ग्रामीण अर्थव्यवस्था के विकास में स्वयंसहायता समूह की भूमिका

 



ग्रामीण अर्थव्यवस्था के विकास में स्वयंसहायता समूह की भूमिका
                                   
           
स्वंयसहायता समूह ग्रामीण अर्थव्यवस्था के सुदृढ़ीकरण में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है। यह ग्रामीण क्षेत्रों में आजीविका एवं रोजगार प्राप्ति का बेहतर विकल्प है। ग्रामीण महिलायें इन समूहों से जूड़कर न केवल आर्थिक रूप से सशक्त हो रही है बल्कि इससे उनमें स्वावलंबन की प्रवृति भी बढ़ी है। स्वयंसहायता समूह न केवल महिलाओं में अपितु पुरूषों के लिए नवजीवन का संदेश लेकर आया है, खासतौर से उनलोगों के लिए जो आथि्र्ाक तंगी एवं गरीबी में जीवन गुजारने को अभिशप्त है।
      स्वयंसहायता समूह ‘संगठन’ शक्ति की अवधारणा पर आधारित है।(1) इन समूहों के गठन के पीछे मान्यता है कि बिखरे हुए लोगों को उत्पीड़ित एवं शोषित किया जा सकता है लेकिन उन्हें संगठित किया जाय तो वे एक बड़ी ताकत बन सकते है। इसी अवधारणा पर काम करते हुए ग्रामीण भारत में महिला स्वयंसहायता समूहों ने लाखों अशिक्षित गरीब महिलाओं को आर्थिक स्वंवत्रता प्राप्त करने में समर्थ बनाया है। स्वयंसहायता समूह व्यापक समूहों की जरूरतों को लेकर कार्य करते है, यथा किसान, दस्तकार, मछुआरे, विकलांग, सामाजिक रूप से पिछड़ें समूह, वृद्ध, किशोर-किशोरियाँ और महिलायें आदि। इन समूहों के अंतर्गत सरकारी एजेन्सियों, गैर-सरकारी संस्थाओं और बैंकों द्वारा गठित कई वित्तीय एवं गैर-वित्तीय संगठन शामिल किए गये है।
      स्वयंसहायता समूहों को विश्व का सबसे बडा़ सूक्ष्मवित्त कार्यक्रम माना जाता है। इसका उद्देश्य ग्रामीण निर्धनों की ऋण की जरूरतों की पूर्ति के लिए पूरक ऋण नीतियाँ बनाना है। साथ ही बैंकिंग गतिविधियों को बढ़ावा देना, बचत तथा ऋण के लिए सहयोग करना, समूह के सदस्यों के भीतर आपसी विश्वास और आस्था बढ़ाना है। महिला सहायता समूह सह बैंक सहबद्धता कार्यक्रम के अंतर्गत तीन लाख रूपये तक के ऋणों पर ब्याज सहायता देकर इन समहों को सात प्रतिशत की वार्षिक दर पर ऋण उपलब्ध कराया जा रहा है, साथ ही साथ समय पर ऋण चुकाने वाले महिला समूहों को तीन प्रतिशत की अतिरिक्त ब्याज सहायता भी दी जाती हैं इस प्रकार इन समूहों को वास्तव में चार प्रतिशत की दर पर ही ऋण उपलब्ध कराई जा रही हैं।
      भारत में 1970 के दशक के आरभ्भ में इन स्वयं सहायता समूहों का उपयोग गरीबी उन्मूलन कार्यक्रमों के क्रियान्वयन के लिए किया गया। इस समय सम्पूर्ण भारत में 30 लाख स्वयं सहायता समह कार्यरत्त है।(2) इसे सफल बनाने के लिए ग्रामीण विकास मंत्रालय, भारत सरकार ने आजीविका मिशन शुरू किया। इसके तहत देश के छः लाख गाँवों, 2.5 लाख पंचायतों 6000 ब्लॉकों एवं 600 जिलों में स्वयंसहायता समूहों के माध्यम से 7 करोड़ बी0पी0एल0 परिवारों को इसके दायरे में लाया गया है। इसके महत्व को रेखांकित करते हुए बिहार सरकार ने 2022 तक राज्य में 9200 करोड़ रूपये की योजनाओं के माध्यम से 1.25 करोड़ महिलाओं को 10 लाख स्वयंसहायता समूह में गठित करने का लक्ष्य रखा है। साथ ही 65 हजार ग्राम संगठन, 1600 संकुल स्तरीय परिसंध और 534 प्रखण्ड स्तरीय परिसंघ गठित होगा।(3) इन स्वयंसहायता समूहों ने बिहार एवं झारखंड सहित पूरे भारत में करोड़ों महिलाओं को ऐसा आत्मनिर्भर व्यवसायी बनाया है जिनका अपने जीवन और भविष्य पर अधिक नियंत्रण है। देशभर में उभरे इन समूहों से ग्रामीण महिलाओं में बचत की प्रवृत्ति को बढ़ावा मिला है जिसके चलते उन्हें सूदखोरों से छुटकारा प्राप्त हुआ है। आन्ध्रप्रदेश, तमिलनाडु, केरल आदि राज्यों में लोगों एवं गैर सरकारी संगठनों की सहायता से इन समूहों को काफी सफलता मिली है। आन्ध्रप्रदेश में स्वयंसहायता समूह एक आन्दोलन का रूप ले चूका है। राजस्थान एवं झारखण्ड के इन समूहों का व्यापक नेटवर्क अब सामाजिक और आर्थिक विकास की गतिविधयों में सशक्त भागीदारी निभाते हुए जनजाति उत्थान और ग्राम्य विकास के नवीन स्वरूप को दर्शा रहा है। आदिवासी महिलायें समूहों में आगे आकर घर-गृहस्थी के कामों के साथ ही रोजगारपरक गति-विधियों का संचालन कर रही है। झारखण्ड के हजारीबाग के एक गॉव ’हुर्हुरू’ में महिलायें जनसेवा परिषद नामक स्वयंसेवी संस्था के माध्यम से 18 स्वयंसहायता समूहों का गठन किया है जिसके माध्यम से भूमिहीन और दलित महिलाओं ने परिवार की आय में महत्वपूर्ण योगदान देकर यह सिद्ध कर दिया है कि संगठन में बड़ी शक्ति है।(4) स्वयंसहायता समूहों के अंतर्गत आर्थिक कार्य चूनने की स्वतंत्रता होती है। यहीं कारण है कि स्वंयसहायता समूह द्वारा संचालित गुजरात के लिज्जत पापड़ का कारोबार आज दुनियाँ में मशहुर है। राजस्थान की महिलायें बँधेज एवं रंगाई के कार्य से अच्छी कमाई कर रही है। छत्तीसगढ़ के दुर्ग जिले की भारदा ब्लॉक  की महिलाओं ने स्वयंसहायता समूह के माध्यम से बैंक ऋण प्राप्त करके गरीबी रेखा से ऊपर उठकर अपनी आय और जीवन-स्तर में सुधार किया है। यहीं पर ‘गुरूर गाँव‘ की अनुसूचित जाति की महिलाओं ने ‘लक्ष्मी‘ समूह बनाकर अगरबत्ती निर्माण के क्षेत्र में नई पहचान बनाई है। राजस्थान के जयपुर जिले के उदयपुरियाँ गॉव की महिलाओं ने ‘श्यामा स्वयंसहायता समूह‘ के रूप में संगठित होकर चमड़ें की जूतियों यानी मोजड़ी का निर्माण कर फैशन की दुनियाँ में एक हलचल पैदाकर दी है। इसी तरह बारपेटा जिले में भवानीपुर महतोली गॉव की कमला द्वारा संचालित स्वयंसहायता समूह ने खाद्य-प्रसंस्करण उद्योग को एक नई उॅच्चाई दी है। सदियों से साँप और चूहें खाकर जीवन बीताने वाली चेन्नई की इरूलार समुदाय की महिलाओं ने पौरनामी इरूलार महिला स्वयंसहायता समूह गठित कर मछली-पालन उद्योग को एक नया आयाम दिया है। डींग तहसील(राजस्थान) में बहताना की महिलायें लुपिन वेलफेयर एण्ड रिसर्च फाउंडेशन के माध्यम से ‘तुलसीमाला‘ निर्माण कर न केवल अध्यात्म के क्षेत्र में अपना योगदान दे रही है अपितु इससे गाढ़ी कमाई भी कर रही है। छत्तीसगढ़ के झाबुआ जिले में संचालित ’चेतना महिला बचत सहकारी संस्था‘ बैंकिग के क्षेत्र में एक अद्भूत मिशाल है।
      लेकिन यह कहना गलत होगा कि स्वयंसहायता समूह के द्वारा केवल आर्थिक गतिविधियाँ ही संचालित की जा रही है, बल्कि वास्तविकता यह हैं कि इन समूहों का कार्यक्षेत्र इससे काफी विस्तृत है। इनके द्वारा महिलायें सामाजिक जीवन के दूसरे विषयों जैसे, बालविवाह, विधवा विवाह, तलाक अंतरजातीय विवाह, पर्दाप्रथा, वैधव्य, महिला हिंसा एवं उत्पीड़न, यौन-शोषण, महिला-शिक्षा, महिला अधिकार, लैंगिक भेदभाव, दहेज प्रथा आदि से सम्बन्धित मुद्दों का हल तलाशने में भी लगी है। साथ ही इसके लिए आवश्यक कदम भी उठा रही है। इतना ही स्वयंसहायता समूहों के माध्यम से समाज से कटे वर्गों, समुदायों एवं विध्वंशकारी तत्वों को समाज की मुख्यधारा में शामिल करने के लिए प्रयत्न किया जा सकता है। इसप्रकार, ये समूह आज न केवल लोगों को रोजगार उपलब्ध करा रहे है अपितु ग्रामीण भारत की अर्थव्यवस्था को नये सिरे से रचने एवं गढ़ने का कार्य भी बड़ी सुगमता से एवं दृढ़ता से कर रहे है।

संदर्भः-
(1) कुरूक्षेत्र, जुलाई 2013, सम्पादकीय
            (2) इंस्टिट्यूट ऑफ एशियन डेवलपमेंट रिसर्च की रिपार्ट 2013
(3) टाइम्स ऑफ इंडिया, पटना, 2 अगस्त 2014
(4) कुरूक्षेत्र, जुलाई 2013, पृष्ठ-15











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