भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की भूमिका

भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की भूमिका


भारत का राष्ट्रीय आन्दोलन ब्रिटिश- भारतीय मुठभेड़ का परिणाम था। इसका जन्म पारम्परिक देषभक्ति से हुआ, जो भूमि, भाषा और पंथ से लगाव की एक सामाजिक स्तर पर सक्रिय भावना थी।1 किसी भी गुलाम देष में राष्ट्रीय चेतना नवजागरण के विकास का अगला चरण हुआ करती है। भारत में स्वतंत्रता संघर्ष की भावना अंग्रेजी साम्राज्यवाद के दवाब से ही पनपी थी। अंग्रेजी शोषण के अखिल भारतीय स्वरूप के खिलाफ अखिल भारतीय प्रतिक्रिया के रूप में राष्ट्रीय चेतना विकसित हुई थी।
बढ़ते नस्ली तनाव, धर्मान्तरण के डर और बेंथमवादी प्रषासकों के सुधारवादी उत्साह ने पढे़-लिखे भारतवासियों को मजबूर कर दिया कि वे ठहरकर अपनी संस्कृति पर एक नजर डालें। वरनार्ड कोहन ने इसे ‘संस्कृति का मूर्त्तन’ कहा है, जिससे षिक्षित भारतवासियों ने अपनी संस्कृति को ऐसी ठोस इकाई के रूप में निरूपित किया, जिसका आसानी से उद्धरण दिया जा सके, तुलना की जा सके और खास उद्देष्यों के लिए उपयोग किया जा सके। यह नई सांस्कृति परियोजना, जिसने अपने आपको अंषतः उन्नीसवीं शताब्दी के सामाजिक और धार्मिक सुधारों के माध्यम से व्यक्त किया, उसका सूत्र शब्द पुनर्जागरण में निहित था।2 इसका उद्देष्य भारतीय संस्कृति को शुद्ध करना और इस तरह उनकी पुनर्खोज करना था कि वह बुद्धिवाद, अनुभववाद, एकेष्वरवाद और व्यक्तिवाद के यूरोपीय आदर्षों से मेल खाए। भरतीय सभ्यता किसी भी तरह पष्चिमी सभ्यता से हीन नहीं है, बल्कि अपनी आध्यात्मिक सिद्धिओं में उससे भी श्रेष्ठत्तर है। इसी क्रम में भारतेन्दु हरिष्चन्द्र ने हिन्दी साहित्य को नवजागरण के आधार के रूप में प्रस्तुत किया। वे हिन्दी के प्रचार-प्रसार के क्रम में आयोजित सभाओं और गोष्ठियों में अक्सर प्रष्न उठाया करते थे कि वे (अंग्रेज शासक और हम शासित कैसे बन गये)
कवि, नाटककार, निबंध लेखक तथा उपन्यासकार के रूप में भारतेन्दु हरिष्चन्द्र ने अपनी महान सृजनात्मकता का परिचय दिया। ‘हरिष्चन्द्र मैगजीन’, ‘हरिष्चन्द्र चन्द्रिका’, ‘कवि वचन सुधा’ नामक पत्रिकाओं का प्रकाषन काफी समय तक किया और उनके माध्यम से लोगों में राष्ट्रीय भावना का संचार किया। भारतेन्दु यह भली प्रकार से जानते थे कि राष्ट्र, भारतीयता और जनता का नवजागरण के लिए संगठित कार्य अनिवार्य था। उन्होंने न केवल स्वयं रचना की, अपना एक लेखकमंडल भी तैयार किया जिसमें बालकृष्ण भट्ट, प्रताप नारायण मिश्र, बदरीनारायण प्रेमधन, श्रीनिवास दास, राधाचरण गोस्वामी आदि शामिल थे। भाषा, साहित्य, समाज, राष्ट्र, धर्म, कला, संस्कृति के समग्र आन्दोलन को भारतेन्दु ने कई स्तरों पर कई कार्यों से सम्पन्न किया। रामविलास शर्मा की माने तो भारतेन्दु हरिष्चन्द्र का यह एक युगान्तकारी महत्त्व है कि उन्होंने अपने प्रदेष की सांस्कृति आवष्यकताओं को पहचाना। उन्होंने साहित्यिक हिन्दी को सँवारा, साहित्य के साथ हिन्दी के नये आन्दोलन को जन्म दिया, हिन्दी साहित्य में राष्ट्रीय एवं जनवादी तत्त्वों को प्रतिष्ठित किया।3
भारतेन्दु के काव्य की प्रमुख विषेषता राष्ट्रीय भावना की अभिव्यक्ति है। इससे पूर्व यदा-कदा ही राष्ट्रीयता की भावना को अभिव्यक्ति मिली थी। गुरू गोविन्द सिंह और भूषण ने राष्ट्र की बात की थी, लेकिन उनकी राष्ट्रीयता जातीयता तथा प्रान्तीयता से ऊपर नहीं उठ सकी थी। भारतेन्दु ने पहली बार तत्युगीन काव्य में एक अखण्ड भारत की तस्वीर प्रस्तुत की थी। उनके नाटकों में, गद्यों में या काव्यों में एक ओर भरत की गौरवषाली परम्पराओं का गुणगान किया गया है, वहीं दूसरी ओर सम्पूर्ण राष्ट्र की एकता और अखण्डता का महत्त्व प्रतिपादित किया गया है। जहाँ उन्होंने पत्रकारिता को राष्ट्रीय उत्थान और सामाजिक-राजनैतिक चेतना का माध्यम बनाया वहीं उनके नाटक जन चेतना के बाहक रहे हैं। वैदिकी हिंसा, हिंसा न भवति, सामाजिक-धार्मिक विकृतियों पर करारा व्यंग्य है। विषस्य-विषमौधम् में अंग्रेजों की चतुर शोषण-प्रणाली और भारतीयों की मोहासक्त स्थिति का चित्रण है। ‘भारत दुर्दषा’, ‘अंधेर नगरी’ और ‘भारत जननी’ में नवजागरण के प्रति प्रतिबद्धता, सम-सामयिक परिस्थितियों के चित्रण और विदेषी शासन की दासता में, दमनचक्र में दबी भारतीयता को प्रकट किया गया है।4
भारतेन्दु ने राष्ट्रीय स्वतंत्रता आन्दोलन को हिन्दी पट्टी में तीव्र धार दी। उनकी राजनीतिक चेतना के परिणाम-स्वरूप देषभक्ति और राजभक्ति की धारा प्रवाहित हुई। भारतेन्दु का जिस समय आविर्भाव हुआ था उस समय भारत में 1857 की महान क्रांति हो चूकी थी। इस प्रथम राष्ट्रीय स्वतंत्रता संघर्ष को असीम पाषविक बल से कुचला जा चुका था, अंग्रेज सर्वत्र विजयी मुद्रा में थे। भारत पर कंपनी राज का अंत हो चुका था, महारानी विक्टोरिया का शासन था। इस समय भारतेन्दु ने बड़ी निपुणता से अपनी राष्ट्रभक्ति को राजभक्ति के आवरण में प्रस्तुत किया। समय के साथ भारतेन्दु के दृष्टिकोण में भी बदलाव आया। आरम्भ में उन्होंने अंग्रेजों की धर्म निरपेक्षता की नीति, महारानी विक्टोरिया की घोषणा आदि से प्रसन्न होकर राजभक्ति परम कवितायें लिखीं लेकिन बाद में उन्होंने ब्रिटिष नीतियों का पूरजोर विरोध किया।
भारतेन्दु ने भारत के पतन को जिसे दादाभाई नरौजी ने ‘भारतीय गरीबी’ कहा है, को नजदीक से देखने की कोषिष की है। इसके कारणों को तलाष ने के क्रम में उन्होंने विक्टोरियाई मूल्यों से कड़ी टक्कर ली। अंग्रेजी षिक्षा के विरूद्ध अपनी मातृभाषा के प्रष्न को सामने रखा, (निज भाषा उन्नति अहै, सब भाषा के मूल), चार्ल्स ग्रांट जैसे आंग्लवादियों की आलोचना का करारा जबाव देते हुए भारतेन्दु ने भारतीय राष्ट्रीयता के अधःपतन के कारणों के रूप में विधवा विवाह, बाल विवाह, अनमेल विवाह, जातिभेद, वर्णभेद, साम्प्रदायिकता, छुआछूत और मद्यपान की पहचान की तथा अपनी स्पष्ट और बेवाक शैली में उन्होंने इन कुरीतियों पर जोरदार हमला किया। भारतेन्दु यह भलीभांति जानते थे कि भारत की दुर्दषा का मूल कारण अंग्रेजों की साम्राज्यवादी विस्तारवादी नीति एवं भारत का आर्थिक दोहन है। जिस समय दादाभाई नरौजी, आर0सी0दत्त, महादेव गोविन्द राणाडे तथा संवाद कौमुदी, संवाद सहचर, एवं आनन्द बाजार पत्रिका आदि ने भारत से धन के बर्हिगमन को एक आन्दोलन के रूप में उठाया था, उस समय भारतेन्दु अपनी नाटकों ‘भारत दुर्दषा’ और ‘अंधेर नगरी’ के माध्यम से काव्य के रूप में जनता के बीच ले जाने की कोषिष की। उन्होंने भारत में अंग्रेजों की मौजूदगी का अभिप्राय समझने के लिए अर्थव्यवस्था की बारीकियों और साम्राज्यवाद के सिद्धान्तों को समझना आवष्यक नहीं समझा। उन्होंने इसे सीधे-सीधे कविता के रूप में कह डाला।5
बिना सामाजिक एकता के राष्ट्रीय एकता की कल्पना नहीं की जा सकती। भारतेन्दु और उनके मंडल के कवियों ने इसलिए पहले सामाजिक सुधार के प्रयत्नों के जरिए सामाजिक एकता स्थापित करने की कोषिष की। वृहत्तर सामाजिकता ही राष्ट्रीयता है। राष्ट्रीय भावधारा के विकास के लिए सामाजिक भाईचारे और बंधुत्त्व का विकास अनिवार्य शर्त्त है। धर्म की आड़ में घृणित सम्प्रदायवाद, जातिवाद एवं छुआछुत की भावना को बढ़ावा दिया जा रहा था। भारतेन्दु ने ऐसे छुआछूत का विरोध करने के लिए, ऐसे धर्म का विरोध जरूरी समझा। भारतेन्दु ने देखा कि 1857 के विद्रोह के बाद भारतीय जनमानस में राष्ट्रीय आन्दोलन की वेगवाही धारा प्रवाहित हो रही थी, लेकिन उसमें सबसे बड़ा अवरोधक तत्त्व साम्प्रदायिकता थी। सम्राज्यवादियों ने हिन्दू और मुस्लमानों को अलग-अलग रखने की विभेदक नीति अपनाई, ताकि सारे भारतीय संगठित न हो सके और उनका शोषण और दमनचक्र पूरी शांति से निर्बाध चलता रहे। राजनीतिक नेता राष्ट्रीय भावात्मक एकता का प्रचार कर रहे थे। लेकिन साम्प्रदायिक सद्भावना के मूल में तत्कालीन राष्ट्रीय एकता की माँग ही अधिक प्रबल थी, सामाजिक और धार्मिक स्तर पर हिन्दु-मुस्लमानों को समन्वित करने की ओर किसी ने ध्यान नहीं दिया। साम्प्रदायिक एकता के अभाव में हमारा राष्ट्रीय आन्दोलन छिन्न-भिन्न हो जाता।6 भारतेन्दु ने सामाजिक तौर पर साम्प्रदायिक महत्त्व को लोगों को समझाया और राष्ट्रीय आन्दोलन में सभी को सम्मिलित होने की प्रेरणा दी तथा ‘सभी धर्म के वहीं सत्य सिद्धान्त न और विचारों’ कहकर साम्प्रदायिकता और कट्टरता का त्याग कर सहिष्णुता और उदारता को अपनाकर देषोद्धार में लग जाने के लिए प्रेरित किया।
इस प्रकार, भारतेन्दु ने हिन्दी साहित्य के माध्यम से राष्ट्रीय जागरण की मषाल जलाई। अपने पत्रों, निबन्धों, नाटकों, गद्यों और काव्य को इसके लिए औजार के रूप में इस्तेमाल किया। देष के अधःपतन को देखकर भारतेन्दु ने अतीत की गौरवगाथा के माध्यम से वर्त्तमान को उन्नतिषील बनाने की चेष्टा की। उन्होंने छुआछूत, विधवा विवाह, अनमेल विवाह, नारी व्यक्तित्व आदि विषयों पर खुलकर लिखा, उसे आलोचनात्मक दृष्टि से देखना सिखाया। उन्होंने ‘नारी नर सम होहि’ लिखा तो ‘हिन्दू पॉलिटी’ पुस्तकें जनतंत्र पर भी लिखा।7 भारतेन्दु ने काव्य के सभी रूपों का इस्तेमाल भारत में राष्ट्रीय चेतना को जागृत करने के लिए किया।

संदर्भ ग्रंथ-सूची
सी0ए0 बेइली, ऑरिजिन ऑफ नेषनलिटी इन साउथ एषिया, ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी, प्रेस, नई दिल्ली, 1998, पृ0 - 79
शेखर बंधोपाध्याय, पलासी से विभाजन तक, ओरियेंट लांगमैन प्रकाषन, हैदराबाद, 2007, पृ0 - 228
रामविलास शर्मा, भारतेन्दु हरिष्चन्द्र, पृ0 - 121
गिरीश रस्तोगी, अंधेर नगरी, राजकमल प्रकाषन, नई दिल्ली, पृ0 - 22
पी0 एल0 गौतम, आधुनिक भारत, राजस्थान ग्रंथ अकादमी, जयपुर, पृ0 - 757 - 58
हुकुमचंद राजपाल, हिन्दी साहित्य का इतिहास, विकास पब्लिषिंग हाउस प्रा0 लि0, नई दिल्ली, पृ0 187-88
वही गिरीश रस्तोगी, अंधेर नगरी, सजकमल प्रकाषन, नई दिल्ली, पृ0 - 12

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