भारतेंदुकालीन भारत में महिलाओं की दशा एवं दिशा
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परम्परागत दृष्टि से स्त्री के प्रति व्यवस्था का रवैया निश्चित मानदडों एवं आदर्शां के नियत व्यवहारों से संचालित होता रहा है, जिसमें स्त्री को तय कर दी गई भूमिका में निर्धारित आचार-संहिता के अनुसार जीना है, जिनके निर्धारण का अधिकार शताब्दियों से पुरुषों ने अपने पास सुरक्षित रखा है। समय के बदलते तापमान में, बदलते सामाजिक संदर्भां में अपनी अधीनस्थ की भूमिका, शोषण, असमानता से मुक्ति के प्रयत्न एवं दोहरे मानदण्डों के बीच अपनी बदलती सामाजिक भूमिका के बावजूद स्त्री अस्मिता का प्रश्न जटिल से जटिलतर होता गया है। उसकी अधीनता की भूमिका असमानता को जन्म देती है, और शोषण के अवसर को व्यापक बना देती है। मानव विकासक्रम में यह ऐतिहासिक तथ्य सर्वोपरि है कि आदिम युग से लेकर आधुनिक काल तक परस्पर विरोधी वर्गोंवाली सभी सामाजिक संस्थाओं के समाज और परिवार में महिलाओं की स्थिति मातहत की रही है। समाज सदैव पुरुषों का रहा है, राजनीतिक सत्ता हमेशा पुरुषों के हाथ में रही है तथा स्त्री हमेशा अलगाव में रही है। सता सम्पत्तियोंऔर संतान से च्यूत स्त्री ‘वस्तु’ मात्र बनकर रह गई है। कभी उसे दैवी शक्ति प्रदान कर सर्वोच्च आसन पर बिठा दिया गया है, तो कभी भोग्या या वेश्या बनाकर पतन के गर्त्त में धकेल दिया गया है।
भारतेंदु युग में स्त्री की सामाजिक स्थिति, अशिक्षा, परदा प्रथा, बहुविवाह, बालविवाह, सतीप्रथा एवं बलात् वैधव्य के कारण अधीनस्थ की थी। वह पिता के लिए बोझ एवं पति के लिए बच्चे पैदा करने की मशीन थी। सामान्यतः स्त्री को पुरुष को भ्रष्ट करने का साधन माना गया। स्त्रियों की समस्याओं की जड़ में कुलीनवाद एवं यौन-पावित्र्य महत्वपूर्ण कारक थे। कुलीनवाद ने बहुविवाह, बेमेल विवाह और बालविवाह को प्रश्रय दिया। कुलीनता का आग्रह, स्त्री के लिए विवाह की अनिवार्यता एवं कौमार्य के मिथक ने बूढ़ों से बालिकाओं के विवाह की भूमि तैयार की। परिणामतः विधवाओं की समस्या सामने आई; सम्पत्ति के उतराधिकार, भरण-पोषण के दायित्व व यौन-पावित्र्य के प्रश्न ने जिस सतीप्रथा को जन्म दिया था, अब वह विकराल रुप ले चुकी थी। मनुसंहिता में लिखित अनुगमन का विकल्प अब स्त्री का एकमात्र पाथेय बन गया था। जहाँ सती होने का विकल्प नहीं स्वीकारा गया, वहाँ वैधव्य पराश्रित जीवन की नारकीय स्थितियों में परिवार के ही सदस्यों द्वारा यौन - शोषण एवं गर्भवती होने की स्थिति में अपमान, लांछन, गर्भपात, वेश्यावृत्ति औेर आत्महत्या तक स्त्री जीवन को सीमित करता था। बालविवाह और बहुविवाह के परिणामस्वरुप विधवा की समस्या विकराल रुप ले चूकी थी और विधवाआें के पराश्रितता का प्रश्न स्त्री - प्रश्नों में प्रमुखता से उठ खड़ा हुआ था।1
भारतेंदु काल में महिलाओं की सामाजिक स्थिति काफी दयनीय थी। वे जीवन में जन्म से लेकर मृत्यु तक कष्ट, अपमान तथा यातना झेलती थी। अनेक जातियों में लड़कियों का जन्म दुर्भाग्य तथा प्रकोप का सूचक माना जाता था। धारणा प्रचलित थी कि सभी आशिर्वादों में पुत्र प्राप्ति सर्वाधिक लालचपूर्ण था जिसके लिए महिलायें सदैव लालायित रहती थी। ऐसा इसलिए था कि परिवार में पुत्र का जन्म पिता को मुक्ति दिलाता था। स्त्रियों को अपने परिजनों की मृत्यु पर श्मशान घाट तक जाने की अनुमंति नहीं थी, भले ही वह माता - पिता की इकलौती संतान ही क्यों न हो? हिन्दू परम्परा के अनुसार मोक्ष की प्राप्ति तो सदैव पुत्र द्वारा किए गए संस्कारों से ही हो सकती है। मनुसंहिता एवं वशिष्ठसंहिता के श्लोक लोगों के दिलो-दिमाग पर छाये हुए थे कि पिता पुत्र से स्वर्ग आदि उत्तम लोकों को प्राप्त करता है, पौत्र से उन लोकों में अनन्तकाल तक निवास करता है और प्रपौत्रों से सूर्यलोक को प्राप्त करता है। स्वर्ग में संतानोत्पत्ति से रहित पुरुष के लिए कोई स्थान नहीं है। अगर पुरुष पुत्रहीन है तो यह वांछनीय है कि उसको पुत्री होनी चाहिए ताकि पुत्री का पुत्र उसके लिए पुत्र की जिम्मेदारी निभा सके।
प्राचीन काल से चले आ रहे हिन्दू विधि-विधान समुदाय द्वारा 19वीं शताब्दी में भी लागू करवाये जाते थे। उस समय यह सर्वविदित तथ्य था कि एक पति का अपनी पत्नी पर प्रभुत्व था, पत्नी कुछ भी नहीं कर सकती थी, उसे विरोध का एक भी शब्द कहे बिना पति की समस्त इच्छाएँ स्वीकार करनी पड़ती थी। अगर पत्नी पति की सत्ता को मानने से इंकार करती थी तो पति न्यायालय में अपनी पत्नी पर वैवाहिक सम्पत्ति के नाम पर दावा कर सकता था। 19वीं शताब्दी में स्त्रियों की गुलामी इस मायने में भी दोहरी थी कि वे एक ओर समाज का हिस्सा होने के नाते विदेशी गुलामी की शिकार थी ही, इसके साथ ही साथ पुरुषों तथा उनके द्वारा नियंत्रित गुलामी को झेलने को भी अभिशप्त थी। ब्रिटेन में भी पुरुष प्राचीनकाल से विवाहोपरान्त अपनी पत्नी पर जीवन - मरण का हक रखता था। महिलाओं के प्रति यह ब्रिटिश नजरिया औपनिवेशिक भारत में कमलाबाई औेर रुकमाबाई के विरुद्व चले अदालती दाँव-पेंच में स्पष्टतः दृष्टिगोचर होता है।2 औपनिवेशिक भारत में हिन्दू धार्मिक कानूनों के अनुसार ही महिलाओं को साम्पात्तिक आधिकार प्राप्त था। अब कन्याधन पर भी उनको अधिकार नहीं रहा। बंगाल में प्रचलित दायभाग की परम्परा के अनुसार महिलाआें को सम्पत्ति का कुछ हिस्सा प्राप्त होता था। शेष क्षेत्रों में स्त्रियों को अपने पति की सम्पत्ति में कोई हिस्सा प्राप्त नहीं होता था। इस कारण वे अपनी निजी आवश्यकताओं की पूर्त्ति के लिए पति या परिवार के अन्य सदस्यों पर निर्भर करती थी। विधवा पुनर्विवाह कानून - 1856 पारित होने के पश्चात् हिन्दू विधिशास्त्र की दोनों शाखाआें मिताक्षरा एवं दायभाग के अंतर्गत विधवा केवल अपने पुत्र की अनुपस्थिति में ही अपने पति की सम्पत्ति की उत्तराधिकारणी हो सकती थी। पति की सम्पत्ति का उपभोग वह सिर्फ अपने जीवन काल तक ही कर सकती थी, तत्पश्चात् पति की सम्पत्ति विधवा के नजदीकी रिश्तेदारों को प्राप्त न होकर पति के नजदीकी रिश्तेदारों को प्राप्त होती थी। दायभाग के अनुसार विधवा पुत्र और पोते की अनुपस्थिति में अपने पति की सम्पत्ति के एक भाग की उत्तराधिकारी हो सकती थी, पति भले ही अविभक्त जायदाद का सदस्य था या नहीं। मिताक्षरा के अनुसार विधवा अपने पति के अलग हिस्से, उत्तराधिकार में प्राप्त कर सकती थी, संयुक्त परिवार की सम्पत्ति में उसे कोई हिस्सा प्राप्त नहीं होता था।
19 वीं शताब्दी के अंतिम दशक तक पितृसत्तात्मक व्यवस्था के अंतर्गत वंशानुगत पारिवारिक संरचना का जो संगठित रुप विद्यमान था, उसमें घरेलू स्तर पर प्रत्येक व्यक्ति को पीढ़ी, उम्र एवं लिंग के अनुसार आज्ञापालन करना पड़ता था। परिवार में सर्वोच्च अधिकारिता घर के बड़े - बुजुर्गों की होती थी ‘जिसे कर्त्ता कहा जाता था। इस रुढ़िवादी सामाजिक संरचना में महिलाओं की स्थिति का सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। पारिवारिक संसाधनों पर अधिकारिता के सम्बन्ध में उसकी स्थिति काफी न्यून थी। वह सिर्फ इसलिए स्वीकार्य थी कि वह अपने पति के आदेशों का पालन करती थी। शक संवत्् 1794 में एक अनाम लेखक ने ‘हिन्दू धर्मनीति‘ के नाम से एक लेख लिखा था जिसमें कहा गया था कि पत्नी को पति की छाया की तरह रहना चाहिए, उसे एक मित्र की भाँति सभी धार्मिक कर्तव्यों का निर्वहन करना चाहिए। एक नौकरानी के समान पति के हर उस आदेश का पालन करना चाहिए, जो वह कहता है। यदि पति पत्नी के प्रति अभद्र भाषा का प्रयोग करता है या क्रोधित मुद्रा में देखता भी है तो भी पत्नी को सदैव अपने मुख पर हँसी बिखेरते रहनी चाहिए; यही पत्नी का परम कर्त्तव्य है।4 पति के आदेशों के आगे बिना शर्त्त समर्पण आदर्श नारी का कर्त्तव्य था। यहीं वह बिन्दु है जहाँ से स्त्री की आर्थिक परवशता शुरु होती है और वह अपने ही घर में एक दासी के रुप में अवस्थित हो जाती है। यह स्थिति मृत्युपर्यन्त चलती रहती है। उसका विवाह एक शाश्वत बंधन के रूप में होता है। यह कल्पना से परे है कि वह किसी भी परिस्थिति में किसी अन्य पुरुष से विवाह करे। एक अन्य पम्फलेट ‘हिन्दू नारीर कर्त्तव्य‘ नामक शीर्षक से 1918 ई0 में प्रकाशित हुआ था, में आदर्श नारी के कर्तव्यों को व्याख्यायित करते हुए कहा गया था कि ’’विधवा के कर्त्तव्यों में वे सारे कार्य शामिल है जो एक पत्नी द्वारा किए जाते है। हिन्दुओं में वैवाहिक सम्बन्ध मृत्युपर्यन्त चलते रहते है।’’5“
महिला अधिकारिता के प्रश्न पर चिन्तन और वैचारिक संघर्षों की शुरुआत दो शताब्दियों से कुछ पहले अमेरिकी और युरोपीय बुर्जुआ जनवादी क्रांतियों की पूर्ववेला में हुई थी जब प्रबोधनकालीन आदर्शों से प्रभावित और जनान्दोलनों में सक्रिय जागरुक स्त्रियों ने मनुष्य के प्राकृतिक अधिकार और स्वतंत्रता- समानता-भातृत्व की धारणाओं को स्त्रियों के लिए भी लागू करने की मॉँग उठाई। तब से लेकर 19वीं शताब्दी के अंत तक विश्व के प्रायः सभी हिस्सों में स्त्री आन्दोलनों का, स्त्री-पुरुष समानता एवं स्त्री अधिकारों के विविध पक्षों को लेकर चली बहसों का और स्त्री-प्रश्न पर विचार एवं पुनर्विचार का सिलसिला चल पड़ा। 19वीं शताब्दी में भारत में भी बौद्धिक एवं सांस्कृतिक हलचलें अॅँगड़ाईयॉँ ले रही थी जिनको सामाजिक क्षेत्रों में भी महसूस किया जाने लगा था। यह बौद्धिक लहर ब्रिटिश साम्राज्य की प्रतिक्रियास्वरुप उठी। विदेशी संस्कृति के फैलाव से भारतीयों के लिए यह जरुरी हो गया था कि वे आत्मनिरीक्षण करें और सांस्कृतिक एवं सामाजिक संस्थाओं की शक्ति और कमजोरियों की पहचान करें। उन्होंने अपनी सामाजिक, धार्मिक एवं सांस्कृतिक संरचनाओं की गहरी छानबीन की। इस क्रम में उनका ध्यान महिलाओं के अधःपतन पर गया उन्हांने उनकी सामाजिक स्थिति का अवलोकन किया, उनके कारणों को ढ़ॅूँढ़ा तथा उनकी स्थिति सुदृढ़ करने के लिए सुधार आन्दोलनों का सूत्रपात किया।
19वीं शताब्दी में उदारवादी, समानतावादी और मानवतावादी भावनाओं से प्रेरित होकर सुधारकां द्वारा महिला सशक्तिकरण की दिशा में कई आन्दोलन खड़े किए गये।6 उनके जीवन स्तर में सुधार के प्रारम्भिक प्रयास पुरुषों द्वारा किये गये। सदी के उत्तरार्द्ध में इस काम को अंजाम दिया उनकी पुत्रियों, पत्नियों, बहनों तथा संरक्षणाधीन लोगों ने, क्योंकि वे नारी शिक्षा जैसे अभियानों से प्रेरित होकर ही इस आन्दोलन में शरीक हुए थे। उदार लोकतांत्रिक आधार पर चलाये गये अभियानों के दौरान में यह माना गया कि मनुष्य की कुछ श्रेणियों को दूसरी श्रेणियों से हेय समझना गलत तथा अनुचित है। प्रारम्भिक वर्षों में यह माना गया कि स्त्री-पुरुष में भेद कामोवेश उनकी भूमिका, कार्य-संस्कृति, लक्ष्य और कामनाओं को लेकर है। अतः स्त्रियाँं न केवल पिछड़ गई बल्कि उनके साथ भिन्न व्यवहार भी किया गया। समय बीतने के साथ- साथ यह भिन्नता ही स्त्रियों की दशा में सुधार लाने के प्रयासों के पीछे एक बड़ा कारण साबित हुआ। जहाँ उन्नीसवीं शताब्दी के सुधारकों ने तर्क दिया कि स्त्रियों की पुरुषों से भिन्नता के कारण उन्हें हेय समझने का कोई अर्थ नहीं है वहीं बाद के सुधारकों ने तर्क दिया कि भिन्नता के आधार पर ही स्त्रियों को सामाजिक तौर पर माँ जैसी उपयोगी भूमिका में देखा गया। महिलाएॅँ जब खुद भी अभियानों में शामिल होने लगी और उन्होंने अपने संगठन भी खड़े कर लिए तो भिन्नता के इस बिन्दु मॉँ को जोरदार ढंग से उठाया गया किन्तु इस बार उनके अधिकारों, बोलने, शिक्षा और मुक्ति को लेकर बहसें चली। पहले स्त्री को घर की देखभाल करनेवाली पुराने ख्यालों की रुढ़िवादी माँ के रुप में ही देखा जाता था। परन्तु यह बहस जैसे-जैसे आगे बढ़ी इसकी दिशा और शर्त्त बदलती गई।7 19वीं शताब्दी के प्रारम्भिक वर्षों की भारतीय स्त्रियों के कष्टों और उनके सुधार की आवश्यकता की परिभाषा उतरार्द्ध तक बिल्कुल बदल गई तथा सारा ध्यान उसे समाज का उपयोगी सदस्य बनाने पर केन्द्रित हो गया। महिलाओं को अपने जीवन के बारे में स्वयं निर्णय लेने के अधिकार की मॉँग उठाई जाने लगी। इसप्रकार इन सौ वर्षों के दौरान महिलाओं के जीवन-स्तर में सुधार के लिए चलाए गए अभियानों की दिशा समय की मॉँग के मुताबिक उनके समानता के अधिकारों, खासतौर से आत्मनिश्चय के अधिकार की ओर मुड़ गई।
आमतौर पर ऐसा माना जाता है कि 19वीं शताब्दी का भारतीय सुधार आन्दोलन ब्रिटिश-भारतीय मुठभेड़ का परिणाम था। यहीं वह दौर था जब भारत में बंगाल, पंजाब, मद्रास और मुम्बई के बुद्धिजीवियों ने स्त्रियों में फैली बुराईयों के खात्में को लेकर आवाजें बुलन्द करनी शुरु की थी। इन प्रान्तों के साथ अंग्रेजों का सम्बन्ध भारत के अन्य भागों की अपेक्षा कुछ पहले बना था। उपनिवेशवादी अर्थव्यवस्था ने इस समय तक अपने विस्तृत प्रशासनिक ढॉँचे के अंतर्गत प्रभावशाली वर्गों को मिलाकर एक मध्यवर्ग तैयार कर लिया था। पश्चिमी सभ्यता के प्रभाव में आकर इस वर्ग को अपने यहाँ सामाजिक सुधार की आवश्यकता महसूस हुई। जात-पात, बहुदेवपूजा, मूर्त्ति पूजा, ढोंग, पर्दाप्रथा, बालविवाह, बालवध, बलात् वैधव्य, सतीप्रथा, बहुविवाह और अन्य बुराईयों को आदिम और निकृष्ट मानते हुए उनके विरुद्ध सुधार अभियान शुरु किए गये थे। नवीनतम साक्ष्य इस बात की पुष्टि करते है कि समाजसुधार के सभी मुद्दे केवल अंग्रेजों के हितों के संधर्ष के परिणामस्वरुप ही नहीं उठे थे अपितु वे इनके द्वारा पोषित जरुर हुए थे। 19वीं शताब्दी के आरम्भ में ही भारत के शिक्षित बुद्धिजीवियों का ध्यान इस ओर गया कि इंग्लैण्ड के उभरते हुए औद्योगिक समाज और भारत के पतनोन्मुखी सामंती समाज में कोई समानता नहीं है। उन्होंने महसूस किया कि महिलाओं के प्रति सामाजिक निर्योग्यताएॅँ, सतीप्रथा, जबरन वैधव्य, पर्दा अदि बुराईयॉँ राष्ट्रीय विकास के मार्ग में भयंकर बाधाएॅँ है।8 इस बात का संकेत करते हुए आर0 जी0 भंडारकर ने 1894 ई0 में कहा था कि ‘‘यदि हमें पश्चिम की प्रगतिशील जातियों के साथ कदम से कदम मिलाकर चलना है तो हमारी सामाजिक संस्थाओं में सुधार होना ही चाहिए सामाजिक एवं नैतिक विकास के बिना राजनीतिक विकास की बात सोचना मिथ्या है।
बालविवाह अन्य सामाजिक बुराईयों एवं अन्यायों की जड़ है। इसके कारण ही अल्पायु में स्त्रियाँॅ विधवा होती है और बहुविवाह को बढ़ावा मिलता है। बुद्धिजीवियों ने विधवा जीवन बिताने की बाध्यता एवं बहुविवाह को मानवता के विरुद्ध अपराध की संज्ञा दी। ईश्वरचन्द्र विद्यासागर ने बालविवाह का विरोध और विधवाविवाह के समर्थन पर बल दिया। बेहरामजी मालावारी ने बालविवाह से जन्मी समस्याओं का अध्ययन कर पाया कि बालविवाह लड़कां और लड़कियों दोनों के विकास में बाधक है। महादेव गोविन्द राणाडे ने बालविवाह पर रोक, विधवा पुनर्विवाह एवं महिला शिक्षा को बढ़ावा देने की पुरजोर वकालत की। लोकहितवादी विधवापन की बाध्यता को मानव जीवन की हत्या और मानवीय इच्छाओं, अनुभूतियों और संवेदों का वध मानते थे। बहुविवाह को नैतिक एवं भौतिक सभी बुराईयों का श्रोत, बर्बर आदिम आवश्यकताओं का अवशेष चिन्ह माना गया। महिला शिक्षा पर सभी प्रकार के सुधारों एवं विकास के मूल के रूप में बल दिया गया। अशिक्षा को उनकी दयनीय स्थिति तथा सामान्य सामाजिक पिछडे़पन का प्रमुख कारण माना गया। लगभग सभी बुद्धिजीवियों ने एक स्वर में महिलाओं के बीच शिक्षा प्रसार को उनकी मुक्ति के लिए आवश्यक पूर्व शर्त्त माना। महिलाओं के लिए उन्होंने न केवल प्रारम्भिक शिक्षा बल्कि उच्च शिक्षा की भी वकालत की। 19वीं शताब्दी के बौद्धिकों में जी0 जी0 आगरकर पहले व्यक्ति थे जिन्होंने सर्वप्रथम नौकरियों एवं विभिन्न उद्यमों में महिलाओं की शिक्षा का विचार रखा और घर की चाहरदीवारी के बाहर महिलाओं की भूमिका बढ़ाने पर बल दिया।
महिलाओं की सामाजिक स्थिति सुधारने का अभियान महज मानवतावादी एवं आदर्शवादी दृष्टिकोण के तहत नहीं चलाया गया था अपितु इसके पीछे सम्पूर्ण समाज को सुधारने की अंतर्दृष्टि कार्य कर रही थी। महिलाओं की स्थिति में सुधार के बिना उन्नत पुरुषों एवं उन्नत घरों की कल्पना नहीं की जा सकती थी। उनका मानना था कि जिस देश में महिलायें उपेक्षित हो, वह देश सभ्यता के क्षेत्र में कभी उल्लेखनीय प्रगति नहीं कर सकता। राममोहन राय सम्पत्तिक सम्बन्धी अधिकारों के अभाव को ही महिलाओं की निम्न स्थिति का कारण बताया तथा दायभाग कानून का विरोध एवं मॉँ की सम्पत्तिक में अधिकार की वकालत की। जाम्भेकर एवं लोकहितवादी ने महिलाओं की समस्या का स्थाई समाधान एक विवाह और विधवा विवाह में नहीं बल्कि पुरुषों के समान ही उनको अधिकार दिए जाने में देखा। पंडिता रमाबाई ने स्त्रियों की आत्मनिर्भरता, व्यवसायिक शिक्षा की वकालत की तथा गैर-परम्परागत क्षेत्रों में स्त्रियों की नौकरी की आवश्यकता पर बल दिया।9 ज्योतिराव फुले ने विधवा पुनर्विवाह एवं पुनर्वास की दिशा में महत्वपूर्ण प्रयास किए जाने की बात उठाई। जबकि सावित्रीबाई फुले ने स्त्री- शिक्षा एवं गर्भवती विधवाओं को संरक्षण दिए जाने तथा उनके लिए अनाथाश्रम की आवश्यकता जताई। दयानन्द सरस्वती ने हिन्दू धर्म एवं दर्शन के प्रभावस्वरूप विधवा पुनर्विवाह का विरोध तथा नियोग प्रथा का समर्थन किया। स्वामी विवेकानन्द ने समाज की प्रमुख बुराई के रुप में स्त्री की दयनीय स्थिति की पहचान की। बुद्धिजीवियों ने महिलाओं की मुक्ति को उन्हीं की मुक्ति नहीं अपितु सम्पूर्ण मानवता एवं मानव जाति की मुक्ति माना। महिलाओं की अधीनस्थ स्थिति सामाजिक पतनशीलता एवं राष्ट्रीय पिछडे़पन की प्रतीक थी हालांकि भारत अंग्रेजों की नजर में एक भौगोलिक अभिव्यक्ति मात्र ही था जिसकी अपनी कोई सांस्कृतिक पहचान नहीं थी। इस बनते हुए राष्ट्र की प्रगति के लिए महिलाओं की स्थिति में सुधार को अति आवश्यक माना गया।
भारतेंदु हरिश्चंद्र ने स्त्री शिक्षा के प्रचार हेतु बाल बोधिनी नामक पत्रिका का प्रकाशन किया तथा नर-नारी समानता और नारी मुक्ति का नारा दिया।वह इस पत्रिका के माध्यम से ऐसी स्त्री का निर्माण करना चाहते थे जो घर रूपी पारिवारिक संस्था को चलाने में सिद्धहस्त हो।संस्कारी एवं भारतीय मूल्यों और संस्कृति की वाहक हो।विक्टोरियाई और पाश्चात्य संस्कृति में पगी ,बढ़ी लड़कियाँ भारतीय समाज के परम्परागत संरचना के लिए खतरे पैदा कर सकती है।इसलिए वे बलिया वाले अपने भाषण में कहते है कि"लड़कियों को पढ़ाईये किन्तु उस चाल से नहीं जैसा कि आज-कल पढ़ाई जाती है।....ऐसी चाल से उनको शिक्षा दीजिये कि वह अपने देश और कुल धर्म सीखें, पतिभक्ति करें और कुल धर्म सीखें।10"प्रारम्भिक विद्यालयी शिक्षा के प्रारूप को लेकर उनके विचार आर्य समाज के विचार से भिन्न नहीं थे,वे भी लड़के और लड़कियों के पृथक-पृथक स्कूल खोले जाने के हिमायती थे।हंटर कमीशन के समक्ष उन्होंने सीधे-सीधे शब्दों में कहा कि-मैं इस देश में लड़के-लड़कियों के लिए मिले-जुले स्कूल की योजना का समर्थन कभी नहीं कर सकता।11इतना ही नहीं उन्होंने विद्याकर और तिमिरनाशक जैसी पुस्तकों को लड़कियों के पाठ्यक्रम से हटाने की सिफारिशें की,क्योंकि इससे स्त्रियों के चरित्र का विकास नहीं होता बल्कि इसके विपरीत प्रभाव होता है।
1870 के दशक में भारतेंदु हरिश्चंद्र ने कविवचनसुधा , हरिश्चंद्र चंद्रिका और बालबिधिनी पत्रिका के माध्यम से हिंदी पत्रकारिता में अहम मुकाम बनाया।उनके सम्पादन में बालबिधिनी स्त्री केन्द्रित पत्रिका थी जिसपर स्पष्टतः केशवचन्द्र सेन की वामबोधिनी पत्रिका का प्रभाव दृष्टिगोचर होता है।वामबोधिनी कि ही तरह पत्रिका के लेख महिलाओं द्वारा लिखे जाते थे जबकि संपादकीय भारतेंदु का होता था।इसलिए बालबोधिनी पत्रिका को हिंदी की पहली स्त्री पत्रिका होने का सम्मान प्राप्त है।इस पत्रिका के मुख्य पृष्ठ पर अंकित पंक्तियों से महिलाओं के प्रति भारतेंदु के विचार का पता चलता है-
सीता,अनसुइया सती अरुंधति अनुहारी।
शीललाज विद्यादि गुण लहौ सकल जग नारी।।
भारतेंदु ही नहीं इस युग के सभी कवियों ने इस बात पर बल दिया कि नारी ही मानव एवं समाज का सुधार कर सकती है।इस विषय पर रायदेवी प्रसाद पूर्ण की पंक्तियाँ दृष्टव्य है-"नारी के सुधारे होत जग में प्रसिद्ध, नारी के संवार होत सिद्ध धन-बल है।"इस युग में महिलाओं के प्रति पीड़ित के लिए सहानुभूति एवं मानवीय आदर्शों के रूप में मानवीयता का दृष्टिकोण अपनाया गया।कवियों ने राधा -कृष्ण के प्रेम को आदर्श बताकर उसकी वन्दना की तथा सामंती मूल्यों की वाहक रीतिकालीन श्रृंगारिकता से भरे लिजलिजे प्यार और कामविलास की प्रवृति को खारिज कर दिया तथा कठोर शब्दों में उसकी निंदा की।अब यत्र नारी पूज्यंते,रमन्ते तत्र देवता के सिद्धांत को व्यापक आधार पर अपनाया जाने लगा था।
1.रेखा कस्तवार, स्त्री चिन्तन की चुनौतियाँ, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, प्रथम संस्करण, 2006, पृष्ठ - 67
2.जॉन स्टुअर्ट मिल, दि सब्जेक्शन ऑफ वीमेन (अनु0) प्रगति सक्सेना. राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, प्रथम संस्करण, 2002, पृ0 - 62-67
3.लकी कैरोल, द हिन्दू विडोज रिमैरिज एक्ट ऑफ 1856, इंडियन इकोनॉमिक हिस्ट्री एण्ड सोशल रिव्यू, वॉल्यूम - 20, पृ0- 363-388
4.द हिन्दू कोड ऑफ इथिक्स, कलकता, शक् संबंत् 1794, पृ0 -8
5.ज्योतिन्द्रमोहन गुप्ता, द ड्यूटीज ऑफ हिन्दू वीमेन, कलकता 1323 बी0 एस0 1 पृ0-108
6.विपन चन्द्र, मॉडर्न इंडिया, एन0 सी0 ई0 आर0 टी0 नई दिल्ली, 2005, पृ0 - 183
7.राधाकुमार, स्त्री संघर्ष का इतिहास, वाणी प्रकाशन, दिल्ली, 2002, भूमिका, पृ0 - 13
8.रामशरण शर्मा, प्रारम्भिक भारत का आर्थिक और सामाजिक इतिहास हिन्दी माध्यम कार्न्यान्वयन निदेशालय, दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली, प्रथम संस्करण, 1992 पृ0- 2
9.शिप्रा व्यास का आलेख भारतीय पुनर्जागरण विशेष संदर्भः पंडिता रमाबाई (सं0) प्रतिभा जैन एवं संगीता शर्मा, रावत पब्लिकेशन, जयपुर, 1998, पृ0 - 214-15
10.भारतेंदु समग्र,सं. हेमन्त शर्मा,पृ.1013
11.वही पृ.1010
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