भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की सामाजिक चेतना




भारतेन्दु एक ओर परम्परागत भारतीय समाज की मध्यकालीन अवस्था की उपज थे तो दूसरी ओर परम्परा और मध्यकालीनता की सीमाओं को तोड़कर अपने अनुकूल एक आधुनिक समाज की कल्पना भी एक रहे थे। सामाजिक चेतना जगाने की दृष्टि से भारतेन्दु कबीर के परवर्ती रहे है। देनों ने क्रांति की चेतना जगाई, अपने युग के समाज में व्याप्त पाखण्ड, दुराचार तथा कुरीतियों पर जबरदस्त प्रहार कर उन्हें मिटाने की प्रबल चेष्टा की। आचार्य शुक्ल ने सही अर्थों में भारतेन्दु को नए युग का प्रवर्तक कहा है। शुक्लजी के अनुसार ‘‘उन्होंने हमारे जीवन के साथ हमारे साहित्य को फिर से लगा दिया। बडे़ भारी विच्छेद से उन्होंने हमें बचाया। उन्होनें पहली बार हिन्दी साहित्य को सामाजिक चेतना की ऐतिहासिक अनिवार्यता एवं अनुरूपता प्रदान की। साहित्य के आनन्दवादी दृष्टिकोण को सामाजिक उपयोगिता के दृष्टिकोण से जोड़ा।1’’ भारतेन्दु का युगान्तकारी महत्त्व है कि उन्होंने अपने प्रदेष की सांस्कृतिक आवष्यकताओं को पहचाना। साहित्यिक हिन्दी को सँवारा, साहित्य के साथ हिन्दी के नये आन्दोलन को जन्म दिया, हिन्दी साहित्य में राष्ट्रीय एवं जनवादी तत्वों को प्रतिष्ठित किया।2
भारतेन्दु हरिष्चन्द्र के आविर्भाव तक समाज मध्ययुगीन जड़ता से मुक्त नहीं हो पाया था। अभी भी सामान्य जन अंधविष्वासों, पाखण्डों, धर्माडम्बरों और कई प्रकार के विकार के जाल में उलझा हुआ था। रूढ़ियाँ अब भी उन्हें अपने गुँजलक में लपेटे हुए थी। जड़ संस्कार और सामाजिक विधि-निषेध उनके मन के अंदर गहरे धँसे हुए थे। औपनिवेषिक शासन और विक्टोरियाई मूल्य देषी लोगों के लिए आतंक का पर्याय थे। ब्रिटिष साम्राज्य की असीम ताकत से भारतीय निष्चेस्ट, कायर किंकर्त्तव्यविमूढ़ और असहाय से पडे़ थे। मैकाले की षिक्षा नीति के चलते हमारे देषी भाषा का अवसाम हो रहा था। भौड़ी नकल ने कुछ भारतीय बाबुओं को देषी प्रजाति का अंग्रेज बना दिया था। वास्तव में भारतेन्दु के समक्ष गहरी चुनौती थी।
19वीं शताब्दी में हिन्दू पुनर्जागरण का दौर था, जो विक्टोरियाई मूल्यों से टकराव का नतीजा था। नवजागरण, पूर्ण जागरण था। एक तरफ साम्राज्यविरोधी एवं सामंतविरोधी चेतना थी तो दूसरी तरफ धार्मिक अंधविष्वास और सामाजिक रूढ़ियों के विरूद्ध आक्रोष था। ऊँच-नीच, ब्राह्मण, छुआछूत वाली पुरानी वर्ण व्यवस्था को बदलने का स्वर धीमे-धीमे उठ रहा था। स्वदेषी वस्तुओं के व्यवहार की माँग की जा रही थी। सरकार, कचहरी और प्रेस एक्ट की निन्दा हो रही थी। उदार सामाजिक भावना, राजनीतिक चेतना, नई साहित्यिक धारा सब मिलकर नवजागरण का शंख फूँक रहे थे।
उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में अनेक महापुरूषों, राममोहन राय, ईष्वरचन्द्र विद्यासागर, दयानन्द सरस्वती, महादेव गोविन्द राणाडे, भारतेनदु हरिष्चन्द्र आदि ने अपने उदार विचारों तथा त्याग और तपस्या के जीवन से तथा दूसरी ओर अनेक संस्थाओं, ब्रह्मसमाज, प्रार्थना समाज, आर्य समाज, तदीय समाज आदि ने अपने सुधार आन्दोलनों तथा प्रचार कार्य से समाज में फैली कुरीतियों का उन्मूलन कर देष को प्रगति का मार्ग अपनाने की प्ररेणा दी। भारतेन्दु ने समाज की कुरीतियों का, सांस्कृतिक विघटन का, आर्थिक अवनति एवं धर्म के क्षेत्र में फैले पाखण्ड, आडम्बर, निष्क्रियता और पोंगेपन का कठोर भाषा में आलोचना की। उन्होंने मद्यपान, दहेज, वेष्यागमन और बाल विवाह से हानि, जन्मपत्री मिलाने की मूर्खता और अवैज्ञानिकता, भू्रणहत्या के दोषों, पारस्परिक फूट और वैर, सकीर्ण जातीयता आदि से बचने, अदालत, विदेषी वस्तुओं से दूर रहने की आवष्यकता पर बल दिया। वर्णव्यवस्था पर उन्होंने करारा प्रहार करते हुए ब्राह्मणों की मूल्यहीनता, सामाजिक-नैतिक आदर्षों से पलायन, जातीय गौरव को ताक पर रख स्वार्थसिद्धि में लिप्तता को चित्रित किया। उन्होंने उन ज्ञानी, प्रबुद्ध भारतीयों की भी अच्छी खबर ली, जो अपने आपको आध्ुनिक एवं प्रगतिषील समझते थे, लेकिन अनेक बुराईयों के संवाहक थे। भारतेन्दु की दृष्टि समाज सुधार से लेकर स्वदेषी आन्दोलन तक गई और उन्होंने हर क्षेत्र में नई चेतना जगाई। भारतेन्दु की मुकरियाँ अंग्रेजी पढे़ ग्रेजुएटों, पुलिस, विधवा विवाह, शराब, कचहरी, कानून सब पर प्रहार करती है। ‘अंधेर नगरी’ नाटक में वे हाकिमों के द्विगुणित कर लगाने, अमलों के घूस लेने, महाजनों के अत्यधिक लाभ उठाने, अंग्रेजों द्वारा सारे भारत को उदरस्थ किए जाने, पुलिस के अनियमित कार्य करने की जो चर्चा करते है, उससे उस समय के अधिकारी और धनी वर्ग की मनोवृत्ति परिलक्षित होती है।3
चूरन साहब लोग जो खाता। सारा हिन्द हजमकर जाता।।
चना हाकिम सब जो खाते। सब पर दूना टिकस लगाते।।
भारतेन्दु हरिष्चन्द्र ने सामाजिक जीवन की उपेक्षा न कर जनता की समस्याओं के निरूपण की आरे पहली बार व्यापक रूप में ध्यान दिया। भारतेन्दु युग में नारी षिक्षा, विधवाओं की दुर्दषा, अस्पृष्यता आदि को लेकर जो सहानुभूतिपूर्ण कवितायें लिखी गई, उनके प्रतिपाद्य की नवीनता ने सहृदय समुदाय को विषेष रूप से आकृष्ट किया।4 इन समस्याओं को रूपायित करने के लिए उन्होंने एक ओर मध्यमवर्गीय सामाजिक परिस्थितियों का चित्रण किया तो दूसरी ओर रूढ़ियों का विरोध करते हुए विकास की चेतना की आकांक्षा को भी अभिव्यक्ति दी। भारतेन्दु ने भारत दुर्दषा नाटक में वर्णाश्रम धर्म की संकीर्णता का जोरदार विरोध किया है - ‘‘बहुत हमने फैलाये धर्म, बढ़ाया छुआछूत का कर्म।’’ नारी के प्रति अपनी प्रगतिषीलता का परिचय उन्होंने बालबोधिनी पत्रिका से दिया है। स्त्री षिक्षा, बाल विवाह और विदेष यात्रा के वे प्रबल समर्थक थे।5 प्रेमयोगिनी में काषी के धर्माडम्बर का छायाचित्र है। जैन कौतुहल में धार्मिक विद्वेष को व्यर्थ बताया गया है। ‘वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति’ सामाजिक धार्मिक विकृतियों पर क्रूर व्यंग्य है। ‘नीलदेवी’ में जहाँ राजपूती आन-बान हैं, वहीं नारी व्यक्तित्व की प्रतिष्ठा भी की गई है। सत्य हरिष्चन्द्र नाटक में सत्यवादिता, कर्त्तव्य परायणता, चारित्रिक दृढ़ता जैसे मूल्यों के द्वारा श्रृंगार के अतिरिक्त युवावर्ग के लिए उपयोगी आदर्ष की स्थापना की गई है। कविवचन सुधा, हरिष्चन्द्र मैंगजीन आदि पत्रों के माध्यम से उन्होंने तत्कालीन सामाजिक और राजनीतिक समस्याओं के प्रति लोगों को जागरूक किया। डॉ0 रामविलास शर्मा ने लिखा है कि ‘‘देष के रूढ़िवाद का खण्डन करना और महन्तों, पण्डे-पुरोहितों की लीला प्रकट करना निर्भिक पत्रकार हरिष्चन्द्र का भी काम था।’’ उन्होंने एक धार्मिक संस्था ‘तदीय समाज’ की स्थापना की जिसके द्वारा गोरक्षा का प्रचार और मांस-मदिरा-सेवन का विरोध किया जाता था।
देश की आर्थिक विपन्नता भारतेन्दु के लिए सर्वाधिक पीड़ा का विषय थी। वे औपनिवेषिक शासन की धन-दोहन की नीति से भलीभाँति परिचित थे। भारतीय विदेषी वस्तुओं एवं भौतिक प्रलोभनों के जाल में फँसते चले जा रहे थे। अधिकाधिक राजस्व उगाही और कर अकाल एवं भूखमरी का कारण थी। कृषि के वाणिज्यीकरण के कारण कृषक ऋणग्रस्तता बढ़ती जा रही थी। कुल मिलाकर सारे भारत में गरीबी, महामारी और विपन्नता का साम्राज्य था। यातायात के सुगम साधनों, सिंचाई की सुविधाओं, षिक्षा-प्रसार आदि अलभ्य लाभ प्रदान करने के लिए उन्होंने ब्रिटिष शासन की प्रषंसा की, किन्तु इसके साथ ही वे यह नहीं भूल सके कि सामान्य जनता और कृषकों की दरिद्रता घटने की बजाय और बढ़ी है। इसीलिए पाष्चात्य सभ्यता के सम्पर्क में देष के सांस्कृतिक पुनरूत्थान की आवष्यकता का अनुभव करते हुए भी उन्होंने शासक वर्ग द्वारा देष के आर्थिक शोषण का विरोध किया है -
अंगरेज राजा सुख साज सजै सब भारी।
पै धन विदेष चलि जात यहै अति ख्वारी।।
प्राचीन भारत की भौतिक, सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक समृद्धि के आलोक में वर्त्तमान की तुलना के क्रम में अकाल, महँगाई महामारी तथा करों के बोझ से त्रस्त जन-जीवन, परिवार समाज और देष की क्रमषः बढ़ती हुई हीनावस्था के चित्रण में भारतेन्दु हरिष्चन्द्र की वाणी करूणा से भींग उठती है, समाज की पीड़ा को व्यक्त करते हुए वे कहते हैं -
रोवहूँ सब मिली, आवहूँ भारत भाई।
हा! हा! भारत दुर्दषा न देखी जाई।।
भारतीय अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ करने की कामना से भारतेन्दु हरिष्चन्द्र ने स्वदेषी उद्योगों को प्रोत्साहन देने और स्वदेषी वस्तुओं का प्रयोग करने पर भी बल दिया। ‘जीवत बिदेस की वस्तु लै, ता बिन कछु नहि कर सकत’ के प्रतिपादक भारतेन्दु ने प्रबोधिनी’ शीर्षक कविता में विदेषी वस्तुओं के बहिष्कार की प्रेरणा देते दिखाई देते हैं।6 भारत दुर्दषा का एक पात्र अपने कल-कारखाने और उधम खडे़ करने की बात करता है।
बिना सामाजिक एकता के राष्ट्रीय एकता की गुहार ऐकांतिक जाप बनकर रह जाती है। भारतेन्दु और भारतेन्दु मंडल के कवियों ने इसलिए पहले सामाजिक सुधार के प्रयत्नों के जरिए सामाजिक एकता स्थापित करने की कोषिष की। हमारे समाज में धर्म की आड़ लेकर ही घृणित जातिवाद और छुआछूत का विरोध करने के लिए ऐसे धर्म का विरोध जरूरी समझा। समाज जाति में तो बँटा ही था, साम्प्रदायिक स्तर पर भी सीधा विभाजन था। जब तक सामाजिक सौहार्द्र नहीं आता तब तक किसी वर्ग या समुदाय से राष्ट्रीयता का उठा हुआ स्वर एकांगी साम्प्रदायिक स्वर बनकर रह जाता। ‘सभी धर्म के वहीं सत्य सिद्धान्त न और विचारों’ प्रेमधन की उक्ति के साथ भारतेन्दु ने सब भारतीयों को ‘भारत भाई’ कहकर देषोत्थान में लग जाने के लिए प्रेरित किया।
भारतेन्दु एक जनकवित थे। भाषा की उन्नति को राष्ट्रीय उन्नति माना। उन्होंने समस्त राष्ट्रीय जागरण को लोक जागरण से सम्बद्ध किया और लोक जागरण के लिए लोकभाषा को अनिवार्य समझा। ‘जातीय संगीत’ निबंध में उन्होंने जनता की भाषा में छोटे-छोटे छंद, उन्हीं की धुनों में उनके गायन पर, उन छंदों को छापकर बाँटने पर बल दिया। परिवर्त्तन और संस्कार की प्रक्रिया भारतेन्दु ने केवल साहित्य रचना से ही नहीं निभाई, वस्तुतः वह जनता के बीच आए। जनता के सुख-दुःख, उसकी निरक्षरता, निर्धनता, उसके मनोरंजन सभी तत्वों के प्रति वह सजग थे और जन साधारण के बीच लोकप्रिय थे। वह जनता के हितैषी थे और उनके लेखक, अभिनेता रूप को जनता पहचानती थी। यहाँ तक कि भाषा भी उन्होंने जनता से सीखी। जनता की स्थानीय बोलियों के प्रयोग, मुहावरे टोन, उनके गीत, छन्द, उनकी संस्कृति को उन्होंने ग्रहण की।7 उनके नाटको की कथा में जन-जीवन से अधिक निकटता, स्वाभाविकता और यथार्थता आई है। उनके नायक-नायिका, पात्र तथा उनके जीवन की घटनाएँ भी अधिक मानवीय और इस जीवन की है।
इस प्रकार, भारतेन्दु और भारतेन्दु काल के समस्त कवि पुराने सामाजिक ढ़ाँचे से संतुष्ट न होकर उसमें परिवर्त्तन चाहते थे। आर्थिक शोषण के प्रति उनके मन में तीव्र आक्रोष था तो सामाजिक सुधार लाने की तीव्र आकांक्षा भी थी। भारतेन्दु युगीन काव्य में सर्वप्रथम सामाजिक जीवन एवं जागरण को अभिव्यक्ति मिली।8 भारतेन्दु ने प्रथम बार सामाजिक पक्ष और जन समस्याओं को साहित्य में अभिव्यक्ति प्रदान की। वास्तविकता तो यह है कि प्रेमचन्द्र के यथार्थवाद निराला की प्रगतिषीलता और क्रांतिकारिता, विद्रोह और जागरण की जमीन भारतेन्दु ने ही बना दी थी।

संदर्भ ग्रंथ-सूची


रामचन्द्र शुक्ल, चिन्तामणि, भाग-1 पृष्ठ - 191
रामविलास शर्मा, भारतेन्दु हरिष्चन्द्र, पृष्ठ-21
डॉ0 बच्चन सिंह, हिन्दी नाटक, द्वितीय संस्करण, पृष्ठ - 33
डॉ0 नगेन्द्र, हिन्दी साहत्य का इतिहास, पृष्ठ - 450
सिद्धनाथ कुमार, अंधेरनगरी (प्रक्कथन) पृष्ठ - 1
वही, डॉ0 नगेन्द्र, पृष्ठ - 450
गिरीश रस्तोगी, अंधेर नगरी, पृष्ठ - 13
हुकुमचन्द राजपाल, हिन्दी साहित्य का इतिहास, पृष्ठ-288

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