ कक्ष में 146 कैदी बंद थे।
20 जून 1756 की रात्रि को ये बंद किए गये थे तथा अगले प्रातः उनमें से केवल 23 व्यक्ति ही जीवित बच पाये थे। शेष उस जून की गर्मी, घुटन तथा एक दूसरे से कुचले जाने से मर गये थे। इतिहासकारों द्वारा इस घटना को विशेष महत्व नहीं दिया गया है तथा समकालीन इतिहासकार गुलाम हुसैन ने अपनी पुस्तक सियार-उल-मुत्खैसि में इनका कोई उल्लेख नहीं किया है। परन्तु ईस्ट इंडिया कम्पनी ने इस घटना को नवाब की विरूद्ध लगभग 7 वर्ष तक चलते रहनेवाले आक्रामक युद्ध के लिए प्रचार का कारण बनाए रखा तथा अंग्रेजी जनता का समर्थन प्राप्त करने में सफल रहे। यह घटना इसके पश्चात होनेवाले प्रतिकार के लिए विशेष महत्व रखती है।
सिराज द्वारा कलकता पर विजय के पश्चात अंग्रेजी सम्मान और उसके व्यापार को काफी धक्का लगा। इस अपमान का बदला लेने के लिए मद्रास की कौंसिल ने एक विशाल सेना जिसका नेतृत्व क्लाइब कर रहा था बंगाल भेजी। साथ ही एडमिरल वाटसन के नेतृत्व में एक जहाजी बेड़ा भी रवाना किया गया। 2 जनवरी 1757 को अंग्रेजों द्वारा कलकता पर अधिकार कर लिया गया। उन्होंने नबाव के विरूद्ध युद्ध की घोषणा कर दी तथा कलकता के भव्य भवनों में काफी लूट-मार की। प्रतिउत्तर में नबाव एक सेना लेकर कलकते की तरफ चला, क्लाइब ने यह जानते हुए कि नबाव को सेना शक्तिशाली संधिवार्त्ता के लिये प्रयत्नशील हो गया। फलतः 9 फरवरी 1757 को नबाव और अंग्रजों के बीच अलीनगर की संधि हो गई। संधि की शर्तो के अनुसार अंग्रेजों को पुरानी व्यापारिक सुविधायें लौटा दी गई। अंग्रेजों को भारी धनराशि क्षतिपूर्ति के रूप में दी गई। कलकते की किले बंदी का अधिकार भी अंग्रेजों को दे दिया गया। यह भी माना गया कि बिहार और उड़िसा में जिस किसी माल के साथ अंग्रेजों का दस्तक हो वह सब बिना महसूल के आने-जाने दिया जाय। अंग्रेजों को अपने सिक्के चलाने का अधिकार दिया गया। लेकिन नबाव ने अंग्रेजों इस प्रार्थना को अस्वीकार कर दिया कि फ्रांसीसियों के विरूद्ध उनके साथ संधि करे। इस संधि ने बंगाल में अंग्रेजों तथा नवाव सिराजुद्दौला के बीच हुए प्रथम संघर्ष को समाप्त कर दिया। जिसका विचार सर्वथा उपयुक्त है ‘‘कलकता छोड़ने से पहले नवाब सिराजुद्दौला बरबाद हो चुका था।‘‘
युरोप में सप्तवर्षीय युद्ध के छिड़ जाने के कारण अंग्रेजों तथा फ्रांसीसियों में भी दक्षिण भारत में युद्ध छिड़ गया। अंग्रेजों ने चन्द्रनगर पर आक्रमण कर दिया। क्लाइब ने चन्द्रनगर पर अधिकार कर लिया। चन्द्रनगर पर अंग्रेजों की प्रतिद्वन्द्वी फ्रांसीसी शक्ति का पूर्णतया अंत कर दिया। इस प्रकार फ्रांसीसियों की हार और चन्द्रनगर पर अंग्रेजों का अधिकार नबाव के सम्मान तथा अधिकार के लिए एक भारी चुनौती थी इससे उसकी सरकार का सम्मान घटा, क्योंकि फ्रांसीसी उसकी प्रजा थे। इसके साथ इस घटना ने नवाब के दुश्मनों को भी अंग्रजों के साथ मिलने के लिए उकसाया। इसके बाद अंग्रेजों की मंशा बंगाल की सत्ता पर एक कठपुतली शासक बनाने की थी। क्लाइब ने नवाब के दीवान रायदुर्लभ, नवाब के सेनापति मीरजाफर तथा बंगाल के प्रसिद्ध बैंकर जगतसेठ से मिलकर एक षडयंत्र की रचना की। षडयंत्र की शर्त्ते अभीचंद के माध्यम से निर्धारित की गई। गुलाम हुसैन ने मीरजाफर को ही सारे षड़यंत्र और बुराई की जड़ बताया है। अंग्रेजों ने मीरजाफर को नवाब बनाने का फैसला किया। 5 जून 1757 को अंग्रेजों और मीरजाफर के बीच एक गुप्त समझौता हुआ। इसके अनुसार यह निश्चय हुआ कि अंग्रेजों की सहायता से मीरजाफर को बंगला का नवाब बना दिया जाएगा। इसके बदले में वह अंग्रेजों को कलकता, ढाका तथा कासिम बाजार को किलेबंदी की अनुमति दे देगा तथा समस्त फ्रांसीसियों और उसकी बस्ती को अंग्रेजों के हवाले कर देगा तथा एक करोड़ रूप्ये की कम्पनी को देगा। भविष्य में यदि उसे सैनिक सहायता की आवश्यकता पड़ी तो अंग्रेज उसकी सहायता करेंगे, परन्तु सेना का व्यय नवाब को देना होगा। यह भी कहा गया कि अंग्रेजों के शत्रु नवाब के शत्रु माने जाएगे। अंतिम क्षणों में गुप्त संधि के रहस्य खोलने की अभीचंद द्वारा धमकी दिए जाने पर क्लाइव ने उसे धन का लालच देकर मना लिया। क्लाइव ने दो समझौता पत्र तैयार करवाया। एक जो वास्तविक सफेद कागज पर था और दूसरा लाल कागज पर। वास्तविक समझौते में अभीचंद को कमीशन देने की बात नहीं कही गई थी, जबकि झूठे समझौता पत्र में उसे नवाब की कुल सम्पत्ति का 50 प्रतिशत तथा तीस लाख रूपये देने की बात कही गई थी। इस पर वाटसन के नकली हस्ताक्षर थे।
टंग्रेजों न नवाब पर यह आरोप लगाया गया कि नवाब ने अलीनगर की संधि का उल्लंघन करते हुए अंग्रेजों के अमैत्रीपूर्ण रूख अपनाया है तथा फ्रांसीसियों के प्रति मित्रता प्रकट की है। क्लाइव ने नवाब के उत्तर की प्रतीज्ञा नहीं नहीं की और सेना सहित नवाब के विरूद्ध मुर्शिबाद की ओर प्रस्थान किया। 23 जून 1757 को प्रतिद्वन्द्वी सेनायें मुर्शिदाबाद के दक्षिण में 22 मील की दूरी पर स्थित फारसी गाँव में टकराई। अंग्रेजी सेना में 950 यूरोपीय पदाति, 100 यूरोपीय तोपची, 50 नाविक तथा 2100 भारतीय थे। नवाब की 50 हजार सेना का नेतृत्व मीरजाफर कर रहा था। नवाब की एक अग्रगामी टुकड़ी जिसका नेतृत्व मीरमदान और मोख लाल कर रहे थे, क्लाइब को पीछे हटने और पेड़ों के पीछे छिपने के लिए बाध्य कर दिया। लेकिन गोली लगने से मीरमदान मारा गया नवाब सिराजुद्दौला ने अपने प्रमुख अधिकारियों से मंत्रण ली। मीर जाफरने उसे पीछे हटने को कहा तथा यह भी कहा गया कि सिराज को सेना का नेतृत्व जनरलों के हाथ में छोड़, युद्धक्षेत्र से चला जाना चाहिए। सिराज 2000 घुड़सवारों सहित मुर्शिदावाद लौट गया। फ्रांसीसी टुकड़ी जल्दी ही हार गई। मीर जाफर ने अंग्रेजों से लड़ने का कोई प्रदान नहीं किया। युद्ध में क्लाइव को विजय हुई। मीरजाफर ने क्लाइव को बधाई दी। मीरजाफर 25 जून को मुर्शिदाबाद लौट गया तथा अपने आपको नवाब घोषित कर लिया। सिराज बंदी बना लिया गया और मीरजाफर के पुत्र मीरान द्वारा कत्ल कर दिया गया। मीरजाफर ने कंपनी की सेवाओं के बदले 24 परगना की जमींदारी प्रदान ली। क्लाइव को 2 लाख 34 हजार पौंड की निजीभेंट तथा 50 लाख रुपया सेना एवं नाविकों के पुरस्कार के रूप में दिया गया। बंगाल की समस्त फ्रांसीसी वस्तियाँ अंग्रेजों दे दी गई। यह भी निश्चित हुआ कि भविष्य में अंग्रेज पदाधिकारियों तथा व्यापारियों को निजी व्यापार पर कोई चुंगी नहीं देनी होगी।
प्लासी के युद्ध का महत्व :- प्लासी की लड़ाई में अंग्रेजों की सफलता का बंगाल के इतिहास पर एक विशेष प्रभाव हुआ। अंग्रेजों की इस विजय से बंगाल के नवाब की स्थिति कमजोर पड़ गई भले ही यह विजय विश्वासघात या अन्य किसी साधन से प्राप्त ली गई हो। बाह्य रूप से सरकार में कोई अधिक परिवर्त्तन नहीं हुआ था और अभी भी नवाब सर्वोच्च अधिकारी था। लेकिन व्यावहारिक तौर पर कम्पनी के प्रभुत्व पर निर्भर था। कम्पनी ने नवाब के अधिकारियों की नियुक्ति में हस्तक्षेप करना शुरू कर दिया। नवाब के प्रशासन की आंतरिक कलह स्पष्ट रूप से प्रकट होने लगी और अंग्रेजों के साथ मिलकर विरोधियों के द्वारा किये गये षडयंत्र ने अंततः प्रशासन की ताकत को कमजोरी किया तथा वित्तीय उपलब्धि के अतिरिक्त ईस्ट इंडिया कम्पनी ने फ्रांसीसी और उच्च कम्पनियों को कमजोर बनाकर बंगाल के व्यापार पर सफलतापूर्वक अपनी हजारेदारी को स्थापित कर लिया।
प्लासी के युद्ध का सामरिक महत्व कुछ भी नहीं था। यह एक छोटी की झड़प थी जिसमें कम्पनी के कुल 65 व्यक्ति तथा नवाब के 500 व्यक्ति मारे गये थे। अंग्रेजों ने किसी विशेष सामरिक योग्यता तथा चातुर्य का प्रदर्शन नहीं किया। नवाब के साथियों ने विश्वासघात किया। मीर मदान के वीरगति प्राप्त होते ही गद्दारों का बोलबाला हो गया। यदि मीरजाफर और राय दुर्लभ राजभक्त होते तो अंग्रेजी आकांक्षा अंकुरित होने से पूर्व ही नष्ट हो गई होती। क्लाइव अपनी कुटनीतिक चातुरी से जगत सेठ को भय दिखाया, मीर जाफर की आकांक्षाओं को जगाया तथा बिना लड़े ही मैदान मार लिया। के0 एम0 पन्निकर का मानना है कि ‘‘यह एक सौदा था जिसमें बंगाल के घनी सेठों तथा मीरजाफर ने नवाब को अंग्रेजों के हाथों बेंच डाला।‘‘
प्लासी की लड़ाई के बाद बंगाल अंग्रेजों की अधीनता में चला गया और फिर कभी स्वतंत्र न हो सका। मीरजाफर अपनी रक्षा और पद के लिए अंग्रेजों पर निर्भर था। 6000 अंग्रेजी सेना नवाब की रक्षा के लिए बंगाल में रखी गई। इस युद्ध के बाद होनेवाली बंगाल की लूटने अंग्रेजों को अनन्त साधनों का स्वामी बना दिया। इस घन की सहायता से ही अंग्रेजों ने दक्कन विजय कर लिया तथा उत्तरी भारत अंग्रेजी कदमों में लोटने लगा।
कम्पनी की निश्चित में भी परिवर्त्तन हुआ पहले वह बहुत सी विदेशी कम्पनियों से एक थी जिसे नवाब के अधिकारियों को धन देना पड़ता था। अब उसका बंगाल के व्यापार पर एकाधिकार हो गया। फ्रांस को अपनी खोई हुई स्थिति को प्राप्त करे का अवसर नहीं मिला। उन्होंने 1759 में एक प्रयत्न किया लेकिन पराजय का मुँह देखना पड़ा। इस प्रकार अंग्रेजी ईस्ट इंडिया कम्पनी एक व्यापारिक कम्पनी से साम्राज्यवादी कम्पनी के रूप में परिणत हो गई।
भारत के भाग्य पर प्लासी के युद्ध का अत्यधिक प्रभाव पड़ा। मालेसन के अनुसार संभवतः इतिहास में इतना प्रभावित करनेवाला युद्ध नहीं लड़ा गया। इस युद्ध के कारण इंगलैण्ड मुस्लिम संसार की सबसे बड़ी शक्ति बन गया। प्लासी के युद्ध के कारण ही इंगलैंड पूर्वी समस्या में विशेष भूमिका निभाने लगा। इसी के कारण उसे मॉरीशस तथा आशा अंतरीय को विजय करने तथा उन्हें अपना उपनिवेश बनाने पर बाध्य होना पड़ा तथा मिश्र को अपनी संरक्षण में लेना पड़ा।
मीरजाफर के साथ अंग्रेजों के सम्बन्ध :- सत्तासीन होने के साथ ही मीरजाफर को अनेक कठिनाईयों का सामना करना पड़ा। मिहनापुर के राजा रामसिन्हा, पूर्णिया के हिजीर अली खाँ जैसे जमींदारों ने उसे अपना शासक मानने से इंकार कर दिया। मीरजाफर के कुछ सिपाही जिनकों अपना वेतन निरंतर नहीं मिल रहा था, वे विद्रोही हो रहे थे। मीरजाफर को अपने कुछ अधिकारियों विशेषकर राय दुर्लभ की वफादारी पर संदेह था। उसे विश्वास था कि राय दुर्लभ ने जमींदारों को उसके विरूद्ध विद्रोह के लिए उकसाया था। परन्तु रायदुर्लभ ने जमींदारों को उसके विरूद्ध विद्रोह के लिए उकसाया था। परन्तु रायदुर्लभ क्लाइब की शरण में था, इसलिए वह उसको छू भी न सका। मुगल बादशाह के पुत्र अली गौहर जो बाद में आलमशाह के नाम से जाना गया के द्वारा बंगाल के सिंहासन पर अधिकार करने का प्रयास आदि।
मीरजाफर ने कम्पनी को सहायता से सिंहासन तो प्राप्त कर लिया, लेकिन यह सौदा घाटे का रहा। कंपनी के अधिकारियों की उपहार तथा रिश्वत सम्बन्धी मांगों ने उसका खजाना खाली कर दिया। कर्नल मालेसन के अनुसार कम्पनी के अधिकारियों का अब एक ही उद्देश्य था कि ‘‘जितना लूट सको, लूटो, मीरजाफर सोने की एक ऐसी थैली है जिनमें जब जो चाहे हाथ डाल लो।‘‘ कम्पनी के डायरेक्टरों का मानना था कि उनके हाथ कामधेनु गाय लग गई है और बंगाल की दौलत कभी खत्म नहीं होगी। यह आज्ञा जारी की गई कि बम्बई और मद्रास की प्रेसीडेंसियों का खर्च भी बंगाल उठाये तथा अपने राजस्व से कम्पनी के भारत से होनेवाले पूरे निर्यात का माल खरीदे।
मीरजाफर के जल्दी ही पता चल गया कि कम्पनी और उसके अधिकारियों की सारी माँगे वह पूरी नहीं कर सकता। अंग्रेज अधिकारी भी अपनी आशाएँ पूरी न होते देखकर नवाब को आलोचना करने लगे। अंग्रेज कम्पनी का ऐसा विचार था कि मीरजाफर डच कम्पनी के सहयोग से बंगाल में अंग्रेजों के बढ़ते प्रभाव में कटौती करने की कोशिश कर रहा है। इसी बीच मीरजाफर के पुत्र मीरान की मृत्यु के कारण उत्तराधिकार के प्रश्न को लेकर एक विवाद पैदा हो गया। मीरान के पुत्र और मीरजाफर के दामाद मीरकासिम के बीच इसके लिए संघर्ष हुआ, कलकता के नये गवर्नर बॉन्सीटार्ट ने मीरकासिम का पक्ष लिया। बॉन्सीटार्ट के साथ एक गुप्त समझौते के द्वारा मीरकासिम कम्पनी को आवश्यक धन अदा करने के लिए सहमत हुआ इस शर्त्त पर कि यदि वे बंगाल के नवाब के लिए उसके दावे का समर्थन करें। मीरजाफर पहले ही अंग्रेजों का विश्वास खो चूका था। अपनी दये वेतन के लिए सेना के विद्रोह ने मीरजाफर को नवाब के पद से रूराने के लिए अंग्रेजों के दवाब डालने को और सरल बना दिया। अगस्त 1760ई0 में कर्नल कलॉड को वासीटार्ट ने यह सुझाव दिया कि अगर मीरजाफर वर्द्धबान तथा नदिया जिले जिनसे लगभग 50 लाख रूप्या वार्षिक की आय हो सकती थी, अंग्रेजों को दे देय तो वह उसको समर्थन प्रदान कर देगा। लेकिन मीरजाफर को यह भर्त्त मंजूर नहीं थी। फलतः 27 सितम्बर 1760 ई0 को मीरकासिम और कलकत्ता कौंसिल के बीच एक संधि सम्पन्न हुई। जिसमें भर्त्ते थी- (1) मीरकासिम ने कम्पनी को वर्द्धमान, मिदनापुर तथा चटगाँव के जिले देना स्वीकार किया।
(2) सिलहट के चूने के व्यापार में कम्पनी को आधा भाग मिलेगा।
(3) मीरकासिम कम्पनी को दक्षिण में अभियानों के लिए 5 लाख रूपये देगा।
(4) मीरकासिम कम्पनी के मित्र अथवा शत्रुओं को अपना मित्र अलवा शत्रु मानेगा।
(5) दोनों एक दूसरे के आसामियों को अपने प्रदेश में बसने की अनुमति देगे।
(6) कम्पनी नवाब के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं करेगी तथा नवाब को सैनिक सहायता प्रदान करेगी।
म्ीरकासिम भी बंगाल के सिंहासन पर उसी ढंग से पदासीन हुआ जिस ढं़ग से मीरजाफर ने इसको प्राप्त किया था। मीरजाफर ने मीरकासिम के पक्ष में गद्दी छोड़ दी तथा 15 हजार मासिम पेंशन पर कलकत्ता में रहने लगा। नवाब बनते ही मीरकासिम ने कम्पनी के अधिकारियों को पुरस्कार स्वरूप धन वितरित किया। इन अधिकारियों ने कम्पनी को वित्तीय कठिनाईयाँ को दूर करने के लिए लगभग 17 लाख रूपये प्राप्त किए।
मीरकासिम और बक्सर युद्धः मीरकासिम अलीवर्दी खाँ के बाद एक योग्य, कुशल और शक्तिशली शासक था और वह स्वयं को विदेशी दासता से मुक्त करना चाहता था। उसे यह बात अच्छी तरह मालूम थी कि आजादी बनाये रखने के एक भरा हुआ काष और प्रशिक्षित सेना आवश्यक है। इसलिए उसने सार्वजनिक अर्थवस्था को संभालने, राजस्व प्रशासन से भ्रष्टाचार मिटाकर अपनी आय बढ़ाने और यूरोपीय तर्ज पर एक आधुनिक और अनुशासित सेना खडी करने की कोशिश की। सत्ता करने के बाद मीरकासिम ने दो महत्वपूर्ण कार्य किया। प्रथम तो कलकत्ता में स्थित कम्पनी से सुरक्षित दूरी को बनाये रखने के लिए उसने अपनी राजाधानी को मुर्शिदाबाद से मुंगेर में हस्तारित कर दिया और द्वितीय अपनी पंसद के अधिकारियों के साथ उसने नौकरशाही का पुनगर्ठन किया तथा सेना सके कौशल तथा क्षमताओं को बढाने के लिए यूरोपीय ढं़ग पर गठित किया। मुंगेर में तोपों तथा तोपेघर बन्दूकें बनाने की व्यवस्था की गई। मीरकासिम ने राज्य की आर्थिक स्थिति सुधारने का प्रयत्न किया। जिन आधिकारियों ने गबन किया था उनपर बडे-बडे जुर्माने किए गये। कुछ नये कर लगाये गये तथा पुराने करों पर 3132 भाग अतिरिक्त करके रूप में लगाया गया। उसने एक और कर खिजरी जमा जो अभी तक अधिकारियों द्वारा छुपाया जाता रहा था वह भी प्राप्त किया।
बक्सर युद्ध के कारणः - कम्पनी की इच्छाओं के अनुसार मीरकासिम कठपुतली शासक नहीं बन सका। वह कम्पनी की आर्थिक माँगों को अधिक सफलता से पूरा कर सका था। हैरी वेरेलेस्ट ने मीरकासिम और कम्पनी के झगडों को दो भागों में बाँटा है तात्कालिक तथा वास्तविका उसके कारण तत्कालिक कारण तो आंतरिक व्यापार था परन्तु वास्तविक उस नवाब की राजनैतिक इच्छाएँ थी। नन्दलाल चटर्जी के अनुसार-‘‘नवाब की इच्छा अंग्रेजों से पूर्ण रूपेय स्वतंत्र होने की थी तथा वह शनैः शनैः 1757 में स्थापित अंग्रेजी सत्ता को समाप्त करना चाहता था। उसका मुख्य उद्देश्य यूरोपीय व्यापारियों की विशेष शक्ति को समाप्त कर निष्कम्हक तथा निरंकुश सूबेदारी स्थापित करना था।‘‘
(1) नवाब के बार-बार प्रार्थना करने पर भी बिहार का उप सूबेदार नायब रामनारायण अपने लेखे-जोखे को जमा नहीं कर रहा था। पटना किपत अंग्रेज अधिकारियों के द्वारा रामनारायण को समर्थन दिया जा रहा था और वह भी कभी भी नवाब विरोधी भावनाओं को नहीं छिपाता था। फलतः अंग्रेज और मीरकासिम के बीच तनाव उत्पन्न हो गया। मीरकासिम अपनी सत्ता के इस स्पष्ट उल्लंघन को सहन नहीं कर सका। उसने वॉन्सीटार्ट की सहमति से पूर्व ही रामनारायण को निलम्बित किया, फिर सेवा से हरा दिया तथा मार डाला।
(2) आंतरिक व्यापार में प्रतिवर्ष बढ़ती हुई भ्रष्टता से मीरकासिम के वित्तीय साधन तथा उसके राजनैतिक अधिकार क्षेत्र दोनों में कभी हो रहा था। अंग्रेजों तथा उनके एजेन्टों और गुमास्ते के हथकंडे उसकी राजसत्ता के लिए खतरा बनते जा रहे थे। ये लोग सिर्फ जनता पर ही अत्याचार नहीं करते थे अपितु नवाब के अधिकारियों को भी बंदी बना लेते थे। मैकाले के अनुसार-‘‘कम्पनी का प्रत्येक सेवक अपने आपको स्वामी समझता था स्वामी अपने आपको कम्पनी का ही रूप् समझता था।‘‘कम्पनी के सेवक वृक्षों के नीचे न्यायालय लगाते थे तथा मनमाना दंड दिया करते थे। मीरकासिम चाहता था कि झगडे की स्थिति में कम्पनी के गुमाश्ते नवाब की अदालतों के अधीन कार्य करे। लेकिन अंग्रेंज इसके लिए तैयार नहीं थे। असली मतभेद सत्ता के प्रश्न पर था कि बंगाल प्रान्त का स्वामी आखिर कौन है। नवाब या कंपनी नवाब कम्पनी को एक व्यापारिक कम्पनी मानता था तथा व्यापारिक कम्पनी की दृष्टि से सभी सुविधाओं देने के लिए तत्पर था परन्तु वह उसे सत्ता में साझीदार बनाने के लिए तैयार था जबकि कम्पनी यह चाहती थी कि नवाब उसके हाथों में कठपुतली बनकर रहे और उसकी इच्छा से शासन करें।
(3) मीरकासिम का झगड़ा आंतरिक व्यापार पर लगे करों को लेकर प्रारम्भ हुआ। वॉसीटार्ट ने आंतरिक व्यापार की परिभाषा ‘‘राज्य के एक स्थान से दूसरे स्थान पर माल को लाने तथा ले जाने‘‘ को माना। कम्पनी को 1717 ई0 में फर्रूखसीयर ने एक फरमान द्वारा आयात तथा निर्यात कर से छूट दे दी थी। उसपर कोई बहस नहीं थी। नवाब ने दस्तक का प्रश्न उठाया जिसके अनुसर कर की छूट होती थी तथा जिसकी सहायता से कम्पनी क अधिकारी अपना निजी व्यापार चलाते थे तथा नवाब को कर से वंचित रखते थे। इसके अतिरिक्त अब इन अधिकारियों ने यह दस्तक धन लेकर भारतीय व्यापारियों को भी देनी आरम्भ कर दी थी जिससे शेष मिलनेवाला कर भी समाप्त हो गया था। दूसरी तरफ कम्पनी के अधिकारी नवाब के कानूनों का उल्लघन करते थे, उसके अफसरों का निरादर करते थे तथा जनता की लूटते थे। एक बार एलिस जो पटना का एजेन्ट था कम्पनी के सिपाहियों को मुंगेर के दुर्ग की तलाशी लेने के लिए भेज दिया था क्योंकि उसे संदेह था कि कम्पनी के दो भगोडों ने वहाँ शरण ले रखी थी।
(4) कम्पनी के सेवक केवल कर रहित व्यापार ही नहीं करते थे अपितु बाजार से सस्ता माल खरीदने के लिए बल प्रयोग भी करते थे जिसकी शिकायत मीरकासिम ने कम्पनी के गवर्नर से की थी। लेकिन कलकत्ता परिषद समास्या को सुलाझाने में दिलचस्पी नहीं रखती थी। उसने मीरकासिम से झगडे़ का स्वागत किया क्योंकि नये नवाब से उन्हें पहले की भाँति बहुत साधन प्राप्त करने की आशा थी।
(5) मीरकासिम के उस कार्यवाही ने युद्ध को सन्निकट ला दिया जिसमें उसने सभी आन्तरिक कर हटा लिए। अब भारतीय व्यापारी भी अंग्रेज व्यापारियों के समान हो गये। परिषद के सदस्य चाहते थे कि नवाब अपनी प्रजा पर कर लगाए क्योंकि केवल उसी अवस्था में वे दस्तक का दुरूपयोग कर सकते थे । पटना के अधिकारी एलिस की उत्तेजनापूर्ण कार्यवाही ने युद्ध को समीप ला दिया।
डॉडवेल को विचार है कि युद्ध परिस्थितियों के कारण हुआ न कि युद्ध के उद्देश्य से। नवाब अपनी इच्छा से राज्य करना चाहता था परन्तु अंग्रेजों ने अपने विशेषाधिकारों की रक्षा के लिए नवाब पर युद्ध थोप दिया। कम्पनी और नवाब में युद्ध 1763 ई0 में ही आरम्भ हो गया। मीरकासिम ने अत्यधिक साहस के साथ अंग्रेजों के साथ युद्ध आरम्भ किया। अंग्रेजों ने कटवाह, मुर्शिदाबाद, गिरआ, आटे उदयनाला और मुंगेर के स्थानों पर मीरकासिम को पराजित कर मीरजाफर को पुनः सिंहासन पर बैठाया। पराजय के बाद मीरकासिम, अवध के नवाब मुआऊद्दौला तथा मुगल बादशाह शाह आलम द्वितीय से सहायता प्राप्त करने के लिए अवध पहुँचा। उन तीनों की सम्मिलित सेनाओं ने पटना पर आक्रमण कर दिया। हेक्टर मुनरो के नेतृत्व में अंग्रेजो सेना से इनका मुकाबला हुआ। युद्ध बक्सर के स्थान पर 22 अक्टूबर 1764 को हुआ, जिसमें अंग्रेजी सेना विजयी रही।
बक्सर की लड़ाई का महत्व :- बक्सर की लड़ाई के द्वारा अंग्रेजों ने बंगाल के ऊपर अपना पूर्ण राजनीतिक नियंत्रण स्थापित कर लिया। वास्तव में हस्तांतरण की प्रक्रिया का प्रारम्भ पलासी की लड़ाई से हुआ था। और इसकी चरम परिणति बक्सर के युद्ध में हुई।
बक्सर की लड़ाई ने बंगाल नवाब के भाग्य के सूर्य को अस्त कर दिया और अंग्रेजों का बंगाल में एक शासक शक्ति के रूप में उदय हुआ। मीरकासिम ने बादशाह शाह आलम और अवध के नवाब भुजाउद्दौला के साथ मिलकर अंग्रेजों के विरूद्ध सफलता पूर्वक एक संघ का निर्माण किया। यह संघ अंग्रेजों के सम्मुख असफल रहा। इस लड़ाई में अंग्रेजों की विजय ने ब्रिटिश शक्ति की सर्वोच्चता को सिद्ध कर दिया और उनके विश्वास को और मजबुत किया। यह विजय केवल अकेले मीरकासिम के विरूद्ध न थी बल्कि मुगल बादशाह एवं अवध के नवाब के विरूद्ध थी। अंग्रेजों की इस युद्ध में सफलता ने यह सिद्ध कर दिया कि भारत के अन्य भागों में ब्रिटिश शासन की स्थापना बहुत दूर नहीं थी।
बक्सर ने पलासी के निर्णयों पर पक्की मोहर लगा दी भारत में अब अंग्रेजी सता को चुनौती देनेवाला दुसरा नहीं था। बंगाल का नया नवाब उनकी कठपुतली था। अवध का नवाब उनका आभारी तथा मुगल सम्राट उनका पेंशनर था। इलाहाबाद तक के प्रदेश उनका अधिकार हो गया तथा उनके लिए दिल्ली का मार्ग खुल गया। प्लासी के युद्ध ने बंगाल में अंग्रेजी की शक्ति को सुदृढ़ किया तथा बक्सर के युद्ध ने उत्तरी भारत में तथ अब वे समस्त भारत पर दावा करने लगे थे। इसके पश्चात मराठों और मैसूर ने कुछ चुनौती प्रस्तुत की थी, लेकिन वे भी पराजित किये गये। बक्सर का युद्ध भारत के इतिहास में निर्णायक साबित हुआ।
प्लासी का युद्ध तो केवल झड़प् मात्र थी जबकि बक्सर का युद्ध पूर्णतया निर्णायक युद्ध था जिसने अंग्रेजों को बंगाल का स्वामी बना दिया। शक्ति उनके साथ में रहेगी अथवा नहीं पहले यह निश्चित नहीं था, वे शक्ति के लिए संघर्षत थे, पर अब उन्हें अकस्मात् ही समस्त शक्ति प्राप्त हो गई थी। बिना किसी संदेह के शक्ति का विषय अभी खुला था पर अब उन्हें चुनौती नहीं दी जा सकती थी। यदि प्लासी ने बंगाल में अंग्रेजी सत्ता का आरम्भ किया तो बक्सर की लड़ाई ने उसकी सत्ता को दृढ़ कर दिया।
ब्ंगाल में द्वैध शासन प्रणाली - बंगाल की राजनीति समस्या को सुलझाने के लिए क्लाइब ने द्वैध शासन की स्थापना की। इसमें वास्तविक शक्ति कम्पनी के पास रखी गई परन्तु प्रशासन का भार नवाब को उठाना था। वह नहीं चाहता था कि बंगाल की सारी प्रशासनिक व्यवसाएँ सीधे कम्पनी के हाथ में आ जाय। उसके विचार में यह कम्पनी के हित में नहीं था। मुगल साम्राज्य में प्रशासन के निमित्त प्रांतों में सूबेदार और दीवान की नियुक्ति होती थी। सूबेदार निजामत का कार्य करता था जिसमें पुलिस, सैनिक संरक्षण तथा फौजदारी कानून आदि आते थे जबकि दीवान दीवानी कानून लागू करने के साथ कर संग्रह करता था। दोनों अधिकारी एक दूसरे पर संतुलन प्रतिसंतुलन की नीति के तहत कार्य करते थे तथा सीधे केन्द्रीय सरकार के प्रति उत्तरदायी लेकिन औरंगजेब की मृत्यु के पश्चात बंगाल स्वतंत्र राज्य की तरह व्यवहार करने लगा जिसमें बंगाल का नवाब मुर्शिदकुली खान ने निजामत और दीवानी दोनों अधिकार हस्तगत कर लिया।
12 अगस्त 1765 के फरमान के अनुसार शाह आलम ने 26 लाख रूपये वार्षिक के एवज में दीवानी का भार का कम्पनी को सौंप दिया। कम्पनी को 53 लाख रूपये निजामत के कार्य के लिए भी देने थे। फरवरी 1765 में मीरजाफर की मृत्यु के बाद क्लाइव ने नजमुद्दौला को नवाब बनाया। नये नवाब के साथ एक संधि की गई जिसमें शर्त यह थी कि निजामत का लगभग समस्त कार्य भार जिसमें सैनिक संरक्षण और विदेशी मामले आते है पूर्णतया कम्पनी के हालों में रहेगा। दीवानी मामले डिप्टी सूबेदार के माध्यम से चलाया जायेगा, जिसको कंपनी मनोनित करेगी तथा बिना उसकी इच्छा के डिप्टी सूबेदार को हटाया नहीं जा सकता। इस प्रकार कम्पनी को मुगल सम्राट से दिवानी तथा बंगाल के नवाब से निजामत का कार्यभार मिल गया।
इस समय कम्पनी सीधे कर संग्रह का भार लेना नहीं चाहती थी और न उसके पास ऐसी क्षमता थी। कम्पनी ने दीवानी कार्य के लिए दो उपदीवान बंगाल के लिए मुहम्मद रजा खाँ तथा बिहार के लिए राजा सिताब राय को नियुक्त किये। मुहम्मद रजा खाँ उपनाजिम के रूप में भी कार्य करता था। इस प्रकार बंगाल में दीवानी और निजामत का समस्त कार्य भारतीयों द्वारा संचालित किया जाता था। लेकिन इस पर अंग्रेजों का पूर्ण नियंत्रण था। पर वे इसके प्रशासन की सीधी जिम्मेदारी नहीं लेते थे। प्रशासन नवाब तथा उसके अफसरों के नाम पर ही चल रहा था। इस प्रशासन को द्वैध शासन पद्धति कहा गया।
रजा खॉन बंगाल में कम्पनी की ओर से दीवान तथा नवाब की ओर से नायब ताजिम के पद पर नियुक्त किया गया। नवाब का नाजिम होने के कारण वह आम प्रशासनिक कार्य तथा फौजदारी सम्बन्धी न्याय व्यवस्था का कार्य देखता था। इन सबके लिए वह नवाब के प्रति उत्तरदायी था। साथ ही राजस्व एकत्रित करने तथा दीवानी न्याय के लिए वह कम्पनी के प्रति उत्तरदायीथा। द्वैध सरकार के अंतर्गत कम्पनी का कार्य केवल यही था कि वह देखे कि राजस्व ठीक ढंग से वसूला किया जाता है कि नहीं ताकि प्रशासनिक खर्चो के बाद बचे पैसे कम्पनी के कार्य में लगाया जा सके।
बंगाल में द्वैध शासन स्थापित करने के उद्देश्य -
यदि कम्पनी स्पष्ट रूप से राजनैतिक सत्ता अपने हाथ में लेती है तो उसका वास्तविक रूप उजागर हो जाएगा और संभवतः सारे भारतीय इसके विरोध में उठ खड़े होंगे।
संभवतः फ्रांसीसी, उच्च तथा डेन विदेशी कम्पनियाँ सुगमता से कम्पनी की सूबेदारी स्वीकार नहीं करेगी तथा कम्पनी को वह कर नहीं देगीं जो बंगाल के नवाब को देती थी।
राजनैतिक शक्ति पूर्णतः हस्तगत करने से इंगलैण्ड तथा विदेशी शक्तियों के बीच कटुता आ जाती और संभवतः ये सभी शक्तियाँ इंगलैंड के विरूद्ध एक संघ का निर्माण कर सकती थी।
इंगलैण्ड के पास एक समय प्रशिक्षित अधिकारियों की कमी थी जो शासन का भार संभालते। क्लाइव ने अपने अधिकारियों को लिखा कि यदि हमारे पास तीन गुणा भी प्रशासनिक सेवा करने वाले लोग हों तो भी वे इस कार्य के लिए पर्याप्त नहीं होंगे। जो थोड़े बहुत लोग कम्पनी के पास थे भी, वे भारतीय भाषा एवं रीति-रिवाजों के अनभिज्ञ थे।
कोर्ट ऑफ डाइरेक्टर्स के व्यापार में बाधा पड़ने की संभावना थी। ने लोग प्रदेश के स्थान पर धन में अधिक रूचि रखते थे।
क्लाइव का यह विचार था कि यदि कंपनी बंगाल की राजनीतिक सत्ता हाथ में लेती है तो अंग्रेजी संसद कंपनी के कार्य में हस्तक्षेप करना प्रारम्भ कर देगी।
क्लाइव का मानना था कि कम्पनी के डायरेक्टरों को आर्थिक लाभ की अत्यंत चिन्ता है। उनको झुठी राजनैतिक पदोन्नति से इतनी प्रसन्नता नहीं होगी। प्रशासन का कार्य हाथ में लेने का अर्थ था अपना व्यय बढ़ाना जिससे उनको कभी भी आर्थिक कठिनाई आ सकती थी।
द्वैध प्रणाली की हानियाँ :- प्रशासन की द्वैध प्रणाली आरम्भ से ही असफल साबित हुई। इसने बंगाल में अराजकता और अशांति को जन्म दिया तथा यह अप्रभावी और अव्यवहारिक साबित हुई।
प्रशासन में गिरावट :- निजामत में शिथिलता के कारण बंगाल में कानुन व्यवस्था अत्यंत खराब हो गई। न्याय व्यवस्था चौपट हो गई। नवाब में कानून लागू करने की शक्ति और सामर्थ्य नहीं रहा था। इधर कम्पनी प्रशासन का उत्तरदायित्व ग्रहण नहीं कर रही थी। ग्रामीण क्षेत्रों में डाकू-लूटेरों का साम्राज्य था तथा संन्यासी छापामारों के रूप में सरकार की सत्ता को चुनौती दे रहे थे। प्रशासन में भ्रष्टाचार का बोलबाला था। अपनी धन लोलुपता के कारण कम्पनी के अधिकारी ईमानदार भारतीयों को अपने कर्मचारी के रूप में इस्तेमाल नहीं करते थे। भ्रष्ट भारतीय अपने मालिकों का अनुशरण करते थे। बंगाल की स्थिति पर भाषण करते हुए कार्नवाल ने 1858 में हाउस ऑफ कामन्स में कहा था कि ‘‘1765-68 तक ईस्ट इंडिया कम्पनी की सरकार से अधिक भ्रष्ट, झूठी तथा बुरी सरकार संसार के किसी भी सभ्य देश में नहीं थी।‘‘
आर्थिक अव्यवस्था :- भारत का अन्न भंडार कहा जानेवाला बंगाल अब उजाड़ बन चूका था। भू-राजस्व संग्रह का भार उन व्यक्तियों को दिया जाता था जो अधिकाधिक बोली लगाते थे। यह ठेका एक वर्ष के लिए होता था। इन लोगों की भूमि में अस्थाई रूप् से कोई अभिरूचि नहीं थी। वे अधिकाधिक लगान प्राप्त करते थे। बंगाल में कृषकों पर भूमिकर अधिक होता था तथा उसके संग्रह करने में भी बहुत कड़ाई होती थी। फलतः किसान निर्धन होते चले गये। कई बार तो लगान चुकान करने के लिए किसानों को अपने बच्चे बेचनें पड़े या भूमि छोड़कर भाग जाना पड़ा। इस प्रकार बंगाल का हराभरा खेत, उजाड़ हो गया। 1770 में बंगाल में भयंकर अकाल पड़ा जिससे अत्यधिक जानमाल की हानि हुई। अकाल के दिनों में भी भूमिकर अत्यंत कठोरता से वसूला गया। कम्पनी के कर्मचारियों ने लोगों की आवश्यकता वस्तुओं में भी दाम बढ़ाकर लाभ कमाया, जिससे जनता को काफी कष्ट हुआ।
वाणिज्य व्यापार का पतन :- 1717 से बंगाल में अंग्रेजों को कर विहिन व्यापार करने अनुमति थी। इसके तहत कम्पनी के कलकत्ता स्थित गवर्नर की आज्ञा से कोई भी माल बिना निरीक्षण तथा रोक-टोक के इधर से उधर जा सकता था। कर सम्बन्धी आज्ञा से सरकार को हानि हुई तथा भारतीय व्यापार नष्ट हो गया। कम्पनी का व्यापार लगभग एकाधिकार हो गया तथा उसके कार्यकर्त्ताओं े भारतीय व्यापारियों से कम मूल्य पर भाल बेंचकर उन्हें अत्यधिक हानि पहुँचाई।
उद्योग धंधों में ह्रास :- बंगाल में कपड़ा उद्योग को काफी नुकसान उठाना पड़ा। कम्पनी ने बंगाल के कपड़ा उद्योग को हतोत्साहित करने का प्रयत्न किया क्योंकि इससे इंग्लैण्ड के रेशम उद्योग को क्षति पहुँच रही थी। 1769 ई0 में कम्पनी के डायरेक्टरों ने कार्यकर्त्ताओं को आदेश दिया कि कच्चे सिल्के उत्पादनको प्रोत्साहित किया जाय तथा रेशम बुनकरों को कपड़ा निर्मित करने से रोका जाय। रेशम के सुत बनानेवालों को कम्पनी के कार्य में लगने के लिए बाध्य किया जाय। कुछ जुलाहों के इंकार करने पर उनके अंगूठे काट लिए गये, कुछ ने उत्पीड़न से बचने के लिए स्वयं अपने अंगूठे काम लिए। कंपनी के गुमाश्ते जुर्माना कैद तथा कोड़े का भय दिखाकर जुलम्हों के अग्रिम ध दे देते थे तथ माल तैयार करने के लिए बाध्य करते थे तथा फिर वे अन्य लोगों के लिए कार्य नहीं कर सकते थे। इन लोगों से दासों की भाँति कार्य लिया जाता था। इसके अतिरिक्त भारतीय गुमाश्ते तथा निरीक्षण करनेवाले माल का मुल्य बाजार मुल्य से 15 प्रतिशत से 40 प्रतिशत काम आँकते थे। भारत के आंतरिक व्यापार पर एकाधिकार होने के कारण कम्पनी के कारिन्दे कपास तथा सिल्क के कच्चे माल के भाव भारतीय उत्पादकों के हितों के विरूद्ध बढ़ा देते थे। इस प्रकार शिल्पकारों के लिए काम करना लाभदायक नहीं था। अतः वे लोग इन कामधंधों से दुर होते चले गये जिसका प्रभाव वस्तुओं के व्यापार पर स्पष्ट रूप से पड़ा।
अवध के साथ ब्रिटिश सम्बन्धृ
सहादत अली ने अवध में स्वतंत्र मुस्लिम राज्य की स्थापना की। वह सम्राट मुहम्मदशाह के दरबार में ईरानी गुट का नेता था, 1723 ई0 में अवध का सूबेदार नियुक्त हुआ। केन्द्रीय सरकार के हस्तक्षेप के बिना वह अपने प्रान्त का शासन करता रहा। उसने मराठों के विरूद्ध मुगलों को सहयोग प्रदान किया। उसने अवध में स्वतंत्र शियावंश की नींव डाली। विद्वानों के अनुसार उसने मुगल शासक मुहम्मदशाह पर आक्रमण करने के लिए नादिरशाह को प्रेरित किया। 1739 ई0 में जब सआदत अली खाँ नादिरशाह को दिल्ली में छिपा मुगल खजाने का पता नही बंता सका तो उसके क्रोध से बचने के लिए आत्महत्या कर ली। उसका उत्तराधिकारी उसका दमाद अफदरजंग अवध का नवाब बना। सफदरंजग एक योग्य सेनानायक था। वह शीघ्र ही मुगल सम्राट मुहम्मदशाह तथा उसके पुत्र का कृपापात्र बन गया। लेकिन तुरानी प्रतिद्वन्द्रियों ने बादशाह को सफदरंगजा के विरूद्ध भड़काना प्रारम्भ कर दिया। 1753 ई0 में अहमदशाह ने तुरानियों की सहायता से वजीर पद से बरर्बास्त कर दरबार से निकाला दिया। उसकी मृत्यु के बाद उसका उत्तराधिकारी शुजाउद्दौला गद्दी पर बैठा। 1760 ई0 में मराठों के विरूद्ध सहायता देने के बदले अहमदशा अब्दाली ने उसे वजीर के पद पर नियुक्त किया। इस प्रकार वजीर का पद अवध के शिया परिवार की पैद्दक सम्पत्ति बन गया। पानीपत के द्वतीयें युद्ध में शुजाउद्दौला अफगानों की तरफ से लड़ा। मराठों की पराजय के बाद अवध कुछ समय तक मराठों के आक्रमण से भयमुक्त रहा।
अंग्रेजों और अवध के बीच सम्पर्क बक्सर के युद्ध में स्थापित हुआ। जब बंगाल का नवाब मीरकासिक भगौड़े के रूप में इलाहाबाद पहुँचा तथा अवध के नवाब से सहायता की याचना की। अवध के नवाब शुजाउद्दौला मुगल बादशाह शाहआलम और मीरकासिम के बीच एक संघ का निर्माण हुआ लेकिन यह संघ बक्सर के युद्ध में 1764 में अंग्रेज सेनानायक हेक्टर मुनरों से पराजित हुआ। पराजय के पश्चात मुगल सम्राट अंग्रेजों से मिल गया। अंग्रेजों का अवध पर आक्रमण तेज हो गया। अंग्रेज गर्वनर वॉन्सीटार्ट ने अवध का साम्राज्य शुजाउद्दौला को देने का वायदा कर एक संधि करनी चाही। क्लाइव ने गवर्नर बनने के बाद शुजउद्दौला से संधि करने के लिए इलाहाबाद गया तथा 16 अगस्त 1765 ई0 को इलाहाबाद की संधि हुई। संधि की शर्त्तो के अनुसार अवध का प्रदेश शुजाउद्दौला को लौटा दिया गया। नवाब में इलाहाबाद तथा कारा के जिले मुगल सम्राट को प्रदान ली, क्षतिपूर्ण के लिए कम्पनी को 50 लाख रूपये देने का वादा किया तथा बनारस के जागीदार बलवन्त सिंह को उसकी जागीर पुनः लौटा दी गई। उसके अतिरिक्त शुजाउद्दौला ने कम्पनी के साथ आक्रमण तथा रक्षात्मक संधि को जिसमें उसे कम्पनी को आवश्यकतानुसार निःशुल्क सहायता करनी होगी तथा कम्पनी नवाब की सीमाओं के रक्षार्थ उसे सैनिक सहायता देगी जिसके लिए नवाब को धन व्यय करना होगा। इस प्रकार क्लाइव ने आप को एक मध्यवर्त्ती राज्य के रूप मे स्थापित किया। प्रतिवर्ष नवाब बिना धन दिए कम्पनी से सैनिक सहायता लेता रहा। उससे कम्पनी का वित्तीय बोझ काफी बढ़ गया जिससे अवध और कम्पनी के सम्बन्धों में कटुता आने लगीं।
वारेन हेस्टिंग्स ने अवध के प्रति कम्पनी की नीति की समीक्षा की। उसका मानना था कि यदि ये सम्बन्ध निश्चित तथा सुदृढ़ नहीं किए गये तो संभवतः अवध मराठों के अधीन आ जाएगा अथवा वह मराठों के साथ बिठाकर रूहेला खंड को बाँट लेगा। फलतः वह स्वयं बनारस गया तथा 1773 ई0 में अवध के नवाब से एक नई संधि की इसके अनुसार इलाहाबाद और कारा के जिले मुगल सम्राट शाहआलम से लेकर शुजाउद्दौला को दिया गया जिसके बदले में नवाब को 50 लाख रूपये देने थे। अवध की रक्षा करने के लिए एक स्थाई सेना अवध में तैनात की जानी थी जिसके लिए नवाब 2 लाख 10 हजार रूप्ये प्रतिमाह कम्पनी को प्रदान करेगा। इसके अतिरिक्त यदि नवाब रूहेंलों के विरूद्ध कम्पनी की सेना की सहायता माँगें तो उसे 40 लाख रूपयें देना होगा। इस संधि से कम्पनी को वित्तीय लाभ तो प्राप्त हुआ ही अवध और रूहेलों के बीच मित्रता की संभा बनाये समाप्त हो गई।
रूहेला सरदार और अवध को लगातार मराठों के आक्रमण का भय बना हुआ था। रूहेला सरदार हाफिज रहमत खाँ ने 17 जून 1772 को अवध के नवाब के साथ एक संधि की। जिनके अनुसार उसने मराठों से रक्षा के लिए अवध के नवाब की सहायता मांगी तथा 40 लाखा रूपयें देने का वचन दिया 1773 ई0 में जब मराठों ने रूहेला खंड पर आक्रमण किया तो जनरल वार्कर के नेतृत्व में कम्पनी और अवध की सेना सामने खड़ी थी। मराठे लौट गये। नवाब ने जब 40 लाख रूपये माँगे तो हाफिज रहमत खान ने आनाकानी की 1 फरवरी 1774 में नवाब ने रूहेला खंड पर आक्रमण कर उसे अपने प्रदेश में मिलाने की सोची तथा बनारस की संधि पर आधारित उसे कम्पनी सें सैनिक सहायता माँगी। कम्पनी की सेना की सहायता से रूहेला खंड पर आक्रमण और और अप्रैल 1774 ई0 मे मीरानपुर कटरा के स्थान पर एक नियोयक युद्ध हुआ जिसमें हाफिज रहमत खाँ मारा गयी रूहेला खंड आप में सम्मिलित कर लिया गया।
1775 ई0 में शुजाउद्दौला की मृत्यु हो गई उसका लड़का आसफद्दौला अवध की गद्दी पर बैठा। इसके साथ ही अवध का शोषण अंग्रेजो द्वारा किया जाना तेज हो गया। आसफुद्दौला एक कमजोर शासक था तथा अग्रेजो पर निर्भर रहने लगा था। वारेन हेस्टिंग्सं ने नवाब को सेना की दूसरी ब्रिगेड रखने तथा उसका खर्चा देने के लिए मजबूर किया। अंग्रेजो ने नवाब का मंत्री मनोनित करने का अधिकार भी प्राप्त कर लिया। अंग्रेजो रेजिडेंट अब अवध के आंतरिक मामलों में भी हस्तक्षेप करने लगा। अंग्रेजों व्यापारियों ने अवध में प्रवेश किया और निजी व्यापार के नाम पर उसने लूटने लगे। इस सबका परिमाण यह हुआ कि अवध की खुशहाली खत्म होने लगी और उसका शासन अव्यवस्थित होने लगा। नवाब की फिजुल खर्ची की सेना के खर्चे के कारण खजाना खाली हो गया। राज्य की आय कुशासन तथा गबन के कारण घटने लगी। आसफुद्दौला ने अंग्रेजो की सहायक सेना के भारी खर्चे तथा अंग्रेजो के शासन में हस्तक्षेप के विरूद्ध आवाज उठाई लेकिन अंग्रेजो ने ध्यान नही दिया। अंग्रेजो का अवध पर लगातार नियंत्रण बदता चला गया। आसफुद्दौला पर दबाव डालकर चैतसिंह को कम्पनी का आथ्रित बना दिया गया पहले वह अवध के नबाव का आश्रित का। पहले वह ढाई लाख रूपये वार्षिक पहले अवध के नवाबों को देता तथा अब वह आय कम्पनी को होने लगी। इस नई संधि के अनुसार राजा यदि यह धन नियमित रूप से देता रहे तो उससे किसी भी अवस्था में अन्य कोई माँग नही की जाएगी। इस समय आसफुद्दौला पर कमपनी का 15 लाख रूपया शेष था। यह राशि अवध में नवाब की इच्छा के विरूद्ध रखी गई सेना के लिए थी। जब इस रकम के लिए नवाब पर दबाव डाला गया तो नवाब ने हेसिटंग्स से अपनी विमाताओं के कोष पर अधिकार करने की आज्ञा मांगी जिसकी मंजूरी उसे मिल गई। इससे पहले बेगमों को कलकता परिषद से यह आश्वासन मिला था कि उनसे कोई अतिरिक्त धन नहीं लिया जाएगा। हेस्टिंग्स ने अवध के रेजिडेंट मिडलटन को आदेश दिया कि वह अवध की बेगमाँ को अपनी सेना के प्रयोग से इतना विनश कर दे कि वे नवाब की इच्छा के अनुरूप कार्य करने लगे। इस प्रकार बेगमों 105 लाख रूपयें देने को बाध्य किया गया जिससे कम्पनी के ऋण चुकता किए गये। 1797 ई0 में आसफुद्दौला की मृत्यु के उपरान्त अंग्रेजो ने पहले उसके लड़के बजीर अली के गद्दी पर बैठाया। लेकिन तथा नवाब स्वतंत्रता की इच्छा रखता था। फलतः वह सर जॉन शारे द्वारा उसके विवादस्पाष्द जन्म का बहाना बनाकर गद्दी से उतार दिया। इसके बाद सआदत अली गद्दी पर बैठाया गया।
सआदत अली के समय अवध की स्थिति दयनीय हो गई। लार्ड बेलेजली अपनी विस्तावादी नीति के अनुरूप दिल्ली पर विजय कर अंग्रेजो राज्य की सीमा यमुना नदी तक बढ़ाना चाहता था। इससे अवध की मध्यस्थ राज्य बने रहो की उपयोगिता समाप्त हो चूकी थी। बेलेजली दबाव डालकर सआदत अली को अवध का विलय अंग्रेजो राज्य मे कराना चाहता था। जो नवाब को मंजूर नही था। नवाब के इन्कार करने पर बेलेजली ने उस पर यह आरोप लगाया गया कि वह सहायक सेना का नियमित खर्च देने में असमर्थ है 1801 ई0 में एक नई संधि करने के लिए बाध्य किया गया। इस संधि के अनुसार अवध से रूहेला खंड और पूर्वी जिले के लिए गयें। बैटिक के शासन काल में कुशासन के आरोप में देशी राज्यों का विलय अंग्रेजों राज्य मे किया जाने लगा। मैसूर और कुर्ग इस नीति के पहले शिकार हुए। इससे अवध पर खतरा बढ़ गया। बैंटिक ने मुस्लिम जनमत के खिलाफ हो जाने के चेतावनी देकर संतुष्ट हो गया कि यदि वह शासन की उपेक्षा करता गया तो कम्पनी अवध के शासन को अपने हाथ में ले लेगी और उसको पेंशन दे दी जाएगी।
1837 ई0 में नासीरूद्दीन की मृत्यु के बाद मुहम्माद अली शासक बना। इस समय अंग्रेजों अफगानिस्तान पर आक्रमण करना चाहते थे। गवर्नर जनरल ऑकलैड अवध का अपहरण करने की बजाय उसकी आय को युद्ध के लिए उपयोग करना चाहता था। इस उद्देश्य से नवाब के साथ एक संधि की गई जिसके अनुसार नवाब पर एक और सेना के ब्रिगेड का खर्चा लाद दिया। गया और दूसरी और यह कहा गया कि यदि वह शासन मे सुधा नही करता है तो अवध का शासन अंग्रेज अपने हाथ में लें लेगे और अपने अफसरों द्वारा उनमें आवश्यक सुधार करेंगे। बोर्ड ऑफ डायरे क्टर्सन ने इस संधि को स्वीकति प्रदान दनही की लेकिन संधि की अस्वीकृति सूचना नवाब को नही मिलने से यह लागू समझी गई। 1847 में लार्ड हाडिंग ने नवाब को एक और चेतवानी दी।
1848 इ्र0 में कर्नल स्लीमैन को लखनऊँ के रेजीडेंट के रूप में नियुक्त किया गया। इस समयय अवध का नवाब वाजिद अली था। स्लीमैन को डलहौजी ने यह आदेश दिया ि कवह अवध के शासन पर अपनी रिपोर्ट पेश करें। स्लीमैन अवध के विलय के पक्ष में नही था वह सिर्फ यह चाहता था कि अवध का प्रशासन अधिक से अधिक अंग्रेजो द्वारा चाहता था कि अवध का प्रशासन अधिक से अधिक अंग्रेजो द्वारा चलाया गया जाय। 1854 में स्लीमैन के स्थान पर आउट्रम को लखनऊँ का रेजिडेंट बनाया गया उसमें रिपोट मं कहा गया कि अवध का प्रशसान बहुत दूषित हो गया है जिसके कारण लोगों की आवल्य शोचनीय हो गई हो। इस रिपोर्ट के आधार पर गवर्नर के परिषद में अवध के विलय के प्रश्न पर विस्तृत चर्चा हुई जिसके तीन मृद्दे थे- 1.नवाब को गद्दी छोड़ने पर बाध्य किया जाए और अवध का विलय किया जाय 2.नवाब नाम मात्र का रहे परन्तु शासन अंग्रेजो के हाथ में हो ओर 3.लखनऊँ का रेजिटं कुछ समय के लिए कार्यभार संभाल ले।
परिषद की आमराय विलय के पक्ष में थी जिसकी अनुमति कोर्ट ऑफ डायरेक्टअर् से मिल गई इसके बाद नवाब पर गद्दी छोड़ने का दबाव डाला गया। नवाब वाजि अली के इन्कार करने पर 13 फरवरी 1856़ ई0 की घोषणा द्वारा अंवध को अंग्रेजो राज्य मे मिला लिया गया। नवाब को पेंशन देकर कलकत्ता भेंज दिया गया। जिसके फलस्वरूप अवध की जनता और सेनिक अंसतृष्ट हुए और 1857 में महान विद्रोह में महत्वपूर्ण भागीदारी निभाई।
आंग्ल- मैसूर सम्बन्ध
1757 ई0 के प्लासी युद्ध के बाद भारत में ब्रिटिश सत्ता की नींव पड़ी तथा बक्सर युद्ध के बाद मुगल सत्ता का अवमान हो गया। ूमुगल सम्राट अंग्रेजो का पेंशन भोंक्ता बन गया।तथा अवध का राज्य उनका संरक्षित राज्य हो गया उसके बाद अंग्रेजो की प्रआरवादी नीतियों को बढ़ावा मिला और वे सम्पूर्ण भारत पर अधिकार करने की और अग्रसर हुए। इनका किसी भारतीय शक्ति ने प्रतिरोध नही किया लेकिन अभी भी दो भारतीय भक्ति विद्यमान थी जो लगातार अंग्रेजो को टक्कर दे रही थी वे थी-1. मराठे और 2. मैसूर का शासक हैदर अली।
प्रारम्भ में मैसूर विजयनगर राज्य का अंग था। 1565 ई0 में वाडेंयार वंश ने मॅसूर में एक स्वंतत्र राज्य की स्थापना की। 1704 ई0 में इस वंश ने मुगलों की अधीनता स्वीकार करते हुए कर देने के लिए बाध्य हुए। 1718 ई0 के रफी उद दरजात द्वारा मराठों के दिए गये फरमान द्वारा मैसूर से चौथ लेने का अधिकार मराठों को प्राप्त हुआ। 18 वीं शताब्दी के मध्य में मैसूर शासक से भारी शक्ति देव राज और नन्द राज नामक दो भाईयों ने हस्तगत कर ली। इस समय हैदर अली मैसूर की सेना में नायक का पद पर आसीन था। सैनिक कुशलता और नेतृत्व के गुणों के कारण वह 1755 ई0 में डिन्डीगल का फौजदार नियुक्त किया गया। उसने डिन्डीगल के सम्पूर्ण लगान पर अधिकार कर के एक स्वतंत्र सेना का निर्माण किया, जो सिर्फ उसी के प्रति वफादार थी। उसने अपने सैनिको फांसिसियों द्वारा यूरोपीय पद्धति पर प्रशिक्षित करवाया तथा एक तोप खाना विभाग की स्थापना की। इसके बाद वह सेनापति नियुक्त हुआ तथा एक षडयंत्र द्वारा दीवान खांडेराव को कैदकर बंगलोर भेज दिया एवं मैसूर पर अधिकार कर लिया। 1760 ई0 में हैदर अली मैसूर का शासक बन बैठा जिसकी राजधानी श्रीरंगपट्टतम थी।
अंग्रेज-हैदर अली सम्बन्ध :- तृतीय कर्नाटक युद्ध के समय से ही हैदर अली का अंग्रेजों के साथ संघर्ष प्रारम्भ हो गया था। इस युद्ध में हैदर अली ने फ्रांसीसियों की मदद की थी। फ्रांसीसी सेनापति लैली ने उसे दस हजार रूपये प्रतिमास तथ इलबनसोए का दुर्ग देने का वायदा किया था तथा विजयोपरान्त हैदरअली को त्रिचानपल्ली, मदुरै, त्रिन्वेली देने का लालच दिया था। परन्तु कर्नाटक युद्ध में फ्रांसीसियों की हार ने यह स्वप्न धुमिल कर दिया। इसके अतिरिक्त 1761 ई0 में पांडिचेरी पर अंग्रेजों का अधिकार होने से हैदर और अंग्रेजों के बीच संबंधों में कटुता आ गई। दूसरा कारण हैदर अली ने अपनी सेना में 300 फ्रांसीसियों को भर्त्ती कर लिया। जो अंग्रेजों को अच्छा नहीं लगा। कर्नाटक के नवाब मुहम्मद अली तथा हैदर अली का पारस्परिक झगड़ा अंग्रेज अधिकारियों से हैदर की शत्रुता का अन्य कारण था। दोनों ही कर्नाटक के कई जिलों पर अपना-अपना अधिकार जताते थे। मुहम्मद अली द्वारा अंग्रेजी सेना का वेलूर में पड़ाव डालने की अनुमति से हैदर अली प्रसन्न नहीं था, इसने बदले में मुहम्मद अली के भाई और प्रतिद्वन्द्वी महफूज खाँ को संरक्षण प्रदान कर अंग्रेजों को नाराज कर दिया। 1765 ई0 में हैदर अली मराठों के भय से मद्रास सरकार की ओर मित्रता का हाथ बढ़ाया, लेकिन अंग्रेजी सरकार उसकी विस्तारवादी नीति पर अंकुश लगाना चाहती थी। अंग्रेजों ने हैदर अली के दुश्मन हैदराबाद के निजाम से संधि कर ली, इस समय निजाम को मराठों से पहले ही सहायता प्राप्त थी। इस प्रकार अंग्रेजों ने हैदर अली के विरूद्ध निजाम, मराठों तथा अंग्रेजों का एक त्रिदलीय संगठन स्थापित कर लिया। मद्रास सरकार और निजाम दोनों का उद्देश्य हैदर अली के अधिकार क्षेत्र में स्थित बालाघाट पर अधिकार करना था। अंग्रेजों से प्रोत्सान हम पाकर निजाम ने इस क्षेत्र पर हैदर अली को चुनौती दी यही प्रथम आंग्ल-मैसूर युद्ध का कारण बनी।
प्रथम आंग्ल-मैसूर युद्ध (अगस्त 1767-1769) :- अंग्रेजों ने निजाम को हैदरअली के विरूद्ध सैनिक सहायता देने का बचन दिया। कर्नल स्मिथ के नेतृत्व में ब्रिटिश सेना के साथ निजाम मैसुर पर आक्रमण कर दिया। इस समय हैदर अली ने अद्भूत कुटनीतिज्ञता का परिचय देते हुए 35 लाख रूप्ये देकर मराठों को अपने ओर मिला लिया। इस रकम का आधा भाग तुरन्त प्रदान किया गया और शेष अधो के लिए कोलार की सोने की खान बंधक रख दिया। इसके बाद उसने निजाम से एक संधि कर अपनी ओर मिला लिया। हैदर अली के खिलाफ बना गठबंधन टूट गया और अंग्रेज अकेले पड़ गये। फिर कर्नल स्मिथ ने निजाम और हैदर अली की सेना को चनगम दर्रे पर पराजित कर दिया त्रिनोमलाई के युद्ध में भी अंग्रेज विजयी हुए। इधर टीपू सुल्तान के नेतृत्व में मैसूर सेना ने सेंट टामस माउन्ट स्थित अंग्रेजी गोदामों को लूट लिया। हैदर अली के संगठित हमले से मद्रास कौंसिल भयभीत हो गई और संधि करने का प्रस्ताव रखा। हैदर अली की शर्तो के अनुरूप फरवरी 1769 ई0 में मद्रास की संधि से प्रथम आंग्ल मैसूर युद्ध समाप्त हुआ। यह संधि हैदर अली, तंजोर के राजा, मालावर के राजा और कम्पनी के बीच हुई जिसके अंतगर्त मैसूर के शासक को दिए गये कारूर और इसके किलों को छोड़कर बाकी क्षेत्रों पर आपसी सहयोग से सबका अधिकार मान लिया गया। किसी भी पक्ष पर आक्रमण करने की स्थिति में सभी दलों द्वारा एक दूसरे का सहयोग करने का वायदा किया गया। हैदर अली द्वारा मद्रास सरकार के सभी बंदी कर्मचारियों को रिहा कर दिया गया। तंजौर के शासक के साथ हैदरअली मित्रतापूर्ण व्यवहार करने का वायदा किया तथा बम्बई प्रेसीडेंसी एवं अंग्रेजी कारखानों की व्यापारिक सुविधायें कायम रखी गई।
द्वितीय आंग्ल-मैसूर यद्ध (1780-1784) :- 1770 में ई0 में पेशवा माधवराव द्वारा मैसूर पर आक्रमण इस युद्ध का महत्वपूर्ण कारण था। इस युद्ध में मराठे और हैदरअली दोनों अंग्रेजों से सहायता का आग्रह किया। लेकिन अंग्रेज तटस्थ बने रहे। इसने पीछे उनका तर्क था कि हैदर अली की सहायता करने पर मराठे रूष्ट होकर उनके प्रदेश कर्नाटक पर आक्रमण कर देंगे और यदि वे मराठों की सहायता करते है तो भविष्य में मराठों के साथ हैदर अली समझौता कर उनके खिलाफ आक्रमण कर देगा। इस प्रकार अंग्रेजों ने मद्रास की संधि का उलंघन किया जिससे हैदर अली नाराज हो गया। दुसरा कारण यह था कि हैदर अली ने मुरारी राव से गूँटी का प्रदेश छिन लिया तथा फ्रांसीसियों को अपनी सेना में भर्त्ती किया एवं उचों से मित्रता स्थापित करते हुए, उनके प्रतिनिधि अपने दरबार में रखा। तीसरा कारण 1778 ई0 में अंग्रेजों द्वारा पांडिचेरी पर अधिकार करना तथा माही पर आक्रमण करना था। माही इस समय हैदर अली के नियंत्रण में था और यहाँ से उसको सैनिक सामग्री प्राप्त होती थी। 1779 ई0 में माही पर अंग्रेजों के अधिकार ने दोनों के बीच सम्बन्ध बिगाड़ दिया।
इधर हैदराबाद का निजाम मद्रास सरकार द्वारा उत्तरी सरकार से सम्बन्धित खिराज रोक लिये जाने के कारण नाराज था। मद्रास सरकार की अदूरदर्शितापूर्ण नीति तथा निजाम और मैसूर के साथ अभद्रता निजाम और हैदरअली को पुना सरकार से मिलने के लिए बाध्य कर दिया। रघुनाथ राव समर्थन देने और सूरत की संधि के मराठें अंग्रेजों से युद्ध लड़ रहे थे। फलतः नाना फड़नवीस के नेतृत्व में एक चर्तुदलीय संगठन का निर्माण अंग्रेजों के खिलाफ हुआ जिसमें हैदरअली, निजाम, पूना सरकार और नागपुर के योंझले शामिल थे। इस प्रकार आंग्ल मराठ युद्ध मैसूर के साथ दूसरे युद्ध में परिवर्त्तित हो गया तथा 1780 में युद्ध छिड़ गया।
वारेन हेस्टिंग्स ने बंगाल से एक सेना आयूरफूट के नेतृत्व में मद्रास भेजी। आयरकूट ने दूरदर्शिता का परिचय देते हुए हैदरअली के मित्रों को उससे अलग कर दिया। भोंसले और सिन्धियाँ को हैदरअली की सहायता न करने पर राजी कर लिया गया तथा निजाम को गुंटूर का जिला प्रदान कर युद्ध से अलग कर दिया गया। इस प्रकार हैदर अली अकेला रह गया। लड़ाई के प्रथम चरण में हैदरअली ने कर्नाटक पर अधिकार कर लिया तथा मद्रास के निकट पहुँच गया। उसने पार्टोनोवों और कांजीवरम को लूट लिया तथा कर्नल फ्लेचर और कर्नल बेली की सेना को पराजित कर भागने पर मजबूर कर दिया। हैदर अली के आक्रमण से हेक्टर मुनरों भयभीत होकर अपने तोपखाने को एक तालाब में फेंककर मद्रास की ओर भाग गया। सर आयरूट की बंगाली सेना आने के बाद अंग्रेजों की स्थिति दक्षिण में सुदृढ़ होने लगी, उसने जुलाई 1781 ई0 में पोर्टोनोवा में हैदल अली का दृढ़ता के साथ मुकाबला किया तथा सितम्बर में उसे हरा दिया। इसके बा नागपट्टनम पर अंग्रेजों ने घेरा डाला तथा त्रिकोमाली उचों से छिन लिया। हैदर अली ने सेना को पुनः संगठित किया, इस समय उसे एडमिरलल सफरिन के नेतृत्व में फ्रांसीसी सेना के मद्रास पहुँचने से सहायता मिली। टीपू ने सफलता पूर्वक ब्रेथवेट को तंजोर में घेर लिया। लेकिन फ्रांसीसी सेना बुसी के आने का इंतजार कर रही थी जो हैदर की मृत्यु के चार महीने पश्चात कर रही थी जो हैदर की मृत्यु के चार महीने पश्चात ही आ सका। वर्षा प्रारम्भ होने पर हैदर अली को अकीट के पाए अपना पड़ा। कैंसर से पीड़ित हैदर अली की 7 दिसम्बर 1782 को मृत्यु हो गई। इसके टीपू ने बेलौर पर अधिकार कर लिया जिससे उसे मंगलोर पर आक्रमण करने का प्रात्साहन मिला। फुलार्टन ने टीपू के इस अभियान को असफल बना दिया। इस समय धीरे-धीरे अंग्रेज आगे बढ़ते हुए मंगलोर से श्रृरंगपट्टनम की ओर आने लगे। अब टीपु के पास लड़ाई बन्द कर संधि के अतिरिक्त कोई विकल्प शेष नहीं था। अंग्रेज भी इस लम्बे युद्ध से थक चूके थे। दोनों पक्षा शांति चाहता था। फलतः 11 मई 1784 ई0 को मंगलोर की संधि से द्वितीय आंग्ल-मैसूर युद्ध का समापन हुआ।
संधि की शर्तों के अनुसार यह तय किया गया कि दोनों पक्ष एक-दूसरे के शत्रुओं की सीधे या परोक्ष रूप से मदद नहीं करेंगे तथा एक दूसरे के सहयोगियों के साथ युद्ध नहीं करेंगे। 1770 ई0 में हैदर अली द्वारा कम्पनी को दी गई व्यापारिक सुविधायें पूर्ववत्त कायम रहेंगी। दोनों पक्ष अम्बोरगुर एवं सतगुर महलों को छोड़कर बाकी क्षेत्रों पर पूर्ववत अधिकार के लिए राजी हुए और टीपू भविष्य में कर्नाटक पर दावा नहीं करने के लिए तैयार हुआ। इसके अतिरिक्त 1680 युद्ध बंदियों को छोड़ने के लिए तथा कम्पनी को कालीकट में जो कारखाने तथा अधिकार 1779 ई0 में प्राप्त हुए थे उसे वापस देने के लिए राजी हुआ।
तृतीय आंग्ल-मैसूर युद्ध (1790-92 ई0) :- तृतीय मैसूर युद्ध का प्रधान कारण टीपू द्वारा विभिन्न आंतरिक सुधार कर अपनी स्थिति मजबूत करना था। साथ ही वह निजाम और मराठों के साथ मिलकर अंग्रेजों के खिलाफ एक संघ बनाने के लिए प्रयत्नशील था जिसके कारण अंग्रेजों को निजाम एवं मराठों से भय उत्पन्न हो गया था। दूसरा कारण 1787 ई0 में फ्रांस एवं टर्की में टीपू द्वारा अपने दूत भेजकर उनकी मदद प्राप्त करने की कोशिश करना था। तीसरा और महत्वपूर्ण कारण क्रेंगनौर का आयाकोटा के शहर तथा किले को हस्तगत करने का टीपू का प्रयत्न था। 1789 ई0 में ट्रावनकोर का शासक इनको खरीदने के लिए डचों से बातचीत कर रहा था। डचों को इस किलों को बेंचने का पूरा अधिकार था। ये किले उत्तरी मालावार की कुंजी थे और मैसूर की सुरक्षा के लिए आवश्यक थे। टीपू नहीं चाहता था कि ये क्षेत्र किसी शत्रु के हाथ में जायें। उसने इन किलों को समर्पन करने की मांग की। लार्ड कार्नवालिस ने सूचित किया कि वे अपने मित्र राज्य ट्रावनकोर के दावे का समर्थन करे। इससे टीपू क्रोधित हुआ और ट्रावनकोर पर आक्रमण कर दिया। इसके साथ ही अंग्रेजी सेना का मैसूर पर आक्रमण कर दिया। इसके साथ ही अंग्रेजी सेना का मैसूर पर आक्रमण हो गया। इससे पूर्व ने निजाम और मराठों से संधि कर एक त्रिगुट का निर्माण कर लिया। संधि के तहत दोनों ने अंग्रेजों को सैनिक सहायता देने का वचन दिया और यह भी तय हुआ कि युद्ध के पश्चात् जीती हुई भूमि को वे आपस में बाँट लेंगे। इस संगठन का निर्माण कार्नवालिस की कुटनीतिक चालों का परिणाम था। इससे वह अंग्रेजों के राजनीतिक प्रभावों के सुरक्षित रखने में सफल हो गया तथा भारतीय शक्तियों को अंग्रेजों के विरूद्ध संगठित होने से रोक लिया। कार्नवालिस ने कुर्ग के राजा और क्रैनानोर की बीबी के साथ भी एक सुरक्षात्मक संगठ बनाया। ईधर टीपू ने पूरा सरकार और निजाम को अपनी तरफ मिलाने की कोशिश की, लेकिन उसे सफलता नहीं मिली।
जनरल मिडोज ने जो मद्रास का गवर्नर और सेनाध्यक्ष फरवरी 1790 ई0 में युद्ध की घोषणा कर दी तथा मैसूर पर आक्रमण कर दिया जो टीपू द्वा असफल कर दिया गया। कर्नल फ्लायड की सेना ने गुजलहट्टी के किलों पर घेरा डाल दिया। कर्नल मैक्सवेल के नेतृत्व में बंगाल सेना ने कांजीवरम पहुँचकर मद्रास सेना के साथ मिल गई। लेकिन टीपू ने त्रिचना पल्ली और उसके आस पास के गाँवों में ब्रिटिश क्षेत्र को काफी हानि पहुँचाई। 1790 ई0 में अंग्रेजो सेना की प्रगति से असंतुष्ट होकर स्वयं कार्नवालिस ने ब्रिटिश सेना का नेतृत्व सम्भाल लिया और एक बड़ी सेना की सहायता से टीपू पर आक्रमण कर दिया। वेलौर और अम्बूर से होता हुआ बंगलोर पर आक्रमण कर दिया तथा मार्च 1791 ई0 में जीत लिया तथा श्रीरंगपट्टनम तक पहुँच गया। निजाम की सेना अप्रैल 1791 ई0 में गवर्नर जेनरल की सेना के साथ मिल गई। हरिपन्त तथा पुरुष राम के नेतृत्व में मराठा सेना ने श्रीरंगपतनम पर अंतिम आक्रमण के समय बहुत बहादूरी का प्रदर्शन किया। लेकिन टीपू असाधारण वीरता प्रदर्शित करते हुए राजधानी को बचा लिया। टीपू की वीरता, टीपू की निजाम और मराठों से गुप्तवार्ता तथा कोर्ट ऑफ डायरेक्टर्स के दबाव के चलते कार्नवालिस ने युद्ध समाप्त करने का निश्चित किया। टिपू को भी आराम की आवश्यकता थी। फलतः 18 मार्च 1792 ई0 को श्रीरंगपतनम की संधि हुई।
इस संधि के अनुसार टीपू सुल्तान को क्षतिपूर्त्ति के रूप में तीन करोड़ तीस लाख रूपये और लगभग आधा राज्य अंग्रेजों को देना पड़ा। इसमें आधा धन तुरंत दे दिया गया और आधा किस्तों में दिया जाना था। धन चुकाने की अवधि तक उसने अपने दो पुत्रों को अंग्रेजों के पास बंधक के रूप में रखा। टीपू से प्राप्त प्रदेश को कार्नवालिस ने त्रिगुट के सदस्य शक्तियों (मराठों, अंग्रेजों और निजाम) में बाँट दिया। अंग्रेजों को डिण्डीगल, सैलम और मलावार के प्रदेश प्राप्त हुए। अब मैसूर तीन तरफ से अंग्रेजी प्रदेश से घिर गया। कुर्ग को भी अंग्रेजों ने अपने प्रभुत्व में ले लिया। इस प्रकार अंग्रेजों ने मैसूर की राजधानी श्रीरंगपतनम के आस पास के प्रदेशों पर पूरा अधिकार जमा लिया। ताकि अवसर पड़ने पर श्रीरंगपतनम पर आसानी से आक्रमण किया जा सके। निजाम को कृष्णा और पन्ना नदियों के बीच का प्रदेश मिला तथा मराठों को पश्चिमी कर्नाटक का क्षेत्र प्राप्त हुआ। टीपू ने अपने राज्य का आधा भाग अंग्रेजों और उसके सहयोगियों के बीच बाँट दिया। अब दक्षिण भारत के पूर्वी और पश्चिमी किनारों पर अंग्रेजों का आधिपत्य और मजबूत हो गया। मालावार और कर्नाटक में जो टीपू की प्राकृतिक सीमाएँ थी समाप्त हो गई। टीपू के हाथ से उसके राज्य के बहुत से उपजाऊ क्षेत्र भी निकल गये। निजाम को क्षेत्र का सबसे बड़ा भाग मिला, जबकि मराठों ने अपने राज्य का फैलाव तुंगभद्रा एवं कृष्णा नदियों तक कर लिया। इस संधि से गावणकोर के राजा को जिसके लिए प्रत्यक्ष रूप से लड़ाई लड़ी गई थी, उसे कुछ भी प्राप्त नहीं हुआ। इस संधि के सफल होने पर कार्नवालिस ने हर्ष पूर्वक कहा है कि ‘‘हमने अपने शत्रु को प्रभावशाली ढ़ंग से पंगु बना दिया है तथा अपने साथियों को भी शक्तिशाली नहीं होने दिया।‘‘ यथार्थ ही है।
चतुर्थ आंग्ल-मैसूर युद्ध (1799 ई0) :- नया गवर्नर जेनरल लार्ड वेलेजली एक साम्राज्यवादी था और दक्षिण में मैसूर राज्य को अंग्रेजो साम्राज्य के लिए खतरा समझता था वह टीपू को एक ऐसा भुज समझता का जिसे नरम व्यवहार के द्वारा कभी भी शांत नहीं किया जा सकता था वह उसे एक महत्वाकांक्षी और दंयी शासक समझता था जो फ्रांसीसियों की मदद से कभी भी अंग्रेजों के लिए खतरा बन सकता था। टीपू पर यह आरोप लगाया जा रहा था कि फ्रांसीसियों वह अफगानिस्तान के जमानशाह और तुर्की की सरकार की सहायता से अंग्रेजो को भारत से निकालना चाहता है। वेलेजली को विश्वास था कि टीपू ने फ्रांस के द्वीप मारीशस में एक निशन भेजा है जो एक फ्रांसीसियों के लेकर लौटे है जिन्होने श्रीरंगपत्तनम एक जैकोबियन क्लब और स्वाधीनता का वृक्ष लगाया है। यह विश्वास टीपू और अंग्र्रेजो के बीच तनाव उत्पन्न करने के लिए पर्याप्त थे। दुसरा कारण यह था कि टीपू अपनी अंग्रेजो द्वारा शर्मनाक हार भूला नही था तथा हार का बदला लेने और अपने ऊपर लगाये गये प्रतिबन्धों को हटाये जाने के लिए कृतसंकस्प था। उसने अपनी सेना को मजबूत बनाना शुरू कर दिया 1769 ई0 में टीपू ने नौसेना बोर्ड का गठन किया जिसमें 22 युद्धपोत तथा 20 बड़े फ्रिगेट निर्मित करने की योजना थी। उसने मंगलौर, वाजिदाबाद तथा मोलिदाबाद में पोत बनाने के लिए पोतांगानों की स्थापना की जिससे अंग्रेज भयभीत हो गये। अंतिम कारण अंग्रेजो द्वारा टीपू पर इस बात के लिए दबाव डालना था कि वह अपनी नौकरी से फ्रासीसि अफसरों को हटा दे। रेमांड के अधीन जो सैन्य शक्ति है उसे भंग करके एक सहायक संधि पर हस्ताक्षर करे टीपू के इस बात से इंकार करने पर बेलेजली ने टीपू के विरूद्ध युद्ध की घोषणा कर दी।
टीपू ने अंग्रजो सेना की श्रीरंगपतनम से 45 मील दूर सदसीर में रोकने की कोशिश की जिसमें उससे भारी क्षति उठाने के कारण पीछे हटना पड़ा हैरीसन की फौज से वह पुः मालावेली में पराजित हुआ । उसने बाद वह सेना को पुन संगठित कर श्रीरंगपतनम को बचाने की कोशिश करने लगा तथा आखिरी साँस तक लड़ता रहा । अंता में श्रीरंगपतनम के उत्तरी दरवाजे पर लाभों के ढेर में उसका मृत शरीर पड़ा मिला। 4 मई 1799 ई0 को अंग्रेजो ने श्रीरंगपतनम पर अधिकार कर लिया
आंग्ल- मराठा सम्बन्ध
सहादत अली ने अवध में स्वतंत्र मुस्लिम राज्य की स्थापना की। वह सम्राट मुहम्मदशाह के दरबार में ईरानी गुट का नेता था, 1723 ई0 में अवध का सूबेदार नियुक्त हुआ। केन्द्रीय सरकार के हस्तक्षेप के बिना वह अपने प्रान्त का शासन करता रहा। उसने मराठों के विरूद्ध मुगलों को सहयोग प्रदान किया। उसने अवध में स्वतंत्र शियावंश की नींव डाली। विद्वानों के अनुसार उसने मुगल शासक मुहम्मदशाह पर आक्रमण करने के लिए नादिरशाह को प्रेरित किया। 1739 ई0 में जब सआदत अली खाँ नादिरशाह को दिल्ली में छिपा मुगल खजाने का पता नही बंता सका तो उसके क्रोध से बचने के लिए आत्महत्या कर ली। उसका उत्तराधिकारी उसका दमाद अफदरजंग अवध का नवाब बना। सफदरंजग एक योग्य सेनानायक था। वह शीघ्र ही मुगल सम्राट मुहम्मदशाह तथा उसके पुत्र का कृपापात्र बन गया। लेकिन तुरानी प्रतिद्वन्द्रियों ने बादशाह को सफदरंगजा के विरूद्ध भड़काना प्रारम्भ कर दिया। 1753 ई0 में अहमदशाह ने तुरानियों की सहायता से वजीर पद से बरर्बास्त कर दरबार से निकाला दिया। उसकी मृत्यु के बाद उसका उत्तराधिकारी शुजाउद्दौला गद्दी पर बैठा। 1760 ई0 में मराठों के विरूद्ध सहायता देने के बदले अहमदशा अब्दाली ने उसे वजीर के पद पर नियुक्त किया। इस प्रकार वजीर का पद अवध के शिया परिवार की पैद्दक सम्पत्ति बन गया। पानीपत के द्वतीयें युद्ध में शुजाउद्दौला अफगानों की तरफ से लड़ा। मराठों की पराजय के बाद अवध कुछ समय तक मराठों के आक्रमण से भयमुक्त रहा।
अंग्रेजों और अवध के बीच सम्पर्क बक्सर के युद्ध में स्थापित हुआ। जब बंगाल का नवाब मीरकासिक भगौड़े के रूप में इलाहाबाद पहुँचा तथा अवध के नवाब से सहायता की याचना की। अवध के नवाब शुजाउद्दौला मुगल बादशाह शाहआलम और मीरकासिम के बीच एक संघ का निर्माण हुआ लेकिन यह संघ बक्सर के युद्ध में 1764 में अंग्रेज सेनानायक हेक्टर मुनरों से पराजित हुआ। पराजय के पश्चात मुगल सम्राट अंग्रेजों से मिल गया। अंग्रेजों का अवध पर आक्रमण तेज हो गया। अंग्रेज गर्वनर वॉन्सीटार्ट ने अवध का साम्राज्य शुजाउद्दौला को देने का वायदा कर एक संधि करनी चाही। क्लाइव ने गवर्नर बनने के बाद शुजउद्दौला से संधि करने के लिए इलाहाबाद गया तथा 16 अगस्त 1765 ई0 को इलाहाबाद की संधि हुई। संधि की शर्त्तो के अनुसार अवध का प्रदेश शुजाउद्दौला को लौटा दिया गया। नवाब में इलाहाबाद तथा कारा के जिले मुगल सम्राट को प्रदान ली, क्षतिपूर्ण के लिए कम्पनी को 50 लाख रूपये देने का वादा किया तथा बनारस के जागीदार बलवन्त सिंह को उसकी जागीर पुनः लौटा दी गई। उसके अतिरिक्त शुजाउद्दौला ने कम्पनी के साथ आक्रमण तथा रक्षात्मक संधि को जिसमें उसे कम्पनी को आवश्यकतानुसार निःशुल्क सहायता करनी होगी तथा कम्पनी नवाब की सीमाओं के रक्षार्थ उसे सैनिक सहायता देगी जिसके लिए नवाब को धन व्यय करना होगा। इस प्रकार क्लाइव ने आप को एक मध्यवर्त्ती राज्य के रूप मे स्थापित किया। प्रतिवर्ष नवाब बिना धन दिए कम्पनी से सैनिक सहायता लेता रहा। उससे कम्पनी का वित्तीय बोझ काफी बढ़ गया जिससे अवध और कम्पनी के सम्बन्धों में कटुता आने लगीं।
वारेन हेस्टिंग्स ने अवध के प्रति कम्पनी की नीति की समीक्षा की। उसका मानना था कि यदि ये सम्बन्ध निश्चित तथा सुदृढ़ नहीं किए गये तो संभवतः अवध मराठों के अधीन आ जाएगा अथवा वह मराठों के साथ बिठाकर रूहेला खंड को बाँट लेगा। फलतः वह स्वयं बनारस गया तथा 1773 ई0 में अवध के नवाब से एक नई संधि की इसके अनुसार इलाहाबाद और कारा के जिले मुगल सम्राट शाहआलम से लेकर शुजाउद्दौला को दिया गया जिसके बदले में नवाब को 50 लाख रूपये देने थे। अवध की रक्षा करने के लिए एक स्थाई सेना अवध में तैनात की जानी थी जिसके लिए नवाब 2 लाख 10 हजार रूप्ये प्रतिमाह कम्पनी को प्रदान करेगा। इसके अतिरिक्त यदि नवाब रूहेंलों के विरूद्ध कम्पनी की सेना की सहायता माँगें तो उसे 40 लाख रूपयें देना होगा। इस संधि से कम्पनी को वित्तीय लाभ तो प्राप्त हुआ ही अवध और रूहेलों के बीच मित्रता की संभा बनाये समाप्त हो गई।
रूहेला सरदार और अवध को लगातार मराठों के आक्रमण का भय बना हुआ था। रूहेला सरदार हाफिज रहमत खाँ ने 17 जून 1772 को अवध के नवाब के साथ एक संधि की। जिनके अनुसार उसने मराठों से रक्षा के लिए अवध के नवाब की सहायता मांगी तथा 40 लाखा रूपयें देने का वचन दिया 1773 ई0 में जब मराठों ने रूहेला खंड पर आक्रमण किया तो जनरल वार्कर के नेतृत्व में कम्पनी और अवध की सेना सामने खड़ी थी। मराठे लौट गये। नवाब ने जब 40 लाख रूपये माँगे तो हाफिज रहमत खान ने आनाकानी की 1 फरवरी 1774 में नवाब ने रूहेला खंड पर आक्रमण कर उसे अपने प्रदेश में मिलाने की सोची तथा बनारस की संधि पर आधारित उसे कम्पनी सें सैनिक सहायता माँगी। कम्पनी की सेना की सहायता से रूहेला खंड पर आक्रमण और और अप्रैल 1774 ई0 मे मीरानपुर कटरा के स्थान पर एक नियोयक युद्ध हुआ जिसमें हाफिज रहमत खाँ मारा गयी रूहेला खंड आप में सम्मिलित कर लिया गया।
1775 ई0 में शुजाउद्दौला की मृत्यु हो गई उसका लड़का आसफद्दौला अवध की गद्दी पर बैठा। इसके साथ ही अवध का शोषण अंग्रेजो द्वारा किया जाना तेज हो गया। आसफुद्दौला एक कमजोर शासक था तथा अग्रेजो पर निर्भर रहने लगा था। वारेन हेस्टिंग्सं ने नवाब को सेना की दूसरी ब्रिगेड रखने तथा उसका खर्चा देने के लिए मजबूर किया। अंग्रेजो ने नवाब का मंत्री मनोनित करने का अधिकार भी प्राप्त कर लिया। अंग्रेजो रेजिडेंट अब अवध के आंतरिक मामलों में भी हस्तक्षेप करने लगा। अंग्रेजों व्यापारियों ने अवध में प्रवेश किया और निजी व्यापार के नाम पर उसने लूटने लगे। इस सबका परिमाण यह हुआ कि अवध की खुशहाली खत्म होने लगी और उसका शासन अव्यवस्थित होने लगा। नवाब की फिजुल खर्ची की सेना के खर्चे के कारण खजाना खाली हो गया। राज्य की आय कुशासन तथा गबन के कारण घटने लगी। आसफुद्दौला ने अंग्रेजो की सहायक सेना के भारी खर्चे तथा अंग्रेजो के शासन में हस्तक्षेप के विरूद्ध आवाज उठाई लेकिन अंग्रेजो ने ध्यान नही दिया। अंग्रेजो का अवध पर लगातार नियंत्रण बदता चला गया। आसफुद्दौला पर दबाव डालकर चैतसिंह को कम्पनी का आथ्रित बना दिया गया पहले वह अवध के नबाव का आश्रित का। पहले वह ढाई लाख रूपये वार्षिक पहले अवध के नवाबों को देता तथा अब वह आय कम्पनी को होने लगी। इस नई संधि के अनुसार राजा यदि यह धन नियमित रूप से देता रहे तो उससे किसी भी अवस्था में अन्य कोई माँग नही की जाएगी। इस समय आसफुद्दौला पर कमपनी का 15 लाख रूपया शेष था। यह राशि अवध में नवाब की इच्छा के विरूद्ध रखी गई सेना के लिए थी। जब इस रकम के लिए नवाब पर दबाव डाला गया तो नवाब ने हेसिटंग्स से अपनी विमाताओं के कोष पर अधिकार करने की आज्ञा मांगी जिसकी मंजूरी उसे मिल गई। इससे पहले बेगमों को कलकता परिषद से यह आश्वासन मिला था कि उनसे कोई अतिरिक्त धन नहीं लिया जाएगा। हेस्टिंग्स ने अवध के रेजिडेंट मिडलटन को आदेश दिया कि वह अवध की बेगमाँ को अपनी सेना के प्रयोग से इतना विनश कर दे कि वे नवाब की इच्छा के अनुरूप कार्य करने लगे। इस प्रकार बेगमों 105 लाख रूपयें देने को बाध्य किया गया जिससे कम्पनी के ऋण चुकता किए गये। 1797 ई0 में आसफुद्दौला की मृत्यु के उपरान्त अंग्रेजो ने पहले उसके लड़के बजीर अली के गद्दी पर बैठाया। लेकिन तथा नवाब स्वतंत्रता की इच्छा रखता था। फलतः वह सर जॉन शारे द्वारा उसके विवादस्पाष्द जन्म का बहाना बनाकर गद्दी से उतार दिया। इसके बाद सआदत अली गद्दी पर बैठाया गया।
सआदत अली के समय अवध की स्थिति दयनीय हो गई। लार्ड बेलेजली अपनी विस्तावादी नीति के अनुरूप दिल्ली पर विजय कर अंग्रेजो राज्य की सीमा यमुना नदी तक बढ़ाना चाहता था। इससे अवध की मध्यस्थ राज्य बने रहो की उपयोगिता समाप्त हो चूकी थी। बेलेजली दबाव डालकर सआदत अली को अवध का विलय अंग्रेजो राज्य मे कराना चाहता था। जो नवाब को मंजूर नही था। नवाब के इन्कार करने पर बेलेजली ने उस पर यह आरोप लगाया गया कि वह सहायक सेना का नियमित खर्च देने में असमर्थ है 1801 ई0 में एक नई संधि करने के लिए बाध्य किया गया। इस संधि के अनुसार अवध से रूहेला खंड और पूर्वी जिले के लिए गयें। बैटिक के शासन काल में कुशासन के आरोप में देशी राज्यों का विलय अंग्रेजों राज्य मे किया जाने लगा। मैसूर और कुर्ग इस नीति के पहले शिकार हुए। इससे अवध पर खतरा बढ़ गया। बैंटिक ने मुस्लिम जनमत के खिलाफ हो जाने के चेतावनी देकर संतुष्ट हो गया कि यदि वह शासन की उपेक्षा करता गया तो कम्पनी अवध के शासन को अपने हाथ में ले लेगी और उसको पेंशन दे दी जाएगी।
1837 ई0 में नासीरूद्दीन की मृत्यु के बाद मुहम्माद अली शासक बना। इस समय अंग्रेजों अफगानिस्तान पर आक्रमण करना चाहते थे। गवर्नर जनरल ऑकलैड अवध का अपहरण करने की बजाय उसकी आय को युद्ध के लिए उपयोग करना चाहता था। इस उद्देश्य से नवाब के साथ एक संधि की गई जिसके अनुसार नवाब पर एक और सेना के ब्रिगेड का खर्चा लाद दिया। गया और दूसरी और यह कहा गया कि यदि वह शासन मे सुधा नही करता है तो अवध का शासन अंग्रेज अपने हाथ में लें लेगे और अपने अफसरों द्वारा उनमें आवश्यक सुधार करेंगे। बोर्ड ऑफ डायरे क्टर्सन ने इस संधि को स्वीकति प्रदान दनही की लेकिन संधि की अस्वीकृति सूचना नवाब को नही मिलने से यह लागू समझी गई। 1847 में लार्ड हाडिंग ने नवाब को एक और चेतवानी दी।
1848 इ्र0 में कर्नल स्लीमैन को लखनऊँ के रेजीडेंट के रूप में नियुक्त किया गया। इस समयय अवध का नवाब वाजिद अली था। स्लीमैन को डलहौजी ने यह आदेश दिया ि कवह अवध के शासन पर अपनी रिपोर्ट पेश करें। स्लीमैन अवध के विलय के पक्ष में नही था वह सिर्फ यह चाहता था कि अवध का प्रशासन अधिक से अधिक अंग्रेजो द्वारा चाहता था कि अवध का प्रशासन अधिक से अधिक अंग्रेजो द्वारा चलाया गया जाय। 1854 में स्लीमैन के स्थान पर आउट्रम को लखनऊँ का रेजिडेंट बनाया गया उसमें रिपोट मं कहा गया कि अवध का प्रशसान बहुत दूषित हो गया है जिसके कारण लोगों की आवल्य शोचनीय हो गई हो। इस रिपोर्ट के आधार पर गवर्नर के परिषद में अवध के विलय के प्रश्न पर विस्तृत चर्चा हुई जिसके तीन मृद्दे थे- 1.नवाब को गद्दी छोड़ने पर बाध्य किया जाए और अवध का विलय किया जाय 2.नवाब नाम मात्र का रहे परन्तु शासन अंग्रेजो के हाथ में हो ओर 3.लखनऊँ का रेजिटं कुछ समय के लिए कार्यभार संभाल ले।
परिषद की आमराय विलय के पक्ष में थी जिसकी अनुमति कोर्ट ऑफ डायरेक्टअर् से मिल गई इसके बाद नवाब पर गद्दी छोड़ने का दबाव डाला गया। नवाब वाजि अली के इन्कार करने पर 13 फरवरी 1856़ ई0 की घोषणा द्वारा अंवध को अंग्रेजो राज्य मे मिला लिया गया। नवाब को पेंशन देकर कलकत्ता भेंज दिया गया। जिसके फलस्वरूप अवध की जनता और सेनिक अंसतृष्ट हुए और 1857 में महान विद्रोह में महत्वपूर्ण भागीदारी निभाई।
आंग्ल- मैसूर सम्बन्ध
1757 ई0 के प्लासी युद्ध के बाद भारत में ब्रिटिश सत्ता की नींव पड़ी तथा बक्सर युद्ध के बाद मुगल सत्ता का अवमान हो गया। ूमुगल सम्राट अंग्रेजो का पेंशन भोंक्ता बन गया।तथा अवध का राज्य उनका संरक्षित राज्य हो गया उसके बाद अंग्रेजो की प्रआरवादी नीतियों को बढ़ावा मिला और वे सम्पूर्ण भारत पर अधिकार करने की और अग्रसर हुए। इनका किसी भारतीय शक्ति ने प्रतिरोध नही किया लेकिन अभी भी दो भारतीय भक्ति विद्यमान थी जो लगातार अंग्रेजो को टक्कर दे रही थी वे थी-1. मराठे और 2. मैसूर का शासक हैदर अली।
प्रारम्भ में मैसूर विजयनगर राज्य का अंग था। 1565 ई0 में वाडेंयार वंश ने मॅसूर में एक स्वंतत्र राज्य की स्थापना की। 1704 ई0 में इस वंश ने मुगलों की अधीनता स्वीकार करते हुए कर देने के लिए बाध्य हुए। 1718 ई0 के रफी उद दरजात द्वारा मराठों के दिए गये फरमान द्वारा मैसूर से चौथ लेने का अधिकार मराठों को प्राप्त हुआ। 18 वीं शताब्दी के मध्य में मैसूर शासक से भारी शक्ति देव राज और नन्द राज नामक दो भाईयों ने हस्तगत कर ली। इस समय हैदर अली मैसूर की सेना में नायक का पद पर आसीन था। सैनिक कुशलता और नेतृत्व के गुणों के कारण वह 1755 ई0 में डिन्डीगल का फौजदार नियुक्त किया गया। उसने डिन्डीगल के सम्पूर्ण लगान पर अधिकार कर के एक स्वतंत्र सेना का निर्माण किया, जो सिर्फ उसी के प्रति वफादार थी। उसने अपने सैनिको फांसिसियों द्वारा यूरोपीय पद्धति पर प्रशिक्षित करवाया तथा एक तोप खाना विभाग की स्थापना की। इसके बाद वह सेनापति नियुक्त हुआ तथा एक षडयंत्र द्वारा दीवान खांडेराव को कैदकर बंगलोर भेज दिया एवं मैसूर पर अधिकार कर लिया। 1760 ई0 में हैदर अली मैसूर का शासक बन बैठा जिसकी राजधानी श्रीरंगपट्टतम थी।
अंग्रेज-हैदर अली सम्बन्ध :- तृतीय कर्नाटक युद्ध के समय से ही हैदर अली का अंग्रेजों के साथ संघर्ष प्रारम्भ हो गया था। इस युद्ध में हैदर अली ने फ्रांसीसियों की मदद की थी। फ्रांसीसी सेनापति लैली ने उसे दस हजार रूपये प्रतिमास तथ इलबनसोए का दुर्ग देने का वायदा किया था तथा विजयोपरान्त हैदरअली को त्रिचानपल्ली, मदुरै, त्रिन्वेली देने का लालच दिया था। परन्तु कर्नाटक युद्ध में फ्रांसीसियों की हार ने यह स्वप्न धुमिल कर दिया। इसके अतिरिक्त 1761 ई0 में पांडिचेरी पर अंग्रेजों का अधिकार होने से हैदर और अंग्रेजों के बीच संबंधों में कटुता आ गई। दूसरा कारण हैदर अली ने अपनी सेना में 300 फ्रांसीसियों को भर्त्ती कर लिया। जो अंग्रेजों को अच्छा नहीं लगा। कर्नाटक के नवाब मुहम्मद अली तथा हैदर अली का पारस्परिक झगड़ा अंग्रेज अधिकारियों से हैदर की शत्रुता का अन्य कारण था। दोनों ही कर्नाटक के कई जिलों पर अपना-अपना अधिकार जताते थे। मुहम्मद अली द्वारा अंग्रेजी सेना का वेलूर में पड़ाव डालने की अनुमति से हैदर अली प्रसन्न नहीं था, इसने बदले में मुहम्मद अली के भाई और प्रतिद्वन्द्वी महफूज खाँ को संरक्षण प्रदान कर अंग्रेजों को नाराज कर दिया। 1765 ई0 में हैदर अली मराठों के भय से मद्रास सरकार की ओर मित्रता का हाथ बढ़ाया, लेकिन अंग्रेजी सरकार उसकी विस्तारवादी नीति पर अंकुश लगाना चाहती थी। अंग्रेजों ने हैदर अली के दुश्मन हैदराबाद के निजाम से संधि कर ली, इस समय निजाम को मराठों से पहले ही सहायता प्राप्त थी। इस प्रकार अंग्रेजों ने हैदर अली के विरूद्ध निजाम, मराठों तथा अंग्रेजों का एक त्रिदलीय संगठन स्थापित कर लिया। मद्रास सरकार और निजाम दोनों का उद्देश्य हैदर अली के अधिकार क्षेत्र में स्थित बालाघाट पर अधिकार करना था। अंग्रेजों से प्रोत्सान हम पाकर निजाम ने इस क्षेत्र पर हैदर अली को चुनौती दी यही प्रथम आंग्ल-मैसूर युद्ध का कारण बनी।
प्रथम आंग्ल-मैसूर युद्ध (अगस्त 1767-1769) :- अंग्रेजों ने निजाम को हैदरअली के विरूद्ध सैनिक सहायता देने का बचन दिया। कर्नल स्मिथ के नेतृत्व में ब्रिटिश सेना के साथ निजाम मैसुर पर आक्रमण कर दिया। इस समय हैदर अली ने अद्भूत कुटनीतिज्ञता का परिचय देते हुए 35 लाख रूप्ये देकर मराठों को अपने ओर मिला लिया। इस रकम का आधा भाग तुरन्त प्रदान किया गया और शेष अधो के लिए कोलार की सोने की खान बंधक रख दिया। इसके बाद उसने निजाम से एक संधि कर अपनी ओर मिला लिया। हैदर अली के खिलाफ बना गठबंधन टूट गया और अंग्रेज अकेले पड़ गये। फिर कर्नल स्मिथ ने निजाम और हैदर अली की सेना को चनगम दर्रे पर पराजित कर दिया त्रिनोमलाई के युद्ध में भी अंग्रेज विजयी हुए। इधर टीपू सुल्तान के नेतृत्व में मैसूर सेना ने सेंट टामस माउन्ट स्थित अंग्रेजी गोदामों को लूट लिया। हैदर अली के संगठित हमले से मद्रास कौंसिल भयभीत हो गई और संधि करने का प्रस्ताव रखा। हैदर अली की शर्तो के अनुरूप फरवरी 1769 ई0 में मद्रास की संधि से प्रथम आंग्ल मैसूर युद्ध समाप्त हुआ। यह संधि हैदर अली, तंजोर के राजा, मालावर के राजा और कम्पनी के बीच हुई जिसके अंतगर्त मैसूर के शासक को दिए गये कारूर और इसके किलों को छोड़कर बाकी क्षेत्रों पर आपसी सहयोग से सबका अधिकार मान लिया गया। किसी भी पक्ष पर आक्रमण करने की स्थिति में सभी दलों द्वारा एक दूसरे का सहयोग करने का वायदा किया गया। हैदर अली द्वारा मद्रास सरकार के सभी बंदी कर्मचारियों को रिहा कर दिया गया। तंजौर के शासक के साथ हैदरअली मित्रतापूर्ण व्यवहार करने का वायदा किया तथा बम्बई प्रेसीडेंसी एवं अंग्रेजी कारखानों की व्यापारिक सुविधायें कायम रखी गई।
द्वितीय आंग्ल-मैसूर यद्ध (1780-1784) :- 1770 में ई0 में पेशवा माधवराव द्वारा मैसूर पर आक्रमण इस युद्ध का महत्वपूर्ण कारण था। इस युद्ध में मराठे और हैदरअली दोनों अंग्रेजों से सहायता का आग्रह किया। लेकिन अंग्रेज तटस्थ बने रहे। इसने पीछे उनका तर्क था कि हैदर अली की सहायता करने पर मराठे रूष्ट होकर उनके प्रदेश कर्नाटक पर आक्रमण कर देंगे और यदि वे मराठों की सहायता करते है तो भविष्य में मराठों के साथ हैदर अली समझौता कर उनके खिलाफ आक्रमण कर देगा। इस प्रकार अंग्रेजों ने मद्रास की संधि का उलंघन किया जिससे हैदर अली नाराज हो गया। दुसरा कारण यह था कि हैदर अली ने मुरारी राव से गूँटी का प्रदेश छिन लिया तथा फ्रांसीसियों को अपनी सेना में भर्त्ती किया एवं उचों से मित्रता स्थापित करते हुए, उनके प्रतिनिधि अपने दरबार में रखा। तीसरा कारण 1778 ई0 में अंग्रेजों द्वारा पांडिचेरी पर अधिकार करना तथा माही पर आक्रमण करना था। माही इस समय हैदर अली के नियंत्रण में था और यहाँ से उसको सैनिक सामग्री प्राप्त होती थी। 1779 ई0 में माही पर अंग्रेजों के अधिकार ने दोनों के बीच सम्बन्ध बिगाड़ दिया।
इधर हैदराबाद का निजाम मद्रास सरकार द्वारा उत्तरी सरकार से सम्बन्धित खिराज रोक लिये जाने के कारण नाराज था। मद्रास सरकार की अदूरदर्शितापूर्ण नीति तथा निजाम और मैसूर के साथ अभद्रता निजाम और हैदरअली को पुना सरकार से मिलने के लिए बाध्य कर दिया। रघुनाथ राव समर्थन देने और सूरत की संधि के मराठें अंग्रेजों से युद्ध लड़ रहे थे। फलतः नाना फड़नवीस के नेतृत्व में एक चर्तुदलीय संगठन का निर्माण अंग्रेजों के खिलाफ हुआ जिसमें हैदरअली, निजाम, पूना सरकार और नागपुर के योंझले शामिल थे। इस प्रकार आंग्ल मराठ युद्ध मैसूर के साथ दूसरे युद्ध में परिवर्त्तित हो गया तथा 1780 में युद्ध छिड़ गया।
वारेन हेस्टिंग्स ने बंगाल से एक सेना आयूरफूट के नेतृत्व में मद्रास भेजी। आयरकूट ने दूरदर्शिता का परिचय देते हुए हैदरअली के मित्रों को उससे अलग कर दिया। भोंसले और सिन्धियाँ को हैदरअली की सहायता न करने पर राजी कर लिया गया तथा निजाम को गुंटूर का जिला प्रदान कर युद्ध से अलग कर दिया गया। इस प्रकार हैदर अली अकेला रह गया। लड़ाई के प्रथम चरण में हैदरअली ने कर्नाटक पर अधिकार कर लिया तथा मद्रास के निकट पहुँच गया। उसने पार्टोनोवों और कांजीवरम को लूट लिया तथा कर्नल फ्लेचर और कर्नल बेली की सेना को पराजित कर भागने पर मजबूर कर दिया। हैदर अली के आक्रमण से हेक्टर मुनरों भयभीत होकर अपने तोपखाने को एक तालाब में फेंककर मद्रास की ओर भाग गया। सर आयरूट की बंगाली सेना आने के बाद अंग्रेजों की स्थिति दक्षिण में सुदृढ़ होने लगी, उसने जुलाई 1781 ई0 में पोर्टोनोवा में हैदल अली का दृढ़ता के साथ मुकाबला किया तथा सितम्बर में उसे हरा दिया। इसके बा नागपट्टनम पर अंग्रेजों ने घेरा डाला तथा त्रिकोमाली उचों से छिन लिया। हैदर अली ने सेना को पुनः संगठित किया, इस समय उसे एडमिरलल सफरिन के नेतृत्व में फ्रांसीसी सेना के मद्रास पहुँचने से सहायता मिली। टीपू ने सफलता पूर्वक ब्रेथवेट को तंजोर में घेर लिया। लेकिन फ्रांसीसी सेना बुसी के आने का इंतजार कर रही थी जो हैदर की मृत्यु के चार महीने पश्चात कर रही थी जो हैदर की मृत्यु के चार महीने पश्चात ही आ सका। वर्षा प्रारम्भ होने पर हैदर अली को अकीट के पाए अपना पड़ा। कैंसर से पीड़ित हैदर अली की 7 दिसम्बर 1782 को मृत्यु हो गई। इसके टीपू ने बेलौर पर अधिकार कर लिया जिससे उसे मंगलोर पर आक्रमण करने का प्रात्साहन मिला। फुलार्टन ने टीपू के इस अभियान को असफल बना दिया। इस समय धीरे-धीरे अंग्रेज आगे बढ़ते हुए मंगलोर से श्रृरंगपट्टनम की ओर आने लगे। अब टीपु के पास लड़ाई बन्द कर संधि के अतिरिक्त कोई विकल्प शेष नहीं था। अंग्रेज भी इस लम्बे युद्ध से थक चूके थे। दोनों पक्षा शांति चाहता था। फलतः 11 मई 1784 ई0 को मंगलोर की संधि से द्वितीय आंग्ल-मैसूर युद्ध का समापन हुआ।
संधि की शर्तों के अनुसार यह तय किया गया कि दोनों पक्ष एक-दूसरे के शत्रुओं की सीधे या परोक्ष रूप से मदद नहीं करेंगे तथा एक दूसरे के सहयोगियों के साथ युद्ध नहीं करेंगे। 1770 ई0 में हैदर अली द्वारा कम्पनी को दी गई व्यापारिक सुविधायें पूर्ववत्त कायम रहेंगी। दोनों पक्ष अम्बोरगुर एवं सतगुर महलों को छोड़कर बाकी क्षेत्रों पर पूर्ववत अधिकार के लिए राजी हुए और टीपू भविष्य में कर्नाटक पर दावा नहीं करने के लिए तैयार हुआ। इसके अतिरिक्त 1680 युद्ध बंदियों को छोड़ने के लिए तथा कम्पनी को कालीकट में जो कारखाने तथा अधिकार 1779 ई0 में प्राप्त हुए थे उसे वापस देने के लिए राजी हुआ।
तृतीय आंग्ल-मैसूर युद्ध (1790-92 ई0) :- तृतीय मैसूर युद्ध का प्रधान कारण टीपू द्वारा विभिन्न आंतरिक सुधार कर अपनी स्थिति मजबूत करना था। साथ ही वह निजाम और मराठों के साथ मिलकर अंग्रेजों के खिलाफ एक संघ बनाने के लिए प्रयत्नशील था जिसके कारण अंग्रेजों को निजाम एवं मराठों से भय उत्पन्न हो गया था। दूसरा कारण 1787 ई0 में फ्रांस एवं टर्की में टीपू द्वारा अपने दूत भेजकर उनकी मदद प्राप्त करने की कोशिश करना था। तीसरा और महत्वपूर्ण कारण क्रेंगनौर का आयाकोटा के शहर तथा किले को हस्तगत करने का टीपू का प्रयत्न था। 1789 ई0 में ट्रावनकोर का शासक इनको खरीदने के लिए डचों से बातचीत कर रहा था। डचों को इस किलों को बेंचने का पूरा अधिकार था। ये किले उत्तरी मालावार की कुंजी थे और मैसूर की सुरक्षा के लिए आवश्यक थे। टीपू नहीं चाहता था कि ये क्षेत्र किसी शत्रु के हाथ में जायें। उसने इन किलों को समर्पन करने की मांग की। लार्ड कार्नवालिस ने सूचित किया कि वे अपने मित्र राज्य ट्रावनकोर के दावे का समर्थन करे। इससे टीपू क्रोधित हुआ और ट्रावनकोर पर आक्रमण कर दिया। इसके साथ ही अंग्रेजी सेना का मैसूर पर आक्रमण कर दिया। इसके साथ ही अंग्रेजी सेना का मैसूर पर आक्रमण हो गया। इससे पूर्व ने निजाम और मराठों से संधि कर एक त्रिगुट का निर्माण कर लिया। संधि के तहत दोनों ने अंग्रेजों को सैनिक सहायता देने का वचन दिया और यह भी तय हुआ कि युद्ध के पश्चात् जीती हुई भूमि को वे आपस में बाँट लेंगे। इस संगठन का निर्माण कार्नवालिस की कुटनीतिक चालों का परिणाम था। इससे वह अंग्रेजों के राजनीतिक प्रभावों के सुरक्षित रखने में सफल हो गया तथा भारतीय शक्तियों को अंग्रेजों के विरूद्ध संगठित होने से रोक लिया। कार्नवालिस ने कुर्ग के राजा और क्रैनानोर की बीबी के साथ भी एक सुरक्षात्मक संगठ बनाया। ईधर टीपू ने पूरा सरकार और निजाम को अपनी तरफ मिलाने की कोशिश की, लेकिन उसे सफलता नहीं मिली।
जनरल मिडोज ने जो मद्रास का गवर्नर और सेनाध्यक्ष फरवरी 1790 ई0 में युद्ध की घोषणा कर दी तथा मैसूर पर आक्रमण कर दिया जो टीपू द्वा असफल कर दिया गया। कर्नल फ्लायड की सेना ने गुजलहट्टी के किलों पर घेरा डाल दिया। कर्नल मैक्सवेल के नेतृत्व में बंगाल सेना ने कांजीवरम पहुँचकर मद्रास सेना के साथ मिल गई। लेकिन टीपू ने त्रिचना पल्ली और उसके आस पास के गाँवों में ब्रिटिश क्षेत्र को काफी हानि पहुँचाई। 1790 ई0 में अंग्रेजो सेना की प्रगति से असंतुष्ट होकर स्वयं कार्नवालिस ने ब्रिटिश सेना का नेतृत्व सम्भाल लिया और एक बड़ी सेना की सहायता से टीपू पर आक्रमण कर दिया। वेलौर और अम्बूर से होता हुआ बंगलोर पर आक्रमण कर दिया तथा मार्च 1791 ई0 में जीत लिया तथा श्रीरंगपट्टनम तक पहुँच गया। निजाम की सेना अप्रैल 1791 ई0 में गवर्नर जेनरल की सेना के साथ मिल गई। हरिपन्त तथा पुरुष राम के नेतृत्व में मराठा सेना ने श्रीरंगपतनम पर अंतिम आक्रमण के समय बहुत बहादूरी का प्रदर्शन किया। लेकिन टीपू असाधारण वीरता प्रदर्शित करते हुए राजधानी को बचा लिया। टीपू की वीरता, टीपू की निजाम और मराठों से गुप्तवार्ता तथा कोर्ट ऑफ डायरेक्टर्स के दबाव के चलते कार्नवालिस ने युद्ध समाप्त करने का निश्चित किया। टिपू को भी आराम की आवश्यकता थी। फलतः 18 मार्च 1792 ई0 को श्रीरंगपतनम की संधि हुई।
इस संधि के अनुसार टीपू सुल्तान को क्षतिपूर्त्ति के रूप में तीन करोड़ तीस लाख रूपये और लगभग आधा राज्य अंग्रेजों को देना पड़ा। इसमें आधा धन तुरंत दे दिया गया और आधा किस्तों में दिया जाना था। धन चुकाने की अवधि तक उसने अपने दो पुत्रों को अंग्रेजों के पास बंधक के रूप में रखा। टीपू से प्राप्त प्रदेश को कार्नवालिस ने त्रिगुट के सदस्य शक्तियों (मराठों, अंग्रेजों और निजाम) में बाँट दिया। अंग्रेजों को डिण्डीगल, सैलम और मलावार के प्रदेश प्राप्त हुए। अब मैसूर तीन तरफ से अंग्रेजी प्रदेश से घिर गया। कुर्ग को भी अंग्रेजों ने अपने प्रभुत्व में ले लिया। इस प्रकार अंग्रेजों ने मैसूर की राजधानी श्रीरंगपतनम के आस पास के प्रदेशों पर पूरा अधिकार जमा लिया। ताकि अवसर पड़ने पर श्रीरंगपतनम पर आसानी से आक्रमण किया जा सके। निजाम को कृष्णा और पन्ना नदियों के बीच का प्रदेश मिला तथा मराठों को पश्चिमी कर्नाटक का क्षेत्र प्राप्त हुआ। टीपू ने अपने राज्य का आधा भाग अंग्रेजों और उसके सहयोगियों के बीच बाँट दिया। अब दक्षिण भारत के पूर्वी और पश्चिमी किनारों पर अंग्रेजों का आधिपत्य और मजबूत हो गया। मालावार और कर्नाटक में जो टीपू की प्राकृतिक सीमाएँ थी समाप्त हो गई। टीपू के हाथ से उसके राज्य के बहुत से उपजाऊ क्षेत्र भी निकल गये। निजाम को क्षेत्र का सबसे बड़ा भाग मिला, जबकि मराठों ने अपने राज्य का फैलाव तुंगभद्रा एवं कृष्णा नदियों तक कर लिया। इस संधि से गावणकोर के राजा को जिसके लिए प्रत्यक्ष रूप से लड़ाई लड़ी गई थी, उसे कुछ भी प्राप्त नहीं हुआ। इस संधि के सफल होने पर कार्नवालिस ने हर्ष पूर्वक कहा है कि ‘‘हमने अपने शत्रु को प्रभावशाली ढ़ंग से पंगु बना दिया है तथा अपने साथियों को भी शक्तिशाली नहीं होने दिया।‘‘ यथार्थ ही है।
चतुर्थ आंग्ल-मैसूर युद्ध (1799 ई0) :- नया गवर्नर जेनरल लार्ड वेलेजली एक साम्राज्यवादी था और दक्षिण में मैसूर राज्य को अंग्रेजो साम्राज्य के लिए खतरा समझता था वह टीपू को एक ऐसा भुज समझता का जिसे नरम व्यवहार के द्वारा कभी भी शांत नहीं किया जा सकता था वह उसे एक महत्वाकांक्षी और दंयी शासक समझता था जो फ्रांसीसियों की मदद से कभी भी अंग्रेजों के लिए खतरा बन सकता था। टीपू पर यह आरोप लगाया जा रहा था कि फ्रांसीसियों वह अफगानिस्तान के जमानशाह और तुर्की की सरकार की सहायता से अंग्रेजो को भारत से निकालना चाहता है। वेलेजली को विश्वास था कि टीपू ने फ्रांस के द्वीप मारीशस में एक निशन भेजा है जो एक फ्रांसीसियों के लेकर लौटे है जिन्होने श्रीरंगपत्तनम एक जैकोबियन क्लब और स्वाधीनता का वृक्ष लगाया है। यह विश्वास टीपू और अंग्र्रेजो के बीच तनाव उत्पन्न करने के लिए पर्याप्त थे। दुसरा कारण यह था कि टीपू अपनी अंग्रेजो द्वारा शर्मनाक हार भूला नही था तथा हार का बदला लेने और अपने ऊपर लगाये गये प्रतिबन्धों को हटाये जाने के लिए कृतसंकस्प था। उसने अपनी सेना को मजबूत बनाना शुरू कर दिया 1769 ई0 में टीपू ने नौसेना बोर्ड का गठन किया जिसमें 22 युद्धपोत तथा 20 बड़े फ्रिगेट निर्मित करने की योजना थी। उसने मंगलौर, वाजिदाबाद तथा मोलिदाबाद में पोत बनाने के लिए पोतांगानों की स्थापना की जिससे अंग्रेज भयभीत हो गये। अंतिम कारण अंग्रेजो द्वारा टीपू पर इस बात के लिए दबाव डालना था कि वह अपनी नौकरी से फ्रासीसि अफसरों को हटा दे। रेमांड के अधीन जो सैन्य शक्ति है उसे भंग करके एक सहायक संधि पर हस्ताक्षर करे टीपू के इस बात से इंकार करने पर बेलेजली ने टीपू के विरूद्ध युद्ध की घोषणा कर दी।
टीपू ने अंग्रजो सेना की श्रीरंगपतनम से 45 मील दूर सदसीर में रोकने की कोशिश की जिसमें उससे भारी क्षति उठाने के कारण पीछे हटना पड़ा हैरीसन की फौज से वह पुः मालावेली में पराजित हुआ । उसने बाद वह सेना को पुन संगठित कर श्रीरंगपतनम को बचाने की कोशिश करने लगा तथा आखिरी साँस तक लड़ता रहा । अंता में श्रीरंगपतनम के उत्तरी दरवाजे पर लाभों के ढेर में उसका मृत शरीर पड़ा मिला। 4 मई 1799 ई0 को अंग्रेजो ने श्रीरंगपतनम पर अधिकार कर लिया
आंग्ल- मराठा सम्बन्ध
आंग्ल- मराठा सम्बन्ध
पानीपत का तीसरा युद्ध मराठा साम्राज्य की सुदृढता के लिए हानिकारक सिद्ध हुआ, लेकिन मराठों को सर्वाधिक क्षति 18 नवम्बर 1772 मे पेशव माधवरानकी मृत्यु से हई। इस मृत्यु ने मराठा राजनीतिक को छिन्न- भिन्न कर दिया तथा राजनीतिक षडयंत्र को जन्म दिया । अब अंग्रेज मराठों के मामले में निर्णायक भूमिका निभाने लगे। नारायान राव के पेशवा बनते ही उसके चाचा रघुनाथ राव ने अपनी महत्वकाक्षीओं की हवा दी और सत्ता हथियाने के लिए कुटि ल चाल चलने की और अग्रसर हुआ। पेशव नाराज होकर रघुनाथ राव को कुंछ समय के लिए बंदी बना लिया। लेकिन 30 अगस्त 1773 को सुमेर सिंह द्वारा नारायण राव को हत्याकर देने पर मराठा राजनीति गर्म हो गई। इसी समय पेशवा नारायण राव की पत्नी गंगाबाई ने शासन कार्य सभांल लिया तथा बाराभाई के दल ने रघुनाथ राव को पद्च्यूत कर पेशवा के नवजात शिशु सवाई माधव राव को पेशवा नियुक्त किया तथा रघुनाथा राव को स्थिति गैर कानूनी बना दी । फड़नवीस के सम्मुख अपने को प्रभावहीन पाकर रघुनाथ राव ने कम्पनी से सहायता मांगी। बम्बई सरकार से लसिर और बझीन प्राप्त करना चाहती है, रघुनाथ राव सूरत अंग्रेजो की भरण में आ गया। यद्य़पि बंगाल सरकार को नम्रता से काम लेने का आदेश दिया तथा रघुनाथ राव के षडयंत्र को प्रोत्साहित करने की नीति को अनुचित और अराजनीतिक ठहराया फिर भी बम्बई सरकार ने 8 मार्च 1775 ई0 को रघुनाथ राव के साथ सूरत की संधि को संधि को शर्तो के अनुसार 1. कम्पनी एवं पूर्व पेशवा के बीच हुई संधियों को प्रमाणित किया गया 2. अंग्रेजो ने रघुनाथ राव को पेशवा का पद दिलाने का वायदा करते हुए 2500 सैनिकों का दल भेजने की स्वीकृति प्रदान की 3. रघुनाथ राव द्वारा अंग्रेजो के संरक्षण में 6 लाख रूपये के जटने बंधक रखे गये तथा सैनिकों के रखरखाव के लिए प्रतिवर्ष 50 हजार रूपये देने का वायदा किया गया। 4. रघुनाथ राव वेसिन साल्सेट और बम्बई के पास के चार द्वीपों को हमेशा के लिए सौपने को तैयार हो गया। 5.यह भी तय हुआ कि बंगाल और कर्नाटक पर मराठों द्वारा आक्रमण नही किया जाएगा। बिना अंगेजो की सहायता से राघोवा पूना के अधिकारियों से कोई समझौता नहीं करेगा।
संधि के पश्चात अंग्र्रेजो ने साल्सेट पर शीघ्र ही अधिकार कर लिया तथा कर्नल कीटिंग के नेतृत्व में एक सेना रघुनाथ राव की सहायता के लिए सूरत भेज दिया। बम्बई सरकार के कार्यों से कलकत्ता के अधिकारी काफी नाराज हुए। इसके दो कारण थे - 1. सात्क्षेर पर अधिकार का समाचार उसे विलम्ब से पहुचाया गया और 2. बम्बई सरकार की नीति मराठों के साथ पारस्परिक मित्रतापूर्ण सम्बन्धों के विपरीत थी। कलकत्त स्थित अधिकारियों को भय था कि इससे मराठों के साथ लम्बा संघर्ष छिड़ जाएगा जिससे उनकी आर्थिक स्थिति डॉवाडोस हो जाएगी तथा प्रशासनिक पुनर्गठन सम्बन्धी कार्यों में बाधा उपस्थित होगी। साथ ही अंतर्राष्ट्रीय परिस्थितियाँ ऐसी बन गई थी कि इंग्लैंड से किसी प्रकार के सहायता की आशा करना व्यर्थ था। फलतः बम्बई सरकार को शीघ्र ही सैनिक कार्यवाहियों को बन्द करने का आदेश दिया गया तथा कर्नल उपटन को बाराभाई के दल से एक संधि करने के लिए पुना दरबार भेजा गया। इस समय मराठों की स्थिति अच्छा नहीं थी, उन्हें पश्चिम में अंग्रेजों से युद्ध का भय बना हुआ था तथा दूसरे तरफ हैदरअली मराठा क्षेत्रों पर लगातार आक्रमण कर उन्हें क्षति पहुँचा रहा था। फलतः 1 मार्च 1776 ई0 को दोनों के मध्य पुरन्दर की संधि हुई। संधि के अनुसार कम्पनी को साल्सेट एवं उसके आत्म न्याय के द्वीपों पर अधिकार कायम रखने की मंजूरी मिली। इसके अतिरिक्त गुजरात के उन क्षेत्रों पर उनका अधिकार कायम रखा गया जो उन्हें रघुनाथ राव या गग्यकवाड द्वारा प्राप्त किये थे। मराठों को 12 लाख रूपये युद्ध क्षतिपूर्त्ति के रूप में देने थे। बदले मे अंग्रेजो ने राघोवा का पक्षन लेने का वायदा किया। यह भी तय हुआ कि रघुनाथन राव पेशवा सरकार से 25 हजार मासिक पेशन पाकर गुजरात में केंपर गाँव चला जाएगा तथा सक्रिय राजनीति छोड़ देगा। इस संधि से सुरत की संधि रद्छ घोषित की गई।
प्रथम-आंग्ल- मराठा युद्ध बम्बई सरकार को पुरन्दर की संधि मंजूर नहीं थी, उन्होने इसके विरूद्ध कोर्ट ऑफ डायरेक्टर्स में अपील की। डायरेक्टरों ने दोतरफानीति अपनाई, एक तरफ बम्बई सरकार की नीति का समर्थन किया दुसरी तरफ वारेन हेस्टिग्स को स्वतंत्र निर्णय करने का अधिकार भी दें दिया तथा पुरून्दर की संधि को अस्वीकार कर दिया। 1774 में अमेरिकी स्वतंत्रता संघर्ष में फ्रांसीसियों ने अमेरिकीयाँ की सहायता की फलतः दोनों भक्तियाँ भारत में भी टकराने लगी। एक फ्रासीसी अपनी सेना लेकर पुना पहुँच गया फलतः हेंस्टिग्स ने गोडार्ड के नेतृत्व में एक सेना बम्बई की सहायता के लिए पुना भेज दिया। इस अवसर पर बम्बई परिषद ने सुरत की संधि को पुनर्जीवित कर दिया औ कॉकबर्न को रघुनाचराण को पुनः गद्दी पर बैठाने के लिए भेज दिया। जनवरी 1779 को पश्चिमी घाट में तेलीगाँव में ब्रिटिश सेना की बुरी तरह हार हुई तथा बड़गाँव की संधि हुई। इसके अनुसार 1773 के पश्चात अंग्रेजो ने सभी विजित प्रदेश लौटाने का वचन दिया यह संधि अंग्रेजो के िए बहुत अपनमानजनक की, इसे स्वीकृति नहीं मिली तथा वारेन हेस्टिंग्स ने युद्ध जारी रखा, और दो सैनिक दल भेजा। जर्नल गोडार्ड को पूना पर अभियान करने के लिए तथा कैप्टन फोफम को ग्वालियर पर अधिकार करने के लिए नियुक्त किया गया। गोडार्ड ने 1780 ई0 मेंं अहमदाबाद पर अधिकार कर लिया गुजरात को रौद दिया तथा गायकवाड़ को अपनी तरफ मिला किया, लेकिन उसका पूना अभियान असफल रहा जिसमें चलते उसे वापस लौटना पड़ा। फोफम की सेना ने कई झड़प् में ग्वालियर की सेना को पराजित किया और अगस्त 1780 ई0 में ग्वालियर दुर्ग जीत लिया। इस पराजय के बाद सिंधिया मराठों और अंग्रेज के बीच मध्यस्थ की भूमिका में आ गया। 17 मई 1782 को पेशवा माधव राव के कार्यवाहक मंत्री महादजी सिंधिया एवं अंग्रेजो के बीच प्रथम आंग्ल- मराठा युद्ध समाप्त करते हुए ग्वालियर से 32 किमी0 दूर सालबाई नामक गाँव में एक संधि हुई। जिसकी शर्त्तो थीः-1. कम्पनी द्वारा अधिकृत किए गये पेशवा एंव गुजरात में गायकवाड के सभी क्षेत्र वापस कर दिए गये। 2.साल्सेट ओर इसके तीन पड़ोसी द्वीप और भड़ौच शहर अंग्रेजो के अधिकार में रखे गये 3. कम्पनी द्वारा रघुनाथ राव को दिए गये सम्पूर्ण क्षेत्र मराठो को वापस कर दिए गये 4.पेशवा को हैदर अली द्वारा ब्रिटिश पर किए गये दावे से मुक्त कर दिया गया 5. दोनों पक्षो द्वारा एक दूसरे पर और सहयोगियों पर आक्रमण नहीं करना तय हुआ 6. अंग्रेजो की अनुमति के बिना पेशवा किसी भी यूरोपीय शक्ति अपने क्षेत्रो में संरक्षण नही देगा 7. कम्पनी को प्राप्त व्यापारिक सुविधायें जारी रहेगी।
इस संधि के पश्चात अंग्रेजो ने रघुनाथ राव का साथ छोड़ दिया तथा माधव नारायन राव को पेशवा स्वीकार कर लिया, राघोवा को पेंशन दे दी गई। इस ंसंधि स ेअब पूर्व स्थिति स्थापित हो गई। कम्पनी अब मैसूर के मामले में स्वतंत्र हो गई। यह संधि कम्पनी के लिए काफी महत्वपूर्ण साबित हुई क्योंकि इससे कम्पनी एवं नियर्णक भविष्य की और अग्रसर हुई। इसके साथ ही कम्पनी की मराठों के साथ 20 वर्षो तक शांति व्यवस्था बनी रही और इस तरह बिना किसी कठिनाई के व्यवस्थित होने एवं भारतीय राजनीति में पकड़ बनाने में सहायता मिली
द्वितीय अांग्ल- मराठा युद्ध 1803-06 ई0
आंग्ल मराठा संघर्ष का दूसरा दौर फ्रांसीसियों आक्रमण के भय से शुरू हुआ। वेलेजली अपनी साम्राज्यावादी नीति के कारण समस्त भारतीय राजाओं की कम्पनी पर निर्भरता सुनिश्चित करना चाहता था। उसने मराठो पर सहायक संधि प्रणाली पर हस्ताक्षर के लिए दवाब बढ़ाया लेकिन मराठों नें ऐसा करने से इंकार कर दिया। 1800 ई0 में नाना फड़नवीस की मृत्यु से कर्नल पामर के अनुसार मराठों की सुझ-बुझ समाप्त हो गई। फड़न वीस अंग्रेजी हस्तक्षेप का परिणाम जानते थे और उन्होने मराठों को सहायक संधि से दूर रखा। अब बेलेजली को एक अवसर दिखाई दिया उसने मराठों के आपसी संघर्ष को हवा दी तथा मराठा सरदारों के व्यक्तिगत हितों को उफसाना प्रारम्भ कर दिया। इस समय मराठे आपसी ज्वलनशीलता एवं प्रतिदिन के झगड़े से कमजोर हो गये थे। पेशवा एक दुर्बल शासक था। पुना दरबार दौलतराव सिंधिया और यशवंतराव होल्कर के बीच प्रुमुख के लिए संघर्ष का अखाडना चुका था।
पेशवा का समर्थन पाकर सिन्धियाँ ने होल्कर की दबाने का प्रयत्न किया तथा होल्क्र के भतीजे विठोजी की हत्या कर दी। सिन्धिया के साथ हुए युद्ध में मल्हार राव होल्कर मारा गया। इसके बाद पेशवा ने एक निकम्मे व्यक्ति काशीराव को होल्कर घराने का प्रधान नियुक्त किया। यशवन्त राव होल्कर ने सिन्धयो क्षेत्र पर आक्रमण कर दिया। मालवा क्षेंत्र में गृह युद्ध शुरू हो गया जिससे उज्जैन और इंदौर को काफी हानि उठानी पड़ी। यशवन्त राव होल्कर 25 अक्टूबर 1802 को दिवाली के दिन महाराष्ट्र पहुँचा। हउंसपुर के युद्ध में होल्कर ने पेशवा और सिन्धिया की संयुक्त सेना को पराजित किया। पुना में दौलत राव सिधियां की अनुप स्थिति ने पेशवा के मन में यह भय पैदा की कि अब होल्कर अपने भाई विढोजी की हत्या का बदला लेगा। अतः वह अपनी जान बचाने के लिए बसीन भाग गया होल्कर रघुनाथ राव दके पुत्र विनायकराव को गद्दी पर बैठाकर वापस चला गया। पेशवा ने अंग्रेजो का संरक्षण स्वीकार कर लिया तथा 13 दिसम्बर 1802 को वसीन की संधि को जिसमें पेशवा ने लगभग अपना एवं अपने लोगों की स्वतत्रता के साथ ही समझौता लिया। शर्त्तो की 1. पेशवा ने अंग्रजो संरक्षण स्वीकर कर भारतीय तथा अंग्रेज पदातियों की सेना जिसमें 600 सैनिक होने थे, पूना में रखना स्वीकार कर लिया और उसी अनुपात में तोपखाने रखने थे जिसके रखरखाव पर 25 लाख रूपये व्यय होना था। इसके साथ ही यह लय हुआ कि पेशवा अंग्रेजो के किसी भी विरोध विदेशी नागरिक को अपनी सेना में नही रखगी। 2. किसी भी राज्य के साथ अपने मतभेदों को सुलझाने से पूर्व कम्पनी का आदेश लेना अपरिहार्य था। निजाम एवं गायकवाड के साथ अपने मतभेदों को दूर करने में अंग्रेजो के मध्यस्थता आवश्यक थी। 3. पेशवा ने गुजरात, ताप्ती, नर्मादा के मध्यक के प्रदेश तथा तुगभद्रा नदी के सभी समीवर्ती प्रदेश जिसकी आय 26 लाख रूपये की , कम्पनी को दे दिया । 4. पेशवा ने सूरत पर से अपनी सभी अधिकार एंव दावे वापस के लिए 5. पेशवा ने निजाम से चौथ प्राप्त करने का अधिकार छोड़ दिया तथा गायकावाड़ के साथ कभी युद्ध न करने का वचन दिया। तथा 6. अपने विदेशा मामले कम्पनी के अधीन कर दिये।
विद्वानों के अनुसार बसीन की संधि शून्य के साथ की गई संधि थीं। वास्तव में इस समय पेशवा की स्थिति शून्य जैसी थी, पेशवा नाम मात्र का मराठा प्रधान था। वास्तविक शक्ति सिन्धिया भोसले और होल्कर के हाथ में थी जो अभी भी अंग्रेजो में लिए चूनोती पने हुए थे। फिर भी इस संधि से अंग्रेज बहुत से राजनैतिक लाभ हुए। पुना में अंग्रेजो प्रभुत्व कायम हुआ और मराठा संघ का प्रमुख सहायक संधि के बंधन में बंध गया जिससे उसके अधिनस्थ शक्तियाँ की स्थिति न्यून हो गई। पेशवा े अपनी विदेश नीति अंग्रेजो के अधीन करके वह उन युद्धो के भार से मुक्त हो गया जिसमें वह अवसर उलझा रहता था। उसने हैदराबाद, लखनऊँ तथा पूना जो भारत के मुख्य केन्द्रीय भाग के, वहाँ सहयक सेना तैनात कर दी गई, जहाँ से भारत के किसी भाग में वह आसानी से पहुँच सकती थी। इस प्रकार सिडनी ओवने के विचार यथार्थ प्रतीत होता है कि ‘‘ बेसीन की संधि से पूर्व भारत में एक अंग्रेजो साम्राज्य का अब वह भारत का अंग्रेजी साम्राज्य हो गया। इस संधि ने प्रत्यक्ष और परोक्ष कामों द्वारा कम्पनी को भारत का साम्राज्य दे दिया। निसंदेह इस संधि से मराठा संघ अब ब्रिटिश संरक्षण मं आ गया। मराठा राज्याओं की औशिक रूप से स्वतंत्र थे तथा पेशवा के सामंत थे और पेशवा स्वयं अंग्र्रेजो की अधीनता में आ गया।
बसीन की संधि में द्वितीय आंग्ल मराठा संघर्ष के बीच, मौजूद थे। सिन्धिया पूना में अपनी शक्ति खो जाने पर क्रोधित था, पेशवा स्वयं अपनी मूर्खतपूर्ण कार्यनही से चकित था। अतः उसने गुप्त रूप् से सिन्धियों को अंग्रेजो के विरूद्ध युद्ध करने कें लिए प्रेरित करने लगा।मराठों कें लिए यह संधि एक राष्ट्रीय अपमान था । भोसलें भी अंग्र्रेजो के खिलाफ संघर्ष करने के लिए उत्तारव था। लेकिन इस समय भी गायकवाड और होल्कर अलग रहे तथा समय भी गायकवाड और होत्तारव था। लेकिन इस समय भी गायकवाड और होल्कर अलग रहे तथा समय भी गायकवाड और होल्कर अलग रहे तथा पेशवा इस युद्ध का दर्शन मात्र रहा।
द्वितीय आंग्ल मराठा युद्धः- यह युद्ध दो अवस्थाओं में लड़ा गया। प्रथम अवस्था में सिधियों और भोसले पराजित किये गये तथा दूसरी अवस्था में होल्कर की शक्ति को कुचलने का प्रयास किया गया। सिंधियों को उसके यूरोपीय अफसरों ने धोखा दिया, अंग्रेज अफसरो ने युद्ध से पहले ओैर फ्रांसीसियों ने युद्ध के मध्य उसे छोड़ दिया। 23 सितम्बार 1803 को औरगाबाद के निकट असाई नामक गाँव में सिन्धियों और भोसले की संयुक्त सेना पराजित हुई। 27 नवम्बर 1805 को अरागाँव के निकट भोसले एक बार फिर पराजित हुआ। इस समय अंग्रेजो सेना का सेनापति आर्थर वेलेजली था। उत्तर भारत मे ब्रिटिश सेनापति ले जाने अलीगढ दिल्ली और आगरा पर अधिकार कर लिया और लासवाड़ी नामक स्थान पर सिन्धियों की सेना को पूर्ण से पराजित कर दिया। इस पराजय के भयभीत होकर सिन्धियों और भोसले दोनो संधि करने के लिए प्रस्तुत हुए। फलतः 17 दिसम्बर 1803 को देवगाँगव की संधि भोसले और अंग्रेजो के बीच तथा 30 दिसम्बर 1803 को सुर्जी अर्जुंन गाँव की संधि सिन्धियों ओर अंग्रेजो बीच हुई।
देवगाँव की संधि द्वारा भोसले से कटक एवं बालासोर का प्रदेश अंग्रेजो को प्रदान किया। इसके अतिरिम मद्रास एवं बंगाल प्रेसीडेन्सियो को मिलाने के लिए पूर्वी समुद्री किनारे का क्षेत्र कम्पनी को सौप दिया। निजाम एवं पेशवा के साथ अपने मतभेदो को सूलझाने के लिए अंग्रेजो की मध्यस्थता स्वीकार कर ली तथा मराठा राजनीति से अपने सिन्धियों ने गंगा यमुना के बीच के क्षेत्र. और दिल्ली आगरा और अन्य राजपूत राज्य पर अपना नियंत्रण हटा लेने के लिए राजी हुआ तथा ये क्षेंत्र और किले अंग्रेजो को सौप दिए गये। अहमदनगर का दुर्ग, भड़ौच, गोदा नही और अजन्ता घाट भी कम्पनी को दे दिया गया। दोनों राजाओं ने अपने यहाँ अंग्रेजो रेजीडेंट रखने की स्वीकृती दे दी।
अप्रैल 1804 में होल्कर और कम्पनी के बीच संघर्ष छिड़ गया। होल्कर ने जब जयपुर पर आक्रमण किया तो उसके विरूद्ध युद्ध की घोषणा की कर दी गई क्योकि यह रियासत ब्रिटिश नियंत्रण में थी। होल्कर ने छापामार युद्धनीति का सहारा लेते हुए कर्नल मानसन का राजपूताना तक पीछा किया लेकिन शीघ्र ही उसकी सेनाएं फर्रूखाबाद और दीग नामक स्थान पर पराजित हुई। इस समय भरतपुर का राजा होल्कर की सहायता कर रहा थां। जनवरी 1805 मे लेक ने भरतपूर में किले पर अधिकार करने का प्रयन्त किया, लेकिन वह सफल नही हो सका। इसी बीच वेलेजली वापस चला गया तथा सर जार्ज वार्लो ने होल्कर के साथ राजपूर घाट की संधि की। होल्कर ने बुंदी हिल के उतरी क्षेत्रों पर से अपना दावा वापस ले लिया तथा कम्पनी द्वारा अधिकृत ताप्ती नदी के दक्षिण का प्रदेंश वापस कर दिया। मालवा और मेवाड़ में होस्कर का अधिकार मान लिया गया। इस प्रकार इस संधि से द्वितीय-आंग्ल-मराठा युद्ध का समापन हुआ। इस युद्ध में मराठों को तो पूरी तरह कुचला नहीं जा सका, लेकिन उनकी शक्तियाँ आवश्य कम हो गई।
तृतीय-आंग्ल-मराठा युद्ध (1857-18) :- इस संघर्ष का प्रारम्भ हेस्टिंग्स के आने पर प्रारम्भ हुआ। वह भारत में अंग्रेजों को सर्वश्रेष्ठ शक्ति के रूप में स्थापित करना चाहता था। गायकवाड तथा पेशवा ने पहले ही ब्रिटिश अधीनता स्वीकार कर ली थी, परन्तु पेशवा अब स्वतंत्र होना चाहता था। त्रियम्बकजी के नेतृत्व में पेशवा ने अंग्रेजों के साथ एक बार पुनः युद्ध करने के लिए मराठा नेताओं को एकत्र करने के गुप्त प्रयत्न शुरू कर दिए। नागपुर का अणा साहिब भी अंग्रेजों से स्वतंत्रता की ईच्छा रखता। अतः दोनों के बीच संयुक्त आक्रमण करने की योजना बन चूकी थी। 1815 ई0 को नागपुर को सहायक संधि मानने, पेशवा को मराठा संघ के ऊपर प्रभुसत्ता के अपने क्षेत्र देने के लिए विवश किया गया। इस संघर्ष का एक अन्य कारण बड़ौदा के गंगाधर शास्त्री की हत्या थी। वह पेशवा से कुछ धार्मिक प्रश्नों पर वार्त्ता करने के लिए बड़ौदा से भेज गया था। इस हत्या में त्रियम्बक राव का हाथ बताया गया जिसे सौपने के लिए अंग्रेजों ने पेशवा से कहा। पहले पेशवा इसके लिए तैयार नहीं था, परन्तु काफी दबाव पड़ने पर उसने त्रियम्बकरख को अंग्रेजों को सौंप दिया। शीघ्र ही त्रियम्बक राव अंग्रेजों की कैद से भाग कर पेशवा से सैनिक गठजोड़ कर लिया जिससे पूना और कलकत्ता के सम्बन्ध तनावपूर्ण हो गये।
इतिहासकारों का मानना है कि ‘पिण्डारियों की खोज शीघ्र ही तृतीय आंग्ल-मराठा युद्ध में परिणत हो गई।‘ इस प्रकार लार्ड हेक्टिंग्स के पिंडारी आतंक को दूर करने के प्रयासों ने तृतीय मराठ युद्ध को जन्म दिया। 15 नवम्बर 1814 को लार्ड हेस्टिंग्स ने सिन्धिया को एक संधि करने के लिए विवश किया जिसके अनुसार सिन्धिया को पिण्डारी दमन में अंग्रेजों की सहायता करनी थी तथा राजपूत रियासतों से अपने दरवे वापस ले लेने थे। इसी दिन पेशवा ने पूना स्थित रेजींडेंसी फिरकी नामक स्थान पर स्थित ब्रिटिश छावनी पर आक्रमण कर दिया। इस संघर्ष में सिन्धियाँ और गायकवाड अलग रहे। पेशवा को किरकी नामक स्थान पर, भोंसले की सीतावर्डी के स्थान पर और होल्कर को महीदपुर के स्थान पर पराजय का सामना करना पड़ा। 13 जून 1818 ई0 को पेशवा ने जॉन माल्कम के सामने अपनी पराजय स्वीकार कर ली।
तृतीय आंग्ल-मराठा युद्ध के बाद पेशवा को गद्दी से हटाकर उसके अधिकार क्षेत्र पर कब्जा कर लिया गया तथा उसके क्षेत्रों को बम्बई प्रेसीडेंसी में मिला लिया गया। पेशवा को 80 हजार पौंड वार्षिक पेंशन देकर कानपुर के समीप बिदुर में भेज दिया गया। मराठा भावनाओं को संतुष्ट करने के लिए पेशवा की भूमि से सतारा राज्य की स्थापना की गई और शिवाजी के एक वंशज प्रताप सिंह को सतारा का राजा बनाया गया। लेकिन मराठों का शाही गौरव तो नष्ट हो चूका था
आंग्ल-सिक्ख सम्बन्ध
रणजीत सिंह की उपलब्धियाँ पंजाब में स्थाई सिक्ख राज्य की थापना में सहायक सिद्ध नहीं हो सकी। जून 1839 ई0 में उनकी मृत्यु के बाद पुत्र खड़कसिंह शासक बना। दूसरा दरवार संघा वालिया सरदार और डोंगरा बंधुओं के बीच प्रतिद्वन्द्विता का केन्द्र बन गया तथा पंजाब में अराजकता फैल गई। अंग्रेज अफगान युद्ध के समय पंजाब से सेना भेजने का दवाब राजा पर डाल रहे थे जिसे इसने स्वीकार कर लिया। इस कार्य से अप्रसन्न होकर उसके पुत्र नौनिहाल सिंह ने महाराज के विरूद्ध बगावत कर दी और सारी शक्ति अपने हाथ में केन्द्रित कर ली। नौनिहाल सिंह जल्दी ही मार डाला गया और शेर सिंह शासक बना। शेर सिंह के समय में अंग्रेज पंजाब को हड़पने की तैयारी करने लगे। शेर सिंह का अपने योग्य प्रधानमंत्री ध्यान सिंह से नहीं पटी। संघावालिया गुट जो अंग्रेजों की हाथ की कठपुतली थे, ने राजा और मंत्री दोनों की हत्या कर दी। इसके बाद ध्यान सिंह का पुत्र हीरा सिंह के हाथों में सिक्ख शक्ति आ गई। उसने रणजीत सिंह के नाबालिक पुत्र दलीप सिंह को महाराजा बनाया तथा पंजाब में सुव्यस्थित शासन की स्थापना की जो अंग्रेजों के पंसंद नहीं था। फलतः उन्होंने विभिन्न सरदारों के महत्वाकांक्षाओं को उभरा तथा पंजाब में गृह युद्ध को जन्म दिया। इस समय खालसा सेना राज्य की सर्वोच्च शक्ति बन चुकी थी। केन्द्रीय शक्ति को छिन्न-भिन्न होते देख सेना ने पहले ही प्रजातंत्रीय आधार पर रेजीमेंटों की कमेटियों की स्थापना कर ली थ्ज्ञी। इन कमिटियाँ की स्थापना कर ली थी। इन कमेटियों ने न केवल प्रजातांत्रिक आधार पर अनुशासन कायम किया अपितु राज्य को आंतरिक और बाहरी संकटों के बचाने के लिए कार्य किया। इस समय तक ब्रिटिश खतरा पंजाब पर मँडराने लगा था।
प्रथम आंग्ल-सिक्ख युद्ध :- इस युद्ध का मुख्य कारण अंग्रेजों द्वारा पंजाब को हड़पने की लालसा थी। अंग्रेज पंजाब को अपने साम्राज्य में इसलिए मिलाना चाहते थे कि उनके साम्राज्य का सीमा विस्तार अफगानिसन तक हो सके। रणजीत सिंह के समय से ही पंजाब विलय प्रश्न ब्रिटिश अधिकारियों के बीच चिंतन का विषय बन चुका था। अफगानिस्तान अभियान की सफलता के बाद काबुल स्थित ब्रिटिश रेजीडेंट मैकनाटन ने गर्वनर जनरल के समक्ष सिक्ख भूमि के कुछ क्षेत्रों जैसे पेशावर पर ब्रिटिश सरकार का अधिकार स्थापित करने की योजना रखी थी। परन्तु अफगान युद्ध की असफलता के बाद लार्ड ऐलनबरों ने सिक्खों को भयभीत करने के उद्देश्य से फिरोजपुर के स्थान पर एक विशाल सैनिक प्रदर्शन करवाया। उसका विचार था कि शीघ्र ही आंग्ल-सिक्ख युद्ध प्रारम्भ हो जाएगा। मेरठ के अड्डे को मजबूत बनाया गया। उसने बहुत सारी नावों के लिए भी बम्बई आदेश भेजा गया ताकि फिरोजपुर के निकट सतलुज के ऊपर नावों के पुल बनाया जा सके। इस तैयारी को लार्ड हार्डिंग्स ने भी जारी रखी थी। इन समस्त कार्यवाही से सिक्खों के मन में भय उत्पन्न हो गया।
2. लुधियाना में स्थित ब्रिटिश रेजीडेंट ब्राउफुट ने सतलुज के पार के भागों में हस्तक्षेप बढ़ा दिया। वह सिक्खों को अपने उत्तेजक कार्यवाहियों से भड़काना चाहता था ताकि वे युद्ध शुरू करे। उसने सतलुज पार क्षेत्रों से ऐसा व्यवहार करना शुरू कर दिया जैसा कि वे अंग्रेजी अधिकार में हो। यह अमृतसर की संधि 1809 के बिल्कुल विपरीत था। उसने लाहौर दरबार के अधिकारियों के साथ भी क्रुर और अमानवीय व्यवहार शुरूकर दिया क्योंकि ये अधिकारी सतलुज पार के क्षेत्रों में सुव्यवस्था स्थापित करना चाहते थे, जिससे लाहौर दरबार अंग्रेजों से रूष्ट हो गया था।
3. सुचेत सिंह के खजाने पर अधिकार को लेकर ब्रिटिश अधिकारियों तथा लाहौर दरबार के बीच तनाव उत्पन्न कर दिया। ध्यान सिंह और गुलाब सिंह के छोटे भाई राजा सुचेत सिंह ने फिरोजपुर के स्थान पर गुप्त रूप से लगभग 15 लाख को रखा हुआ था। उसकी मृत्यु के पश्चात लाहौर दरबार ने दो कारणों से उस खजाने पर अपना अधिकार जताया। 1. यह कोष एक ऐसे सामंत का था जिसका कोई पुरूष उत्तराधिकारी नहीं था, अतः उस पर सरकार का स्वाभाविक अधिकार था। 2. सूचते सिंह राजा का विरोध करता हुआ मारा गया था, इसलिए उसकी सम्पत्ति का जब्त किया जाना उचित ही था। परन्तु ब्रिटिश सरकार ने यह खजाना लाहौर दरबार को देने से इन्कार कर दिया।
4. फिरोजपुर स्थित सतलुज नदी के टापू पर, जो सिक्खों के अधिकार में था, अंग्रेजों ने अधिकार कर लिया। यह कार्यवाही दो मित्रों के बीच मित्रतापूर्ण व्यवहार के विरूद्ध कार्य था।
5. मोरेन के गाँव को लेकर सिक्खों और अंग्रेजों के बीच संबंध तनावपूर्ण हो गये। 1819 में नामा के राजा जसवंत सिंह ने मोरेन गाँव रणजीत सिंह को दिया था। रणजीत सिंह ने उसे धन्ना सिंह को जागीर के रूप में प्रदान कर दी थी। 1743 ई0 में धन्ना सिंह से नाराजगी के कारण नामा के राज देवेन्द्र सिंह ने गाँव वापस ले लिया तथा उसकी सम्पत्ति को लूट लिया। लाहौर दरबार के विरोध पर भी अंग्रेजों ने नामा के राजा के कार्य को ठीक बतलाया।
6. 1843 ई0 में मेजर ब्राड फुटने घोषणा की कि सतलुज के पार की सभी रियासतें कम्पनी के न केवल संरक्षण में है अपितु महाराज दलीप सिंह की मृत्यु पर ये सब जब्त हो जाएगी। उसने आनन्दपुर के सोढ़ी जो गुरूद्वारे का महंत था, के वंश के मामले में अनुचित हस्तक्षेप किया, उससे लाहौर में अप्रसन्नता थी। फीरोजपुर और सुल्तान के पास सीमाओं पर जो घटनायें हुई उनसे स्थिति और भी बिगड़ गई।
पी0 ई0 राबर्ट्स ने युद्ध का उत्तरदायित्व सिक्खों पर डालते हुए कहा कि रानी जिन्दल युद्ध छेड़ा क्योंकि रानी का संरक्षण इसी में था कि यदि खालसा सेना हार गई तो उसकी शक्ति समाप्त हो जाएगी और यदि जीत गई तो अनन्त प्रदेश उसके अधीन आ जाएगा और इस प्रकार दोनों ही स्थितियों में उसका स्वार्थ सिद्ध होता था। जिस समय युद्ध हुआ, उस समय स्वार्थी लोग राज्य का प्रशासन चला रहे थे और उनके पास कोई ऐसा सेनापति नहीं था जो समस्त सेना का नेतृत्व कर सके और सम्पूर्ण सेना उसकी बात माने। सिक्खों ने अंग्रेजों की युद्ध तैयारी का केवल यही तात्पर्य निकाला कि वे आक्रमण और युद्ध करना चाहते है। यदि वह युद्ध लड़ना चाहते है तो यह युद्ध अंग्रेजों के अधीन प्रदेश में होना चाहिए। फलतः 11 सितम्बर 1845 को लार्ड हार्डिंग ने युद्ध की घोषणा कर दी और यह कहा कि दलीप सिंह के राज्य का वह भाग जो सतलुज नदी के बायीं ओर है, वह आज से अंग्रेजी राज्य में मिलाया जाता है। सिक्ख सेना के प्रधान सेनापति लाल सिंह ने विश्वासघात किया और कैप्टन निकलस के पास संदेश भेजा कि यदि रानी जिन्दल को मित्र समझा जाएगा तो वह अपनी सेना को दो दिन के लिए रोक लगा। इस युद्ध में चार लड़ाईयाँ मुदकी, फीरोजशाह, बद्दोवाल और आलीवाल नायक स्थान पर लड़ी गई जिसका कोई परिणाम नहीं निकला। 10 फरवरी 1846 को सबराओं की लड़ाई निर्णायक साबित हुई। लाल सिंह और तेजा सिंह के विश्वासघात के कारण, जिन्होंने सिक्खों की खाईयों का भेद अंग्रेजों को बता दिया था और युद्ध से बिना लड़े भाग गये, से सिक्खों की पूर्णतया पराजय हुई। अंग्रेजी सेना ने लाहौर पर अधिकार कर लिया। फलतः 9 मार्च 1846 ई0 को सिक्खों को लाहौर की संधि पर हस्ताक्षर करने के लिए बाध्य होना पड़ा जिसकी शर्त्ते थी :-
महाराजा ने स्वयं और अपने उत्तराधिकारियों की ओर से सतलुज के पार के अपने समस्त प्रदेश सदैव के लिए छोड़ने का वायदा किया।
महाराजा ने सतलुज और व्यास नदियों के बीच स्थित सभी दुर्गो पर से अपना अधिकार पूर्णतया छोड़ दिया जिनपर अंग्रेजों ने अधिकार कर लिया था।
सिक्खों को डेढ़ करोड़ रूपया युद्ध के क्षतिपूर्त्ति के रूप में देना था, जिसमें से 50 लाख रूपया अपने कोष से दिया तथा शेष के बदले व्यास और सिन्ध नदियों के बीच पहाड़ी क्षेत्र, सभी अंग्रेजों के हाथों में सौंप दिया जिसें कश्मीर और हजारा के प्रांत भी शामिल थे।
महाराजा की सेना में 12 हजार पैदल सैनिक और 25 घुड़सवार दस्ते रखने की अनुमति दी गई, बाकी सेना तोड़ दी गई।
महाराजा को कोई यूरोपीयन अथवा अमेरीकी व्यक्ति अपनी सेवा में अंग्रेजों की अनुमति के बिना रखने की आज्ञा नहीं थी। अंग्रेजी सेना को सिक्ख राज्य में से गुजरने की खुली छुट प्रदान की गई।
अल्प व्यस्क दीप सिंह को महाराज स्वीकार कर लिया गया। तथा रानी जिन्दल को उसका संरक्षक तथा लाल सिंह को वजीर स्वीकार किया गया।
सर हेनरी लारेंस को लाहौर में कम्पनी का रेजीडेन्ट नियुक्त किया गया और उसने पंजाब आंतरिक मामले में हस्तक्षेप न करने का वचन दिया। दो दिन बाद सिक्खें के साथ एक एक पुरू संधि की गई जिसके अनुसार वजीर लाल सिंह के अनुरोध पर अंग्रेजी सेना 1846 के अंत तक लाहौर में बनी रहेगी ताकि लाहौर वासियों और महाराजा की रक्षा करती रहेगी। लाहौर का दुर्ग अंग्रेजी सेना के लिए खाली कर दिया गया। अंग्रेजी सेना के खर्च का भार लाहौर दरबार को उठाना था।
द्वितीय आंग्ल-सिक्ख युद्ध (1848-49)
लाहौर की संधि के बाद तुरंत ही लाल सिंह और रानी जिन्दल को अंग्रेजों का नियंत्रण बुरा लगने लगा। इस समय लारेंस ने लाहौर दरबार को आज्ञा दी कि कश्मीर राजा गुलाब सिंह को दे दिया जाय। लाल सिंह ने कश्मीर के गवर्नर इमामुद्दीन को ऐसा करने से मना कर दिया। इन पर अंग्रेजी सेना ने कश्मीर पर अधिकार कर लिया। एक जाँच अधिकरण नियुक्त लाल सिंह को दोषी ठहराया गया और उसे वजीर पद से मुक्त कर निर्वासित कर दिया गया। लाहौर का प्रशासन एक प्रतिनिधि मंडल को चलाना था जिसमें फकीरनुरूद्दीन तेजा सिंह, शेर सिंह तथा दीनानाथ शामिल थे।
लाहौर की संधि के अनुसार 1846 के अंत में अंग्रेजी सेना को पंजाब से लौट जाना था लेकिन लार्ड हाडिंग का मानना था कि महाराजा के अल्प वयस्क होने के कारण अंग्रेजी सेना कुछ और दिन वहाँ बनी रहे। लारेंस ने लालच और भय दिखाकर कुछ सरदारों को बाध्य किया कि वे अंग्रेजों से इस बात की प्रार्थना करे कि पंजाब में कुछ और दिन रहे। 16 दिसम्बर 1846 की भैशेवाल की संधि हुई सिक्खों और अंग्रेजों के बीच हुई जिसके द्वारा महाराजा के संरक्षण के लिए अंग्रेजी सेना का पंजाब में बने रहना स्वीकृत हुआ और इसके लिए 22 लाख प्रतिवर्ष सिक्ख अंग्रेजों को देंगे। इस प्रकार लाहौर में अंग्रेज रेजिडेंट का राज्य कायम हुआ जिसे समस्त सैनिक असैनिक शक्तियाँ सौंप दी गई। जब रानी जिन्दल ने इस पर आपत्ति की तो उसे 20 अगस्त 1847 को गवर्नर जनरल की घोषणा के अनुरूप शेखपुरा भेज दिया गया और उसका भत्ता 48 हजार रूप्ये वार्षिक निश्चित कर दिया गया।
लार्ड डलहौजी एक साम्राज्यवादी व्यक्ति था। वह भारतीय प्रांतों को मिलाने का कोई भी अवसर खोना नहीं चाहता था। पंजाब पर पुः आक्रमण का अवसर मुल्तान के गवर्नर मुलराज के विद्रोह से उसे मिला। 1846 में ब्रिटिश रेजीडेंट के कहने पर मूलराज को 20 लाख रूपया नजराना देने को कहा गया और रानी नदी के उत्तर का प्रदेश लाहौर दरबार को सौंप देने को कहा गया। इसके साथ ही मुलतान प्रांत ने इसे अस्वीकार करते हुए दिसम्बर 1847 में अपना त्याग पत्र दे दिया। मार्च 1848 में नये ब्रिटिश रेजीडेंट फ्रेडरिक क्यूरी ने काहन सिंह को 30 हजार रूपये वार्षिक वेतन पर नया गवर्नर नियुक्त कर के मुलतान भेंज दिया। और दो अधिकारी उसके कार्य भार लेने में सहायता करने के लिए उसके साथ भेजे गये। इन दोनों अधिकारियों की हत्या कर दी गई। मूलराज के विद्रोहियों का नेतृत्व संभालने के साथ ही सारे पंजाब में अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह फैल गया। हजारा प्रांत के सिक्ख गवर्नर चतरा सिंह ने अगस्त में विद्रोह कर दिया। शेर सिंह जिसे मुल्तान विद्रोह शांत करने के लिए भेजा गया था, वह अपनी सेना सहित विद्रोहियों के साथ शामिल हो गया। पेशावर को अफगानों को देकर सिक्खों ने अंग्रेजों के विरूद्ध उनकी मित्रता हासिल कर ली तथा अंग्रेजों से संघर्ष करने के लिए उचित अवसर की प्रतीक्षा करने लगे।
अंग्रेज भी क्रांति का सारे प्रांत में फैल जाने का इंतजार कर रहे थे ताकि उन्हें पंजाब को साम्राज्य में विलय करने का उचित बहाना मिल सके। अक्टूबर 1848 को डलहौजी ने सिक्ख शक्ति को पूर्णतया समाप्त करने का निश्चय किया तथा उसने यह कहते हुए कि पूर्व चेतावनी के बिना तथा अकारण ही सिक्खों ने युद्ध की घोषणा कर दी है, युद्ध घोषित कर दिया।
16 नवम्बर 1848 को जनरल हयू गाफ की सेनाने रावी पार की तथा सिक्खों से रामनगर नामक स्थान पर एक अनिर्णायक युद्ध लड़ा। जनवरी 1849 ई0 मुलतान का पतन हो गया। चिलियानवाला के युद्ध में अंग्रेजों को भारी क्षति उठानी पड़ी। चार्ल्स नेपियर के नेतृत्व में अंग्रेजी सेना गुजरात नामक स्थान पर जिसे तोपों का युद्ध कहा जाता है, निर्णायक युद्ध लड़ा जिसमें समस्त सिक्ख सेना पराजित हुई। लार्ड डलहौजी 29 मार्च 1849 को पंजाब को ब्रिटिश राज्य में मिलाये जाने की घोषणा कर दी।
‘‘यह इतिहास में एक ही उदाहरण है जिसमें एक संरक्षक अपने अवगुणों को अपने ही वार्ड पर लादा।‘‘ (जे0 सलीवान)
प्ंजाब को ब्रिटिश साम्राज्य का अंग बनाना एक बहुत ही क्रुर और अन्यायपूर्ण कार्य था। महाराजा ब्रिटिश सरकार के प्रति अंत तक वफादार बना रहा था। उसकी वीजेंसी कौंसिल भी वफादार रही थी। आठ में से एक सदस्य राजा शेर सिंह को छोड़ कर सारे सदस्य अंग्रेजों के कहे अनुसार कार्य करते थे। लाहौर सेना के एक बड़े भाग ने ब्रिटिश सरकार का ही साथ दिया था। इसके अतिरिक्त भैरोवाल की संधि के अनुसार पंजाब का प्रशासन रेजीडेंट के अधीन था। वही सभी सिविल और प्रशासनिक कार्य राजा के नाम पर करता था। सिक्ख सेना ने विद्रोह किया था। सिक्ख सेना ने विद्रोह किया था न कि महाराजा अथवा संरक्षक समिति ने। महाराज के संरक्षक के रूप में अंग्रेजी रेजीडेंट का उत्तरदायित्व था कि वह विद्रोह को दबाता। इस विद्रोह का उत्तरदायित्व महाराजा पर था ही नही ंतो उस विद्रोह के कारण महाराजा के प्रदेश को छीन लेना न्यासंगत नहीं था। कम्पनी उत्प वयस्क महाराज के संरक्षक के रूप में कार्य कर रही थी और उसका अपने रक्षित व्यक्ति के प्रदेश को सम्मिलित करने का कोई औचित्य नहीं था। जब डलहौजी ने यह घोषणा की कि पंजाब का राज्य अंग्रेजों के विरूद्ध लड़ रहा है तो फ्रेडरिक क्यूरी स्तब्ध रह गया क्योंकि पंजाब का प्रशासक स्वयं एक अंग्रेज था और कम्पनी की ओर से कार्य करता था।
पानीपत का तीसरा युद्ध मराठा साम्राज्य की सुदृढता के लिए हानिकारक सिद्ध हुआ, लेकिन मराठों को सर्वाधिक क्षति 18 नवम्बर 1772 मे पेशव माधवरानकी मृत्यु से हई। इस मृत्यु ने मराठा राजनीतिक को छिन्न- भिन्न कर दिया तथा राजनीतिक षडयंत्र को जन्म दिया । अब अंग्रेज मराठों के मामले में निर्णायक भूमिका निभाने लगे। नारायान राव के पेशवा बनते ही उसके चाचा रघुनाथ राव ने अपनी महत्वकाक्षीओं की हवा दी और सत्ता हथियाने के लिए कुटि ल चाल चलने की और अग्रसर हुआ। पेशव नाराज होकर रघुनाथ राव को कुंछ समय के लिए बंदी बना लिया। लेकिन 30 अगस्त 1773 को सुमेर सिंह द्वारा नारायण राव को हत्याकर देने पर मराठा राजनीति गर्म हो गई। इसी समय पेशवा नारायण राव की पत्नी गंगाबाई ने शासन कार्य सभांल लिया तथा बाराभाई के दल ने रघुनाथ राव को पद्च्यूत कर पेशवा के नवजात शिशु सवाई माधव राव को पेशवा नियुक्त किया तथा रघुनाथा राव को स्थिति गैर कानूनी बना दी । फड़नवीस के सम्मुख अपने को प्रभावहीन पाकर रघुनाथ राव ने कम्पनी से सहायता मांगी। बम्बई सरकार से लसिर और बझीन प्राप्त करना चाहती है, रघुनाथ राव सूरत अंग्रेजो की भरण में आ गया। यद्य़पि बंगाल सरकार को नम्रता से काम लेने का आदेश दिया तथा रघुनाथ राव के षडयंत्र को प्रोत्साहित करने की नीति को अनुचित और अराजनीतिक ठहराया फिर भी बम्बई सरकार ने 8 मार्च 1775 ई0 को रघुनाथ राव के साथ सूरत की संधि को संधि को शर्तो के अनुसार 1. कम्पनी एवं पूर्व पेशवा के बीच हुई संधियों को प्रमाणित किया गया 2. अंग्रेजो ने रघुनाथ राव को पेशवा का पद दिलाने का वायदा करते हुए 2500 सैनिकों का दल भेजने की स्वीकृति प्रदान की 3. रघुनाथ राव द्वारा अंग्रेजो के संरक्षण में 6 लाख रूपये के जटने बंधक रखे गये तथा सैनिकों के रखरखाव के लिए प्रतिवर्ष 50 हजार रूपये देने का वायदा किया गया। 4. रघुनाथ राव वेसिन साल्सेट और बम्बई के पास के चार द्वीपों को हमेशा के लिए सौपने को तैयार हो गया। 5.यह भी तय हुआ कि बंगाल और कर्नाटक पर मराठों द्वारा आक्रमण नही किया जाएगा। बिना अंगेजो की सहायता से राघोवा पूना के अधिकारियों से कोई समझौता नहीं करेगा।
संधि के पश्चात अंग्र्रेजो ने साल्सेट पर शीघ्र ही अधिकार कर लिया तथा कर्नल कीटिंग के नेतृत्व में एक सेना रघुनाथ राव की सहायता के लिए सूरत भेज दिया। बम्बई सरकार के कार्यों से कलकत्ता के अधिकारी काफी नाराज हुए। इसके दो कारण थे - 1. सात्क्षेर पर अधिकार का समाचार उसे विलम्ब से पहुचाया गया और 2. बम्बई सरकार की नीति मराठों के साथ पारस्परिक मित्रतापूर्ण सम्बन्धों के विपरीत थी। कलकत्त स्थित अधिकारियों को भय था कि इससे मराठों के साथ लम्बा संघर्ष छिड़ जाएगा जिससे उनकी आर्थिक स्थिति डॉवाडोस हो जाएगी तथा प्रशासनिक पुनर्गठन सम्बन्धी कार्यों में बाधा उपस्थित होगी। साथ ही अंतर्राष्ट्रीय परिस्थितियाँ ऐसी बन गई थी कि इंग्लैंड से किसी प्रकार के सहायता की आशा करना व्यर्थ था। फलतः बम्बई सरकार को शीघ्र ही सैनिक कार्यवाहियों को बन्द करने का आदेश दिया गया तथा कर्नल उपटन को बाराभाई के दल से एक संधि करने के लिए पुना दरबार भेजा गया। इस समय मराठों की स्थिति अच्छा नहीं थी, उन्हें पश्चिम में अंग्रेजों से युद्ध का भय बना हुआ था तथा दूसरे तरफ हैदरअली मराठा क्षेत्रों पर लगातार आक्रमण कर उन्हें क्षति पहुँचा रहा था। फलतः 1 मार्च 1776 ई0 को दोनों के मध्य पुरन्दर की संधि हुई। संधि के अनुसार कम्पनी को साल्सेट एवं उसके आत्म न्याय के द्वीपों पर अधिकार कायम रखने की मंजूरी मिली। इसके अतिरिक्त गुजरात के उन क्षेत्रों पर उनका अधिकार कायम रखा गया जो उन्हें रघुनाथ राव या गग्यकवाड द्वारा प्राप्त किये थे। मराठों को 12 लाख रूपये युद्ध क्षतिपूर्त्ति के रूप में देने थे। बदले मे अंग्रेजो ने राघोवा का पक्षन लेने का वायदा किया। यह भी तय हुआ कि रघुनाथन राव पेशवा सरकार से 25 हजार मासिक पेशन पाकर गुजरात में केंपर गाँव चला जाएगा तथा सक्रिय राजनीति छोड़ देगा। इस संधि से सुरत की संधि रद्छ घोषित की गई।
प्रथम-आंग्ल- मराठा युद्ध बम्बई सरकार को पुरन्दर की संधि मंजूर नहीं थी, उन्होने इसके विरूद्ध कोर्ट ऑफ डायरेक्टर्स में अपील की। डायरेक्टरों ने दोतरफानीति अपनाई, एक तरफ बम्बई सरकार की नीति का समर्थन किया दुसरी तरफ वारेन हेस्टिग्स को स्वतंत्र निर्णय करने का अधिकार भी दें दिया तथा पुरून्दर की संधि को अस्वीकार कर दिया। 1774 में अमेरिकी स्वतंत्रता संघर्ष में फ्रांसीसियों ने अमेरिकीयाँ की सहायता की फलतः दोनों भक्तियाँ भारत में भी टकराने लगी। एक फ्रासीसी अपनी सेना लेकर पुना पहुँच गया फलतः हेंस्टिग्स ने गोडार्ड के नेतृत्व में एक सेना बम्बई की सहायता के लिए पुना भेज दिया। इस अवसर पर बम्बई परिषद ने सुरत की संधि को पुनर्जीवित कर दिया औ कॉकबर्न को रघुनाचराण को पुनः गद्दी पर बैठाने के लिए भेज दिया। जनवरी 1779 को पश्चिमी घाट में तेलीगाँव में ब्रिटिश सेना की बुरी तरह हार हुई तथा बड़गाँव की संधि हुई। इसके अनुसार 1773 के पश्चात अंग्रेजो ने सभी विजित प्रदेश लौटाने का वचन दिया यह संधि अंग्रेजो के िए बहुत अपनमानजनक की, इसे स्वीकृति नहीं मिली तथा वारेन हेस्टिंग्स ने युद्ध जारी रखा, और दो सैनिक दल भेजा। जर्नल गोडार्ड को पूना पर अभियान करने के लिए तथा कैप्टन फोफम को ग्वालियर पर अधिकार करने के लिए नियुक्त किया गया। गोडार्ड ने 1780 ई0 मेंं अहमदाबाद पर अधिकार कर लिया गुजरात को रौद दिया तथा गायकवाड़ को अपनी तरफ मिला किया, लेकिन उसका पूना अभियान असफल रहा जिसमें चलते उसे वापस लौटना पड़ा। फोफम की सेना ने कई झड़प् में ग्वालियर की सेना को पराजित किया और अगस्त 1780 ई0 में ग्वालियर दुर्ग जीत लिया। इस पराजय के बाद सिंधिया मराठों और अंग्रेज के बीच मध्यस्थ की भूमिका में आ गया। 17 मई 1782 को पेशवा माधव राव के कार्यवाहक मंत्री महादजी सिंधिया एवं अंग्रेजो के बीच प्रथम आंग्ल- मराठा युद्ध समाप्त करते हुए ग्वालियर से 32 किमी0 दूर सालबाई नामक गाँव में एक संधि हुई। जिसकी शर्त्तो थीः-1. कम्पनी द्वारा अधिकृत किए गये पेशवा एंव गुजरात में गायकवाड के सभी क्षेत्र वापस कर दिए गये। 2.साल्सेट ओर इसके तीन पड़ोसी द्वीप और भड़ौच शहर अंग्रेजो के अधिकार में रखे गये 3. कम्पनी द्वारा रघुनाथ राव को दिए गये सम्पूर्ण क्षेत्र मराठो को वापस कर दिए गये 4.पेशवा को हैदर अली द्वारा ब्रिटिश पर किए गये दावे से मुक्त कर दिया गया 5. दोनों पक्षो द्वारा एक दूसरे पर और सहयोगियों पर आक्रमण नहीं करना तय हुआ 6. अंग्रेजो की अनुमति के बिना पेशवा किसी भी यूरोपीय शक्ति अपने क्षेत्रो में संरक्षण नही देगा 7. कम्पनी को प्राप्त व्यापारिक सुविधायें जारी रहेगी।
इस संधि के पश्चात अंग्रेजो ने रघुनाथ राव का साथ छोड़ दिया तथा माधव नारायन राव को पेशवा स्वीकार कर लिया, राघोवा को पेंशन दे दी गई। इस ंसंधि स ेअब पूर्व स्थिति स्थापित हो गई। कम्पनी अब मैसूर के मामले में स्वतंत्र हो गई। यह संधि कम्पनी के लिए काफी महत्वपूर्ण साबित हुई क्योंकि इससे कम्पनी एवं नियर्णक भविष्य की और अग्रसर हुई। इसके साथ ही कम्पनी की मराठों के साथ 20 वर्षो तक शांति व्यवस्था बनी रही और इस तरह बिना किसी कठिनाई के व्यवस्थित होने एवं भारतीय राजनीति में पकड़ बनाने में सहायता मिली
द्वितीय अांग्ल- मराठा युद्ध 1803-06 ई0
आंग्ल मराठा संघर्ष का दूसरा दौर फ्रांसीसियों आक्रमण के भय से शुरू हुआ। वेलेजली अपनी साम्राज्यावादी नीति के कारण समस्त भारतीय राजाओं की कम्पनी पर निर्भरता सुनिश्चित करना चाहता था। उसने मराठो पर सहायक संधि प्रणाली पर हस्ताक्षर के लिए दवाब बढ़ाया लेकिन मराठों नें ऐसा करने से इंकार कर दिया। 1800 ई0 में नाना फड़नवीस की मृत्यु से कर्नल पामर के अनुसार मराठों की सुझ-बुझ समाप्त हो गई। फड़न वीस अंग्रेजी हस्तक्षेप का परिणाम जानते थे और उन्होने मराठों को सहायक संधि से दूर रखा। अब बेलेजली को एक अवसर दिखाई दिया उसने मराठों के आपसी संघर्ष को हवा दी तथा मराठा सरदारों के व्यक्तिगत हितों को उफसाना प्रारम्भ कर दिया। इस समय मराठे आपसी ज्वलनशीलता एवं प्रतिदिन के झगड़े से कमजोर हो गये थे। पेशवा एक दुर्बल शासक था। पुना दरबार दौलतराव सिंधिया और यशवंतराव होल्कर के बीच प्रुमुख के लिए संघर्ष का अखाडना चुका था।
पेशवा का समर्थन पाकर सिन्धियाँ ने होल्कर की दबाने का प्रयत्न किया तथा होल्क्र के भतीजे विठोजी की हत्या कर दी। सिन्धिया के साथ हुए युद्ध में मल्हार राव होल्कर मारा गया। इसके बाद पेशवा ने एक निकम्मे व्यक्ति काशीराव को होल्कर घराने का प्रधान नियुक्त किया। यशवन्त राव होल्कर ने सिन्धयो क्षेत्र पर आक्रमण कर दिया। मालवा क्षेंत्र में गृह युद्ध शुरू हो गया जिससे उज्जैन और इंदौर को काफी हानि उठानी पड़ी। यशवन्त राव होल्कर 25 अक्टूबर 1802 को दिवाली के दिन महाराष्ट्र पहुँचा। हउंसपुर के युद्ध में होल्कर ने पेशवा और सिन्धिया की संयुक्त सेना को पराजित किया। पुना में दौलत राव सिधियां की अनुप स्थिति ने पेशवा के मन में यह भय पैदा की कि अब होल्कर अपने भाई विढोजी की हत्या का बदला लेगा। अतः वह अपनी जान बचाने के लिए बसीन भाग गया होल्कर रघुनाथ राव दके पुत्र विनायकराव को गद्दी पर बैठाकर वापस चला गया। पेशवा ने अंग्रेजो का संरक्षण स्वीकार कर लिया तथा 13 दिसम्बर 1802 को वसीन की संधि को जिसमें पेशवा ने लगभग अपना एवं अपने लोगों की स्वतत्रता के साथ ही समझौता लिया। शर्त्तो की 1. पेशवा ने अंग्रजो संरक्षण स्वीकर कर भारतीय तथा अंग्रेज पदातियों की सेना जिसमें 600 सैनिक होने थे, पूना में रखना स्वीकार कर लिया और उसी अनुपात में तोपखाने रखने थे जिसके रखरखाव पर 25 लाख रूपये व्यय होना था। इसके साथ ही यह लय हुआ कि पेशवा अंग्रेजो के किसी भी विरोध विदेशी नागरिक को अपनी सेना में नही रखगी। 2. किसी भी राज्य के साथ अपने मतभेदों को सुलझाने से पूर्व कम्पनी का आदेश लेना अपरिहार्य था। निजाम एवं गायकवाड के साथ अपने मतभेदों को दूर करने में अंग्रेजो के मध्यस्थता आवश्यक थी। 3. पेशवा ने गुजरात, ताप्ती, नर्मादा के मध्यक के प्रदेश तथा तुगभद्रा नदी के सभी समीवर्ती प्रदेश जिसकी आय 26 लाख रूपये की , कम्पनी को दे दिया । 4. पेशवा ने सूरत पर से अपनी सभी अधिकार एंव दावे वापस के लिए 5. पेशवा ने निजाम से चौथ प्राप्त करने का अधिकार छोड़ दिया तथा गायकावाड़ के साथ कभी युद्ध न करने का वचन दिया। तथा 6. अपने विदेशा मामले कम्पनी के अधीन कर दिये।
विद्वानों के अनुसार बसीन की संधि शून्य के साथ की गई संधि थीं। वास्तव में इस समय पेशवा की स्थिति शून्य जैसी थी, पेशवा नाम मात्र का मराठा प्रधान था। वास्तविक शक्ति सिन्धिया भोसले और होल्कर के हाथ में थी जो अभी भी अंग्रेजो में लिए चूनोती पने हुए थे। फिर भी इस संधि से अंग्रेज बहुत से राजनैतिक लाभ हुए। पुना में अंग्रेजो प्रभुत्व कायम हुआ और मराठा संघ का प्रमुख सहायक संधि के बंधन में बंध गया जिससे उसके अधिनस्थ शक्तियाँ की स्थिति न्यून हो गई। पेशवा े अपनी विदेश नीति अंग्रेजो के अधीन करके वह उन युद्धो के भार से मुक्त हो गया जिसमें वह अवसर उलझा रहता था। उसने हैदराबाद, लखनऊँ तथा पूना जो भारत के मुख्य केन्द्रीय भाग के, वहाँ सहयक सेना तैनात कर दी गई, जहाँ से भारत के किसी भाग में वह आसानी से पहुँच सकती थी। इस प्रकार सिडनी ओवने के विचार यथार्थ प्रतीत होता है कि ‘‘ बेसीन की संधि से पूर्व भारत में एक अंग्रेजो साम्राज्य का अब वह भारत का अंग्रेजी साम्राज्य हो गया। इस संधि ने प्रत्यक्ष और परोक्ष कामों द्वारा कम्पनी को भारत का साम्राज्य दे दिया। निसंदेह इस संधि से मराठा संघ अब ब्रिटिश संरक्षण मं आ गया। मराठा राज्याओं की औशिक रूप से स्वतंत्र थे तथा पेशवा के सामंत थे और पेशवा स्वयं अंग्र्रेजो की अधीनता में आ गया।
बसीन की संधि में द्वितीय आंग्ल मराठा संघर्ष के बीच, मौजूद थे। सिन्धिया पूना में अपनी शक्ति खो जाने पर क्रोधित था, पेशवा स्वयं अपनी मूर्खतपूर्ण कार्यनही से चकित था। अतः उसने गुप्त रूप् से सिन्धियों को अंग्रेजो के विरूद्ध युद्ध करने कें लिए प्रेरित करने लगा।मराठों कें लिए यह संधि एक राष्ट्रीय अपमान था । भोसलें भी अंग्र्रेजो के खिलाफ संघर्ष करने के लिए उत्तारव था। लेकिन इस समय भी गायकवाड और होल्कर अलग रहे तथा समय भी गायकवाड और होत्तारव था। लेकिन इस समय भी गायकवाड और होल्कर अलग रहे तथा समय भी गायकवाड और होल्कर अलग रहे तथा पेशवा इस युद्ध का दर्शन मात्र रहा।
द्वितीय आंग्ल मराठा युद्धः- यह युद्ध दो अवस्थाओं में लड़ा गया। प्रथम अवस्था में सिधियों और भोसले पराजित किये गये तथा दूसरी अवस्था में होल्कर की शक्ति को कुचलने का प्रयास किया गया। सिंधियों को उसके यूरोपीय अफसरों ने धोखा दिया, अंग्रेज अफसरो ने युद्ध से पहले ओैर फ्रांसीसियों ने युद्ध के मध्य उसे छोड़ दिया। 23 सितम्बार 1803 को औरगाबाद के निकट असाई नामक गाँव में सिन्धियों और भोसले की संयुक्त सेना पराजित हुई। 27 नवम्बर 1805 को अरागाँव के निकट भोसले एक बार फिर पराजित हुआ। इस समय अंग्रेजो सेना का सेनापति आर्थर वेलेजली था। उत्तर भारत मे ब्रिटिश सेनापति ले जाने अलीगढ दिल्ली और आगरा पर अधिकार कर लिया और लासवाड़ी नामक स्थान पर सिन्धियों की सेना को पूर्ण से पराजित कर दिया। इस पराजय के भयभीत होकर सिन्धियों और भोसले दोनो संधि करने के लिए प्रस्तुत हुए। फलतः 17 दिसम्बर 1803 को देवगाँगव की संधि भोसले और अंग्रेजो के बीच तथा 30 दिसम्बर 1803 को सुर्जी अर्जुंन गाँव की संधि सिन्धियों ओर अंग्रेजो बीच हुई।
देवगाँव की संधि द्वारा भोसले से कटक एवं बालासोर का प्रदेश अंग्रेजो को प्रदान किया। इसके अतिरिम मद्रास एवं बंगाल प्रेसीडेन्सियो को मिलाने के लिए पूर्वी समुद्री किनारे का क्षेत्र कम्पनी को सौप दिया। निजाम एवं पेशवा के साथ अपने मतभेदो को सूलझाने के लिए अंग्रेजो की मध्यस्थता स्वीकार कर ली तथा मराठा राजनीति से अपने सिन्धियों ने गंगा यमुना के बीच के क्षेत्र. और दिल्ली आगरा और अन्य राजपूत राज्य पर अपना नियंत्रण हटा लेने के लिए राजी हुआ तथा ये क्षेंत्र और किले अंग्रेजो को सौप दिए गये। अहमदनगर का दुर्ग, भड़ौच, गोदा नही और अजन्ता घाट भी कम्पनी को दे दिया गया। दोनों राजाओं ने अपने यहाँ अंग्रेजो रेजीडेंट रखने की स्वीकृती दे दी।
अप्रैल 1804 में होल्कर और कम्पनी के बीच संघर्ष छिड़ गया। होल्कर ने जब जयपुर पर आक्रमण किया तो उसके विरूद्ध युद्ध की घोषणा की कर दी गई क्योकि यह रियासत ब्रिटिश नियंत्रण में थी। होल्कर ने छापामार युद्धनीति का सहारा लेते हुए कर्नल मानसन का राजपूताना तक पीछा किया लेकिन शीघ्र ही उसकी सेनाएं फर्रूखाबाद और दीग नामक स्थान पर पराजित हुई। इस समय भरतपुर का राजा होल्कर की सहायता कर रहा थां। जनवरी 1805 मे लेक ने भरतपूर में किले पर अधिकार करने का प्रयन्त किया, लेकिन वह सफल नही हो सका। इसी बीच वेलेजली वापस चला गया तथा सर जार्ज वार्लो ने होल्कर के साथ राजपूर घाट की संधि की। होल्कर ने बुंदी हिल के उतरी क्षेत्रों पर से अपना दावा वापस ले लिया तथा कम्पनी द्वारा अधिकृत ताप्ती नदी के दक्षिण का प्रदेंश वापस कर दिया। मालवा और मेवाड़ में होस्कर का अधिकार मान लिया गया। इस प्रकार इस संधि से द्वितीय-आंग्ल-मराठा युद्ध का समापन हुआ। इस युद्ध में मराठों को तो पूरी तरह कुचला नहीं जा सका, लेकिन उनकी शक्तियाँ आवश्य कम हो गई।
तृतीय-आंग्ल-मराठा युद्ध (1857-18) :- इस संघर्ष का प्रारम्भ हेस्टिंग्स के आने पर प्रारम्भ हुआ। वह भारत में अंग्रेजों को सर्वश्रेष्ठ शक्ति के रूप में स्थापित करना चाहता था। गायकवाड तथा पेशवा ने पहले ही ब्रिटिश अधीनता स्वीकार कर ली थी, परन्तु पेशवा अब स्वतंत्र होना चाहता था। त्रियम्बकजी के नेतृत्व में पेशवा ने अंग्रेजों के साथ एक बार पुनः युद्ध करने के लिए मराठा नेताओं को एकत्र करने के गुप्त प्रयत्न शुरू कर दिए। नागपुर का अणा साहिब भी अंग्रेजों से स्वतंत्रता की ईच्छा रखता। अतः दोनों के बीच संयुक्त आक्रमण करने की योजना बन चूकी थी। 1815 ई0 को नागपुर को सहायक संधि मानने, पेशवा को मराठा संघ के ऊपर प्रभुसत्ता के अपने क्षेत्र देने के लिए विवश किया गया। इस संघर्ष का एक अन्य कारण बड़ौदा के गंगाधर शास्त्री की हत्या थी। वह पेशवा से कुछ धार्मिक प्रश्नों पर वार्त्ता करने के लिए बड़ौदा से भेज गया था। इस हत्या में त्रियम्बक राव का हाथ बताया गया जिसे सौपने के लिए अंग्रेजों ने पेशवा से कहा। पहले पेशवा इसके लिए तैयार नहीं था, परन्तु काफी दबाव पड़ने पर उसने त्रियम्बकरख को अंग्रेजों को सौंप दिया। शीघ्र ही त्रियम्बक राव अंग्रेजों की कैद से भाग कर पेशवा से सैनिक गठजोड़ कर लिया जिससे पूना और कलकत्ता के सम्बन्ध तनावपूर्ण हो गये।
इतिहासकारों का मानना है कि ‘पिण्डारियों की खोज शीघ्र ही तृतीय आंग्ल-मराठा युद्ध में परिणत हो गई।‘ इस प्रकार लार्ड हेक्टिंग्स के पिंडारी आतंक को दूर करने के प्रयासों ने तृतीय मराठ युद्ध को जन्म दिया। 15 नवम्बर 1814 को लार्ड हेस्टिंग्स ने सिन्धिया को एक संधि करने के लिए विवश किया जिसके अनुसार सिन्धिया को पिण्डारी दमन में अंग्रेजों की सहायता करनी थी तथा राजपूत रियासतों से अपने दरवे वापस ले लेने थे। इसी दिन पेशवा ने पूना स्थित रेजींडेंसी फिरकी नामक स्थान पर स्थित ब्रिटिश छावनी पर आक्रमण कर दिया। इस संघर्ष में सिन्धियाँ और गायकवाड अलग रहे। पेशवा को किरकी नामक स्थान पर, भोंसले की सीतावर्डी के स्थान पर और होल्कर को महीदपुर के स्थान पर पराजय का सामना करना पड़ा। 13 जून 1818 ई0 को पेशवा ने जॉन माल्कम के सामने अपनी पराजय स्वीकार कर ली।
तृतीय आंग्ल-मराठा युद्ध के बाद पेशवा को गद्दी से हटाकर उसके अधिकार क्षेत्र पर कब्जा कर लिया गया तथा उसके क्षेत्रों को बम्बई प्रेसीडेंसी में मिला लिया गया। पेशवा को 80 हजार पौंड वार्षिक पेंशन देकर कानपुर के समीप बिदुर में भेज दिया गया। मराठा भावनाओं को संतुष्ट करने के लिए पेशवा की भूमि से सतारा राज्य की स्थापना की गई और शिवाजी के एक वंशज प्रताप सिंह को सतारा का राजा बनाया गया। लेकिन मराठों का शाही गौरव तो नष्ट हो चूका था
आंग्ल-सिक्ख सम्बन्ध
रणजीत सिंह की उपलब्धियाँ पंजाब में स्थाई सिक्ख राज्य की थापना में सहायक सिद्ध नहीं हो सकी। जून 1839 ई0 में उनकी मृत्यु के बाद पुत्र खड़कसिंह शासक बना। दूसरा दरवार संघा वालिया सरदार और डोंगरा बंधुओं के बीच प्रतिद्वन्द्विता का केन्द्र बन गया तथा पंजाब में अराजकता फैल गई। अंग्रेज अफगान युद्ध के समय पंजाब से सेना भेजने का दवाब राजा पर डाल रहे थे जिसे इसने स्वीकार कर लिया। इस कार्य से अप्रसन्न होकर उसके पुत्र नौनिहाल सिंह ने महाराज के विरूद्ध बगावत कर दी और सारी शक्ति अपने हाथ में केन्द्रित कर ली। नौनिहाल सिंह जल्दी ही मार डाला गया और शेर सिंह शासक बना। शेर सिंह के समय में अंग्रेज पंजाब को हड़पने की तैयारी करने लगे। शेर सिंह का अपने योग्य प्रधानमंत्री ध्यान सिंह से नहीं पटी। संघावालिया गुट जो अंग्रेजों की हाथ की कठपुतली थे, ने राजा और मंत्री दोनों की हत्या कर दी। इसके बाद ध्यान सिंह का पुत्र हीरा सिंह के हाथों में सिक्ख शक्ति आ गई। उसने रणजीत सिंह के नाबालिक पुत्र दलीप सिंह को महाराजा बनाया तथा पंजाब में सुव्यस्थित शासन की स्थापना की जो अंग्रेजों के पंसंद नहीं था। फलतः उन्होंने विभिन्न सरदारों के महत्वाकांक्षाओं को उभरा तथा पंजाब में गृह युद्ध को जन्म दिया। इस समय खालसा सेना राज्य की सर्वोच्च शक्ति बन चुकी थी। केन्द्रीय शक्ति को छिन्न-भिन्न होते देख सेना ने पहले ही प्रजातंत्रीय आधार पर रेजीमेंटों की कमेटियों की स्थापना कर ली थ्ज्ञी। इन कमिटियाँ की स्थापना कर ली थी। इन कमेटियों ने न केवल प्रजातांत्रिक आधार पर अनुशासन कायम किया अपितु राज्य को आंतरिक और बाहरी संकटों के बचाने के लिए कार्य किया। इस समय तक ब्रिटिश खतरा पंजाब पर मँडराने लगा था।
प्रथम आंग्ल-सिक्ख युद्ध :- इस युद्ध का मुख्य कारण अंग्रेजों द्वारा पंजाब को हड़पने की लालसा थी। अंग्रेज पंजाब को अपने साम्राज्य में इसलिए मिलाना चाहते थे कि उनके साम्राज्य का सीमा विस्तार अफगानिसन तक हो सके। रणजीत सिंह के समय से ही पंजाब विलय प्रश्न ब्रिटिश अधिकारियों के बीच चिंतन का विषय बन चुका था। अफगानिस्तान अभियान की सफलता के बाद काबुल स्थित ब्रिटिश रेजीडेंट मैकनाटन ने गर्वनर जनरल के समक्ष सिक्ख भूमि के कुछ क्षेत्रों जैसे पेशावर पर ब्रिटिश सरकार का अधिकार स्थापित करने की योजना रखी थी। परन्तु अफगान युद्ध की असफलता के बाद लार्ड ऐलनबरों ने सिक्खों को भयभीत करने के उद्देश्य से फिरोजपुर के स्थान पर एक विशाल सैनिक प्रदर्शन करवाया। उसका विचार था कि शीघ्र ही आंग्ल-सिक्ख युद्ध प्रारम्भ हो जाएगा। मेरठ के अड्डे को मजबूत बनाया गया। उसने बहुत सारी नावों के लिए भी बम्बई आदेश भेजा गया ताकि फिरोजपुर के निकट सतलुज के ऊपर नावों के पुल बनाया जा सके। इस तैयारी को लार्ड हार्डिंग्स ने भी जारी रखी थी। इन समस्त कार्यवाही से सिक्खों के मन में भय उत्पन्न हो गया।
2. लुधियाना में स्थित ब्रिटिश रेजीडेंट ब्राउफुट ने सतलुज के पार के भागों में हस्तक्षेप बढ़ा दिया। वह सिक्खों को अपने उत्तेजक कार्यवाहियों से भड़काना चाहता था ताकि वे युद्ध शुरू करे। उसने सतलुज पार क्षेत्रों से ऐसा व्यवहार करना शुरू कर दिया जैसा कि वे अंग्रेजी अधिकार में हो। यह अमृतसर की संधि 1809 के बिल्कुल विपरीत था। उसने लाहौर दरबार के अधिकारियों के साथ भी क्रुर और अमानवीय व्यवहार शुरूकर दिया क्योंकि ये अधिकारी सतलुज पार के क्षेत्रों में सुव्यवस्था स्थापित करना चाहते थे, जिससे लाहौर दरबार अंग्रेजों से रूष्ट हो गया था।
3. सुचेत सिंह के खजाने पर अधिकार को लेकर ब्रिटिश अधिकारियों तथा लाहौर दरबार के बीच तनाव उत्पन्न कर दिया। ध्यान सिंह और गुलाब सिंह के छोटे भाई राजा सुचेत सिंह ने फिरोजपुर के स्थान पर गुप्त रूप से लगभग 15 लाख को रखा हुआ था। उसकी मृत्यु के पश्चात लाहौर दरबार ने दो कारणों से उस खजाने पर अपना अधिकार जताया। 1. यह कोष एक ऐसे सामंत का था जिसका कोई पुरूष उत्तराधिकारी नहीं था, अतः उस पर सरकार का स्वाभाविक अधिकार था। 2. सूचते सिंह राजा का विरोध करता हुआ मारा गया था, इसलिए उसकी सम्पत्ति का जब्त किया जाना उचित ही था। परन्तु ब्रिटिश सरकार ने यह खजाना लाहौर दरबार को देने से इन्कार कर दिया।
4. फिरोजपुर स्थित सतलुज नदी के टापू पर, जो सिक्खों के अधिकार में था, अंग्रेजों ने अधिकार कर लिया। यह कार्यवाही दो मित्रों के बीच मित्रतापूर्ण व्यवहार के विरूद्ध कार्य था।
5. मोरेन के गाँव को लेकर सिक्खों और अंग्रेजों के बीच संबंध तनावपूर्ण हो गये। 1819 में नामा के राजा जसवंत सिंह ने मोरेन गाँव रणजीत सिंह को दिया था। रणजीत सिंह ने उसे धन्ना सिंह को जागीर के रूप में प्रदान कर दी थी। 1743 ई0 में धन्ना सिंह से नाराजगी के कारण नामा के राज देवेन्द्र सिंह ने गाँव वापस ले लिया तथा उसकी सम्पत्ति को लूट लिया। लाहौर दरबार के विरोध पर भी अंग्रेजों ने नामा के राजा के कार्य को ठीक बतलाया।
6. 1843 ई0 में मेजर ब्राड फुटने घोषणा की कि सतलुज के पार की सभी रियासतें कम्पनी के न केवल संरक्षण में है अपितु महाराज दलीप सिंह की मृत्यु पर ये सब जब्त हो जाएगी। उसने आनन्दपुर के सोढ़ी जो गुरूद्वारे का महंत था, के वंश के मामले में अनुचित हस्तक्षेप किया, उससे लाहौर में अप्रसन्नता थी। फीरोजपुर और सुल्तान के पास सीमाओं पर जो घटनायें हुई उनसे स्थिति और भी बिगड़ गई।
पी0 ई0 राबर्ट्स ने युद्ध का उत्तरदायित्व सिक्खों पर डालते हुए कहा कि रानी जिन्दल युद्ध छेड़ा क्योंकि रानी का संरक्षण इसी में था कि यदि खालसा सेना हार गई तो उसकी शक्ति समाप्त हो जाएगी और यदि जीत गई तो अनन्त प्रदेश उसके अधीन आ जाएगा और इस प्रकार दोनों ही स्थितियों में उसका स्वार्थ सिद्ध होता था। जिस समय युद्ध हुआ, उस समय स्वार्थी लोग राज्य का प्रशासन चला रहे थे और उनके पास कोई ऐसा सेनापति नहीं था जो समस्त सेना का नेतृत्व कर सके और सम्पूर्ण सेना उसकी बात माने। सिक्खों ने अंग्रेजों की युद्ध तैयारी का केवल यही तात्पर्य निकाला कि वे आक्रमण और युद्ध करना चाहते है। यदि वह युद्ध लड़ना चाहते है तो यह युद्ध अंग्रेजों के अधीन प्रदेश में होना चाहिए। फलतः 11 सितम्बर 1845 को लार्ड हार्डिंग ने युद्ध की घोषणा कर दी और यह कहा कि दलीप सिंह के राज्य का वह भाग जो सतलुज नदी के बायीं ओर है, वह आज से अंग्रेजी राज्य में मिलाया जाता है। सिक्ख सेना के प्रधान सेनापति लाल सिंह ने विश्वासघात किया और कैप्टन निकलस के पास संदेश भेजा कि यदि रानी जिन्दल को मित्र समझा जाएगा तो वह अपनी सेना को दो दिन के लिए रोक लगा। इस युद्ध में चार लड़ाईयाँ मुदकी, फीरोजशाह, बद्दोवाल और आलीवाल नायक स्थान पर लड़ी गई जिसका कोई परिणाम नहीं निकला। 10 फरवरी 1846 को सबराओं की लड़ाई निर्णायक साबित हुई। लाल सिंह और तेजा सिंह के विश्वासघात के कारण, जिन्होंने सिक्खों की खाईयों का भेद अंग्रेजों को बता दिया था और युद्ध से बिना लड़े भाग गये, से सिक्खों की पूर्णतया पराजय हुई। अंग्रेजी सेना ने लाहौर पर अधिकार कर लिया। फलतः 9 मार्च 1846 ई0 को सिक्खों को लाहौर की संधि पर हस्ताक्षर करने के लिए बाध्य होना पड़ा जिसकी शर्त्ते थी :-
महाराजा ने स्वयं और अपने उत्तराधिकारियों की ओर से सतलुज के पार के अपने समस्त प्रदेश सदैव के लिए छोड़ने का वायदा किया।
महाराजा ने सतलुज और व्यास नदियों के बीच स्थित सभी दुर्गो पर से अपना अधिकार पूर्णतया छोड़ दिया जिनपर अंग्रेजों ने अधिकार कर लिया था।
सिक्खों को डेढ़ करोड़ रूपया युद्ध के क्षतिपूर्त्ति के रूप में देना था, जिसमें से 50 लाख रूपया अपने कोष से दिया तथा शेष के बदले व्यास और सिन्ध नदियों के बीच पहाड़ी क्षेत्र, सभी अंग्रेजों के हाथों में सौंप दिया जिसें कश्मीर और हजारा के प्रांत भी शामिल थे।
महाराजा की सेना में 12 हजार पैदल सैनिक और 25 घुड़सवार दस्ते रखने की अनुमति दी गई, बाकी सेना तोड़ दी गई।
महाराजा को कोई यूरोपीयन अथवा अमेरीकी व्यक्ति अपनी सेवा में अंग्रेजों की अनुमति के बिना रखने की आज्ञा नहीं थी। अंग्रेजी सेना को सिक्ख राज्य में से गुजरने की खुली छुट प्रदान की गई।
अल्प व्यस्क दीप सिंह को महाराज स्वीकार कर लिया गया। तथा रानी जिन्दल को उसका संरक्षक तथा लाल सिंह को वजीर स्वीकार किया गया।
सर हेनरी लारेंस को लाहौर में कम्पनी का रेजीडेन्ट नियुक्त किया गया और उसने पंजाब आंतरिक मामले में हस्तक्षेप न करने का वचन दिया। दो दिन बाद सिक्खें के साथ एक एक पुरू संधि की गई जिसके अनुसार वजीर लाल सिंह के अनुरोध पर अंग्रेजी सेना 1846 के अंत तक लाहौर में बनी रहेगी ताकि लाहौर वासियों और महाराजा की रक्षा करती रहेगी। लाहौर का दुर्ग अंग्रेजी सेना के लिए खाली कर दिया गया। अंग्रेजी सेना के खर्च का भार लाहौर दरबार को उठाना था।
द्वितीय आंग्ल-सिक्ख युद्ध (1848-49)
लाहौर की संधि के बाद तुरंत ही लाल सिंह और रानी जिन्दल को अंग्रेजों का नियंत्रण बुरा लगने लगा। इस समय लारेंस ने लाहौर दरबार को आज्ञा दी कि कश्मीर राजा गुलाब सिंह को दे दिया जाय। लाल सिंह ने कश्मीर के गवर्नर इमामुद्दीन को ऐसा करने से मना कर दिया। इन पर अंग्रेजी सेना ने कश्मीर पर अधिकार कर लिया। एक जाँच अधिकरण नियुक्त लाल सिंह को दोषी ठहराया गया और उसे वजीर पद से मुक्त कर निर्वासित कर दिया गया। लाहौर का प्रशासन एक प्रतिनिधि मंडल को चलाना था जिसमें फकीरनुरूद्दीन तेजा सिंह, शेर सिंह तथा दीनानाथ शामिल थे।
लाहौर की संधि के अनुसार 1846 के अंत में अंग्रेजी सेना को पंजाब से लौट जाना था लेकिन लार्ड हाडिंग का मानना था कि महाराजा के अल्प वयस्क होने के कारण अंग्रेजी सेना कुछ और दिन वहाँ बनी रहे। लारेंस ने लालच और भय दिखाकर कुछ सरदारों को बाध्य किया कि वे अंग्रेजों से इस बात की प्रार्थना करे कि पंजाब में कुछ और दिन रहे। 16 दिसम्बर 1846 की भैशेवाल की संधि हुई सिक्खों और अंग्रेजों के बीच हुई जिसके द्वारा महाराजा के संरक्षण के लिए अंग्रेजी सेना का पंजाब में बने रहना स्वीकृत हुआ और इसके लिए 22 लाख प्रतिवर्ष सिक्ख अंग्रेजों को देंगे। इस प्रकार लाहौर में अंग्रेज रेजिडेंट का राज्य कायम हुआ जिसे समस्त सैनिक असैनिक शक्तियाँ सौंप दी गई। जब रानी जिन्दल ने इस पर आपत्ति की तो उसे 20 अगस्त 1847 को गवर्नर जनरल की घोषणा के अनुरूप शेखपुरा भेज दिया गया और उसका भत्ता 48 हजार रूप्ये वार्षिक निश्चित कर दिया गया।
लार्ड डलहौजी एक साम्राज्यवादी व्यक्ति था। वह भारतीय प्रांतों को मिलाने का कोई भी अवसर खोना नहीं चाहता था। पंजाब पर पुः आक्रमण का अवसर मुल्तान के गवर्नर मुलराज के विद्रोह से उसे मिला। 1846 में ब्रिटिश रेजीडेंट के कहने पर मूलराज को 20 लाख रूपया नजराना देने को कहा गया और रानी नदी के उत्तर का प्रदेश लाहौर दरबार को सौंप देने को कहा गया। इसके साथ ही मुलतान प्रांत ने इसे अस्वीकार करते हुए दिसम्बर 1847 में अपना त्याग पत्र दे दिया। मार्च 1848 में नये ब्रिटिश रेजीडेंट फ्रेडरिक क्यूरी ने काहन सिंह को 30 हजार रूपये वार्षिक वेतन पर नया गवर्नर नियुक्त कर के मुलतान भेंज दिया। और दो अधिकारी उसके कार्य भार लेने में सहायता करने के लिए उसके साथ भेजे गये। इन दोनों अधिकारियों की हत्या कर दी गई। मूलराज के विद्रोहियों का नेतृत्व संभालने के साथ ही सारे पंजाब में अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह फैल गया। हजारा प्रांत के सिक्ख गवर्नर चतरा सिंह ने अगस्त में विद्रोह कर दिया। शेर सिंह जिसे मुल्तान विद्रोह शांत करने के लिए भेजा गया था, वह अपनी सेना सहित विद्रोहियों के साथ शामिल हो गया। पेशावर को अफगानों को देकर सिक्खों ने अंग्रेजों के विरूद्ध उनकी मित्रता हासिल कर ली तथा अंग्रेजों से संघर्ष करने के लिए उचित अवसर की प्रतीक्षा करने लगे।
अंग्रेज भी क्रांति का सारे प्रांत में फैल जाने का इंतजार कर रहे थे ताकि उन्हें पंजाब को साम्राज्य में विलय करने का उचित बहाना मिल सके। अक्टूबर 1848 को डलहौजी ने सिक्ख शक्ति को पूर्णतया समाप्त करने का निश्चय किया तथा उसने यह कहते हुए कि पूर्व चेतावनी के बिना तथा अकारण ही सिक्खों ने युद्ध की घोषणा कर दी है, युद्ध घोषित कर दिया।
16 नवम्बर 1848 को जनरल हयू गाफ की सेनाने रावी पार की तथा सिक्खों से रामनगर नामक स्थान पर एक अनिर्णायक युद्ध लड़ा। जनवरी 1849 ई0 मुलतान का पतन हो गया। चिलियानवाला के युद्ध में अंग्रेजों को भारी क्षति उठानी पड़ी। चार्ल्स नेपियर के नेतृत्व में अंग्रेजी सेना गुजरात नामक स्थान पर जिसे तोपों का युद्ध कहा जाता है, निर्णायक युद्ध लड़ा जिसमें समस्त सिक्ख सेना पराजित हुई। लार्ड डलहौजी 29 मार्च 1849 को पंजाब को ब्रिटिश राज्य में मिलाये जाने की घोषणा कर दी।
‘‘यह इतिहास में एक ही उदाहरण है जिसमें एक संरक्षक अपने अवगुणों को अपने ही वार्ड पर लादा।‘‘ (जे0 सलीवान)
प्ंजाब को ब्रिटिश साम्राज्य का अंग बनाना एक बहुत ही क्रुर और अन्यायपूर्ण कार्य था। महाराजा ब्रिटिश सरकार के प्रति अंत तक वफादार बना रहा था। उसकी वीजेंसी कौंसिल भी वफादार रही थी। आठ में से एक सदस्य राजा शेर सिंह को छोड़ कर सारे सदस्य अंग्रेजों के कहे अनुसार कार्य करते थे। लाहौर सेना के एक बड़े भाग ने ब्रिटिश सरकार का ही साथ दिया था। इसके अतिरिक्त भैरोवाल की संधि के अनुसार पंजाब का प्रशासन रेजीडेंट के अधीन था। वही सभी सिविल और प्रशासनिक कार्य राजा के नाम पर करता था। सिक्ख सेना ने विद्रोह किया था। सिक्ख सेना ने विद्रोह किया था न कि महाराजा अथवा संरक्षक समिति ने। महाराज के संरक्षक के रूप में अंग्रेजी रेजीडेंट का उत्तरदायित्व था कि वह विद्रोह को दबाता। इस विद्रोह का उत्तरदायित्व महाराजा पर था ही नही ंतो उस विद्रोह के कारण महाराजा के प्रदेश को छीन लेना न्यासंगत नहीं था। कम्पनी उत्प वयस्क महाराज के संरक्षक के रूप में कार्य कर रही थी और उसका अपने रक्षित व्यक्ति के प्रदेश को सम्मिलित करने का कोई औचित्य नहीं था। जब डलहौजी ने यह घोषणा की कि पंजाब का राज्य अंग्रेजों के विरूद्ध लड़ रहा है तो फ्रेडरिक क्यूरी स्तब्ध रह गया क्योंकि पंजाब का प्रशासक स्वयं एक अंग्रेज था और कम्पनी की ओर से कार्य करता था।
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