ब्रिटिश काल में स्थानीय संस्थाओं का विकास


भारत में स्थानीय संस्थाएँ अंग्रेजी सरकार की देन है, वैसे तो प्राचीन भारत में स्थानीय संस्थाएँ मौर्य काल से ही प्रचलन में आ गई थी। आधुनिक भारत में पहली बार स्थानीय संस्थाएँ प्रेसीडेंसी नगरों में अस्तित्व में आई। 1687 ई0 में बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स ने मद्रास में नगर निगम बनाने की अनुमति दी थी। इस में अंग्रेज और भारतीय दोनों सम्मिलित किए गये और इन्हें कारीगरों के लिए हॉल, एक जेल, एक पाठशाला और नगरपालिका के लिए कर्मचारियों के वेतन आदि अथवा नगर की अन्य सुविधाओं, रक्षा आदि के लिए बनाने जानेवाले प्रयोजनों के लिए कर लगाने की अनुमति दी गई। मद्रास के महापौर ने चुंगी लगाने की अनुमति माँगी ताकि सफाई के लिए व्यय करने का प्रबंध किया जा सके। 1726 ई0 में महापौर के न्यायालयों की स्थापना की गई परन्तु महापौर काक कार्य अधिकतर न्यायिक था। इस प्रकार महौर के न्यायालय कलकत्ता और मुम्बई में भी स्थापित किए गये।
1793 ई0 के चार्टर में नागरिक संस्थाओं को वैधानिक आधार प्रदान किया गया। गवर्नर जनरलों को प्रेसीडेंसी नगरों में शांति स्थापित करनेवाले अधिकारियों की नियुक्ति का अधिकार दिया गया। इन शांति अधिकारियों को मकानों पर लगाने का अधिकार दिया गया, जो इन नगरों में किराया या किराया राशि का 5 प्रतिशत गृहशुल्क के रूप में लगा सकते थे। इस राशि का इस्तेमाल पुलिस, सफाई और सड़कों की मरम्मत आदि पर किया जाना था। 1840 से 1853 के मध्य स्थानीय करदाताओं को इन निगमों के सदस्य चूनने का अधिकार दिया गया। इसके अतिरिक्त 1872, 1876 और 1878 में इन निगमों में निर्वाचित तत्वों को लाने का प्रयास किया गया।
प्रेसीडेंसी नगरों के अतिरिक्त अन्य नगरों स्वायत्तशासी संस्थाओं का आरम्भ 1842 के बंगाल अधिनियम से किया गया जिसका उद्देश्य नगर में सार्वजनिक स्वास्थ्य, सफाई तथा अन्य सुविधाओं का विकास करना था। लेकिन ऐसी संस्थाओं का निर्माण किसी शहर में तभी किया जा सकता था जब नगर की 2/3 जनता इसके लिए प्रार्थना पत्र प्रस्तुत करती। 1850 में यह अधिनिमय समस्त ब्रिटिश क्षेत्र में लागु कर दिया गया। इसके साथ ही नगरपालिकाओं को अप्रत्यक्ष कर लगाने की अनुमति दे दी गई। इसके फलस्वरूप उत्तर-पश्चिम प्रांत के अनेक शहरों में नगरपालिकाएँ स्थापित की गई। पंजाब और मध्य प्रांत में निर्वाचित तत्वों की प्रमुखता प्रदान की गई। गाँवों में स्थानीय संस्थाओं के विकास को सुनिश्चित किया गया। सिन्ध प्रशासन ने स्थानीय संस्थाओं को भूमिकर तथा स्टाम्प शुल्क पर 6 1/4 प्रतिशत का अतिरिक्त कर लगाने का अधिकार दिया। मुम्बई और मद्रास प्रेसीडेन्सियों में इस प्रकार की व्यवस्था की गई। 1866 ई0 में मद्रास सरकार ने सड़क उपकर के रूप में भूमिकर पर 3 1/8 प्रतिशत उपकर की अनुमति प्रदान की। 1869 ई0 में बम्बई सरकार ने एक अधिनियम बनाकर प्रत्येक जिले में एक स्थानीय नीधि समिति बनाने की व्यवस्था की जिसका अध्यक्ष जिला कलक्टर होता था। ये समितियाँ कुछ उपकर लगा सकती थी और सार्वजनिक स्वास्थ्य, शिक्षा तथा अन्य स्थानीय आवश्यकताओं की देखभाल करती थीं।
भारत परिषद अधिनियम 1861 द्वारा वैधानिक विकेन्द्रीकरण की नीति आरम्भ की गई। वित्तीय कठिनाईयों के कारण सरकार ने प्रशासन का और भी विकेन्द्रीकरण किया और नगरपालिकाओं तथा जिला परिषदों के द्वारा स्थानीय शासन को प्रोत्साहन प्रदान किया गया औद्योगिक क्रांति के पश्चात यूरोपीय अर्थव्यवस्था और समाज काफी बदल चूका था। यूरोप के साथ भारत के बढ़ते सम्पर्को और आर्थिक शोषण की नई विधियों तथा साम्राज्यवाद के कारण भारत में भी अर्थव्यवस्था, शिक्षा और सफाई व्यवस्था में हुए विकास को लागू करना आवश्यक हो गया था। इसके अतिरिक्त भारत में राष्ट्रवादी आन्दोलनों की शुरूआत हो चूकी थी जिसकी प्रमुख माँग नागरिक जीवन को अधिक सुधारने की थी। फलतः जनता के लिए शिक्षा, सफाई व्यवस्था, जल की आपूर्त्ति सड़कें तथा अन्य नागरिक सुविधाओं की अधिकाधिक मांग हो रही थी। इसके अतिरिक्त अंग्रेजों की धारणा थी कि किसी न किसी रूप में प्रशासन के भारतीयों को जोड़ने से वे राजनीतिक रूप से असंतुष्ट नहीं होगे। भारत में सत्त पर अंग्रेजों के एकाधिकार को खतरे में डाले बिना भारतीयों को केवल स्थानीय संस्थाओं के स्तर पर ही जोड़ा जा सकता था।
भारत में वित्तीय विकेन्द्रीकरण नीति की शुरूआत लार्ड मेयों के प्रस्ताव से 1870 में हुई जिसके द्वारा कुछ विभागों का जिसमें शिक्षा, स्वास्थ्य सेवायें तथा सड़के शामिल थी प्रान्तीय सरकारों को सौंप दी गई। प्रान्तीय सरकारों को अपने बजट को नियंत्रित करने के लिए स्थानीय कर लगाने की अनुमति दी गई और शेष धनराशि द्वारा दिया जाने लगा। इन प्रस्ताव में यह भी सुझाव दिया गया कि स्थानीय स्वायत्त शासन को दृढ़ बनाया जाए और इस उद्देश्य से नगरपालिकाओं का विकास किया जाए और इनमें यूरोपीय तथा भारतीय लोगों का सहयोग प्राप्त किया जाए। कई प्रान्तीय सरकारों ने इसके तहत नगरपालिका अधिनियम बनाये। 1871 ई0 में बंगाल जिला बोर्ड उपकर अधिनियम बनाया गया तथा बंगाल के ग्रामीण क्षेत्रों में स्थानीय स्वायत्त शासन लाने का प्रथम प्रवास किया गया। इस प्रकार अधिनियम पंजाब मद्रास तथा उत्तर-पश्चिमी प्रांत में भी पारित किए गये।
1882 ई0 में लार्ड रिपन द्वारा स्थानीय स्वाशासन के विकास में रूचि लेने तथा गंभीर प्रयास करने के कारण रिपन को भारत में स्थानीय स्वशासन का जनक माना जाता है। विपन द्वारा 1882 का प्रस्ताव स्थानीय स्वायत्त शासन के विकास में एक महत्वपूर्ण घटना मानी जाती है। 1870 के लार्ड नेयों की प्रस्ताव की समीक्षा करते हुए उसने यह संतोष प्रकट किया कि स्थानीय उपकारों से बहुत साधन संस्थाओं को दिया गया है और नगरपालिकाओं की संख्या बढ़ाई गई है। उसने यह सुझान दिया कि प्रान्तीय सरकारें स्थानीय संस्थाओ की और वहीं वित्तीय विकेन्द्रीकरण की नीति अपनाएँ जो लार्ड मेयों की सरकार ने प्रारम्भ की थी। प्रान्तीय सरकारों को आज्ञा दी गई कि वे प्रान्तीय, स्थानीय तथा नागरिक वित्तीय साधनों का सर्वेक्षण कर यह सुनिश्चित करें कि किन-किन मदों की आय स्थानीय प्रशासन के सुप्रर्दकी जाय, किन मदों के पुनविर्भाजन की आवश्यकता है तथा ऐसे कौन से प्रयास किए जाए कि साम्राज्य के समस्त भाग मे नागरिक तथा स्थानीय करों मे ंसमानता लाई जा सकें। इस विषय प्रान्तीय सरकारों के रिर्पोट 1882 ई0 में केन्द्रीय सरकार ने एक प्रस्ताव पारित किया जिससे भारत में स्थानीय शासन को प्रभावकारी ढंग से लागू किया गया।
    इस प्रस्ताव के अनुसार ग्रामीण और नगरीय स्थानीय संस्थाओं द्वारा जिनमें अधिकांश सदस्य ओर सरकारी हो , स्थानीय मामलों के प्रबंध की नीति निर्धारित की गई। जहाँ भी अधिकारियाँ को चुनाव प्रणाली लागू करना संभव लगे वहाँ इन गैर सरकारी सदस्यों को जनता द्वारा चुना जाना था। इस प्रस्ताव में किसी गैर अधिकारी के चुनाव की छुट दी गई थी जो अध्यक्ष बन  समता था। सरकार ने स्थानीय संस्थाओं की गतिविधियों पर कड़ा नियत्रंण लगाने के लिए और उनको  अपनें विवेक के अनुसार निलबिंत या भंग करने का अधिकार अपने हाथ मे ंरखा था। स्थानीय बोर्डों को निश्चित कार्य और आय के श्रोत दिए गये। ग्रामीण क्षेत्रों के लिए तालुका बोर्ड और जिला बोर्ड का गठन किया गया। इसमें जनता द्वारा निर्वाचित गैर सरकारी सदस्यों का बहूमत होना था। सरकारी हस्तेक्षप न्यूनतम होता था और वह भी केवल स्थानीय काय्र की समीक्ष तथा संशोधन के लिए होता था न कि नीति निर्वारण के लिए। परन्तु सम्पति का हस्तांतरण करना, त्रण लेता, नपे कर लगाना, एक विशेष राशि से अधिक न्यय करने की योजनाऔ की अनुमति लेना, नियम या उपनियम इत्यदि बनानें में सरकारी अनुमति अपवश्यक थी। इस उद्देश्य की पूर्त्ति के लिए भिन्न-भिन्न स्थानों में 1883-85 के बीच स्थानीय स्वशासन अधिनियम पारित किय गये और 1884 में मद्रास स्थानीय बोर्ड अधिनियम के अनुसार स्थानीय संस्थाओं को रौशनी गलियों की स्थच्छता, विद्या, जल संभरण और चिकित्सा सहायता का कार्य सौप दिया गया। इसीप्रकार के अधिनियम पंजाब और बंगाल में भी बनाये गये। लेकिन इस संस्थाओं का दुर्भाग्य यह रहा कि ब्रिटिश नौकरशाही भारतीयों को स्वायत शासन के योग्य नहीं समझती थी। लार्ड कर्जन के समय में सभी उदारवादी नीतियों का विरोध किया गया तथा स्थानीय संस्थाओं पर सरकारी नियंत्रण कठोर कर दिया गया।
    1908 ई0 में गठित विकेन्द्रीकरण के लिए राजकीय आयोग की रिपोर्ट ने स्थानीय स्वायत शासन के प्रत्येक क्षेत्र के विषय में महत्वपूर्ण सिफारियोकं प्रस्तुत की। आयोग ने निर्देयित किया कि स्थानीय संस्थाओं के प्रभावशाली ढंग से कार्य करने मे ंसबसे बड़ी बाधा धन की कमी है। इस विषय में गृह सचिव हर्खट रिजले ने भारत सरकार को लिखा कि धन इका प्रर्याप्त न होगा ही जिला बोर्ड तथा जिला नगरपालिकाओ के आधुनिक स्तरों पर कार्य करने में आयोग ने ग्राम पंचायत तथा उपजिलाबर्डा के विकास पर बल दिया। उसने सुझाव दिया कि ग्राम पंचायतों को अधिक शक्तियों मिलनी चाहिए जैसे- 1.छोटे-छोटे दीवानी और फौजदारी मामलों में अधिकार क्षेत्र 2.ग्राम की सफाई तथा अन्य छोटो-छोटे कार्यो पर व्ययों 3.ग्राम विद्यालयों का निर्माण, प्रशासन तथा उनका भरण-पोषण  4.छोटे-छोटे ईंधन तथा चारे का संचय इत्यादि ।आयोग ने इस बात पर विशेषताएं पर बल दिया कि ग्राम पंचायत को आये के पर्याप्य साधन दिए जाएँ ओर जिला अधिकारियों के हस्तक्षेप कम से कम हो।
    आयोग ने उपजिलों बोर्डो के महत्व पर विशेष बल दिया और यह सिफारिश की कि ये प्रत्येंक तालुका या तहसील में स्थापित किए जाएँ और इनको ग्रामीण बोर्डा के प्रशासन का मुख्य साधन बनाया जाए। इनकों जिला बोर्डा के अधीन रखने की योजना नही थी। अपितु जिला तथा उपजिला बोर्डा के क्षेत्र पूर्णतया भिन्न होने थे। नगरपालिकाओं के क्षेत्र में सिफारिश यह थी कि उनकी कर लगाने की नीतियें पर कोई नियंत्रण न लगाया जाए परन्तु उन्हें जल आपूर्ति अथवा जल निकासी की योजनाओं को छोड़कर अन्य किसी उद्देश्य के लिए प्रान्तीय सरकार से सहायता नही मिलनी चाहिए। यह भी सुझाव था कि नगरपालिकाओं की प्राथमिक और यदि वे चाहते है तो माध्यमिक विद्यालयो के ंभरण-’पोषण का भार संभालने का अवसर दिया जाए। सरकार को माध्यमिक शिक्षा, अस्पातल, अकाल, सहायता, पुलिस तथा पशुचिकित्सा के कार्य से पूर्ण रूपेण मुक्ति दे दी जाए।
    1915 कें भारतीय सरकार के प्रस्तावों में विकेन्द्रीकरण आयोग की सिफारिशों पर सरकारी प्रतिक्रिया प्रतिपादित की गई जिसमें आयोग के सिफारिशों को अस्वीकार कर दिया गया। 20 अगस्त 1919 ई0 को ब्रिटिश सरकार ने यह घोषण की कि भारत में संवैधानिक सुझावों का उद्देश्यों उत्तरदायी सरकार बनाना है और इसलिए प्रथम प्रयत्न स्थानीया स्वायत्त शासन के क्षेत्र मे ही था। मांटेग्यु चेम्सफोर्ड रिपोर्ट में यह सुझाव दिया गया था कि जहाँ तक संभव हो सके स्थानीय संस्थाओं मे पूर्ण लोकप्रिय नियंत्रण  हो और उन्हें बाहरी नियंत्रण से अधिकतम स्वतंत्रता प्राप्त होनी चाहिएं। 16 मई 1918 को एक सरकारी प्रस्ताव में यह कहा गया कि जहाँ तक संभव हो उनका अधिकार जिस भी क्षेत्र में हो, वास्वतिक हो, नाम मात्र नही उन पर नियंत्रण कम से कम हो ं ओर उन्हें गलतियों से सीखने दिया जाए। विकेंन्द्रीकरण द्वारा दिए गये सुधारों को लेख बद्ध किया गया और नगरपालिकाओं को कर लगाने के मामले में अधिक अधिकार दिए गये। ग्राम पंचायतों के सम्बन्ध में कहा गया कि इनकों केवल स्थानीय संस्थाओं का परिशिष्ट ही नही बनाना चाहिए बल्कि इन संस्थाओं का उद्देश्य ग्राम्य जीवन का समल्टि रूप से तथा सहयोगपूर्ण विकास करना होना चाहिए। परन्तु इस क्षेत्र मे ंउन्हें ब्रिटिश अधिकार नहीं दिए गये।
    1919 के भारत सरकार अधिनिमय के लागू होने के पश्चात स्थानीय स्वायत्त शासन एक हस्तातरित विषय के अंतर्गत आ गया। जिस पर नियंत्रण जनता द्वारा निर्वाचित लोकप्रिय मंत्रियों का हो गया। केन्द्रीय सरकार ने इस विषय में प्रांतीय सरकारों को आदेश देने बन्द कर दिए और प्रत्येक पं्रांत को अपनी अपनी आवश्यकताओं के अनुसार स्थानीय स्वायत्त संस्थाओं  का विकास करने की अनुमति मिल गई। अनुसूचित करें के नियमों  के अनुसार स्थानीय करों और प्रातीय करों की सूचि को अलग-अलग कर दिया गया। परन्तु वित्त विभाग अभी भी आरक्षित सूचि में था, इसलिए लोक निर्वाचित मंत्री इस विषय में कुछ विशेष उपलब्धि हासिल नहीं कर सकें।
    मई 1930 में प्रस्तुत साइमन कमीशन की रिपोर्ट में स्थानीय स्वायत्त संस्थाओं द्वारा वित्तीय अधिकारों के उपयोग के विषय में उल्लेख किया गया था जिसमें यह भी कहा गया कि उत्तर प्रदेश बंगाल तथा मद्रास के अतिरिक्त कहीं और ग्राम पंचायतों में कोई विशेष उन्नति देखने को नही मिली है। आयोग ने यह भी सुझाव दिया कि इन स्वायत संस्थाओं पर सरकार का नियंत्रण बढ़ा देना चाहिए। 1935 के अधिनियम के अनुसार प्रान्तीय स्वाशासन के प्रचलन से स्थानीय स्वायत संस्थाओं को और भी अधिक गति मिली। लोकप्रिय सरकारें वित्त का नियंत्रण करती थी और इसलिए वे इन संस्थाओं को अधिक धन उपलब्ध करा सकती थी। प्रान्तीय एंव स्थानीय करों के बीच जो अलगाव था उसे समाप्त कर दिय गया। लगभग सभी प्रांतों में स्थानीय संस्थाओ को अधिक कार्यभार दे दिया गया। लेकिन  उनकी कर लगाने की शक्तियों लगभग बडी रही अपितु कुछ कम ही कर दी गई जिस से चूंगी बढ़ाने, व्यापारों, व्यावसायों तथा सम्पतियों पर कर बढ़ाने की शक्तियों देखा कर दिया गया। विकेन्द्रीकरण आयोग की सिफारिशों को अनदेखा कर दिया गया। स्वतंत्रता के समय तक नए करों को लगाने के लिए प्रान्तीय सरकारों से अनुमति आवश्यक थी।
ईस्ट इंडिया कम्पनी एवं क्राउन के अधीन प्रशासन
मुगलों ने भारत में प्रशासन का केन्द्रीकृत रूप् स्थापित किया था। उनकी प्रशासनिक व्यवस्था के सभी विभागों में व्यक्तित्व प्रमुख होता था। किन्तु इस प्रकार का व्यक्ति केन्द्रित राज्य समय के थपेड़ो के सट नही पाया और ईस्ट इंडिया कम्पनी के सामने कमजोर साबित हुआ। प्लासी की लड़ाई में हुई हार ने भारत की दुर्बलताओं का पर्दाफाश कर दिया। उसके बाद अंग्रेज भारत में एक दृढ शक्ति के रूप में स्थापित हो गये। बंगाल पर अधिकार कर लेने के बाद अंग्रेजो ने वहाँ ऐसा प्रशासन स्थापित करने का प्रयास किया जो उनकी आवश्यकताओं के अनुरूप स्थापित करनें का प्रयास किया जो उनकी आवश्कताओं के अनुरूप होता। 1765 के पूर्व तक बंगाल का नबाव ही प्रशासना संभालता था। सिद्धान्त रूप से तो वह मुगल बादशाह का प्रतिनिधि था किन्तु वास्तव में उसके पासर्पूण अधिकार थे। निजाम के रूप में उसके अधीन कानून और व्यवस्था सैन्य शक्ति तथा फौजदारी मामलों के विभाग थे तथा दीवान के रूप् में वह राजस्व उगाहने तथा प्रशासन एवं दीवानी मामलों लिए उत्तरदायी था। 1764 ई0 के बक्सर युद्ध के बाद बंगाल में अंग्रेजों की शक्ति सर्वापरि हो गई। बंगाल कें प्रत्यक्षा रूप् में ब्रिटिश राज मेंं मिला देने के बाद भारत कंपनी के लिए तथा इंगलैड़ की सरकार दोनों के लिए ही राजनीति समस्याएंँ उथल हो सकती थी। अतः अंग्रेजो ने मुगल बादशाह से एक आदेश प्राप्त किया जिसके अनुसार उन्हें बंगाल, बिहार एंव उडीसा में दीवानी अधिकार प्राप्त हो गयां।तब भी आरंभ में भू-राजस्व उगाहने  का वास्तविक कार्य नवाब के करिन्दें ही करते थे। निजामत नवाब के ही हाथों में रही प्रशासन का यह दोहरा रूप उस समय समाप्त हो गया जब 1772 में कम्पनी  ने राजस्व वसूली का वास्तविक नियत्रंण अपने हाथ में ले लिया।
    अब कम्पनी मुख्य रूप से व्यापरिक शक्ति रहकर भू-भागीय शक्ति हो गई थी। प्रश्न यह था कि क्या भारत का शासन एक व्यापारिक संघ करेंगा जिसका कार्य मुख्यता अपने व्यापारिक हितों की रक्षा करना है या यह शासनाधिकार ब्रिटिश संसद को सौप दिया जाए। जैसे-जैसे कम्पनी की शक्ति बढ़ते गई, इसके अधिकारियों द्वारा उस भक्ति का दुरूपयोग भी बढ़ता गया। कम्पनी द्वारा भारत में राजनीतिक सता ग्रहण करने की बात पर इंगलैड में आपति उठाई गई तथा संसद पर जोर डाला गया कि वह इस मामलें में हस्तक्षेप करे। लगातार युद्धों एंव कम्पनी के अधिकारियों की मनमानी के कारण कम्पनी घारे आर्थिक संकर में फँस गई थी। कम्पनी ने संसद और आर्थिक सहायता के लिये  याचना की। संसद इस शर्त्त पर कम्पनी की सहायता करने को तैयार हुई कि भारत द्वारा इंगलैड दोनो ही स्थानो पर कम्पनी का प्रशासन संसद के निर्देशन मे होगा। इसके लिए 1773 का रेग्युलेटिंग एक्ट पास किया गया।
    1773 का रेग्युलेटिंग एक्ट इस बात का प्रमाण था कि ब्रिटिश संसद भारत के मामलों को नियमित करने के लिए गंभीरता से सोचने लगी थी। इसने भारत के लिए पहली बार सर्वोच्च सरकार से सोचने लगी थी। इसने भारत के लिए पहली बार सर्वोच्च सरकार की स्थापना की जिसका प्रमुख बंगाल मेंं फोर्ट विलियम का गवर्नर जनरल था। उसके चार पार्षद के जिनकों यह अधिकार था कि वे मुम्बई और मद्रास की प्रेसीडेंसियों पर नजर रखे। प्रेसीडिन्सियों की इस बात का अधिकार नही था कि वे गवर्नर जनरल और परिषदों को आज्ञा के बिना भारतीय राज्यों के सैन्य युद्ध अथवा संधि कर सकें। इसमें अपवाद हो सकते थे जैसे आपात काल होने पर अथवा ऐसी स्थिति में जब उन्हें कोर्ट ऑफ डायरेक्टरो से युद्ध अथवा संधि करने के सौपे आदेश प्राप्त हो। इस एक्ट में एक बात की भी व्यवस्था थी कि कलकत्ता में एक सर्वोच्च न्यायिक न्यायालय की स्थापना की जाए।
    रेग्यूलेटिंग एक्ट ने कम्पनी अधिकृत भारतीय भू-भागों के नागरिक सैन्य एवं वित्तिय मामलों को चलाने का अधिकार बिं्रटिश संसद को दिया। साथ ही यह इस बात का भी प्रमाण है कि ब्रिटिश की सरकार भारत के मामलो में गंभीर रूचि लेने लगी थी। इस एक्ट में कतिपय आधारभूत कमियाँ ली जिसके कारण वारेण हेस्टिंग एक्ट में कतिपय आधारभूत कमियाँ ली जिसके कारण वारेन हेस्टिंग को काफी कठिनाईयों उठानी पड़ी। इसमें यह स्पष्ठ नही किया गया था कि गवर्नर जनरल का अपने अधीन प्रेसीडेन्सियों पर कहाँ तक अधिकार है तथा यह भी स्पष्ट नही था कि सवौच्च परिषद एवं सर्वोच्च न्यायालय के अधिकार क्षेंत्र क्या है। इसका परिणाम यह हुआ कि वारेन हेस्टिंग को अपना प्रशासन कि उत्तरदायित्व निभाने में अनेक कठिनाईयों का सामना पड़ा तथा परिषद में एक के बाद संकट उत्पन्न होते गये।
    1781 में कम्पनी के मामलों को और  अधिक नियंत्रित करने के प्रयास किये गये। नार्थ फॉक्स की मिली जुली सरकार ने गंभीरता पूर्वक यह प्रयत्न किया कि कंपनी की भारत व्यवस्था का पुनगर्ठन हो। इस उद्देश्य से दे बिल प्रस्तुत किये गये। फॉक्सने कम्पनी की शासन-व्यवस्था को ऐसे निरंकुश व्यवस्था कहा जिसकी मिसाल संसार के इतिहास में नही। मिलती। कम्पनी ने अपना संरक्षण मंत्रियों के हाथ मे दिये जाने का विरोध प्रकट किया। यह बिल हाउस ऑफ कॉमन्स में तो पारित हो गया किन्तु लार्डस सभा ने इन्हें अस्वीकार  कर दिया। जब बिलियम पिट ने प्रधानमंत्री पद संभाला तो उसने इंडिया बिल प्रस्तुत करने का निश्चय किया पिट को हाउस आफॅ कामन्स में कम समर्थन प्राप्त था। साथ ही उसे ईस्ट इंडिया कम्पनी के आशाकाओं का भी निवाल करना थां। पिटने कम्पनी के साथ बातचीत करके तथा उसकी स्वीकृति से ऐसी योजना तैयार की जो भारतीय मामलों पर संसद के नियंत्रण से सम्बन्धित थी। यह पिट के इंडिया बिल ने नाम से जाना जाता हैं। अगस्त 1784 मे पास होने पर यह बिल कानून बन गया। इस अधिनियम के अनुसार भू-भागों तथा वापिस के बीच अंतर को बनाये रखना था। भू-भागों के प्रशासन का नियंत्रण संसद की एक प्रतिनिधिक सभा को दिया जाना था । जबकि वाणिज्य पर कम्पनी का ही अधिकार बना रहना था। भारत में सरकार अभी भी कम्पनी के नाम पर चलाई जानी थी। यद्यपि राजनीतिक और वित्तीय मामले प्रस्वावित संसदीय सभा कें नियंत्रण एवं देखभाल में होने चाहिए थे। पिट्स इण्डिया एक्ट ने नियंत्रण, निर्डशन एवं निगरानी का एक सशक्त साधन प्रदान किया। यही व्यवस्था थोड़े- बहुत हेर फेरके साथ 1858 तक चलती रही।
                          19 वीं शताब्दी के पूर्वीर्द्ध तक ब्रिटिश भू-भागों के प्रशासन का विधि निर्माण कुछ सीमातक उपयोगितावादी चिन्तन एवं सिद्धान्तों से प्रभावित रहा। इस स्थिति में 1813 में परिवर्त्तन आया और प्रवृति उदारवादी सिद्धान्तों की ओर हो गई। कम्पनी का प्रशासन तो कम्पनी के ही हाथों में रहने दिया गया किन्तु भारतीय व्यापार से कम्पनी का एकाधिकार हटा दिया गया। 1833 के अधिनियम के द्वारा कम्पनी ने भारत में स्थित अपनी समस्त व्यक्तिगत सम्पति का समर्थन कर दिया तथा इंगलैण्ड की साम्राज्ञी की ओर से न्यासी के रूप् में इसकी देखभाल करने लगी। भारत में कम्पनी का व्यापारिक स्वरूप समाप्त हो गया और वह साम्राज्ञी की राजनीतिक अभिकर्त्ता बनकर रह गई। भारत सरकार का नये सिरे से पुनर्गठन किया गया जिससे इसका स्वरूप् भारत व्यापी हो गया। कंपनी के सभी ऋण भारत सरकार ने अपने ऊपर के लिए। अब उसे ही कम्पनी के सभी शेयर धारकों को उनकी पूँजी पर साढ़े दस प्रतिशत लाभांश भी देना था।
       1858 में ब्रिटिश संसद द्वारा पारित कानून के द्वारा भारत का शासन ईस्ट इंडिया कम्पनी से लेकर ब्रिटिश सम्राट को दे दिया गया। इससे पहले भारत पर कम्पनी के डायरेक्टरों और बोर्ड ऑफ कंट्रोल के नियंत्रण में सत्ता का संचालन होता था, अब शासन का भार भारत मंगी जिसे सक्रेटी ऑफ स्टेट कहा जाता था को दिया गया और उसकी सहायता के लिए एक कौंसिल की नियुक्ति की गई। यह भारत मंत्री ब्रिटिश कैबिनेट का सदस्य और संसद के प्रति उत्तरदायी होता था। नये कानून के अनुसार भारत का शासन पहले की तरह ही गवर्नर जनरल को चलाना था, लेकिन उसे वायसराय कहा जाने लगा। जो सम्राट के व्यक्तिगत प्रतिनिधिकी पदवी थी। प्रशासन के छोटे-छोटे मामलों पर भी भारत सचिव का नियंत्रण होता था। इस स्थिति में सरकार की नीतियों पर भारतीय जनमत का प्रभाव पहले से कम हो गया तथा ब्रिटिश उद्योगपतियों, व्यापारियों और बैकरों का भारत सरकार पर प्रभाव और भी बढ़ गया। इससे भारतीय प्रशासन 1858 के पहले की तुलना में और भी प्रतिक्रियावादी हो गया क्योंकि अब उदारतावाद के सिद्धान्त को तिलांजलि दे दी गई थी।
                    1858 के एक्ट में व्यवस्था थी कि गवर्नर जनरल के साथ एक एक्जिक्यूटिव कौंसिल होगी जिसके सदस्य विभिन्न विभागों के प्रमुख और गवर्नर जनरल के अधिकारिक सलाहकार होंगे। यही कौंसिल सारे महत्वपूर्ण विषयों पर विचार करके बहुमत से निर्णय लेती थी। लेकिन गवर्नर जनरल को यह अधिकार था वह कौंसिल के किसी भी फैसले को रद्द कर सकता था।
                             1861 के इंडियन कौंसिल एक्ट में गवर्नर जनरल की कौंसिल को कानून बनाने के उद्देश्य से और भी व्यापक बना दिया गया जिसे इम्पीरियल लेजिस्लेटिव कौंसिल कहा जाता था। गवर्नर जनरल को कार्यकारी परिषद में 6 से 12 सदस्य तक बढ़ाने का अधिकार था, जिनमें से कम से कम आधे का गैर अधिकारी होना आनिवार्य था। ये भारतीय भी हो सकते थे और अंग्रेज भी हो सकते थे। इम्पीरियल लेजिस्लेटिव कौंसिल को कोई वास्तविक अधिकार प्राप्त नहीं थे, इसीलिए इसे एक कमजोर संसद कहा जा सकता है। यह मात्र एक सलाहकार समिति थी जो सरकार की पूर्व विचार नहीं कर सकती थी और वित्तीय प्रश्नों पर विचार नहीं कर सकती थी और वित्तीय प्रश्नों पर उसे कोई अधिकार नहीं था। बजट पर इस समिति का कोई नियंत्रण नहीं था। यह प्रशासन के कार्यों पर विचार नहीं कर सकती थी और इसके सदस्य उसके बारे में किसी प्रकार का सवाल नहीं कर सकते थे। इसके अतिरिक्त इसके द्वारा पारित कोई भी विधेयक गवर्नर जनरल के अनुमोदन के बिना कानून नहीं बन सकता था। भारत सचिव इसके द्वारा पारित किए गये किसी कानून को रद्द कर सकता था। लेजिस्लेटिव कौंसिल में भारतीय सदस्यों की संख्या बहुत कम थी और वे भारतीय जनता द्वारा चूने हुए न होकर गवर्नर जनरल द्वारा नामजद किए जाते थे। फिर गवर्नर जनरल हमेशा ही इसके लिए राजा-महाराजाओं और उनके मंत्रियाँ और उनके मंत्रियाँ, बडे जमींदारों, बडे़ व्यापारियों या सेवानिवृत्त वरिष्ठ सरकारी अधिकारियों का ही चयन करता था। वे भारतीय जनता या विकसित हो रही राष्ट्रवादी मानना का कोई प्रतिनिधित्व नहीं करते थे।
1909 का इण्डिया कौंसिल एक्ट
भारत की स्वतंत्रता आन्दोलन में प्रगति तथा राष्ट्रीय चेतना के विस्तार ने ब्रिटिश शासन प्रणाली पर धातक प्रहार किया गया। 1908 में नरम दल के नेतृव्य में कांग्रेस ने एक प्रस्ताव पास करके एक ऐसी शासन प्रणाली की माँग की जैसी कि ब्रिटिश साम्राज्य के स्वशासित सदस्य देशों में प्रचलित थी। इसी समय प्रतिनिधि शासन पद्धति के विकास पर मुसलमानों के कुछ भागों में अशांति की लहर पनप रही थी। मुस्लिम राजनीति में सम्प्रदाय वाद का प्रभुत्व हो गया था। आगा खाँ के नेतृत्व में मुस्लिम प्रतिनिधियों ने लार्ड मिन्टों के समक्ष दो माँगें रखी थी। प्रथम, सब निर्वाचनों अर्थात् विधान परिषदों एवं स्थानीय सभाओं में मुसलमानों को पृथक प्रतिनिधित्व मिले और इन प्रतिनिधियों का चुनाव पृथक रूप से मुसलमानों के द्वारा ही हो। दूसरे, मुस्लिम समाज को प्रतिनिधित्व न केवल उनकी संख्या के अनुपात में दिया जाय अपितु साम्राज्य के रक्षा के लिए किए गये कार्यों का मूल्यांकन करते हुए उनके राजनीतिक महत्व के आधार पर होगा चाहिए। लार्ड मिन्टों ने इस प्रस्ताव पर सहमति प्रदान करते हुए, इन्हें 1909 के एक्ट में शामिल किए जाने की अनुमति प्रदान की। इस समय ब्रिटिश सरकार अपनी बाँटों और राज्य करों की नीति को अपना रही थी जिसका उद्देश्य नरम दल और मुसलमानों को अपनी ओर मिलाना था जबकि गरम दल को पुरी तरह कुचल देना था।
1909 के अधिनियम के प्रमुखतत्व
(1) इस अधिनियम के द्वारा विधान परिषदों के आकार में वृद्धि गई। केन्द्रीय व्यस्थापिका के सदस्यों की संख्या 16 से बढ़ाकर 60 कर दी गई। बम्बई, मद्रास, बंगाल, संयुक्त प्रांत, बिहार और उड़ीसा की विधानपरिषदों की संख्या 50 और पंजाब, बर्मा तथा असम में 30 कर दी गई।
(2) केन्द्रीय व्यवस्थापिका सभा में 69 सदस्य होने थे जिसमें 60 सदस्य निर्वाचित और 9 पदेन सदस्य थे। इनमें 37 सरकारी अधिकारी और 32 गैर सरकारी सदस्य थे।
(3) प्रांतों में गैर सरकारी बहुमत की व्यवस्था की गई। परन्तु गैरसरकारी बहुमत होने पर भी सरकार के कार्यों में कोई बाधा नहीं पड़ती थी क्योंकि गैर सरकारी सदस्यों में से कुछ को गर्वनर मनोनित करता था और मनोनित सदस्यों की स्वामिभक्ति अंग्रेजों के प्रति थी। इसके अतिरिक्त गैर सरकारी सदस्य विभिन्न वर्गों और हितों से आते थे जिसके कारण उनका सरकार के विरूद्ध रवैया नकारात्मक था।
(4) 1892 के एक्ट में सदस्यों को पुरक प्रश्न पुछने का अधिकार नहीं दिया गया था लेकिन अब वे पुरक प्रश्न पुछ सकते को था जिसने पहले प्रश्न पूछा था। सदस्य बजट पर बहस कर सकते थे और प्रस्ताव पेश कर सकते थे, परन्तु यह सब अधिकार विशेष नियमों के द्वारा मर्यादित थे और अध्यक्ष सार्वजनिक हित के नाम पर किसी भी प्रस्ताव को पेश होने से रोक सकता था।
(5) इस अधिनियम के द्वारा साम्प्रदायिक और वर्ग विभेद के आधार पर साम्प्रदायिक निर्वाचन पद्धति लागू की गई जिसके द्वारा पृथक चुनाव क्षेत्रों की व्यवस्था की गई जिससे विभिन्न जातियों एवं वर्गों की उचित प्रतिनिधित्व मिल सके। शेष सदस्य नगरपालिका और जिला बोर्डो से चुनकर आने थे।
(6) वायसराय की कार्यकारिणी में एक भारतीय सदस्य की नियुक्ति की गई। लार्ड सिन्हा प्रथम भारतीय विधि सदस्य नियुक्त किए गये।
(7) इस एक्ट द्वारा चुनाव अयोग्यता का सिद्धान्त लागू किया गया।
1909 का अधिनियम भारतीयों को पूर्ण रूप् से संतुष्ट नहीं कर सका क्योंकि यह सुधार भारत में उत्तरदायी शासन की स्थापना नहीं कर सका। इन सुधारों से केवल आंशिक परिवर्त्तन ही लाया जा सका तथा विधान परिषद के सदस्यों के अधिकारों में नाममात्र की वृद्धि की गई। सदस्य प्रश्न पूछ सकते थे परन्तु कार्यकारिणी की उत्तर देने के लिए बाध्य नहीं किया गया। अध्यक्ष को असीमित अधिकार थे वह किसी भी प्रश्न को अस्वीकार कर सकता था। इस प्रकार विधान परिषदों का कार्यकारिणी पर अंकुश नहीं था। इस एक्ट द्वारा साम्प्रदायिक चुनाव पद्धति की नींव डाली गई। मुसलमानों के लिए अलग निर्वाचन क्षे़त्रों का प्रारम्भ किया गया। इसमें मुसलमान प्रतिनिधियों के चुनाव का अधिकार केवल मुसलमान मतदाताओं को ही प्रदान किया गया था। इस प्रकार हिन्दू और मुसलमानों के बीच साम्प्रदायिकता को बढ़वा दिया गया जिसका अंत भारत विभाजन के रूप में हुआ।
        1909 के अधिनियम में मतदान की योग्यता समान नहीं रखी गई थी। योग्यता का आधार साम्प्रदायिक था, मुसलमान और हिन्दू मतदाताओं में योग्यता के आधार पर भेदभाव किया गया था। हिन्दू मतदाताओं के लिए योग्यता निर्धारित की गई थी जबकि मुसलमानों के लिए योग्यता अपेक्षाकृत बहुत कम थी। 5 वर्ष के मुसलमान स्नातक मतदान करने के लिए उपयुक्त था जबकि हिन्दूओं को यह अधिकार प्राप्त नहीं था। इसी प्रकार 3000 रूपये वार्षिक आय पर आयकर देने वाले मुसलमान चुनाव में भाग लेने के लिए उपयुक्त थे जबकि हिन्दू इससे अलग रखे गये थे। उन प्रदेशों में भी जहाँ हिन्दुओं का बहुमत था, अल्पसंख्यकों के हितों की रक्षा के नाम पर मुसलमानों को अधिक प्रतिनिधित्व प्रदान किया गया जबकि पूर्वी बंगाल और असम जैसे प्रदेशों में जहाँ मुसलमानों का बहुमत था, हिन्दुओं को अनुपात से अधिक प्रतिनिधित्व नहीं दिया गया। जमींदारों तथा व्यापार मंडलों को विशेष प्रतिनिधित्व प्रदान किया जिससे वे निश्चित स्वार्था के आधार पर सरकार के समर्थक हो गये। इस एक का दोष यह था कि मतदाताओं की संख्या सीमित थी। इसके अतिरिक्त अप्रत्यक्ष चुनाव प्रणाली होने के कारण जनता को सीधे अपने प्रतिनिधि भेजने का अधिकानर नही रहें। इन सुधारों ने भारतीयों की आकांक्षाओं को पूर्ण नही किया। यहाँ तक कि कांग्रेस के नरमदल वालो की भी संतुष्ट नही किया जा सका। लोगों को ब्रिटिश सरकार की न्याय और समानता  की भावना के प्रति संदेह हो गया।
भारत सरकार अधिनियम -1919
1909 ई0 के सुधार भारतीयष् का भावनाओं की संतुष्ट नही  कर सका नरमपंथी कांग्रेसीयों ने भी स्पष्ट रूप् से अपना विरोध किया क्योंकि उनकी मांगों की पूर्ति के लिए सरकार ने कोई कदम नही उठाया  था। परिणाम स्वरूप् बाल गंगाधर तिलक और एनी बेंसेन्ट के नेंतृत्व में गरमदल वाले कांग्रेस के नेतृत्व पर हावा होंने के लिए तत्पर हो गये। 1916 में होमरूल आन्दोलन का आरम्भ का प्रारम्भ किया गया। 1916 में ही कांग्रेस के दोनों धडे़ लखनऊँ के अधिवेशन में आपस में मिल गये तथा इस अधिवेशन कांग्रेस लोग समझौता हुआ जिसके तहत कांग्रेसों ने मुस्लिम लीग की मांगों को स्वीकार कर लिया तथा पृथक निर्वाचन मतदान प्रणाली को मान्यता प्रदान कर दीं। प्रथम विश्व युद्ध छिड़ जाने के कारण ब्रिटिश सरकार के प्रति भारतीय मुसलमानो का असतोष बढ़ रहा था इसका प्रमुख कारण यह था। कि तुर्की इस युद्ध में जर्मनी के तरफ से लड रहा था। भारतीय मुसलमान तुर्की कें सुल्तान को सारे मुसलमानों का धार्मिक संरक्षक  मानते थे। इसके अतिरिक्त कांग्रेस ने मुसलामानों को विश्वास दिलाया कि उन्हें व्यवस्थापिका सभा में उनकी जनसंख्या के आधार पर मिलने वाले स्थानों से भी अधिक स्थान दिए जाएगें। इस बात के भी मान लिया गया कि यदि किसी जाति को--जनसंख्या उस जाति प्रभाव डालनेद वाले किसी भी प्रस्ताव के विरूद्ध होगी तो उसकों लागू नही किया जाएगा। इन रियासतों के बदले मुस्लिम लीग इस बात के लिए राजी हो गई कि व्यवस्थापिका सभा को बढा़या जाये और उनकों अधिक स्वतत्रता प्रदान किया जाया कांग्रेस और लीग अब दोनों ही राष्ट्रीय स्वतंत्रता आन्दोलन में साथ साथ लड़ने के लिए तैयार हो गये। इस अधिनियम के पारित किए जाने का प्रमुख कारण था कि प्रथम विश्व युद्ध में भारतीय जनता और राजाओं ने अंग्रेजो साम्राज्य का समर्थन किया था जिसे अंग्र्रेजों ह्नदय से स्वीकार करते थे। सरकार ने भारतीय जनता को संवैधनिक सुधारों में अधिक रियायतें देकर पुरस्कृत करना चाहती थी। इसके अतिरिक्त 1961 की समाप्ति पर ब्रिटिश सरकार और राजनीतिज्ञ भारत के लिए ऐसी सुधार योजना पर विचार कर रहे थे जिससे भारत पर राज्य कायम रखा जा सके और शासन चलाया जा सके।
    20 अगस्त 1917 ई0 को मांटेग्यू जों भारत सचिव थे ने घोषणा की भारत सरकार से सम्बन्धित महामहिम सम्राट की सरकार की नीति है कि शासन के प्रत्येक भाग  में भारतीयों की अधिक से अधिक संख्या में अतिरिक्त किया जए और धीरे-धीरे स्वशासन की पद्धतियों का विकास किया जाये ताकि भारत को ब्रिटिश साम्राज्य का एक अंग होते हुए भी उत्तरदायी सरकार का भार सौपा जाय। इस घोषणा से यह स्पष्ट हो गया कि भारतीय जिस अंतिम संवैधानिक उद्देश्य की प्राप्ति कम से ब्रिटिश और भारतीय सरकारों के निर्णय की प्राप्ति क्रम से ब्रिटिश और भारतीय सरकारों के निर्णय के आधार पर हो की जानी थी। तत्पश्चात मांटेग्यू भारत आये और तत्कालीन गर्वनर जनरल लार्ड चैम्सफोर्ड के साथ मिलकर भारत के संवैधानिक सुधार पर एक रिपार्ट तैयार कि जिसे माटेग्यू चेम्सफोर्ड  रिपोट या मांटफोर्ड रिपोर्ट कहा जाता है, जिसके आधार पर 1919 का भारत सरकार अधिनियम पारित किया गया।
    यह रिपोर्ट चार सिद्धातों पर आधारित थी।1.केन्द्रीय और प्रान्तीय क्षेत्रों में स्पष्ट रूप से विभाजन होना चाहिए 2. प्रयोग के तौर पर भारतीय प्रतिनिधियों को प्रान्तीय स्तर पर कुछ अधिकार प्रदान किये जाये। इस उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए प्रान्तीय कार्य कारिणी को दो भागों में विभाजित किया जाय। सुरक्षित भाग पर कार्यकारिणी के परामर्श दाताओं का शासन हो। वह प्रान्तीय व्यवस्थापिका सभा के प्रति उत्तरदायी नही थे। वे हटाये नही जा सकते  थे। दूसरे हस्तांतरित भाग का संचालन चुने हुए सदस्यों द्वारा किया जाना था। दूसरे हस्तांतरित भाग का संचालन चुने हुए सदस्यों द्वारा किया जाना था। व्यवस्थापिका सभा के सदस्य ही इन हस्तांतरित विषयों के लिए शासन के प्रति उत्तरदायी थे। इस तरीके से यद्यपि केन्द्रीय सरकार के अधिकारों में कुछ कभी आती। तथापि केन्द्रीय सरकार प्रान्तीय व्यवस्थापिका सभा पर काफी अधिकार रखने में सक्षम हो पाती। 3.केन्द्रीय शासन के स्तर पर किसी भी प्रकार की उत्तरदायिकत्व प्रणाली के लागू करना समय से पहले होगा। फिर भी दो क्षेत्र में कुछ कदम उठाया जा सकता है। 1.गवर्नर जनरल की कार्यकारिणों में भारतीयों की संख्या को बढ़ाया जा सकता है। 2. केन्द्रीय व्यवस्थापिका सभा को द्विसदनीय बनाया और इसके सदस्यों की  संख्या बढाई जा सकती है 4.ब्रिटिश सरकार ओर राजमंत्री का अधिकार भारत सरकार पर कम किया जाय।
केन्द्रीय स्तर पर परिवर्तन
मांटेग्यू चेम्सर्फोर्ड रिपोर्ट का मुख्य सिद्धान्त था कि प्रान्तों में उत्तरदायी सरकार कें पूर्ण विकसित होने तक भारत सरकार निरंकुश हो रहे और सिद्धान्त में वह ब्रिटिश पार्लियामेंट के प्रति ही उत्तरदायी रहे। परन्तु व्यवहार में वह भारत में जनसाधारण के विचार के प्रति उत्तरदायी कई जाये। इस उद्देश्य की पूर्त्ति के लिए 1919 के कानून द्वारा केन्द्रीय विधानमंडल मे दो सदन बनाये गये। जिनका नाम 1.राज्य परिषद ओर 2.विधान सभा रख गया। राज्य परिषद उच्च सदन था और वह भारत मे पहली बार अस्तित्व में आया था। इसमें अधिक से अधिक 60 सदस्य होते थे। जिसमें से 34 चुने हुए और शेष 26 मनोनित सदस्य थे। 34 चूने हुए सदस्यों में 19 को साधारण निर्वाचन क्षेत्रों से चूना जाना था और शेष को साम्प्रादायिक और विशेष निर्वाचन क्षेत्रों द्वारा जैसे 11 मुसलमान,1 सिक्ख, 3 यूरोपीय व्यापारी वर्ग से किया जाना था मताधिकार को अत्यधिक सम्पति की योग्यतावालों तक सीमित कर दिया। स्त्रियों का मताधिकार दिया गया। इस सभा का कार्यकाल 5 वर्ष का था।,
2.विधान सभा में 145 सदस्य होते थे जिसमें 26 सरकारों अधिकारों जिसमेंं 41 मनोनित और 105 चुने हुए सदस्य थे। विभाजित किया जया थाः साधारण 53, मुसलमाना 30 सिक्ख तथा दूसरे अल्पसंख्य दलों और श्रेणियों को भी प्रतिनिधित्व दिया गया था।
3.प्रान्तों स्थानों का विभाजन उनकी जनसख्या के आधार पर निश्चित नही था बल्कि प्रांत की महत्वा पर आधारित था जैसे बम्बई जिसकी जनसंख्या मद्रास से आधी थी, प्रतिनिधित्व अन्य प्रांतों के समान दिया गया क्योकि बम्बई की व्यापार की दृष्टि से अधिक महत्ता था। इसी प्रकार पंजाब को जो बिहार और उड़ीसा से जनसंख्या में आया था सैनिक महत्ता के कारण उतने ही स्थान दिए गये विधानसभा का कार्यकाल 3 वर्ष का था। गवर्नर जनरल थे अधिकार इस कानून द्वारा गर्वनर जनरल की निरंकुश बना दिया गया। कानून बनाने की उसकी शक्ति अपरिमित थी। सिकी बिल को तब तक पारित हुआ नही माना जा सकता जब तक कि दोनों सदनों द्वारा पास न  किया गया हो ओर गवर्नर जनरल इसकों अपनी स्वीकृति दे दी। दोनो सदनो के विधान सम्बन्धी अधिकारों की सीध थी। यदि कोई सदस्य प्रान्त सम्बन्धी विषय पर बिल प्रस्तुत करना चाहे अथवा किसी बिल को संभोपित  अथवा पूर्ण रूप् से समाप्त करवाना चाहे तो उसे पहले गवर्नर जनरल से स्वीकृति आवश्यक लेनी पड़ती थी। गवर्नर जनरल को किसी भी बिल को रद्द करने का अधिकार था। वह किसी भी बिल को जो विधान सभा द्वारा पास किया गया हो वापस कर सकता था या कहा सकता था कि इस पर पुनः विचार किया जाए या इसकी महामहिम की ईच्छा जानने के लिए सुरक्षित कर सकता था। गर्वनर जनरल के पास पॉवर ऑफ फिकेशन प्राप्त का जिसके तहत यदि किसी विधेयक को सदन मानने के अधिकार द्वारा उसे कानून बना सकता था। लेकिन यह भारत के किसी भाग की सुरक्षा और भांति के आधार पर किया जाता था। इसके अतिरिक्त गवर्नर जनलर को अध्यादेश छः महीनें के लिए जारी किए जा सकते थे।
    विधानसभा के वितीय अधिकार भी सीमित थे कर बढ़ाने के सारी युवितयों को वित्त विभाग में मिलाया जाता था। जिसके लिए अनिवार्य था कि वह विधानमंडल मे प्रस्तुत किया जाय। यदि यह विधेयक किसी एक या दोनो सदनो द्वारा अस्वीकार कर दिया जाता था तो गवर्नर जनरल अपनी प्रमाणित करने की शक्ति का प्रयोग कर सकता था। प्रत्येक वर्ष, वार्षिक बजट जिसमें अनुमनित कर और खर्च का ब्यौरा होता था, दोनों सदनों के सम्मुख प्रस्तुत किया जाता था। दोनों सदनों को इस पर विचार करने को अधिकार दिया गया था कि वह प्रत्येक विभाग द्वारा मांगी गई राशि पर मत दे, लेकिन 80 प्रतिशत बजट पर मत नही दिया जा सकता था।
 
    विधानमंडल के दोनों सदनों के सदस्यों को प्रश्न पूछने का अधिकार था।ै वे पुरक प्रश्न भी पूद सकते थे। सदस्यों को प्रस्ताव पेश करने का भी अधिकार था। लेकिन यदि को ई प्रस्ताव पारित हो जाता था तो उससे कार्य कारिणी की सीमित नही किया जा सकता था। फिर भी इन अधिकारो कें सीमित होते हुए भी इनका राजनैतिक महत्व था। विधानमंडल ओर राज्यपरिषद  में किए गये तर्को का प्रभाव जनता पर पड़ता था। सदस्यों के विचारों से न केवल प्रज्ञा को बल्कि सरकार को भी शिक्षा मिलती थी। सदस्यों को सभा स्थागित करनें का भी अधिकार प्राप्त था ताकि किसी विशेष जो जनता  की आवश्यकता के लिए दे विषय को विचारधीन किया जा सके। लार्ड हैले ने कहा था कि 1919 के एक्ट के पश्चायत भारतीय सरकार जनता के विचारों के प्रति यदि उत्तरदायी नही हुई थी। तो वह सहानुभूतिपूर्ण हो गई थी।ै सागर ने कई अवसरों पर विधानमंडल की अलोचना पर ध्यान दिया।
केन्द्रीय कार्यकारिणीः-केन्द्रीय कार्यकारिणी के सदस्य भारतीय विधानंमड़ल के प्रति उत्तरदायी नहीं थे। कार्यकारिणी के अध्यक्ष के रूप में गवर्नर जनरल का प्रभुत्व इतना था ि कवह भारत में पूर्ण शासनकाल ही कार्य करता था। दल पद्धति में कार्य कारिणी बहुत कम विश्वास रखती थी। इसने कभी गवर्नर जनरल का संगठित रूप् से विरोध नही किया, क्योकि इसके सदस्यों में से अधिकतर सदस्यों की स्थिति और उचित पर आधारित थी। केन्द्रीय तथा प्रान्तीय सरकारों के बीच शक्तियों का विभाजन कर दिया  गया। रेलवे तार , डाक विभाग, वंदैशिक सम्बन्ध, फौजदारी ओैर दीवानी कानून जैसे विषय केन्द्र सरकार के पस रहे जबकि प्रान्तीय विषय में स्थानीय प्रशासन, शिक्षा, स्वास्थ्य, जेल ओर न्याय एवं कृषि उद्योग शमिल थे।
गृह सरकार मे परिवर्तनः-1.पटेल भारत सचिव को वेतन भारत के राजस्व से दिया जाता था, परन्तु अब यह व्यवस्था की गई कि भारत सचिव प्रान्तों मे ंजो विषय भारतीय मंत्रियों को दिए गये थे उन पर भारत सचिव का नियंत्रण खत्म कर दिया गया।
3.1919 के एक्ट के द्वारा इंडिया कौसिल के संविधान में परिवर्तन करते हुए इसकी सदस्यता को कम से कम 8 और अधिक से अधिक 12 निर्धारित कर दियां । प्रत्येंक सदस्य का वेतन 200 पौण्ड वार्षिक निर्धारित कर दिया गया। दो प्रकार के कार्यो के लिए भारत सचिव के इंडिया कौसिल की अनुमति लेनी पड़ती थी। 1.अनुदान अथवा स्वीकृति  तथा 2. अखिल भारतीय सेवाओं के लिए कानून ओर नियम बनाने के लिए। इस प्रकार इस एक्ट द्वारा प्रान्तीय शासन पर राज्य सचिव के अधिकार कम कर दिया गया। फिर भी भारतीय शासन में इसके अधिकारों में कोई विशेष परिवर्तन नही किया गयां
प्रान्तीय शासन मे परिवर्त्तन
1919 के अधिनियम द्वारा प्रान्तीय तथा केन्द्रीय सरकार के बीच शक्तियों का विभाजन कर दिया गया, पर यह कि विभाजन बहुत ही ढीला-ढाला था । क्योंकि केन्द्रीय या प्रान्तीय व्यवस्थापिका सभा द्वारा बनाये गये किसी भी कानून को इस आधार पर चुनौती नही दी जा सकती थी कि यह उसके अधिकार क्षेत्र से बाहर था। चूंक देश की विकास करनेवाली सेवाये प्रान्तीये सरकारों के अधीन थी अतः यह आवश्यक समझा गया कि प्रान्तीय सरकारों को पूर्ण और स्वतंत्र कर के साधन प्रदान किए जायां। प्रचलित विभाजित विषयों की प्रणाली को समाप्त कर दिया गया प्रान्तीय सरकार ओर केन्द्रीय सरकार के बीच कर के साधनों को स्पष्ट रूप् से विभाजित कर दिया गया। कुछ विषय कार्यो के लिए प्रान्तीय सरकारों को अधिकार दिया गया कि वह कर के अधार पर ऋण के सकती थी। यद्यपि प्रान्तों और केन्द्र के बीच अधिकारों को विभाजित कर दिया गया था। फिर भी अधिकार केन्दीय सरकार के पास अधिक थे। यदि इस बात में कोई संदेह हो कि कोई विषय प्रान्तीय सरकार के अधीन था अथवा नही इसका निर्णय गवर्नर-जनरल द्वारा लिया जाता था कि न्यायालयों द्वारा।
प्रान्तो में द्वैध शासन प्रणाली की स्थापना -
1919 के अधिनियम द्वारा प्रान्त में उत्तरदायी शासन की स्थापना की गई। इसकी प्रमुख विशेषता - द्वैध शासन प्रणाली की भारत की संवैधानिक प्रगति के संदर्भ में ‘द्वैध‘ शब्द का सर्वप्रथम प्रयोगकर्ता लायनोल कर्टिस ;स्पवदमस ब्नतजपेद्ध थे जिन्होंने श्री भूपेन्द्रनाथ बसु को लिखे एक पत्र में किया था। द्वैध का तात्पर्य कार्यकारिणी का दो भागों में विभोजन था - (1) गवर्नर और उसके कार्यकारिणी के सदस्य और (2) गवर्नर और उसके मंत्री। दोनों भागों के सदस्यों की नियुक्ति, वेतन और अधिकारों में काफी अन्तर था तथा व्यवस्थापिका सभा के साथ सम्बन्धों में अंतर स्थापित किया गया था।
इस शासन प्रणाली के अनुसार प्रांतीय विषयों को दो माँगों में बाँटा गया - आरक्षित ;त्मेमअमकद्ध व हस्तांतरित ;ज्तंदेमिततमकद्ध विषय। आरक्षित विषयों में पुलिस, जेल, न्याय सिंचाई, भूराजस्व वित्त, समाचार पत्र, मुद्रयालय पर नियंत्रण तथा उद्योग धंधे आदि आते थे जिसका प्रशासन गवर्नर अपनी कार्यकारिणी के सदस्यों के माध्यम से करता था। हस्तातरित विषयों के अंतर्गत स्थानीय स्वशासन, सार्वजनिक स्वास्थ्य, चिकित्सा प्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्रशासन,कृषि सफाई और शिक्षा आते थे जिसका प्रशासन गवर्नर अपने मंत्रियों के द्वारा करता था। गवर्नर को प्रान्तीय विषयों में निस्हत शक्तियाँ थी। वहन तो कार्यकारिणी परिषद के सदस्यों और नहीं मंत्रियों के परामर्श को मानने के लिए बाध्य था।
                प्रान्तीय प्रशासन के लिए प्रान्तों में विधानसभाएँ पहले ही स्थापित हो चुकी थी। अब इन प्रान्तीय विधानसभाआें की सदस्य संख्या में भी वृद्धि कर दी गई और यह संख्या विभिन्न थी। निर्वाचित सदस्यों की संख्या में भी वृद्धि कर दी गई। अब 70 प्रतिशत सदस्य निर्वाचित तथा 30 प्रतिशत गवर्नर द्वारा मनोनित होने थे विधान सभा के लिए प्रत्यक्ष चुनाव प्रणाली की व्यवस्था की गई। सम्पति के आधार पर मताधिकार सीमित था। विधानसभाओं को प्रान्तीय विषयों पर कानून बनाने का अधिकार था परन्तु गवर्नर के हस्ताक्षर के बिना कोई भी विधेयक कानून नहीं बन सकता था। गवर्नर किसी भी विधेयक पर अपनी स्वीकृति देने से मना कर सकता था। गवर्नर किसी भी विधेयक पर अपनी स्वीकृति देने से मना कर सकता था। द्वैध शासन प्रणाली गवर्नर के अधीन नौ राज्यों में लागू की गई थी, वे थे- संयुक्त प्रांत, पंजाब, बिहार, उड़ीसा, मध्यप्रांत, बंगाल,मद्रास, मुम्बई और उत्तर पश्चिमी प्रांत। यह प्रणाली 1921 से लेकर 1937 तक चली।
               द्वैध शासन प्रणाली निरंकुश राज्य और उत्तरदायी सरकार के मध्य की प्रणाली थी। अंग्रेज भारतीयों को प्रशासन का पूर्ण उत्तरदायितव तत्काल देने के लिए तैयार नहीं थे, क्योंकि उनकी नजर में इसने संविधान की समाप्ति का डर था। उत्तरदायी सरकार की जल्दी स्थापना के लिए प्रथम कदम यह हो सकता था कि कुछ विषयों को जनसाधारण द्वारा चुने गये सदस्यों के हाथ में सौंप दिया जाए ताकि ब्रिटिश साम्राज्य के अंदर रहते हुए भी उत्तरदायित्व शासन की स्थापना की जा सके। इस प्रणाली के अंतर्गत प्रान्तों की कार्यकारिणी के दो भाग थे- गवर्नर और उसकी कार्यकारिणी परिषद तथा गवर्नर और उसके मंत्री। गवर्नर के कार्यकारिणी के सदस्य प्रान्तीय व्यवस्थापिका के प्रति उत्तरदायी नहीं थे बल्कि वह गृह सरकार के प्रति उत्तरदायी थे। दूसरी ओर मंत्रियों की नियुक्ति प्रान्तीय व्यवस्थापिका के सदस्यों में से की जाती थी अतः वे उसके प्रति ही उत्तरदायी थे। गवर्नर को दो प्रकार से कार्य करने होते थें हस्तांतरित विषयों में वह अपने मंत्रियों की सलाह से कार्य करता था। उनकी सलाह वह तब तक मानता था जब तक उसकों न मानने के दृढ़ कारण न हो। कार्यकारिणी की सहायता से गवर्नर सुरक्षित विषयों पर शासन करता था। इसके लिए वह प्रान्तीय व्यवस्थापिकाओं के प्रति उत्तरदायी नहीं था। निर्णय बहुमत के आधार पर लिये जाते थे। गवर्नर यदि उचित समझते तो निर्णायक मत के आधार पर बहुमत वाले निर्णय को ठुकरा भी रखता था।
    यह प्रणाली 1937 तक बिना किसी बाधा के चलती रही। इस द्वैध प्रणाली के सफलता पूर्वक कार्य करने के लिए शासन के दोनों विभागों के बीच सामंजस्य और संतुलन आवश्यक थां यह गवर्नर के कार्य करने की प्रणाली पर बहुत कम निर्भर करता था। हस्तांतरित विषयों में मंत्री नहीं थे क्योंकि उनमें उत्तरादायित्व का सिद्धान्त न था वह केवल मंत्री ही थे। बहुत से गवर्नरों ने संयुक्त उत्तरदायित्व के सिद्धान्त को जन्म ही नहीं लेने दिया। उन्होंने मंत्रियों की सभा को कभी आहूत नहीं किया। मद्रास जैसे राज्य में मंत्रियों ने संयुक्त उत्तरदायित्व के सिद्धान्त को स्वयं विकसित कर लिया इस प्रणाली का सबसे बड़ा दोष प्रशासन का विभाजन था। गवार्नर के सम्बन्ध कार्यकारिणी के दोनों भागों के साथ अलग-अलग रूप के सम्बन्ध कार्यकारिणी के दोनों भागों के बीच आपसी सहयोग आवश्यक था। परन्तु विभागों का विभाजन इस प्रकार किया गया था जिससे झगड़े को आवश्यंभावी बना दिया था। के. बी. रेड्डी जो मद्रास के एक मंत्री थे, कर कहता था कि ‘‘ मैं विकास मंत्री था परन्तु मेरे अधान जंगल विभाग नहीं था। मैं कृषि मंत्री था पर सिंचाई विभाग मेरे अधीन नहीं था।‘‘
                म्ंत्रियों का अपने विभाग के उच्च अधिकारियों पर कोई नियंत्रण नहीं था। ये भारतीय सिविल सर्विस के सदस्य थे। उनकी नियुक्ति और पदोन्नति भारत मंत्री के अधीन थी। इस कारण वे मंत्रियों की अवेहलना करते थे, क्योंकि लोकप्रिय मंत्री उनका कुछ भी अनिष्ट नहीं कर सकते थे। इस प्रणाली की असफलता का सबसे बड़ा कारण यह था कि वित्त विभाग सुरक्षित विषय था जब कि विकास और जनकल्याण के विभाग मंत्रियों के पास थे। धन के अभाव में विकास कार्य संभव नहीं था और धन के लिए वह गवर्नर की कार्यकारिणी परिषद पर निर्भर थे। इस प्रकार वे कोशिश करके भी विकास कार्य नहीं कर सकते थे। वित्तीय प्रश्नों पर भी स्पष्ट हो गया था कि मंत्री को वित्त विभाग और गवर्नर पर निर्भर रहना पड़ता था। मंत्रियों ने इस बारे में शिकायत की थी इससे देश निर्माण वाले विभागों को हानि हो रही है।
            कार्य परिषद के सदस्यों की शिकायतें गवर्नर से ही की जाती थी, अतः स्वायाविक रूप से उसकी स्थिति सुदृढ़ होती थी। कुछ मंत्रियों ने अपनी शक्तियों पर बंधन होने के कारण गवर्नरों की चापलुसी प्रारम्भ कर दी ताकि इनके सहयोग से अपने विभाग के लिए अधिक आर्थिक सहायता ले सकें। कुछ गवर्नरों ने उन्मत्ता और उत्तेजना से अपने अधिकारों का कार्यक्षेत्र और भी बढ़ा लिया। विभागों के सचिव भी गवर्नर से पहले ही मिले रहते थे। मंत्री और सचिव के मतभेद होने पर निर्णय करने का अधिकार गवर्नर को ही था और गवर्नर इस अवसर पर अक्सर सचिव का ही पक्ष लेता था। भारतीय सेवा आयोग के सदस्य भी मंत्री के अधिकार से स्वतंत्र थे। यदि किसी भी जनसेवा विभाग में नियुक्ति की जाती थी तो वे भी गवर्नर की व्यक्तिगत आज्ञा के बिना नहीं की जाती थी। मंत्रियों को नौकर शाही के अधीन समझा जाता था। इसके अतिरिक्त जिस समय में द्वैध शासन प्रणाली लागू की गई उस समय राजनैतिक वातावरण काफी गंभीर था। राष्ट्रीय आन्दोलन के कार्य कर्ताओं और नौकरशाही के बीच अक्सर टकराव की स्थिति बनी रहती थी क्योंकि देश में शांति और व्यवस्था स्थापित करने का उत्तरदायित्व उन्हीं का था। स्वाभाविक रूप से मंत्रियों द्वारा कार्यां की ओर उतना ध्यान नहीं दिया जाता था जो उनके लिए आवश्यक था।
                1919 के अधिनियम द्वारा गर्वनर को कुछ अस्वामाविक विधान निर्माण सम्बन्धी अधिकार भी दिए गये थे। प्रान्तीय विधानमंडलों द्वारा बनाये गये कानून को प्रान्तीय अस्वीकार कर सकता था, कुछ विशेष प्रकार के विधेयकों को बिना गवर्नर की आज्ञा के प्रान्तीय विधान मंडलों  में प्रस्तुत नहीं किया जा सकता था, कुछ अन्य प्रकार के विधेयकों को जिसे आवश्यक समझता उसे विधान को रूप दे सकता था। इसके अलावे गवर्नर काफी वित्तीय अधिकार प्राप्त थे। कोई भी अनुदान जिसे विधान मंडल देने से इंकार कर दे या कम कर दे, गवर्नर द्वारा दिया जा सकता था, यदि वह इसे आवश्यक समझे। वह इसे इस आधार पर दे सकता था कि प्रांत की सुरक्षा और शांति या विभाग के ठीक ढ़ंग से कार्य करने के लिए यह आवश्यक था। इस आर्थिक प्रभाण पत्र ने विधान मंडलों के अधिकारों को काफी क्षति पहुँचाई। इसके अतिरिक्त विधानमंडलों का निर्माण दो प्रकार के सदस्यों को मिलाकर किया गया था। एक वह जो जनसाधारण द्वारा चुने जाते थे और दूसरे वह जो सरकार द्वारा मनोनित किये जाते थे। प्रथम प्रकार के सदस्यों को जाति और व्यवसाय एवं धर्म के आधार पर बाँटा गया था। फलतः असमान तत्वों ने स्वस्थ्य दल पद्धति के निर्माण में बाधा उपस्थित की।
भारत सरकार अधिनियम-1935
    परिस्थितियाँ
1919 के अधिनियम को कांग्रेस ने अपर्याप्त, असंतोषजनक तथा निराशापूर्ण घोषित कर महात्मा गाँधी के नेतृत्व में 1920 ई0 में असहयोग आन्दोलन की शुरूआत कर दी जिसके कार्यक्रमों में केन्द्रीय और प्रांतीय विधानसभाओं का बहिष्कार भी शामिल था। बाद में इस कानून का विरोध उत्तरोत्तर बढ़ता ही चला गया। उदारवादी जो सदैव सरकार के हिमायती थे वे भी इन सुधारों को अपर्याप्त और असंतोष जन मानने लगे। चितंरजन दास और मोतीलाल नेहरू तथा अन्य नेताओं द्वारा स्थापित स्वराज्य पार्टी इस एक्ट का उपयोग विध्वंसक कार्य के लिए करना चाहती थी। उनका उद्देश्य था कि विधानमंडलों में पहुँचकर संविधान को नष्ट करो, ऐसा करों की सभा और परिषदों द्वारा सरकार चलानी असंभव हो जाए। 1923 के चुनावों में इस बंगाल और मध्य प्रांत में पूर्ण बहुमत मिला और कई अन्य प्रान्तों में ये सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरे। इन्होंने  विधानमंडलों का उपयोग सरकार विरोधी नीतियाँ अपनाकर की। इन्होंने सरकारी विधियों को पारित होने में खकावटें डाली और गवर्नर जनरल को अपने विशेषाधिकार का उपयोग कर शासन चलाने पर बाध्य किया। जिसका परिणाम यह हुआ कि 1919 के अधिनियम के उदारवादी प्रावधानों का वास्तविक रूप उभर कर जनता के सामने आया।
            1927 ई0 में साईमन कमीशन को नियुक्ति 1919 के सुधारों की असफलता का ही द्योतक था। क्योंकि इस एक्ट के पारित करते समय घोषणा की गई थी ि कवे 10 वर्ष पश्चात इन सुधारों का समीक्षा के लिए एक आयोग गठित करेगे। लेकिन इस आयोग का गठन समय से दो वर्ष पूर्व ही कर दी गई थी। 1930 ई0 में प्रकाशित साइमन कमीशन के रिपोर्ट में कहा गया था कि- (1) प्रान्तीय क्षेत्र में विधि तथा व्यवस्था सहित सभी क्षेत्रों में उत्तरदायी सरकार गठित की जाए। (2) केन्द्र में उत्तरदायी सरकार के गठन का अभी समय नहीं आया है (3) केन्द्रीय विधान मंडल को पुनर्गठित किया जाए जिसमें एक इकाई की भावना को छोड़कर संघीय भावना हो और इसके सदस्य पद्धति से प्रान्तीय विधान मंडलों द्वारा चूने जाए।
        बर्केनटेड की चुनौती कि भारतीय अपने लिए सर्वसम्मति से कोई संविधान को निर्माण नहीं कर सकते है को स्वीकार करते हुए 1927 ई0 में सभी भारतीय राजनीतिक दलों ने सर्वदलीय कांफ्रेस बुलाई। पंडित मोतीलाल नेहरू की अध्यक्षता में नियुक्त एक कमिटी ने भारतीय संविधान का सर्वअनुमदित रूप प्रस्तुत किया नेहरू रिपोर्ट जिसे भारतीय संविधान का ब्लयू प्रिंट कहा जाता है में सुझाव दिया कि साम्प्रदायिक चुनाव पद्धति का त्याग किया जाए तथा उसके स्थान पर अल्पसंख्यकों को उनकी जनसंख्या के आधार पर स्थान आरक्षित कर दिये जाए। इसने सम्पूर्ण भारत के लिए एक ईकाई वाला संविधान प्रस्तुत किया जिसके द्वारा भारत को केन्द्र तथा प्रांतो में पूर्ण प्रादेशिक स्वायतत्ता मिले। इसके विरोध में मुस्लिम लीग ने जिन्ना द्वारा प्रस्तुत 14 सूत्री कार्यक्रम में अपने लिए आरक्षण की मांग रखी।
                    इस राजनीतिक परिदृश्य में अक्टूबर 1929 ई0 में लार्ड इर्विन ने रैम्से मैकडोनाल्ड की नवगठित लेबर सरकार से मंत्रणा करके यह घोषणा की कि भारत की उन्नति का अंतिम चरण डोमिनियन स्टेट्स प्राप्त करना है। उन्होंने कहा कि ब्रिटिश सरकार ने यह निश्चित किया है कि साइमन कमीशन की रिपोर्ट पर इंगलैण्ड में गोलमेज सम्मेलन में समीक्षा की जाएगी जिसमें अंग्रेजी सरकार,भारतीय अंग्रेजी प्रदेश तथा भारतीय रियासतों के प्रतिनिधि शामिल होंगे। गोलमेज सम्मेलन का आयोजन लन्दन में 1930, 1931 और 1932 में किया गया इस समय महात्मा गाँधी के नेतृत्व में कांग्रेस ने सविनय अवज्ञा आन्दोलन छेड रखा था। फलतः वह प्रथम और तृतीय सम्मेलन में भाग नहीं ले सकी। सिर्फ द्वितीय गोलमेज सम्मेलन में महात्मा गाँधी कांग्रेस की ओर से भाग लिए। इस कांफ्रेस में जिन प्रश्नों पर सहमति हो सकी वे थी- (1) भारत की नई सरकार का रूप अखिल भारतीय संघ होना चाहिए। (2) कुछ आरक्षणों के समय केन्द्रीय सरकार संघीय विधानमंडल के प्रति उत्तरदायी हो।(3) यदि भारतीय प्रतिनिधि साम्प्रदायिक समस्या का समाधान नहीं कर सके तो प्रान्तों को प्रान्तीय स्वशासन मिलना चाहिए। ब्रिटिश प्रधानमंत्री ने अलग निर्वाचक मंडलों को बनाने रखा और फिर 1932 ई0 में अपना प्रसिद्ध साम्प्रदायिक पंचाट की घोषणा कर दी जिसके अनुसार केन्द्रीय तथा प्रान्तीय विधानमंडलों में सीटों का विभाजन साम्प्रदायिक अनुपात में करने का प्रयत्न किया गया। सबसे महत्वपूर्ण तथ्य यह था कि अनुसूचित जातियों के भी हिन्दूओं से भिन्न सम्प्रदाय मान कर आरक्षित स्थान दिए गये। इसके विरोध में महात्मा गाँधी ने आमरण अनशन कर दिया। फलतः पूना समझौते के द्वारा इसके रूप में थोडा परिवर्त्तन कर दिया गया।
इसके अतिरिक्त 1935 के अधिनियम के निर्माण में निम्न मसविदाओं की सहायता ली गई वे थी - साईमन कमीशन की रिपोर्ट नेहरू समिति की रिपोर्ट, तीनों गोलमेंज सम्मेलन में हुए वाद-विवाद, श्वेतपत्र, संयुक्त प्रवर समिति की रिपोर्ट तथा लोथियम ;स्वजपंद त्मचवतजद्ध जिसमें चुनाव सम्बन्धी प्रावधानों का विवरण था।
भारत सरकार अधिनियम 1935 के प्रावधान :- 1935 का अधिनियम काफी लम्बा और जटिल था। इसमें डच धाराये की ओर 10 परिशिष्ट थे। अधिनियम में केवल मूल सिद्धान्तों को ही निर्धारित न करके शासन सम्बन्धी प्रायः सभी बातों पर विस्तृत विवरण प्रस्तुत किया गया था। 1919 के अधिनियम की प्रस्तावना कोही 1935 के अधिनियम के साथ जोड़ दिया गया था। इसके तीन मुख्य अंग है - (1) अखिल भारतीय संघ (2) संरक्षणों सहित उत्तरदायी सरकार तथा (3) भिन्न-भिन्न साम्प्रदायिक तथा अन्य वर्गों के लिए पृथक् प्रतिनिधित्व।
अखिल भारतीय संघ :-1935 के अधिनियम के अंतर्गत भारत में संघीय शासक को योहना रखी गई थी। संघ के अंतर्गत तीन प्रकार की इकाईयाँ रखी गई थी - (1) ब्रिटिश भारतीय प्रांत (2) चीफ कमिश्नरों के प्रांत तथा देशी रियासतें। प्रांतों के लिए संघ में शामिल होना अनिवार्य था जबकि देशी रियासतों के लिए संघ में शामिल होना उनकी इच्छा पर छोड़ दिया गया था। प्रत्येक देशी रियामत को, जो संघ में शामिल होना चाहती थी, एक स्वीकृति लेख इंस्ट्रुमेंट ऑफ एक्सेशन ;पदेजतनउमदज वि ंबबमेपवदद्ध पर हस्ताक्षर करने पड़ते थे। इस स्वीकृति लेख में वह रियासत उन शर्तो का उल्लेख करती थी, जिन पर वह संघ में शामिल होने के लिए तैयार थी। इन पर उन सब विषयों का वर्णन भी होता था जिन पर रियासत संघ की प्रभुसत्ता स्वीकार करने को तैयार हो। संघ की सत्ता में किसी दूसरे स्वीकृति लेख द्वारा वृद्धि की जा सकती थी पर उसे कम नहीं किया जा सकता था। संघीय व्यवस्थापिका को इस स्वीकृति लेख में 20 वर्ष तक कोई परिवर्त्तन करने का अधिकार नहीं था। ब्रिटिश सम्राट इस स्वीकृति लेख को मानने के लिए बाध्य नहीं था। संघ में उन्ही रियासतों को शामिल किया जाना था जो अधिकांश संघीय विषयों पर संघ की सत्ता स्वीकार करने के लिए तैयार हों। कुछ विशेष विषयों पर वह विशेष परिस्थितियों में ही संघ की सत्ता स्वीकार करने से इंकार कर सकती थी, वे विषय थे - डाकतार सेना, मुद्रा आदि।
1935 के अधिनियम के अंतर्गत जिस संघीय शासन की स्थापना की जानी थी उसमें संघ की सभी विशेषताएँ मौजुद थी जिसकी विशेषताएँ थी - लिखित और कठोर संविधान, शक्तियों का पृथक्करण, संघीय न्याय पालिका आदि। 1935 के अधिनियम में संविधान लिखित और कठोर था। केन्द्रीय और प्रान्तीय इकाईयों के बीच शक्तियों का बँटवारा किया गया था। विषयों का बँटवारा करने के लिए तीन सूचियाँ बनाई गई - संघीय सूची, प्रांतीय सूची और समवर्ती सूची। संघीय सूची में केन्द्रीय हित के 59 विषय रखे गये। कुछ प्रमुख विषय थे - मुद्रा, डाक व तार, रेल, केन्द्रीय सेवाएँ, विदेशी मामले और सशस्त्र सेवाएँ। संघीय सूची पर विधान बनाने का अधिकार सिर्फ केन्द्रीय विधान मंडल को प्राप्त था। प्रांतीय सूची में स्थानीय महत्व के 54 विषय शामिल किए गये थे जिसमे प्रमुख विषय थे - शिक्षा, भू राजस्व, स्थानीय स्वशासन, कानून और व्यवस्था, सार्वजनिक स्वास्थ्य, कृषि, सिंचाई और नहरें, जंगल तथा खान आदि। इन पर साधारण स्थिति में कानून बनाने का अधिकार प्रांतीय विधान मंडलों को था। समवर्ती सूची में सामान्य महत्व के 36 विषय रखे गये थे। इन पर संघीय तथा प्रांतीय दोनों विधानमंडल कानून बना सकते थे। केन्द्रीय और प्रांतीय विधानमंडल के कानुन में किसी प्रकार के विरोध उत्पन्न होने की स्थिति में, जब तक प्रांतीय कानुनों को विचारार्थ संरक्षित न किया गया हो और गवर्नर जनरल ने उस पर अपनी स्वीकृति न दे दी हो, संघीय कानून ही मान्य समझा जाएगा। इन अधिनियम में यह व्यवस्था की गई थी कि गवर्नर जनरल अपनी इच्छा से किसी अवशिष्ट विषय पर कानून बनाने का अधिकार केन्द्रीय विधानमंडल अथवा प्रांतीय विधानमंडल को दे सकता था। अधिनियम में यह व्यवस्था की गई थी कि केन्द्र में संघ की इकाईयों के आपसी झगड़ों और केन्द्र तथा इकाईयों के झगड़े का निपटारा करने के लिए एक संघीय न्यायालय होगा। इसको 1935 के अधिनियम की व्यवस्था करने का अधिकार दिया गया, परन्तु यह भारत के लिए उच्चतम न्यायालय नहीं था अपिल का अंतिम न्यायालय प्रिवी कौंसिल थी।
विशेषताएँ -
इस प्रकार यह संघ प्रभुसत्ता संपल घटकों का स्वैच्छिक संघ नहीं था। देशी रियासतों के संदर्भ में स्वैच्छिक तथा ब्रिटिश भारतीय प्रांतों का शामिल होना एक अनिवार्य क्रिया थी जो उन पर उपर से थोपी गई थी।
संघ की इकाईयों में असमानता थी। संघ की ईकाइयाँ क्षेत्रफल, महत्व, शासन पद्धति आदि में असमान थी। ब्रिटिश प्रान्तों में उत्तरदायी शासन पद्धति की स्थापना हो चूकी थी जबकि देशी रियासतें अभी भी निरंकुश शासकों के अधीन थी।
संघ की इकाईयों पर संघ को एक समान प्रभुत्व प्राप्त नहीं था। चीफ कमिश्नर के प्रान्तों पर संघीय सरकार का नियंत्रण सबसे अधिक था, इसके लिए कानूनों का निर्माण भी संघीय विधान मंडल करता था। देशी रियासतों पर संघ की प्रभुसत्ता सबसे कमजोर थी। यहीं नहीं प्रत्येक रियासत पर भी संघ को समान सत्ता प्राप्त नहीं थी क्योंकि यह देशी रियासतों की ईच्छा पर आधारित था कि वे स्वीकृति लेख द्वारा किन विषयों पर संघ की सत्ता को स्वीकार करता है।
प्रायः सभी संघों में, संघीय विधानमंडल के उच्च सदन में, संघ की इकाईयों को समान प्रतिनिधित्व के उच्च सदन में, संघ की इकाईयों को समान प्रतिनिधित्व दिया जाता है, लेकिन भारतीय संघ में इकाईयों को समान प्रतिनिधित्व नहीं प्रदान किया गया था। सभी संघों में निम्न सदन के लिए प्रत्यक्ष चुनाव की व्यवस्था होती है, परन्तु भारत में संघीय सभा के लिए अप्रत्यक्ष चुनाव की व्यवस्था की गई थी। भारतीय संघ की एक अन्य विशेषता जो इसे अन्य संघों से पृथक् करती थी वह यह थी कि संघीय विधानमंडल में प्रान्तों के प्रतिनिधि निर्वाचित होकर आए थे जबकि देशी रियासतों के प्रतिनिधि मनोनित किये जाने थे।
प्रायः सभी संविधानों में संशोधन का अधिकार संसद को होता है, परन्तु भारत में 1935 के अधिनियम के अंतर्गत संशोधन का अधिकार केन्द्रीय विधान मंडल को न देकर ब्रिटिश संसद को प्रदान किया गया था। साधारणतया संघीय सरकारें स्वतंत्रतापूर्वक कार्य करती है। दिन प्रतिदिन के प्रशासन में किसी बाह्य शक्ति को हस्तक्षेप करने का अधिकार नहीं होता, परन्तु भारतीय संघ और उसकी इकाईयों के सम्बन्ध में गवर्नर जनरल और भारत सचिव को विशेष अधिकार प्राप्त थे।
संघीय कार्यकारिणी :- द्वैध शासन को प्रांतों से समाप्त कर केन्द्रीय कार्यकारिणी के लिए निश्चित किया गया। संघीय विषयों में रक्षा, विदेशी मामले, धार्मिक मामले तथा जनजाति क्षेत्र गवर्नर जनरल के हाथ में सुरक्षित रखे गये, जिन का प्रशासन वह अधिकाधिक तीन कार्यकारी पार्षदों की सहायता से चलाएगा जो वह स्वयं मनोनित करेगा और जो केवल उस के प्रति उत्तरदायी होंगे। शेष संघीय विभाग मंडल के प्रति उत्तरदायी होंगे। इसके अतिरिक्त कुछ विषय ऐसे भी थे जो कि गवर्नर जनरल के विशेष उत्तरदायित्व के थे जैसे कि देश की शांति को भय इत्यादि।
गवर्नर जनरल का स्थान और शक्तियाँ :- केन्द्र में गवर्नर जनरल ही समस्त संविधान का केन्द्र बिन्दू था। वह भिन्न-भिन्न तथा प्रायः विरोधी तत्वों को एकसूत्र में बाँधनेवाला तथा उनका मार्गदर्शन करनेवाला व्यक्ति था। उसे तीन प्रकार की भूमिकाएँ निभानी थी :-
उसे प्रायः मंत्रियों से परामर्श करना होता था परन्तु वह
अपने व्यक्तिगत निर्णय जिसमें वह परामर्श को स्वीकार करे या न करे से भी कार्य कर सकता था। जिन विषयों पर वह व्यक्तिगत निर्णय से कार्य कर सकता था, वे थे - (1) देश की वित्तीय स्थिरता और भारतीय साख की रक्षा करना (2) भारत अथवा उसके किसी भाग की रक्षा करना (3) अल्पसंख्यकों, सरकारी सेवकों तथा उसके किसी आश्रितों के हितों की रक्षा करना (4) भारतीय राजाओं के हितों तथा प्रतिष्ठा की रक्षा करना तथा (5) अंग्रेजी और बर्मी माल के विरूद्ध किसी भेदभाव से रक्षा करना तथा (6) अपनी निजी विवेकाधीन शक्तियों की रक्षा करना इत्यादि।
कुछ विषयों में वह अपने मंत्रियों से पूछे बिना अपने विवेकाधीन शक्ति से कोई भी कार्य कर सकता था। ये विषय थे - (1) रक्षा, विदेशी मामले, धार्मिक मामले तथा जनजाति क्षेत्र जिसके लिए उसे अधिकाधिक 3 कार्यकारी पार्षद नियुक्त करने थे (2) मंत्रिपरिषद की नियुक्ति तथा भंग करना (3) अपनी अधिनियम बनाने तथा अध्यादेश जारी करने की शक्ति (4) बिना मतदान वाले मदों का नियंत्रण जो कि बजट का 80 प्रतिशत भाग थी (5) गवर्नरों को आदेश जो कि उनके विशेष उत्तरदायित्व थे। (6) दोनों सदनों की संयुक्त बैठक, विधानमंडल को दिया जानेवाला भाषण अथवा उसको किसी विधेयक के विषय में संदेश भेजना तथा (7) विशेष प्रकार के विधेयकों को केन्द्रीय तथा प्रान्तीय विधानमंडलों में प्रस्तुत करने से पूर्व स्वीकृति प्रदान करना अथवा किसी विधेयक पर अपनी स्वीकृति प्रदान न करके उसे महामहिम सम्राट की स्वीकृति के लिए भेजना इत्यादि। इन विशेष विभागों तथा आरक्षणों के लिए अतिरिक्त शेष सभी विभागों का प्रशासन उसे अपने मंत्रियों के परामर्श और सहायता से ही चलाना होता था परन्तु फिर भी वह अपने निजी निर्णय से किसी भी मामले में मंत्रियों के परामर्श को मानने से मना ही कर सकता था।
संघीय विधानमंडल :- केन्द्रीय विधानमंडल में दो सदन थे - (1) राज्य परिषद और (2) संघीय सभा। राज्य परिषद एक स्थाई सदन था और उसके एक तिहाई सदस्य प्रत्येक 3 वर्ष के पश्चात् चुने जाने थे। इसमें 260 सदस्य होने थे जिनमें से 156 प्रान्तों के चूने हुए प्रतिनिधि और अधिकाधिक 104 रियासतों के प्रतिनिधि होने थे जिसे सम्बन्धित राजा मनोनित करते थे। संघीय सभा का कार्यकाल पाँच वर्ष निर्धारित किया गया था। इसमें कुछ सदस्यों की संख्या 375 थी, प्रान्तों से 250 सदस्य और रियासतों के अधिकाधिक 125 सदस्य होने थे। अंग्रेजी प्रान्तों के सदस्य प्रांतीय विधान परिषदों द्वारा चूने जाने थे और रियासतों के सदस्य राजाओं द्वारा मनोनित किए जाने थे। यह एक विचित्र व्यवस्था थी उपरी सदन का चुनाव सीधा मतदाताओं द्वारा किया जाए और निम्न सदर जो कि अधिक महत्वपूर्ण था, उसका चुनाव अप्रत्यक्ष हो। इसी प्रकार राजाओं को उपरि सदन के 40 प्रतिशत और निम्न सदन के 33 प्रतिशत मनोनित करने का अधिकार दिया गया था।
विधानमंडल की शक्तियाँ काफी सीमित थी। कुछ विशेष उसके अधिकार क्षेत्र से बाहर रखे गये थे जैसे - सेना तथा वायु एक्ट, नौसेना का परितोषिक न्यायालय एक्ट तथा 1935 के एक्ट का संशोधन आदि। इसी प्रकार अंग्रेजों के व्यापारिक और अन्य हितों के विरूद्ध कानून बनाने का अधिकार नहीं था। संघीय बजट का 30 प्रतिशत ऐसा धन था जिस पर विधानमंडल, मताधिकार का प्रयोग नहीं कर सकता था और यदि कोई ऐसा मद हो जिसको विधान सभा ने अस्वीकार कर दिया हो तो भी गवर्नर जनरल यदि चाहे तो उसे राज्य परिषद के सम्मुख रख सकता था। यदि दोनों सदनों में असहमति हो तो गवर्नर जनरल दोनों सदनों का संयुक्त अधिवेशन बुला सकता था और यदि कोई विधेयक स्वीकृत भी हो जाए तो भी गवर्नर जनरल अपने विशेषाधिकार का प्रयोग कर सकता था अथवा उसे पुनर्विचार के लिए भेज सकता था अथवा महामहिम (सम्राट) के विचार के लिए रख सकता था और उसके अपने स्वीकृत अधिनियमों को भी सपरिषद सम्राट ;ज्ञपदह.पद.ब्वनदबपसद्ध अस्वीकार कर सकता था।
प्रान्तीय स्वायत्तता :- प्रान्तीय स्वायत शासन के प्रायः दो अर्थ लिये जाते है, साधारणतया इसका अर्थ यह लिया जाता है कि प्रान्तों में उत्तरदायी सरकार की स्थापना। इसका अभिप्राय है कि प्रान्तीय मंत्री, प्रजा के प्रति अर्थात् उनके प्रतिनिधियों के प्रति विधानसभा में उत्तरदायी होंगे। इसका यह अर्थ भी लिया जाता है कि प्रान्त मोटे तौर पर भारत सरकार के नियंत्रण से मुक्त हो गये। तकनीकी दृष्टि से पार्लियामेंट की संयुक्त कमेटी द्वारा बाद वाला अर्थ ही लिया गया।
1935 के अधिनियम द्वारा 11 प्रान्तों में विधानसभाएँ बनाने का निश्चय हुआ। इसमें 6 प्रान्तों - बंगाल, बम्बई, मद्रास, बिहार, असम और यूनाइटेड प्रोविंस के विधान मण्डलों को द्विसदनीय बना दिया। उच्च सदन का नाम विधान परिषद और निम्न सदन का नाम सभी प्रान्तों में विधानसभा रखा गया। उच्च सदन को कभी भंग नहीं किया जा सकता था। इस सदन के लिए मतदाताओं की संस्था कम थी क्योंकि जमीन जायदाद की कड़ी शर्त्त मतदाता बनने के लिए जोड़ दी गई थी। मतदाता बनने के लिए हर प्रांत में आवश्यक योग्यताएँ अलग-अलग थीं जैसे बम्बई कौंसिल के लिए मत देने का अधिकार उन्हीं व्यक्तियों के पास का जो अपनी 15 हजार रूपये सालाना आमदनी पर आयकर देते थे या उसके पास इतनी जमीन जायदाद हो जिसका लगान 350 रूपये वार्षिक से कम न हो। भारतीय राष्ट्रवादियों को इसकी उपयोगिता पर संदेह था क्योंकि इन परिषदों के सदस्यों के अपने निहित स्वार्थ होते थे। प्रान्तों में विधानसभा के सदस्यों की संख्या अलग-अलग थी। विधानसभा के लिए मतदाता बनने की निम्नलिखित शर्त्ते थी (1) वह व्यक्ति जो आयकर देता हो (2) 8 रूपया वार्षिक भूमिकर देता हो (3) बम्बई शहर में रहनेवाला 60 रूपया वार्षिक घर का किराया, अगर बाहर हो तो 18 रूपया देता हो तथा (4) वह जिसने दसवीं कक्षा या स्कूल छोड़ने की परीक्षा पास कर ली हो।
प्रान्तीय कार्यपालिका :- 1935 के अधिनियम के अंतर्गत प्रान्तीय विषयों की अलग सूची तैयार की गई थी जिसमें वित्तीय, वैधानिक तथा प्रशासनिक क्षेत्रों की चर्चा की गई थी। केन्द्र का इन पर कोई अधिकार नहीं था और इन विषयों पर प्रान्त का पूर्ण नियंत्रण था, परन्तु प्रान्तों की स्वतंत्रता पर कुछ अंकुश भी लगाया गया था। प्रान्त के लिए कानून बनाने का अधिकार केवल प्रान्तीय विधान सभा के पास ही नहीं था। उन विषयों पर भी जो प्रान्त के अंतर्गत आते थे, संघीय विधानसभा गवर्नर जनरल द्वारा आपातकालीन समय घोषित कर देने पर कानून बना सकती थी। समवर्त्ती सूची के अधीन विषयों पर संघीय कानून और प्रान्तीय कानून में यदि कोई मतभेद खड़ा हो तो साधारणतः संघीय कानून ही मान्य होगा पर प्रान्त का कानून उस समय सर्वोच्च माना जाएगा जब उसे ब्रिटिश सम्राट या गवर्नर जनरल का अनुमोदन प्राप्त हो गया हो। प्रान्तीय विधानसभा में कुछ विशेष प्रकार के प्रस्ताव करने या संविधान को संशोधित करने के लिए गवर्नर जनरल की अनुमति आवश्यक थी।
गवर्नर जब अपने विवके से अथवा अपने व्यक्तिगत निर्णय के अनुसार कोई कार्य करता था तो उसके लिए वह गवर्नर जनरल के प्रति उत्तरदायी होता था। प्रान्त की कार्यकारिणी को अपने शक्ति का इस प्रकार प्रयोग करना होता था कि संघीय कानूनों का उल्लंघन हो। इसके लिए यदि संघ चाहे तो प्रान्तों को निर्देश दे सकता था। गवर्नर जनरल को यदि ऐसा लगे कि भारत या उसके किसी भाग में शांति भंग होने का खतरा है तो अपनी इच्छा से गवर्नर को आदेश दे सकता था कि वह किसी ढ़ंग से अपनी शक्ति का उपयोग करे।
उत्तरदायी सरकार के रूप में स्वायत शासन :- प्रान्तों में मंत्रियों को सैद्धान्तिक आधार पर उत्तरदायी बना दिया गया था पर कुछ रूकावटे आवश्यक थी। गवर्नर इंस्ट्रूमेंट ऑफ इन्स्ट्रक्शन के अंतर्गत उस व्यक्ति की सलाह पर मंत्रियों का चुनाव करता था जिनके कहने पर सम्पूर्ण मंत्रिमंडल त्याग पत्र दे सकता था। इसके अतिरिक्त कई बातों में मंत्रियों में संयुक्त उत्तरदायित्व के सिद्धान्त का उल्लंघन भी किया जाता थ। मंत्रियों का वेतन उनके मंत्रित्वकाल में विधानसभा नहीं बदल सकती थी। मंत्रियों का चुनाव करते समय मंत्रिमंडल में अल्पसंख्यक सम्प्रदायों को आवश्यक रूप से प्रतिनिधित्व देना होता था। साम्प्रदायिकता के आधार पर चुनाव प्रणाली ने भी मंत्रियों के संयुक्त उत्तरदायित्व को कमजोर बना दिया। गवर्नर को अपने मंत्रियों की सलाह पर प्रशासन चलाना था किन्तु जिन कार्यों में उसे अपने विवके से काम करने की शक्ति प्राप्त थी वहाँ पर वह मंत्रियों की सलाह लेने के लिए बाध्य नहीं था। उसकी स्वेच्छाचारी शक्तियाँ काफी विस्तृत थी। उन कार्यों में भी जहाँ वह अपने मंत्रियों का परामर्श लेने के लिए बाध्य था वहाँ पर भी यदि वह चाहे तो विशेष उत्तरदायित्व के नाम पर मनमानी कर सकता था।
बहुत से ऐसे अवसर थे जब गवर्नर अपने विवके से कार्य करता था वे थे - (1) अलग किये गये क्षेत्रों का प्रशासन (2) मंत्रिमंडल को भंग करना या मंत्रियों को हटाना (3) गवर्नर जनरल के आदेश को जारी करना (4) सेक्श - 93 के अंतर्गत उसे सम्पूर्ण प्रांत की या उसके किसी भाग की शक्ति को अपने हाथ में लेने का अधिकार । यदि वह समझता  है कि मंत्रियों  के सहयोग से प्रशासन का चलना कठिन है तो वह सारी शक्तियों अपने हाथ में ले सकता था। विषय उत्तरदायित्वों के अंतर्गत प्रायः सारा प्रान्तीय प्रशासन आ जाता था। गवर्नर विशेष उतरदायित्वा के आधार पर किसी भी मंत्री की सलाह के ठुकारा सकता था। विशेष उत्तरदायित्वों में आनेवाले क्षेत्र थेः-1.प्रान्त या प्रान्त के किसी भाग की शांति को भंग करनें वाले खतरे को रोकना 2.अल्पवर्गो के न्यायोचित हितों की रक्षा करना 3. सार्वजनकि सेवाओं के हितों की रक्षा करना 4.अंग्रेजों या अग्रेंजो के साथ सम्बन्धित हितों के साथ मतभेद की नीति को रोकना, भारतीयों रियासतो तथा शासकों के अधिकारों की रक्षा करना। यह रक्षा, सावधानियों प्रायः मंत्रियों के सारे उत्तरदायित्वों को ढक लेती थी। इस प्रकार उत्तरदायी सरकार का चल सकना प्रायः असभ्भव था, चूकिं विशेष उत्तरदायित्व के अंतर्गत गवर्नर को कार्य करने की सारी शक्तियों सौंप की गई थी।
    1935 के अधिनियम में मुख्यमंत्री जिसे प्रधानंमत्री कहा जाता था के पदा के बारे में कहीं प्रकाश नही अलग गया था। परन्तु इंस्द्रुमेंट ऑफ इंस्ट्रक्सन के अंतर्गत ऐसे पद की व्यवस्था की गई थी। गवर्नर कौसिल ऑफ मिनिस्टर्स की बैठकों की अध्यक्षता करता था, वह अपनी  इच्छानुसार किसी भी मंत्री को बर्खास्त कर सकता था तथा प्रांतीय विधानसभा को भंग करने का अधिकार गवर्नर के हाथों में होता था। प्रान्तीय स्वायत शासन में सबसे बड़ी बाधा इंडियन सिविल थविर्स के सदस्यों की नियुक्ति थी। ऐसे व्यक्तियों पर राज्यसचिव का नियंत्रण नही होता था। अतः मंत्री इन व्यक्तियों के खिलाफ जब यह इनकी आज्ञा नही मानते थे इसके विरूद्ध कोई कदम नही उठाया जा सकता  था
    1935 के अधिनियम के अंतर्गत जिस प्रान्तीय स्वायता की योजना की गई थी। उसके विवेचन स्पष्ट है कि काग्रेसी प्रांतो में तो गवर्नरों ने काफी सीमातमक सांविधानिक अध्यक्ष की भांति कार्य किया, परंतु गैर- कांग्रेसी प्रातों में तो गवर्नर ने मनमानी ढंग से हस्तक्षेप किया। प्रान्तीय स्वायत्तता की यह योजना अपने लक्ष्य को प्राप्त करने में असफल रही। इसके अंतर्गत न तो प्रांतों में वास्तविक अर्थो में उत्तरदायी शासन लागू हुआ, न ही प्रातों पर केन्द्र का नियंत्रण बहुत सीमा तक बना रहा। इसकी असफलता का कारण यह था कि प्रांतीय स्वायता केवल नाममात्र के लिए थी, व्यवहार में उस पर इतने अधिक बंधन थे कि प्रांतीय स्वायतता अर्थहीन हो जाती थी। कुछ बंधन इस प्रकार थेः-
1.1935 के अधिनियम  के अंतर्गत गवर्नर की स्थिति सांविधानिक अध्यक्ष की थी, बल्कि उसके हाथ में प्रांत का पूरा नियंत्रण था चाहे वह कार्यपालिका क्षेत्र हो
2.विधायी क्षेत्र में उसकी अनुमति के बिना कोई विधेयक कानून नहीं बन सकता था। वह किसी विधेयक को स्वीकार कर सकता था अधीकार कर सकता था,  पुनविर्चार के लिए लौटा सकता था या गवर्नर जनरल के अंतिम फैसले के लिए रोक सकता था उसे अध्यादेश जारी करने का अधिकार था। गवर्नर को यह अधिकार था कि वह किसी ऐसे बिल को कानून का रूप दे सकता था, जिसे विधानसभा ने अस्वीकार कर दिया हो, परन्तु गवर्नर उसे आवश्यक मानता हो।
3.वितीय मामलों पर उसे असाधारण अधिकार प्राप्त थे। सारा बजट उसकी देखरेख में तैयार होता था। बजट के अधिकांश भाग पर विधानसभा को मतदान करने का अधिकार नही था तथा जिन भाग पर मतदान करने का अधिकार था वह भी सीमित था। इसकें अलावा गवर्नर को बिना विधान सभा की स्वीकृति के भी किसी मुद्दे पर खर्च करने का अधिकार का अगर वह उस खर्च हो आवश्यक समझता हो । गवर्नर अपने विशेष उत्तरदायित्व पर दैनिक प्रशासन मे हस्तक्षेप कर सकता था। जो थोड़े बहुत अधिकार उत्तरदायी मंत्रियों के पास बचे थे, उनमें सार्वजनिक सेवाओं ने अनेक प्रकार की बाधाओं उपस्थित की। इसके विशेष कारण यह था कि उनपर मंत्रियों का कोई प्रभावशली नियंत्रण नही था। सचिवों को सीधें गवर्नर से मिलने की अनुमति प्राप्त थी। कई बार गवर्नर मंत्रियों की अपेक्षा सचिवों की बात मानते थे।
4.प्रान्तों पर केन्द्र का नियंत्रण भी काफी था। केन्द्र प्रांतो पर कई तरीकें से नियंत्रण रख सकता था। अधिनियम की धारा -93 के अनुसार गवर्नर को प्रांत में सांविधानिक तत्र की विफलता की घोषणा करने का अधिकार  था। इस स्थिति में प्रांतीय स्वराज्य के सारे ढाँचा को समाप्त किया जा सकता था। और गवर्नर का शासन लागू हो जाता था। गवर्नर प्रांत का शासन गवर्नर जनरल के आदेंशों के अनुसार ही करता था। यहीं नहीं गवर्नर अपनी मनमानी तथा स्वविवेक की शक्तियों का प्रयोग गवर्नर जनरल के नियंत्रण में ही रहकर कर सकते थे।
5.प्रान्तीय कानूनी क्षेत्र मे भी गवर्नर जनरल का नियंत्रण बहुत अधिक था। कुछ बिल गवर्नर द्वारा गवर्नर जनरल की स्वीकृति के लिए संरक्षित किए जा सकते थे। गवर्नर जनरल उस बिल को स्वीकार कर सकता था। अस्वीकार कर सकता था, विधानसभा को पुनर्विचार कर सकता था। अथवा ब्रिटिश सम्राट की स्वीकृति के लिए संरक्षित कर सकता था।
6.अधिनियम की धारा 102 के अनुसार यदि किसी आंतरिक व्यवस्था अथवा युद्ध की संभावना के कारण गवर्नर जनरल संकटकालीन स्थिति की घोषण कर देता था तो संघीय विधानमंडल को पं्रातों के बारे में कानून बनाने का अधिकार प्राप्त हो जाता था। जो विषय मंत्रियों को दिए गये थे। वे भी गवर्नर जनरल के नियंत्रण से बाहर नही थे जैसे प्रांत में शांति और व्यवस्था तथा कानून का नियंत्रण मंत्रियों को दिया गया था। परन्तु इन्ही विषयों पर गवर्नर तथा गवर्नर जनरल का विशेष दायित्व भी बनाया गया था।
1935 के अधिनियम के अन्य
    प्रावधान
1.संघीय न्यायालय की व्यवस्था इस अधिनियम के द्वारा  की गई थी। इस न्यायालय में एक मुख्यन्याधीश और 6 अन्य न्यायाधीश होते थे। इस एक्ट के तहत ।अक्टूबर 1937 को संघीय न्यायालय की स्थापना की गई जिसमें एक सर्वोच्च न्यायाधीश तथा 2 अन्य सदस्य थे, सर मोरिसग्वायर प्रथम मुख्य न्यायाधीश बनाये गये। इस संघीय न्यायालय के पास असीम शक्ति ओर संविधान की व्याख्या करने का अधिकार भी दिया था। लेकिन यहाँ भी सर्वोच्च शक्ति लंदन इकी प्रिवी कौसिल के हाथ में रखी गई।
2.रेलवे के प्रबन्ध के लिए एक संघीय प्रशासन विभाग की व्यवस्था की गई।यह एक वैधानिक संस्था थी जो राजनीतिक प्रभावो से मुक्त थी। इसके रेलों को चलाने और बनाने का कम सौपा गया।
3.इस एक्ट के द्वारा रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया की स्थापना की गई थी। इस बैक की स्थापना देशों के वित्त व साख पर नियंत्रण रखने के लिए की गई थी।
4.इस एक्ट ने गृह सरकार के ढाँचे को भी बदल दिया । भारत के लिए इंडिया कौंलिस को समाप्त कर परामर्शदात नियुक्त किए गये जिनकी अवधि 5 साल निश्चित की गई। पर यह राज्य सचिव पर निर्भर था कि व ही उनकी सलाह माने या नही।
5.बर्मा को भारत से अलग कर दिया गया। अदन को भारत सरकार के नियंत्रण से मुक्त करके इंगलैड के उपनिवेंश विभाग के अधीन रखा गया। प्रशासन के लिए बरार को मध्य प्रांम का अंग बना दिया गया।
6.1935 के अधिनियम के अंतर्गत मताधिकार का विस्तार किया गया प्रांतो के लिए करीब 11 प्रतिशत जनता के मतदान करने का अधिकार दिया गया। साम्प्रदायिक चुनाव प्रणाली देश व राष्ट्रहित के लिए हानिकारक थी, परन्तु फिर भी अंग्रेजो ने न केवल इसे बनाये रखा, बल्कि इसका और अधिक विस्तार किया गया। हरिजनों के लिए भी साम्प्रदायिक निर्वाचन पद्धति के अपनाया मुसलमानों को उनकी संख्या से अधिक प्रतिनिधित्व दि2या गया। इसके अतिरिक्त सिक्ख, इसाई, और एेंग्लो इंडियन स्त्रियाँ, व्यापार तथा उद्योग, भूमिपति, च्रम, विश्वविद्यालय, पिछडे हुए वर्ग तथा जनजातियों, सभी को पृथक पृथक प्रतिनिधित्व मिला।



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