विधवा पुनर्विवाह आन्दोलन और ईश्वरचन्द्र विद्यासागर
19 वींं शताब्दी में सामाजिक सुधार आन्दोलन ने मानवीय सम्बन्धों एवं मौजूदा वास्तविकताओं को कई प्रकार से प्रभावित किया। इसमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण लैंगिक सम्बन्ध और समाज में विधवाओं की स्थिति थी। प्रत्येक व्यक्ति इस बात को महसूस कर रहा था कि वैधव्य जीवन एक सामाजिक बुराई है और इसे दूर किया जाना चाहिए। 1855 में हिन्दू पैट्रियाट ने लिखा था कि लेकिन समस्या यह है कि शेर को उसकी माँॅद में कैसे घेरा जाय? विधवाओं की स्थिति में सुधार हेतु प्राथमिक प्रयास राजा राममोहन राय की ओर से ही हुआ था। उन्होंने समाजोन्नति विधायिनी सुहृद् समिति की स्थापना की थी जिसका उद्देश्य ब्रिटिश सरकार को विधवा पुनर्विवाह पर कानूनी रोक हटाने के लिए याचिका देना था। उन्नीसवीं शताब्दी के तीसरे दशक में भारतीय उपमहाद्वीप के विभिन्न हिस्सों से प्रकाशित पत्र-पत्रिकाआें में विधवा पुनर्विवाह के समर्थन में लेख छपने लगे थे। राममोहन राय ने ‘द मॉडर्न इन्क्रोचमेंट ऑन द एन्सिस्ट राइट्स ऑफ फीमेल्स एकॉर्डिंग टू द हिन्दू लॉ ऑफ इनहेरिटेन्स’ नामक निबंध 1822 में लिखकर विधवाओं के दुःखों की ओर लोगां का ध्यान खिंचा। संवाद कौमुदी ने हिन्दू विधवाओं की स्थिति में सुधार लाने के लिए चंदा देने की अपील की थी।9
4 मार्च 1835 को कलकŸा के कुलीन परिवार की विधवाओं ने समाचार दर्पण के सम्पादक से अपील की थी कि वे उनकी दुःखद दशा के बारे में उनकी कुछ पंक्तियों को अपनी पत्रिका में प्रकाशित करें। इन पंक्तियों में यह आशा व्यक्त की गई थी कि अपील ब्रिटिश सरकार को उनके प्रति सहानुभूतिपूर्ण कदम उठाने के लिए बाध्य करेगी। इसी तरह चिन्सुरा की कुछ महिलाओं ने सम्पादक के नाम पत्र लिखे और सरकार के समक्ष कुछ मॉँगे रखी। ज्ञानन विषयन पत्रिका ने विधवा पुनर्विवाह विषय पर फैले अंधविश्वास के प्रश्न पर एक सभा आयोजित किए जाने की बात कही थी। पत्रिका की अपील पर मोतीलाल शील, बाबू हलधर मल्लिक और अन्य बुद्विजीवियों के प्रयत्नों से 1837 ई0 में कलकŸा में एक विशाल सभा का आयोजन हुआ। द इंगलिश मैन, द रिफॉर्मर, समाचार दर्पण आदि पत्रों ने विधवा पुनर्विवाह के विषय में जनचेतना फैलाने का कार्य किया। प्रोमिला चैपमैन के अनुसार इन दिनों हिन्दू विधवाविवाह के संदर्भ में गंभीरता से सोचने लगे थे।10 रत्नागिरी के एक तेलुगु ब्राह्यण ने 1837 ई0 में विधवा पुनर्विवाह के सम्बन्ध में एक पर्चा लिखा जिसका प्रकाशन मुम्बई से हुआ। मुम्बई दर्पण ने इस सम्बन्ध में पक्ष - विपक्ष में कई आलोचनाएॅँ भी छापी।
बंगाल में ईश्वरचन्द्र विद्यासागर द्वारा विधवाविवाह प्रारम्भ करने के 10 वर्ष पूर्व बहुबाजार के बाबू नीलकमल बंद्योपाध्याय ने कुछ अन्य प्रबुद्व जनों के साथ मिलकर विधवा पुनर्विवाह कराने की असफल चेष्टा की। 1845 ई0 में बंगाल ब्रिटिश इंडियन सोसायटी ने इस प्रश्न पर धर्मसभा एवं तत्वबोधिनी पत्रिका से सम्पर्क साधा, लेकिन दोनों संगठनों ने इसमें कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई। 1853 ई0 में गुजरात में एक युवा ने दिवालीबाई नामक एक विधवा से विवाह कर इस आन्दोलन को तीव्र कर दिया। नदिया के महाराजा श्रीसचंद्र और वर्द्वमान के महाराजा महातबचंद के अनुकूल रूख की सूचना ईश्वरचन्द्र विद्यासागर ने गवर्नर जनरल के परिषद् के सदस्य जे0 पी0 ग्रांट को दी। इधर महाराष्ट्र में बाबा पद्मसी की दो पुस्तकें विधवा पुनर्विवाह पर छपी कुटुम्ब सुधर्मा एवं यमुना प्रयत्न। इन दोनों पुस्तकों ने युवाओ को विधवा पुनर्विवाह के लिए चल रहे आन्दोलन में शरीक होने के लिए बाध्य कर दिया।
ईश्वरचन्द्र विद्यासागर ने जान - बूझकर एक सुनियोजित योजना के अनुरूप विधवा पुनर्विवाह आन्दोलनों के दौरान शास्त्रों के विरुद्व लोकाचार को एवं रीति- रिवाजों के विरुद्व धर्मशास्त्रों को एक-दूसरे के विपरीत विरोधाभाषी रूप में प्रस्तुत किया। इस प्रयास में विधवाओं के प्रति कठोरता को एक खतरनाक बीमारी बताते हुए विधवाविवाह के पक्ष में धर्मग्रंथों में लिखित उद्धरणों को 1854 ई0 में एक लधु पुस्तिका ’ए प्रपोजल एज टू व्हेदर विडो रिमैरिज शुड बी इंट्रोड्यूस्ड और नॉट?’ के रूप में जनता के सामने रखा। आन्दोलन में विद्यासागर ने पराशर स्मृति जैसे धर्मग्रंथों का सहारा लिया। उन्हांने जो विधवा पुनर्विवाह के पक्ष में शास्त्रीय प्रमाण प्रस्तुत किए वह मानवीयता और आंग्ल-हिन्दू कानून के अनुरूप थे। ब्राह्यणीय परम्परा के विधान और औपनिवेशिक कानून एक दूसरे के विपरीत होते हुए भी परस्पर संगुम्फित थे। कानून राज्य के विधायन का बाहरी मामला था जबकि सुधार धर्मशास्त्रों एवं सामुदायिक विवेचन के माध्यम से होनेवाला एक तरीका था। राजा राधाकांतदेव ने विधवा पुनर्विवाह के विरोध में जो याचिका तैयार की थी जिस पर 36 हजार 764 व्यक्यिं के हस्ताक्षर थे, में भी शास्त्रों एवं परम्परागत रीति- रिवाजां के हवाले से कहा गया था कि विधवा पुनर्विवाह अधिनियम - 1856 ब्रिटिश संसद द्वारा पारित विधेयक एवं ईस्ट इंडिया कम्पनी के अधिनियमों से काफी भिन्न है। इस याचिका में 1772, 1793 और 1831 में विभिन्न मुकदमों की सुनवाई के दौरान न्यायाधीशों के निर्णय एवं 1837 में स्थापित लॉ कमीशन के समक्ष प्रस्तुत सदर निजामत अदालत के मुख्य न्यायाधीश के विचार शामिल किए गये थे जो हिन्दू कानून के अंतर्गत विधवा पुनर्विवाह को कानूनी मान्यता नहीं दिए जाने के सम्बन्ध में थे। इसका जुडवॉँ संस्करण नदिया, त्रिवेणी, भाटपारा, बाँॅसबेरिया, कलकŸा एवं अन्य स्थानों के हिन्दू कानून के अध्येताओं द्वारा तैयार कर विधवा पुनर्विवाह के विरोध में प्रस्तुत किया गया था।11
विधवा पुनर्विवाह आन्दोलन को मजबूती प्रदान करने के लिए विद्यासागर ने दो पुस्तिकाओं की रचना की। प्रथम, विधवाविवाह एतद्विषयक प्रथम प्रस्ताव एवं दूसरा, विधवाविवाह एतद्विषयक द्वितीय प्रस्ताव। इनका प्रकाशन स्वतंत्र रूप से 1855-56 में कराया गया तथा इन दोनां को मिलाकर 1856 ई0 में एक पुस्तक की शक्ल दी गई जिसका शीर्षक था ‘मैरिज ऑफ हिन्दू विडोज‘। इस क्रम में विद्यासागर ने कलकŸा के दलपतियों का समर्थन हासिल करने का प्रयत्न किया जिसका हिन्दू समाज पर एकाधिकार चला आ रहा था। ये दलपति 19वीं शताब्दी में कलकŸा एवं उनके निकटवर्ती क्षेत्रों में दलों के आधार पर संगठित थे। उन्होंने राजा राधाकांतदेव के भतीजे के सहयोग से शोभा बाजार के राजा को अपने पक्ष में करने का विफल प्रयास किया। फिर भी उन्हें 1855 में विधवा पुनर्विवाह के समर्थन में वायसराय को प्रस्तुत की जानेवाली याचिका के निर्माण में हिन्दू समाज के प्रभुत्वशाली वर्गां, जमींदारों, संस्कृत महाविद्यालय के शिक्षकों, ब्रह्मसमाज एवं यंग बंगाल के समर्थकां तथा तर्कवाचस्पति तारानाथ जैसे पंडितो का सक्रिय सहयोग हासिल हुआ। इस याचिका पर हस्ताक्षर करनेवाले 25 हजार लोगों में टैगोर घराने के दोनो धड़ो का प्रतिनिधित्व करनेवाले देवेन्द्रनाथ टैगोर, प्रसन्न कुमार टैगोर, वर्द्वमान के महाराजा मेहताबचन्द, नदिया के महाराजा श्रीसचंद्र, उŸारपाड़ा ढाका एवं मैमनसिंह के जमींदार, श्री ताराचंद तर्कवाचस्पति, राजनारायण वसु, दक्षिणा रंजन मुखर्जी, अक्षयकुमार दŸा, जयकृष्ण मुखर्जी, पी0 चरण सरकार और काली कृष्ण मित्रा आदि शामिल थे।
ईश्वरचन्द्ऱ विद्यासागर के विधवा पुनर्विवाह के अभियान को समाचार पत्रों में व्यापक स्थान मिला। प्रशंसा के कुछ गीतां का उल्लेख करते हुए सुमन्त बनर्जी ने टिप्पणी की है कि इनमें से अधिकांश विधवा के आवाज में थे तथा विधवाएॅँ अपने वैधव्य से निकलकर पुनर्विवाह के लिए तैयार थी और उनकी खुशी का इजहार इन गीतां में किया गया। यहाँॅ तक कि शांतिपुर के जुलाहे भी इस अभियान में शामिल हो गए और उन्होंने अपने साँॅचों में तैयार होने वाले कपड़ां पर इन गीतां की पंक्तियॉँ बुन दी।12 इसके पश्चात् विद्यासागर ने अपनी पुस्तिका का अंग्रेजी अनुवाद कर अंग्रेज अधिकारियों को सौप दिया। उनकी सलाह पर ही विद्यासागर ने 1855 ई0 में भारत के गवर्नर जनरल को विधवा पुनर्विवाह पर कानून बनाने के लिए एक याचिका दी। उसी वर्ष विद्यासागर की याचिका पर आधारित एक कानून का मसौदा विधान परिषद् में जे0 पी0 ग्रांट द्वारा प्रस्तुत की गई।13
इन विरोधाभासी परिस्थितियों में सरकार ने 26 जुलाई 1856 को हिन्दू विधवाओं के लिए हिन्दू विधवा पुनर्विवाह कानून - 1856, 15 वें अधिनियम के रूप में पारित कर वैधानिक समाजसुधार का एक उत्कृष्ट उदाहरण प्रस्तुत किया। इस कानून के अनुसार ईस्ट इंडिया कम्पनी की सीमाओं एवं स्वामित्व के अंतर्गत नागरिक न्यायालयों में लागू कानूनों के अनुसार हिन्दू विधवाएँॅ कुछ अपवादों को छोड़कर एक बार विवाहित होने के कारण कोई दूसरा वैध विवाह अनुबंध करने में अक्षम है तथा ऐसी विधवाओं की संतानें विधवा द्वारा दूसरा विवाह कर लिए जाने के कारण अपनी पैतृक सम्पति को विरासत में पाने के अयोग्य एवं अक्षम है। ऐसे किसी भी विवाह को इस आधार पर अवैध नहीं माना जाएगा कि स्त्री का पहले ही विवाह हो चूका है या उसकी किसी दूसरे व्यक्ति से सगाई हुई थी और व्यक्ति विवाह के समय मर गया था। विधवा पुनर्विवाह के कारण किसी सम्पिŸा या दूसरे अन्य अधिकारों से वंचित नहीं होगी तथा प्रत्येक विधवा को पुनर्विवाह के पश्चात् विरासत के वहीं अधिकार प्राप्त होंगे जो कि उसके पहले विवाह के समय थे।14
किसी भी हिन्दू अविवाहित कन्या के विवाह को वैध मानने के लिए जो भी शब्दोच्चार किया जाता है या संस्कार सम्पन्न किए जाते है या सगाई की जाती है उसी प्रकार के सभी संस्कार हिन्दू विधवा के विवाह के समय भी सम्पन्न हांगे। किसी भी विवाह को इस आधार पर अवैध घोषित नहीं किया जा सकेगा कि उपरोक्त संस्कार, शब्दोच्चार या सगाई विधवा के मामले में लागू नहीं होते । यदि पुनर्विवाह करनेवाली विधवा नाबालिग है तथा पहला विवाह पूरी तरह सम्पन्न नहीं हुआ है तो वह अपने माता-पिता, दादा-दादी, बड़े भाई, किसी के न रहने पर अपने किसी नजदीकी पुरुष सम्बन्धी की सहमति के बिना विवाह नहीं कर सकती है। अगर कोई विधवा बालिग है या उसका पहला विवाह पूरी तरह सम्पन्न हो चुका है तो दूसरा विवाह करने के लिए उसी की सहमति को विधिसम्मत् एवं पुनर्विवाह के लिए पर्याप्त माना जाएगा।
विधवा पुनर्विवाह अधिनियम 1856 लागू होने के बाद ईश्वरचन्द्र विद्यासागर ने कई अवसरों पर विधवा पुनर्विवाह समारोहों का आयोजन किया। इस कानून के तहत प्रथम विधवाविवाह पंडित रामधन तर्कवागीश के पुत्र श्रीसचंद्र विद्यारत्न और ब्रह्मानन्द मुखोपाध्याय की 10 वर्षीया विधवा पुत्री कालीमति के बीच सम्पन्न हुआ। तत्पश्चात् कुछ बंगालियों ने उत्साहपूर्वक अपनी विधवा पुत्रियां का विवाह सम्पन्न कराया। ईश्वरचन्द्र मित्रा की बारह वर्षीया विधवा पुत्री का विवाह मधुसूदन घोष के साथ हुआ। मित्रा कोलकता के और घोष पानीहाटी के निवासी थे। इससे पूर्व महाराष्ट्र प्रांत के अहमदाबाद म्यूनिसिपल कार्यालय में लिपिक के तौर पर कार्य करनेवाले एक गौड़ ब्राह्यण रधुनाथ जनार्दन ने छीमाबाई नामक एक विधवा से विवाह किया था।15 हिन्दू पैट्रियाट के अनुसार 1867 में विद्यासागर ने ऐसे 60 विधवा विवाह अपने खर्चे से सम्पन्न कराये। बंगाल के बुद्विजीवियों ने उनके कर्ज को खत्म करने के लिए चंदा देने की पेशकस की जिसे उन्होंने नम्रतापूर्वक ठुकरा दिया। ढाका डिवीजन में विद्यासागर के निबन्धों ने विधवा पुनर्विवाह के पक्ष में उŸोजना एवं प्रदर्शन को इतना तीव्र कर दिया कि उन्हें बाध्य होकर इनका पुनर्मुद्रण करवाना पड़ा। पूर्वी बंगाल के कई क्षेत्रों विक्रमपुर, बारीसाल, मैमनसिंह, चटगॉँव, और सिलहट में ईश्वरचन्द्र विद्यासागर अल्पज्ञात व्यक्ति थे परन्तु ब्रह्मसमाजियों की इन इलाकों में पैठ के कारण इस आन्दोलन के प्रति लोगां का उत्साह चरमोत्कर्ष पर पहुँॅच गया था। हजारों गीत एवं कविताएॅँ रच डाली गई, कई हास्य प्रदर्शनों का आयोजन हुआ तथा बुद्विजीवियों ने सभाभवनों में विधवाविवाह के समर्थन में कई छोटी- बड़ी सभाएँॅ आयोजित की। यहॉँ तक कि छोटी समझी जानेवाली जातियों के लोग जैसे कुली, दरवान, किसान, और गाड़ीवान तक भी पूरे रंग में दिखे। शांतिपुर के जुलाहों द्वारा महिलाओं की साड़ी पर उकेरी उन पंक्तियों को काफी प्रसिद्वि मिली जिसमें विद्यासागर के दीर्घजीवी होने की कामना की गई थी। कानून पारित होने की पूर्व संध्या पर जुलाहां ने निम्न पंक्तियॉँ उकेरी थी ‘सुबह की पहली किरण के साथ विधवा पुनर्विवाह कानून लागू होने की सार्वजनिक घोषणा की जाएगी। सभी प्रान्तों, सभी जिलों में विधवा विवाह होने लगेंंगे; हमलोग खुशीपूर्वक अपने जीवन साथी के साथ जीवन व्यतीत करेंगे। जब अगली सुबह होगी विधवाओं के सारे दुःख दूर हो जाएगें‘। ब्रह्यसमाजी गुरूचरण महालनोविस 1862 ई0 में एक विधवा से विवाह करने के लिए हिन्दू धर्म त्यागकर ब्रह्यसमाजी बन गये जबकि महालनोविस परिवार हिन्दू बना रहा फिर भी दोनां परिवारों के मध्य सदैव मधुर सम्बन्ध कायम रहे।
ब्ांगाल में ईश्वरचन्द्र विद्यासागर की तरह किए गए आन्दोलन की तर्ज पर मुम्बई में विष्णु शास्त्री ने एक आन्दोलन चलाया। उन्होंने 1866 ई0 में विडो मैरेज एसोसियेशन की स्थापना की थी। हिन्दू सम्प्रदाय के कई दलों ने क्रिश्चियन मिशनों के आदर्श पर विधवाश्रमों की स्थापना करने का प्रयत्न किया। पहला विधवाश्रम ब्रह्मसमाजी शशिपद् बनर्जी के द्वारा कलकता के निकट बारानगर में स्थापित किया गया। लेकिन कुछ ही दिनों के पश्चात् सुधार की भावना समाप्त हो गई और आश्रम में ताला लटक गया। उन्नीसवीं शताब्दी के अंत तक विधवाओं की दशा के प्रति मायने बदल गये। मालावारी के अभियानों ने विधवाओं के साथ-साथ बाल विधवाओं की समस्याओं पर भी रौशनी डाली थी। बालविवाह की समस्या तो सुधारवादी पुनरुत्थानवादी विवाद में उलझकर रह गयी जबकि विधवाओं की समस्या पर कोई ध्यान नहीं दिया गया। शायद इसका कारण यह रहा होगा कि इसके लिए अब तक कानून बनाने के लिए कोई सशक्त आन्दोलन नहीं चलाया गया था। इस समय तक समाजसुधारकों ने यह महसूस करना शुरू कर दिया था कि कानून बनाने से परिवŸार्न बहुत कम और धीमा होता है। वे स्वर्णकुमारी देवी के इस मत से प्रभावित दिखे कि अब हमें सेवा तथा आत्मसहायता के कदम उठाने चाहिए। विधवाओं की दशा सुधारने के इस चरण में अनेकानेक विधवाएॅँ आकर्षित होकर इससे जूड़ गई जिसके परिमाणस्वरूप सुधार अभियान को नया आयाम मिला।
4 मार्च 1835 को कलकŸा के कुलीन परिवार की विधवाओं ने समाचार दर्पण के सम्पादक से अपील की थी कि वे उनकी दुःखद दशा के बारे में उनकी कुछ पंक्तियों को अपनी पत्रिका में प्रकाशित करें। इन पंक्तियों में यह आशा व्यक्त की गई थी कि अपील ब्रिटिश सरकार को उनके प्रति सहानुभूतिपूर्ण कदम उठाने के लिए बाध्य करेगी। इसी तरह चिन्सुरा की कुछ महिलाओं ने सम्पादक के नाम पत्र लिखे और सरकार के समक्ष कुछ मॉँगे रखी। ज्ञानन विषयन पत्रिका ने विधवा पुनर्विवाह विषय पर फैले अंधविश्वास के प्रश्न पर एक सभा आयोजित किए जाने की बात कही थी। पत्रिका की अपील पर मोतीलाल शील, बाबू हलधर मल्लिक और अन्य बुद्विजीवियों के प्रयत्नों से 1837 ई0 में कलकŸा में एक विशाल सभा का आयोजन हुआ। द इंगलिश मैन, द रिफॉर्मर, समाचार दर्पण आदि पत्रों ने विधवा पुनर्विवाह के विषय में जनचेतना फैलाने का कार्य किया। प्रोमिला चैपमैन के अनुसार इन दिनों हिन्दू विधवाविवाह के संदर्भ में गंभीरता से सोचने लगे थे।10 रत्नागिरी के एक तेलुगु ब्राह्यण ने 1837 ई0 में विधवा पुनर्विवाह के सम्बन्ध में एक पर्चा लिखा जिसका प्रकाशन मुम्बई से हुआ। मुम्बई दर्पण ने इस सम्बन्ध में पक्ष - विपक्ष में कई आलोचनाएॅँ भी छापी।
बंगाल में ईश्वरचन्द्र विद्यासागर द्वारा विधवाविवाह प्रारम्भ करने के 10 वर्ष पूर्व बहुबाजार के बाबू नीलकमल बंद्योपाध्याय ने कुछ अन्य प्रबुद्व जनों के साथ मिलकर विधवा पुनर्विवाह कराने की असफल चेष्टा की। 1845 ई0 में बंगाल ब्रिटिश इंडियन सोसायटी ने इस प्रश्न पर धर्मसभा एवं तत्वबोधिनी पत्रिका से सम्पर्क साधा, लेकिन दोनों संगठनों ने इसमें कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई। 1853 ई0 में गुजरात में एक युवा ने दिवालीबाई नामक एक विधवा से विवाह कर इस आन्दोलन को तीव्र कर दिया। नदिया के महाराजा श्रीसचंद्र और वर्द्वमान के महाराजा महातबचंद के अनुकूल रूख की सूचना ईश्वरचन्द्र विद्यासागर ने गवर्नर जनरल के परिषद् के सदस्य जे0 पी0 ग्रांट को दी। इधर महाराष्ट्र में बाबा पद्मसी की दो पुस्तकें विधवा पुनर्विवाह पर छपी कुटुम्ब सुधर्मा एवं यमुना प्रयत्न। इन दोनों पुस्तकों ने युवाओ को विधवा पुनर्विवाह के लिए चल रहे आन्दोलन में शरीक होने के लिए बाध्य कर दिया।
ईश्वरचन्द्र विद्यासागर ने जान - बूझकर एक सुनियोजित योजना के अनुरूप विधवा पुनर्विवाह आन्दोलनों के दौरान शास्त्रों के विरुद्व लोकाचार को एवं रीति- रिवाजों के विरुद्व धर्मशास्त्रों को एक-दूसरे के विपरीत विरोधाभाषी रूप में प्रस्तुत किया। इस प्रयास में विधवाओं के प्रति कठोरता को एक खतरनाक बीमारी बताते हुए विधवाविवाह के पक्ष में धर्मग्रंथों में लिखित उद्धरणों को 1854 ई0 में एक लधु पुस्तिका ’ए प्रपोजल एज टू व्हेदर विडो रिमैरिज शुड बी इंट्रोड्यूस्ड और नॉट?’ के रूप में जनता के सामने रखा। आन्दोलन में विद्यासागर ने पराशर स्मृति जैसे धर्मग्रंथों का सहारा लिया। उन्हांने जो विधवा पुनर्विवाह के पक्ष में शास्त्रीय प्रमाण प्रस्तुत किए वह मानवीयता और आंग्ल-हिन्दू कानून के अनुरूप थे। ब्राह्यणीय परम्परा के विधान और औपनिवेशिक कानून एक दूसरे के विपरीत होते हुए भी परस्पर संगुम्फित थे। कानून राज्य के विधायन का बाहरी मामला था जबकि सुधार धर्मशास्त्रों एवं सामुदायिक विवेचन के माध्यम से होनेवाला एक तरीका था। राजा राधाकांतदेव ने विधवा पुनर्विवाह के विरोध में जो याचिका तैयार की थी जिस पर 36 हजार 764 व्यक्यिं के हस्ताक्षर थे, में भी शास्त्रों एवं परम्परागत रीति- रिवाजां के हवाले से कहा गया था कि विधवा पुनर्विवाह अधिनियम - 1856 ब्रिटिश संसद द्वारा पारित विधेयक एवं ईस्ट इंडिया कम्पनी के अधिनियमों से काफी भिन्न है। इस याचिका में 1772, 1793 और 1831 में विभिन्न मुकदमों की सुनवाई के दौरान न्यायाधीशों के निर्णय एवं 1837 में स्थापित लॉ कमीशन के समक्ष प्रस्तुत सदर निजामत अदालत के मुख्य न्यायाधीश के विचार शामिल किए गये थे जो हिन्दू कानून के अंतर्गत विधवा पुनर्विवाह को कानूनी मान्यता नहीं दिए जाने के सम्बन्ध में थे। इसका जुडवॉँ संस्करण नदिया, त्रिवेणी, भाटपारा, बाँॅसबेरिया, कलकŸा एवं अन्य स्थानों के हिन्दू कानून के अध्येताओं द्वारा तैयार कर विधवा पुनर्विवाह के विरोध में प्रस्तुत किया गया था।11
विधवा पुनर्विवाह आन्दोलन को मजबूती प्रदान करने के लिए विद्यासागर ने दो पुस्तिकाओं की रचना की। प्रथम, विधवाविवाह एतद्विषयक प्रथम प्रस्ताव एवं दूसरा, विधवाविवाह एतद्विषयक द्वितीय प्रस्ताव। इनका प्रकाशन स्वतंत्र रूप से 1855-56 में कराया गया तथा इन दोनां को मिलाकर 1856 ई0 में एक पुस्तक की शक्ल दी गई जिसका शीर्षक था ‘मैरिज ऑफ हिन्दू विडोज‘। इस क्रम में विद्यासागर ने कलकŸा के दलपतियों का समर्थन हासिल करने का प्रयत्न किया जिसका हिन्दू समाज पर एकाधिकार चला आ रहा था। ये दलपति 19वीं शताब्दी में कलकŸा एवं उनके निकटवर्ती क्षेत्रों में दलों के आधार पर संगठित थे। उन्होंने राजा राधाकांतदेव के भतीजे के सहयोग से शोभा बाजार के राजा को अपने पक्ष में करने का विफल प्रयास किया। फिर भी उन्हें 1855 में विधवा पुनर्विवाह के समर्थन में वायसराय को प्रस्तुत की जानेवाली याचिका के निर्माण में हिन्दू समाज के प्रभुत्वशाली वर्गां, जमींदारों, संस्कृत महाविद्यालय के शिक्षकों, ब्रह्मसमाज एवं यंग बंगाल के समर्थकां तथा तर्कवाचस्पति तारानाथ जैसे पंडितो का सक्रिय सहयोग हासिल हुआ। इस याचिका पर हस्ताक्षर करनेवाले 25 हजार लोगों में टैगोर घराने के दोनो धड़ो का प्रतिनिधित्व करनेवाले देवेन्द्रनाथ टैगोर, प्रसन्न कुमार टैगोर, वर्द्वमान के महाराजा मेहताबचन्द, नदिया के महाराजा श्रीसचंद्र, उŸारपाड़ा ढाका एवं मैमनसिंह के जमींदार, श्री ताराचंद तर्कवाचस्पति, राजनारायण वसु, दक्षिणा रंजन मुखर्जी, अक्षयकुमार दŸा, जयकृष्ण मुखर्जी, पी0 चरण सरकार और काली कृष्ण मित्रा आदि शामिल थे।
ईश्वरचन्द्ऱ विद्यासागर के विधवा पुनर्विवाह के अभियान को समाचार पत्रों में व्यापक स्थान मिला। प्रशंसा के कुछ गीतां का उल्लेख करते हुए सुमन्त बनर्जी ने टिप्पणी की है कि इनमें से अधिकांश विधवा के आवाज में थे तथा विधवाएॅँ अपने वैधव्य से निकलकर पुनर्विवाह के लिए तैयार थी और उनकी खुशी का इजहार इन गीतां में किया गया। यहाँॅ तक कि शांतिपुर के जुलाहे भी इस अभियान में शामिल हो गए और उन्होंने अपने साँॅचों में तैयार होने वाले कपड़ां पर इन गीतां की पंक्तियॉँ बुन दी।12 इसके पश्चात् विद्यासागर ने अपनी पुस्तिका का अंग्रेजी अनुवाद कर अंग्रेज अधिकारियों को सौप दिया। उनकी सलाह पर ही विद्यासागर ने 1855 ई0 में भारत के गवर्नर जनरल को विधवा पुनर्विवाह पर कानून बनाने के लिए एक याचिका दी। उसी वर्ष विद्यासागर की याचिका पर आधारित एक कानून का मसौदा विधान परिषद् में जे0 पी0 ग्रांट द्वारा प्रस्तुत की गई।13
इन विरोधाभासी परिस्थितियों में सरकार ने 26 जुलाई 1856 को हिन्दू विधवाओं के लिए हिन्दू विधवा पुनर्विवाह कानून - 1856, 15 वें अधिनियम के रूप में पारित कर वैधानिक समाजसुधार का एक उत्कृष्ट उदाहरण प्रस्तुत किया। इस कानून के अनुसार ईस्ट इंडिया कम्पनी की सीमाओं एवं स्वामित्व के अंतर्गत नागरिक न्यायालयों में लागू कानूनों के अनुसार हिन्दू विधवाएँॅ कुछ अपवादों को छोड़कर एक बार विवाहित होने के कारण कोई दूसरा वैध विवाह अनुबंध करने में अक्षम है तथा ऐसी विधवाओं की संतानें विधवा द्वारा दूसरा विवाह कर लिए जाने के कारण अपनी पैतृक सम्पति को विरासत में पाने के अयोग्य एवं अक्षम है। ऐसे किसी भी विवाह को इस आधार पर अवैध नहीं माना जाएगा कि स्त्री का पहले ही विवाह हो चूका है या उसकी किसी दूसरे व्यक्ति से सगाई हुई थी और व्यक्ति विवाह के समय मर गया था। विधवा पुनर्विवाह के कारण किसी सम्पिŸा या दूसरे अन्य अधिकारों से वंचित नहीं होगी तथा प्रत्येक विधवा को पुनर्विवाह के पश्चात् विरासत के वहीं अधिकार प्राप्त होंगे जो कि उसके पहले विवाह के समय थे।14
किसी भी हिन्दू अविवाहित कन्या के विवाह को वैध मानने के लिए जो भी शब्दोच्चार किया जाता है या संस्कार सम्पन्न किए जाते है या सगाई की जाती है उसी प्रकार के सभी संस्कार हिन्दू विधवा के विवाह के समय भी सम्पन्न हांगे। किसी भी विवाह को इस आधार पर अवैध घोषित नहीं किया जा सकेगा कि उपरोक्त संस्कार, शब्दोच्चार या सगाई विधवा के मामले में लागू नहीं होते । यदि पुनर्विवाह करनेवाली विधवा नाबालिग है तथा पहला विवाह पूरी तरह सम्पन्न नहीं हुआ है तो वह अपने माता-पिता, दादा-दादी, बड़े भाई, किसी के न रहने पर अपने किसी नजदीकी पुरुष सम्बन्धी की सहमति के बिना विवाह नहीं कर सकती है। अगर कोई विधवा बालिग है या उसका पहला विवाह पूरी तरह सम्पन्न हो चुका है तो दूसरा विवाह करने के लिए उसी की सहमति को विधिसम्मत् एवं पुनर्विवाह के लिए पर्याप्त माना जाएगा।
विधवा पुनर्विवाह अधिनियम 1856 लागू होने के बाद ईश्वरचन्द्र विद्यासागर ने कई अवसरों पर विधवा पुनर्विवाह समारोहों का आयोजन किया। इस कानून के तहत प्रथम विधवाविवाह पंडित रामधन तर्कवागीश के पुत्र श्रीसचंद्र विद्यारत्न और ब्रह्मानन्द मुखोपाध्याय की 10 वर्षीया विधवा पुत्री कालीमति के बीच सम्पन्न हुआ। तत्पश्चात् कुछ बंगालियों ने उत्साहपूर्वक अपनी विधवा पुत्रियां का विवाह सम्पन्न कराया। ईश्वरचन्द्र मित्रा की बारह वर्षीया विधवा पुत्री का विवाह मधुसूदन घोष के साथ हुआ। मित्रा कोलकता के और घोष पानीहाटी के निवासी थे। इससे पूर्व महाराष्ट्र प्रांत के अहमदाबाद म्यूनिसिपल कार्यालय में लिपिक के तौर पर कार्य करनेवाले एक गौड़ ब्राह्यण रधुनाथ जनार्दन ने छीमाबाई नामक एक विधवा से विवाह किया था।15 हिन्दू पैट्रियाट के अनुसार 1867 में विद्यासागर ने ऐसे 60 विधवा विवाह अपने खर्चे से सम्पन्न कराये। बंगाल के बुद्विजीवियों ने उनके कर्ज को खत्म करने के लिए चंदा देने की पेशकस की जिसे उन्होंने नम्रतापूर्वक ठुकरा दिया। ढाका डिवीजन में विद्यासागर के निबन्धों ने विधवा पुनर्विवाह के पक्ष में उŸोजना एवं प्रदर्शन को इतना तीव्र कर दिया कि उन्हें बाध्य होकर इनका पुनर्मुद्रण करवाना पड़ा। पूर्वी बंगाल के कई क्षेत्रों विक्रमपुर, बारीसाल, मैमनसिंह, चटगॉँव, और सिलहट में ईश्वरचन्द्र विद्यासागर अल्पज्ञात व्यक्ति थे परन्तु ब्रह्मसमाजियों की इन इलाकों में पैठ के कारण इस आन्दोलन के प्रति लोगां का उत्साह चरमोत्कर्ष पर पहुँॅच गया था। हजारों गीत एवं कविताएॅँ रच डाली गई, कई हास्य प्रदर्शनों का आयोजन हुआ तथा बुद्विजीवियों ने सभाभवनों में विधवाविवाह के समर्थन में कई छोटी- बड़ी सभाएँॅ आयोजित की। यहॉँ तक कि छोटी समझी जानेवाली जातियों के लोग जैसे कुली, दरवान, किसान, और गाड़ीवान तक भी पूरे रंग में दिखे। शांतिपुर के जुलाहों द्वारा महिलाओं की साड़ी पर उकेरी उन पंक्तियों को काफी प्रसिद्वि मिली जिसमें विद्यासागर के दीर्घजीवी होने की कामना की गई थी। कानून पारित होने की पूर्व संध्या पर जुलाहां ने निम्न पंक्तियॉँ उकेरी थी ‘सुबह की पहली किरण के साथ विधवा पुनर्विवाह कानून लागू होने की सार्वजनिक घोषणा की जाएगी। सभी प्रान्तों, सभी जिलों में विधवा विवाह होने लगेंंगे; हमलोग खुशीपूर्वक अपने जीवन साथी के साथ जीवन व्यतीत करेंगे। जब अगली सुबह होगी विधवाओं के सारे दुःख दूर हो जाएगें‘। ब्रह्यसमाजी गुरूचरण महालनोविस 1862 ई0 में एक विधवा से विवाह करने के लिए हिन्दू धर्म त्यागकर ब्रह्यसमाजी बन गये जबकि महालनोविस परिवार हिन्दू बना रहा फिर भी दोनां परिवारों के मध्य सदैव मधुर सम्बन्ध कायम रहे।
ब्ांगाल में ईश्वरचन्द्र विद्यासागर की तरह किए गए आन्दोलन की तर्ज पर मुम्बई में विष्णु शास्त्री ने एक आन्दोलन चलाया। उन्होंने 1866 ई0 में विडो मैरेज एसोसियेशन की स्थापना की थी। हिन्दू सम्प्रदाय के कई दलों ने क्रिश्चियन मिशनों के आदर्श पर विधवाश्रमों की स्थापना करने का प्रयत्न किया। पहला विधवाश्रम ब्रह्मसमाजी शशिपद् बनर्जी के द्वारा कलकता के निकट बारानगर में स्थापित किया गया। लेकिन कुछ ही दिनों के पश्चात् सुधार की भावना समाप्त हो गई और आश्रम में ताला लटक गया। उन्नीसवीं शताब्दी के अंत तक विधवाओं की दशा के प्रति मायने बदल गये। मालावारी के अभियानों ने विधवाओं के साथ-साथ बाल विधवाओं की समस्याओं पर भी रौशनी डाली थी। बालविवाह की समस्या तो सुधारवादी पुनरुत्थानवादी विवाद में उलझकर रह गयी जबकि विधवाओं की समस्या पर कोई ध्यान नहीं दिया गया। शायद इसका कारण यह रहा होगा कि इसके लिए अब तक कानून बनाने के लिए कोई सशक्त आन्दोलन नहीं चलाया गया था। इस समय तक समाजसुधारकों ने यह महसूस करना शुरू कर दिया था कि कानून बनाने से परिवŸार्न बहुत कम और धीमा होता है। वे स्वर्णकुमारी देवी के इस मत से प्रभावित दिखे कि अब हमें सेवा तथा आत्मसहायता के कदम उठाने चाहिए। विधवाओं की दशा सुधारने के इस चरण में अनेकानेक विधवाएॅँ आकर्षित होकर इससे जूड़ गई जिसके परिमाणस्वरूप सुधार अभियान को नया आयाम मिला।
Very informative information..
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