19वीं शताब्दी में महिलाओ की सामाजिक स्थिति :विधवा एक अभिशाप

14 - 15 वर्ष की लड़कियाँ मुश्किल से ही कारण जानती होगी कि क्यों उन्हें उनकी हर पसंदीदा चीजों से वंचित किया जा रहा है। इन लडकियों के चेहरे पर सदैव उदासी छाई रहती थी और आँखें अश्रुपुरित रहती थी। विधवाओं को एक साधारण परिधान जो सफेद, लाल या भूरे रंग का होता था, पहनना पड़ता था। वह दिन में सिर्फ एक बार भोजन कर सकती थी, वह भी बिना मसालों के। कभी भी पारिवारिक दावतों, उत्सवों एवं समारोहों में शामिल नहीं हो सकती थी। उसे शगुन के अवसरों पर अपने आपको लोगों से छिपाना पड़ता  था। प्रातःकाल में सबसे पहले किसी विधवा का मुँह देखना अपशकुन माना जाता था। इतना ही नहीं यदि घर से निकलते समय कोई विधवा रास्ता काट दे तो वह व्यक्ति अपनी यात्रा तक स्थगित कर देता था।
           विधवा के सिर को मुड़वाकर उसके रुप को बिगाड़ने, आभूषण या चमकदार परिधान पहनने से रोकने का उद्देश्य पुरुषों की नज़र में उसे कम आकर्षक बनाना था। दिन में एक बार से अधिक न खाने देना, अपवित्र दिनों में उसे खाने से पूर्णतः दूर रहने के लिए मजबूर करना, उस अनुशासन का हिस्सा था जिसके द्वारा उसकी तरुण प्रकृति एवं इच्छाओं को वश में किया जाता था।ं उसे अपने सहेलियों तक से मिलने की मनाही थी। उसके पिता, चाचा, भाई, फुफेरे भाई के अतिरिक्त कोई पुरुष न तो उसे देख सकता था और न ही बात कर सकता था। उसकी जिन्दगी अज्ञान के अँधेरे में आशाहीन, प्रत्येक सुख एवं सामाजिक लाभ से वंचित होकर असहनीय बन जाती थी। माता - पिता भी अपनी बेटी के साथ अपने अंधविश्वास के कारण बुरा व्यवहार करते थे। उन्हें भय रहता था कि धार्मिक विधानों के उल्लंधन से उनके घर पर भी विपदा आ सकती है।
           युवा विधवाओं के लिए सामाजिक परिस्थितियाँ इस कदर असहनशील हो गई थी कि वह अपने घर रूपी जेल से भाग भी नहीं सकती थी। कोई भी सम्मानित परिवार यहाँ तक कि निम्न जाति से सम्बन्धित व्यक्ति भी उन्हें नौकरानी के रुप में भी रखने के लिए तैयार नहीं होता था। विकल्प के रूप में उनके सामने दो ही रास्ते थे या तो वह आत्महत्या कर ले या बदनामी औेर शर्मनाक जिन्दगी स्वीकार कर ले। 1881 की जनसंख्या रिपोर्ट में कहा गया है कि “अधिकांश वेश्याएँ मुस्लिम धर्म से सम्बन्धित है, इसमें उन युवा हिन्दू विधवाओं की भी संख्या शामिल है, जिन्होंने धर्म परिवŸार्न कर वेश्या का पेशा अपना लिया है।“ यहाँ तक कि मृत्यु भी विधवा को अपमान से नहीं बचा सकती थी। तत्कालीन समाज में यह रिवाज प्रचलित था कि जब एक सुहागन स्त्री मरती थी तो उसे उसके कपड़ों के साथ दफनाया जाता था, लेकिन विधवा की लाश चादर से ढँकी जाती थी तथा उसके दाह-संस्कार के समय मामूली क्रिया-कर्म ही किया जाता था।
           हिन्दू विधि कानून जो भारत स्थित ब्रिटिश न्यायालयों में प्रचलन में था, उसके अनुसार उच्च जाति में विधवा पुनर्विवाह वर्जित था तथा ऐसे विवाह से उत्पन्न बच्चे अवैध माने जाते थे जिसे पैतृक सम्पिŸा में हिस्सा नहीं मिलता था। विधवाओं, खासकर बाल विधवाओं की सबसे बड़ी समस्या यह थी कि इसे हिन्दुओं में एक बहुत बड़े अभिशाप के तौर पर लिया जाता था और उनका दूसरा विवाह असंभव था। इस समुदाय में बालविवाह के प्रचलन और विधवा पुनर्विवाह पर प्रतिबंध से इनकी संख्या में काफी वृद्वि हुई थी। आंतरिक रुप से जहाँ बालविवाह अटल था, पति की मृत्यु पर वह इस बात को छोड़कर कि वह एक विधवा पत्नी है और कुछ भी नहीं जानती थी। वह यह भी नहीं जानती थी कि उसने पुर्वजन्म में वह कौन सा पाप किया है जिसका उसे प्रतिफल मिला है। दूसरी ओर निम्न जातियों, खासकर शूद्रों में जो सम्पूर्ण जनसंख्या के 80 प्रतिशत भाग का प्रतिनिधित्व करते थे, न तो बाल विवाह की प्रथा का प्रचलन था और नहीं विधवाविवाह पर प्रतिबंध आयद था। इसलिए इस जातियों में विधवाओं की स्थिति अधिक दयनीय नहीं थी।30
          1881 की जनगणना के अनुसार पंजाब में 15 वर्ष से कम उम्र की विधवाओं की संख्या 24.8 प्रतिशत थी। यह संख्या हिन्दुओं और सिक्खों में 25.8 प्रतिशत तक पहुँच गई थी। 1901 की जनगणना में प्रति दस हजार की जनसंख्या में विधवाओं की संख्या 1363 थी जबकि विधुरों की संख्या 623 ही बताई गई है। 1901  की जनगणना में दर्शाया गया है कि पंजाब के उच्च जातियों में कम उम्र में ही विवाह करने की प्रथा प्रचलित थी जिससे बाल विधवाओं की संख्या में बढ़ोŸारी दिखाई देती है। बंगाल में विधवा पुनर्विवाह उच्च वर्ग के हिन्दुओं खासकर मध्यम वर्ग में प्रतिबंधित था। 1891 के जनसंख्या रिपोर्ट में दर्ज है कि ब्राह्यणों, क्षत्रियों, वैश्यों, बनियाँ जाति, मसलन सद्गोप, सुन्डी, महिष्य तथा तेलियों में यह प्रथा अप्रचलित थी। निम्न समझी जानेवाली जातियों में विधवा पुनर्विवाह का प्रचलन था लेकिन इन जातियों में भी कुछ ऐसी जातियाँ थी जो संस्कृतिकरण के कारण उच्च जातियों के रीति - रिवाज, धर्म-संस्कार अपनाकर अपनी सामाजिक स्थिति बढ़ाना चाहती थी तथा इस प्रथा को हेय दृष्टि से देखती थी। बंगाल के नामशूद्रों में यह प्रथा सर्वाधिक प्रचलित थी लेकिन उन्हें समाज में निम्न दर्जा प्राप्त था। वे अपना पुनर्विवाह कृष्ण पक्ष में ही कर सकते थे। डोम, बून, बगदीस, हादी तथा अति निम्न जातियों में विधवा पुनर्विवाह धड़ल्ले से होता था।31
            हरियाणा प्रदेश में विधवा पुनर्विवाह जाट समाज की एक महत्वपूर्ण विशेषता थी। जाट बहुल कृषक समाज में विधवाविवाह को ‘करेवा कराओ’ या ‘चादर अंदाजी’ कहा जाता था। करेवा में विवाह की इच्छा रखने वाला पुरुष विधवा स्त्री के सिर पर सफेद कपड़ा फेंकता था जिसका एक कोना रंगा रहता था। यह उसके पत्नी के रुप में स्वीकारोक्ति का सूचक था। यह प्रथा नव-विवाहित जोड़ों को समाज में पति - पत्नी के रुप में जीवन - बसर करने की स्वीकृति प्रदान करता था। करेवा विधि में क्षेत्र एवं समाज के अनुसार थोड़ा विचलन पाया जा सकता है, जैसा कि कुछ इलाकों में विधवाओं को चूड़ी पहनाने की प्रथा थी, कुछ लोग सोने का नथ पहनाते थे तथा कुछ क्षेत्रों में विधवा स्त्री के सिर पर लाल वस्त्र रखा जाता था जिसके एक सिरे पर रुपये गाँठ मे बँॅधे होते थे तथा बाद में गुड़ (जगेरी) का वितरण किया जाता था।32
              करेवा के बाद विधवा उन रंगीन वस्त्रों एवं आभूषणों को ग्रहण करती थी जिन्हें पति की मृत्यु के बाद उसके लिए प्रतिबंधित कर दिया गया था। राजपूतों को छोड़कर सभी जाट समुदाय में विधवा पुनर्विवाह प्रचलन में था। यह देखकर सुखद आश्चर्य होता है  कि इस क्षेत्र के ब्राह्मणों ने भी करेवा विधि को अपना लिया था। क्षत्रियों की छोटी जातियों में तो यह प्रथा प्रचलित थी लेकिन बनिया और कायस्थों में यह प्रथा अल्पगोचर थी। सैय्यदों को छोड़कर अधिकतर मुसलमान करेवा विधि से पुनर्विवाह करते थे। विधवा विवाह को लेकर जाटों के बीच कहावत मशहूर थी कि ‘‘आ जा बेटी लेले फेरे, ये मरेगा तो ओर बहुतेरे’’ अर्थात् बेटी आओ फेरे लेलो, यह मर भी जाएगा तो तुम्हें बहुत से दूल्हे मिल जाएगे। या एक कन्या सबन्सार वर अर्थात् एक कन्या के बहुतेरे दूल्हे।
             करेवा ऋग्वैदिक काल से चले आ रहे नियोग प्रथा का एक रुप था। इसमें महिलायें अपने पति की मृत्यु के बाद उसके छोटे भाई से विवाह करती थी। यहाँ तक कि चचेरे और बड़े भाई भी विधवा से शादी कर सकते थे। होशियारपुर से एक ऐसा उदाहरण मिलता है कि ससुर ने अपनी विधवा पुतहू के साथ विवाह किया था और इसकी वैधता को लेकर न्यायालय की शरण ली थी। कृषक समाज में करेवा विधि भू-सम्पत्ति के बँटवारे को रोकने का एक प्रभावी तरीका था। अलग-अलग विवाह से भू-सम्पत्ति के कई हिस्सेदार पैदा हो जाते और भूमि टुकड़ों में बँट सकती थी या किसी अन्य को हस्तांतरित हो सकती थी। अतः इस विधि से विवाह के पश्चात् सम्पत्ति अपने पास ही सुरक्षित रह जाती थी। विधवा अपने परिवार की सहमति से ही करेवा को अपना सकती थी। विधवाविवाह के सम्बन्ध में महिलायें अपने विवाह की इच्छा स्वतंत्र रुप से जाहिर भी करती थी और उसे व्यवहार में भी लाती थी। लेकिन जाट समाज में महिलाओं पर पुरुषों का पूर्ण नियंत्रण होता था। वहाँ एक कहावत प्रचलित थी कि ‘जमीन जोर जोई की, जोर घाटी होर की’ अर्थात् जोरु और जमीन उसी की होती थी जिसके पास ताकत होती थी।33 इस सिद्धान्त में देश के पूर्वी भाग का भोजपुरी क्षेत्र भी विश्वास करता है, जहाँ कहा जाता है कि जोरू और जमीन जाँघे की ताकत से ही पास रह सकती है।
          उन्नीसवीं शताब्दी के भारतीय समाज में बहुविवाह सभी बुराईयों के श्रोत और बर्बर आदिम आवश्यकताओं के अवशेष चिह्न के रूप में विद्यमान था। हिन्दुओं और मुसलमानों दोनों समुदाय के धनी वर्ग के पुरुषों में एक से अधिक पत्नियाँ रखने का रिवाज था। कुछ व्यक्तियों के पास तीन, चार और पाँॅच पत्नियाँ थी। 1871 ई0 में बरार से एक ऐसा उदाहरण मिलता है कि एक व्यक्ति सात पत्नियों का पति था।34 1881 की जनगणना रिपोर्ट में प्रति हजार पुरुषों पर पत्नियों की संख्या 1047 बताई गई है। यद्यपि एक से अधिक पत्नियाँ रखने की प्रथा थी, फिर भी हिन्दू इस बात को स्वीकार करते थे कि दो पत्नियों का होना दुर्भाग्य को निमंत्रण देना है और यदि दोनों पत्नियाँ संयोगवश एक ही मकान में रहती थी तो दुर्भाग्य और भी बढ़ जाता था।
         बहुविवाह की प्रथा मुख्य रुप से उच्च स्तर के लोगो यथा, राजपूतों, राजकुमारों, राज्याधिकारियों आदि में ही संभव थी। यद्यपि उनके लिए एक से अधिक पत्नियाँ रखना गौरव की बात थी, किन्तु वे भी इस प्रथा को दुर्गुण के रूप में ही स्वीकारते थे। मुसलमानों में, खासकर, पंजाब, बंगाल और मालावार क्षेत्र में जहाँ वे बहुसंख्यक थे, वहाँ बहुविवाह उच्च स्तर पर पाया जाता था। 1881 ई० के सांख्यिकी ऑँकड़े इस तथ्य को उद्घाटित करते है कि मालावार में 16 वर्ष से कम उम्र के विवाहित जोड़ों में 15 हजार महिलाओं की संख्या अधिक थी, जबकि 16-30 वर्ष के विवाहितां में यह संख्या बढ़कर 35 हजार हो गई थी। कुछ पहाड़ी क्षेत्रों में खासकर जनजातियों में बहुविवाह की प्रथा प्रचलित थी। बुकानन के अनुसार मालावार के तियार लोग बहुत पि़त्नयाँ रखते थे। नायर औरतों को एक से अधिक पति रखने के सामाजिक अधिकार  प्राप्त थे, किन्तु वे एक समय में एक ही पति से सहवास करना पसंद करती थी। नाम्बुदरी ब्राह्मणों में बहुपत्नी प्रथा का प्रचलन था। अंसाबी और नायर मातृसतात्मक होते हुए भी बहुपत्नी प्रथा में विश्वास करते थे। किन्तु वेस्टरमार्क ने नायरों के विवाह के सम्बन्ध में कहा है कि ‘‘इस विवाह को मुश्किल से ही विवाह कहना होगा, जब यह विचार किया जाए कि वे चरित्रहीन व भगोड़े चरित्र के होते है, क्योंकि पुरुष, स्त्रियों के साथ कभी नहीं रहते है तथा पिता के कŸार्व्यों की सदैव अवहेलना होती रहती है।‘‘ 1896 ई0 में मालावार विवाह अधिनियम पारित किया गया जिससे नायरों में विवाह स्थाई रुप से स्थापित हुआ।35 नीलगिरी के पहाड़ी इलाकों में बसनेवाली टोडा जनजातियों में बहुपति एवं बहुपत्नी दोनों विवाह प्रचलित थे।
          बंगाल में कुलीनवाद ने बहुविवाह को प्र्रश्रय दिया। यहाँ कुलीनवाद विभिन्न स्तरों पर कई रूपों में प्रचलित था। । ज्यादातर विवाह बुढ़ापे में होते थे और पति अपनी पत्नी को कभी देख नहीं पाता था या देखता भी था तो तीन - चार वर्षो या उससे अधिक की अवधि के अंतराल पर एक बार। एक दिन  में 3 से 4 विवाह तथा कभी - कभी 23 विवाह भी सम्पन्न होते थे। कभी-कभी एक व्यक्ति की सभी पुत्रियों एवं अविवाहित बहनों की शादी भी एक ही व्यक्ति से कर दी जाती थी। कुलीन लोगों की विवाहित एंव अविवाहित पुत्रियों एवं पत्नियों की दशा अत्यंत दयनीय थी और उन लोगों पर यह आरोप भी था कि भग कुलीनों के विवाहों के परिणामस्वरुप परस्त्रीगमिता, गर्भपात एवं वेश्यावृŸा आदि अपराधों को बढ़ावा मिलता था।
नायक कुलीनों में बेटों की शादी कुलीनों के सर्वोच्च गोत्र, श्रोत्रिय गोत्र में ही होता था जबकि परम्परा को बनाये रखने के लिए अन्य कुलीन लड़कियों से उनकी दूसरी, तीसरी शादियाँ की जाती थी। श्रोत्रिय लड़की ही नायकों की पत्नी मानी जाती थी, उन्हें ही सामाजिक प्रतिष्ठा प्राप्त थी, तथा उनके गर्भ से उत्पन्न बच्चे पिता की सम्पिŸा के वास्तविक उŸाराधिकारी होते थे। दूसरी पत्नी उस नायक परिवार का अंग नहीं होती थी, वह अपने पिता के घर पर ही रहकर जीवन व्यतीत करती थी तथा उसके बच्चे भी माँ के साथ ही रहते थे। इन बच्चों की अपने पिता की सम्पिŸा में कोई भागीदारी नहीं थी। नायक अपनी पुत्रियों एवं बहनों का विवाह अपने से उच्च या समकक्ष गोत्र में करने का प्रयत्न करते थे। गोत्र-सम्बन्धी अवधारणा के चलते सुयोग्य वर की प्राप्ति नहीं होने कारण नायक अपनी पुत्रियों एवं बहनों की शादी, किसी अंधे, बहरे, लगड़े, गूँगे, बूढ़े, कुरुप, बीमार एवं यहाँ तक कि मृत्यु-शैय्या पर पड़े व्यक्ति से भी कर देते थे। सिर्फ शŸार् यह होती थी कि वह उनकी अपनी गोत्र से सम्बन्धित हो और धनी परिवार से सम्बन्ध रखता हो। कभी - कभी ऐसा भी देखा जाता था कि नायकों द्वारा विवाह समारोहों का आयोजन कर लड़कियों की शादी फूलों एवं पेड़ों से कर दी जाती थी। त्री (ज्तप) कुलीन संवर्ग में जन्म लेनेवाली लड़कियाँ अक्सर अविवाहित ही रह जाती थी। ऐसा इसलिए होता था कि उनके अभिभावक अपने संवर्ग में उनके लिए सुयोग्य वर नहीं ढू़ँढ पाते थे, वर मिलता भी था तो वह लड़की की उम्र के दोगुने, चौगुने होता था। कभी-कभी अभिभावक बूढ़े और बीमार व्यक्ति को भी वर के रुप मे चयनित कर लेते थे, जिसे वह अनुपयुक्त करार देकर विवाह करने से इंकार कर देती थी। उपयुक्त वर की तलाश में नायक लड़कियाँ 26 से 30 वर्ष तक अपने घर में कुँवारी रह जाती थी। कुछ महिलाओं द्वारा अविवाहित रह कर एकदासी के रुप मे जीवन व्यतीत करने के भी दृष्टांत मिलते है। अन्य संवर्ग के कुलीनों के लिए विवाह एक पेशा बन गया था। वे 9 या 10 वर्ष की उम्र में ही विवाह करने लगते थे तथा यह कार्यक्रम मृत्युपर्यन्त चलता था। धर्मगुरुओं की भाँति वे नौकर-चाकर एवं साजो-समान के साथ प्रदेश के एक भाग से दूसरे भागोंं में भ्रमण करते थे तथा पुरानी पत्नियों के यहाँ से धन संग्रह करते थे और नये विवाह प्रस्तावों को मंजूरी देते थे। प्रत्येक विवाह को एक पंजी में पंजीकृत किया जाता था जिसमें विवाह की संख्या, पत्नियोंं के नाम, विवाह के वर्ष का स्पष्ट उल्लेख रहता था। कुलीन अपनी पुरानी पत्नियों के घरों में तब तक पैर नहीं रखते थे जब तक कि उन्हें 10 या 12 चॉँदी के सिक्के प्राप्त नहीं हो जाते थे। गरीब परिवार का ससुर जब तक अपने दामाद (जवाँई) को धन उपलब्ध नहीं करवाता था तब तक उसकी कन्या अपने पति के साथ सहवास नहीं कर सकती थी। इस स्थिति में वह अनेक वर्षों तक व्याही, परन्तु कुँवारी वाली जिन्दगी बिताती थी। कुछ कुलीन अपनी पत्नी से दूसरी बार अपने बच्चों के वैवाहिक समारोहों में ही मिल पाते थे, तब कहीं जाकर उन बच्चों  को अपने पिता के दर्शन होते थे।
कुलीनवाद ने हिन्दू समाज में अनेक बुराईयों को जन्म दिया। इससे न केवल अनमेल विवाह हुए बल्कि विधवाओं की संख्या में बढ़ोŸारी हुई । सामाजिक स्तर पर महिलाओं की लैंगिक सूचिता पर भी प्रश्नचिह्न खडे़ किए गये, अवैध संतानों की बाढ़ आ गई तथा सामाजिक दुराचार को बढ़ावा मिला। इसने समाज में वेश्यावृŸा को बढ़ावा देकर महिलाओं के मान - सम्मान पर गहरी चोट की। उदाहरणस्वरुप कृष्णानगर की एक महिला का उल्लेख किया जा सकता है जिसने कुलीनता के कारण कलकŸा में जाकर वेश्यावृŸा के पेशे को अपनाया था तथा अंततः संसार के भौतिक सुविधाओं को त्याग कर वृन्दावन में संन्यासी का जीवन व्यतीत करने लगी थी, फिर भी वह पंडों की गिद्ध दृष्टि से नहीं बच सकी।36
          19वींं शताब्दी में मुस्लिम समाज में यह धारणा प्रचलित थी कि पैगम्बर अब्राहम के पास दो, पैगम्बर जैकब के पास चार, पैगम्बर डेविड के पास निन्यानवे तथा पैगम्बर सोलोमन के पास सात सौ पत्नियॉँ थी जिसमें चार सौ स्वतंत्र तथा भद्रकुल से एवं तीन सौ गुलाम वंश से सम्बन्धित थी। अतः इस्लाम उन्हें एक से अधिक पत्नियाँॅ रखने की इजाजत देता है। यद्यपि इस्लाम बहुविवाह की छूट देता है, फिर भी इसमें यह बाध्यता है कि एक व्यक्ति एक समय में चार से अधिक पत्नियॉँ नहीं रख सकता। अल्लाह के संदेशवाहक का कहना है कि यदि तुम अपनी चारों पत्नियों के साथ सही इंसाफ नहीं कर सकते हो तो सिर्फ एक ही पत्नी रखो। इस्लाम में यह भी कहा गया है कि वह व्यक्ति विवाह की इच्छा नहीं रख सकता जो नामर्द हो यौन इच्छाओं की पूŸार् करने में अक्षम हो या उसकी आर्थिक स्थिति ठीक नहीं हो।37
        तत्कालीन मुस्लिम समाज में बहुविवाह के कई फायदे गिनाये जाते थे। मुस्लिम कट्टरपंथी इसे अवैध संतानों की उत्पिŸा को रोकने का कारगर हथियार मानते थे। दूसरे, यदि पत्नी बॉँझपन की शिकार हो और पति बच्चे पैदा करने की इच्छा रखता हो, ऐसी स्थिति में उसे पहली पत्नी को तलाक देना पड़ता तथा दूसरे से निकाह करनी पड़ती। लेकिन बहुविवाह के कारण पहली पत्नी भी वैधानिक तरीके से पति के साथ उसके घर में बिना किसी हिचक के रह सकती है। तीसरे, यदि पत्नी लगातार बीमार चल रही है और अपने पति के साथ वैवाहिक सम्बन्ध बनाये रखने में असमर्थ है तो भी पति पहली पत्नी को तलाक दिए बिना दूसरी शादी कर सकता है औेर पहली पत्नी को अच्छी चिकित्सकीय सुविधा मुहैया करा सकता है। वैसे व्यक्ति जिनकी सामाजिक - आर्थिक स्थिति बेहतर है, जो शारीरिक रुप से टेस्टेरॉन हार्मोन का श्राव अधिक करते हैं, वे बिना किसी असुविधा के एक से अधिक पत्नियाँ रख सकते है। अगर पत्नी ऋतुश्राव की अवस्था से गुजर रही है या बच्चे को जन्म देने में अधिक समय खर्च करती है तो ऐसा पति अपनी यौन-इच्छाओं की पूŸार् के लिए गलत या अनैतिक तरीका अपना सकता है, जिससे उसके नैतिकता, पवित्रता एवं व्यक्तित्व पर प्रश्नचिह्न खड़े किए जा सकते है। अतः बहुविवाह पति में असंयम, तनाव, कुण्ठा एवं अतृप्त यौन-इच्छा को रोकने में एक कारगर हथियार साबित हो सकता है।38 मुस्लिम कानून में पुरुषों के लिए बहुपत्नी विवाह का प्रचलन था जबकि महिलाओं के लिए बहुपति विवाह की अनुमति नहीं थी।
समकालीन यूरोपीय लेखकों ने 19 वीं शताब्दी के भारत में प्रचलित बालविवाह का वर्णन किया है। क्रेफर्ड लिखता है कि भारत में यह प्रथा प्राचीन काल से चली आ रही है। नवयौवना को शीध्र अपने पति से मिलने नहीं दिया जाता है और उसे कुछ समय तक पति की प्रतिक्षा करनी पड़ती है। 19 वीं शताब्दी में भी महिलाओं के विवाह की आयु स्मृतियों एवं पुराणों के अनुसार निर्धारित होती थी। मनु ने एक ऊँची जाति की लड़की के लिए विवाह की न्यूनतम आयु 8 वर्ष और अधिकतम आयु 12 वर्ष निर्धारित की थी। 1881 की जनगणना के अनुसार हिन्दू जनसंख्या का अधिकतम भाग 20 वर्ष की उम्र तक विवाहित हो जाता था। आँॅकड़ों के अनुसार विवाह की औसत उम्र 10 से 14 वर्ष के बीच थी जो कुल विवाहित व्यक्तियों का 53.26 प्रतिशत था। 8.7 प्रतिशत महिलायें 0-9  वर्ष की आयु में ही विवाहित हो जाती थी। इनमें से अधिकांश लड़कियॉँ 15 वर्ष से कम उम्र में ही माँ बन जाती थी। हिन्दुओं में प्रति एक हजार पर 53 ऐसी विवाहित लड़कियाँ थी जिनकी उम्र 10 वर्ष से कम थी जबकि मुसलमानों में इनकी संख्या सिर्फ 35 थी। 10 से 15 उम्र वर्ग के प्रति हजार महिलाओं में से 570 हिन्दू और 428 मुस्लिम महिलाओं का विवाह हो जाता था। बरार प्रांत में बालविवाह सर्वाधिक प्रचलित था; उसके बाद हैदराबाद, बंगाल तथा उतरी पश्चिमी प्रांत का स्थान आता था। बिहार के हिन्दू समुदाय में बालविवाह बंगाल के अन्य भागों से अधिक प्रचलित था जबकि मुसलमानों में विवाह की आयु हिन्दुओं की अपेक्षा अधिक थी। पंजाब और हरियाणा जैसे जाटबहुल क्षेत्रों में जिसकी अर्थव्यवस्था कृषि पर आधारित थी अपनी आवश्यकताओं के अनुसार इन क्षेत्रों में विवाह वयस्क अवस्था में होता था।
          बंगाल और बिहार में अभिभावक ही लड़के लड़कियों का विवाह तय करते थे। विवाह संस्कार बचपन में ही सम्पन्न किया जाता था किन्तु यौवनावस्था की प्राप्ति के बाद ही पति - पत्नी एक - दूसरे के निकट आते थे। सम्पूर्ण भारत में विवाह की आयु किसी भी जाति में निश्चित नहीं थी। स्क्रैफ्टन ने बंगाल के सम्बन्ध में लिखा है कि बंगाल में बालविवाह की प्रथा प्रचलित थी। 10 और 14 वर्ष की उम्र में क्रमशः लड़के और  लड़कियों के विवाह हो जाया करते थे। 12 वर्ष की उम्र तक लड़की माँ बन जाती थी। 18 वर्ष की होते ही अपना शारीरिक सौन्दर्य खोने लगती थी और 25 वर्ष की देहली पर पैर रखते - रखते बूढ़ी हो जाती थी। 1871 की जनगणना के प्रतिवेदन में लिंगानुपात दर्शाते हुए यह टिप्पणी की गई है कि प्रत्येक 100 पुरुषांं पर महिलाओं की संख्या 94 होने के पीछे महत्वपूर्ण कारण यह है कि लड़कियों की शादी कम उम्र में ही हो जाती है, वह शीघ्र जवान हो जाती है और शीघ्र ही मर जाती है। बुकानन के अनुसार पटना एवं पूर्णिया के निम्नवर्गीय परिवारों की लड़कियों की शादी पाँच या सात वर्ष की उम्र में ही हो जाती थी, किन्तु धनी परिवर के लोग अपनी लड़कियों की शादी जल्दी नहीं करते थे, कारण कि उन्हें शादी में अधिक रुपये खर्च करने पड़ते थे और दहेज की सामग्री जुटानी पड़ती थी; इसलिए धन इकट्टा करके ही वे अपनी लड़कियों का विवाह करते थे।
          भारत के दक्षिण-पश्चिमी हिस्सों में लड़कों का विवाह 6 से 8 वर्ष की उम्र में तथा लड़कियों का 3 से 4 वर्ष की उम्र में हो जाया करता था। दक्षिण भारत में लड़कियों का विवाह 5 से 7 वर्ष की उम्र में होता था।ं नाम्बूदरी जाति की लड़कियों की शादी रजस्वला होने के लक्षण प्रकट होने से पहले ही कर दी जाती थी। यदि कोई लड़की जवान हो जाती थी और रजस्वला होने के लक्षण प्रकट हो जाते थे और बिना किसी पुरुष के साथ समागम के ही उसकी मृत्यु हो जाती थी तो परम्परानुसार उसकी लाश के साथ किसी व्यक्ति की शादी कराई जाती थी जो मृत शरीर के साथ समागम करता था। इसके लिए परिवार के लोग काफी धनराशि खर्च करते थे।39
          गुजरात, मुम्बई, कांकण ओैर दक्कन में सामान्यतः 9 से 11 वर्ष की उम्र में लड़कियों की शादी कर दी जाती थी। कैवड कुम्भी जाति में 9 वर्ष और 11 वर्ष में विवाह का मुहुŸार् आता था इसी अवसर पर लड़कियों की शादी की जाती थी। जब लड़कियाँ 12 वर्ष की उम्र पार कर जाती थी तो यह माना जाता था कि उसने विवाह की उम्र पार कर ली है। वर्न्स का विचार है कि हिन्दुओं के कट्टरपंथी धड़े कम उम्र में ही अपने बच्चों का विवाह करना पसंद करते थे। अधिकांश मातायें अपने बच्चों को शीघ्रातिशीघ्र विवाहित देखने की आकांक्षा पाले रहती थी। उनका विचार था कि जल्दी बहुएँ आकर उनकी सेवा करेगी, घर गृहस्थी में हाथ बटाएगी। परिणामस्वरुप बच्चे पेदा होने के साथ ही उन्हें विवाह बंधन में बाँध दिया जाता था। बम्बई प्रेसीडेंसी के संवाददाता के अनुसार 1891 ई० में एक वर्ष की उम्र के विवाहित कुल बच्चों की संख्या 710 से कम नहीं थी जिसमें लड़कियों की संख्या 558 बताई गई थी।
        बालविवाह की प्रथा ने महिलाओं के प्रति घेरलू हिंसा को काफी बढ़ावा दिया। बालवधुआेंं को मारने - पीटने की घटनायें बहुत बढ़ गई थी। ढाका प्रकाश ने जून 1875 के अपने अंक में लिखा था कि एक वयस्क उम्र के पति ने अपनी बालवधू को पीटते-पीटते मौत के घाट उतार दिया था, पत्नी का सिर्फ इतना दोष था कि वह उसके साथ हमबिस्तर होने के लिए राजी नहीं हो रही थी। इससे मिलती - जुलती दूसरी घटना मई 1873 के एडुकेशन गजट में छपी थी जिसमें बताया गया था कि जब एक वयस्क पति ने अपने ग्यारह वर्षीया  पत्नी के साथ सहवास करने की चेष्टा की तो पत्नी ने ऐसा करने से इंकार कर  दिया। इससे  क्रोधित पति अपने पत्नी के बाल पकड़कर घसीटता हुआ बिस्तर से गिरा दिया तथा लात-घूस्सों की इतनी बरसात की कि उस महिला की जान ही चली गई।40  1890 ई0 में उड़ीसा में एक ऐसी ही घटना का जिक्र मिलता है जिसमें 35 वर्षीय हरिमैती ने अपनी 10 या 11 वर्ष की पत्नी फुलमनी के साथ जबरदस्ती संभोग कर उसकी जान ले ली थी। 1856 में प्रकाशित डॉ0 शेवर की जाँच रिपोर्ट में बताया गया था कि सो में से 14 ऐसी घटनायें मिलती हे जिसमें पतियों ने अपने पत्नी के मासिक धर्म आने से पूर्व ही सहवास किया था। जिससे उनकी की मृत्यु हो गई थी। 1890 ई0 में भारतीय डाँॅक्टरों के एक दल ने अपनी रिपोर्ट में बतलाया था कि 13 प्रतिशत प्रसव के लिए ऐसी महिलायें अस्पतालों में लाई गई जिनकी उम्र 13 वर्ष से कम थी।41 संभव है कि ऐसे मामलों में पतियों द्वारा महिलाओं को बलात् गर्भधारण के लिए मजबूर किया गया होगा।
        बालविवाह नामक सामाजिक बुराई बंगाल के अतिरिक्त संयुक्त प्रान्त, बरार, बिहार औेर उड़ीसा प्रान्त में काफी बड़े अनुपात में प्रचलित थी। 1891 ई0 मेंं एज ऑफ कंसेंट बिल के पारित होने के बाद भी यह रिवाज सभी जातियों एवं सभी समुदायों में समान रूप से प्रचलित था। हाल के अनुसंधानों से इस बात का खुलासा हुआ है कि तत्कालीन अधिकांश  महत्वपूर्ण व्यक्तियों का विवाह कम उम्र की लड़कियों से हुआ था। यथा रामकृष्ण परहंस ने छः वर्ष, एम0 जी0 राणाडे ने 8 वर्ष, डी0 के0 कार्वे ने 9 वर्ष तथा महात्मा गाँधी ने 9 वर्ष की कन्या से विवाह किया था। वी0 एल0 मनकद ने सोराष्ट्र के एक उच्च जाति की तीन पीढ़ियों का अध्ययन 1934 - 35 में किया था। उन्होनें दादा के पीढ़ी के 158 व्यक्तियों, पिता के पीढ़ी के 1002 और अपनी पीढ़ी के 1121 लोगों को साक्षात्कार में शामिल किया। उनका निष्कर्ष था कि दादा जी की पीढ़ी यानी 1875 ई0 के आसपास विवाह की आयु 11.42 वर्ष, पिता के समय 1898 ई0 के आसपास 13.59 वर्ष तथा वŸार्मान पीढ़ी की 14.81 वर्ष थी।42
       उन्नीसवीं शताब्दी में भारत के सभी भागों में औेर करीब - करीब सभी राजपूत कौमों में लड़कियां को मार डालने की एक प्रथा सदियों से चली आ रही थी। उन्होंने अपने समाज में बालिका शिशु हत्या के अधार्मिक एवं अमानवीय रिवाज को बनाया औेर उसे भलीभाँॅति निभाते भी चले आ रहे थे। यह  क्रूर कार्य स्वयं पिताओं द्वारा किया जाता था और बच्ची की माँ भी अपने पति के कहने पर बालिका शिशु की हत्या कर देती थी।  ध्यान देने योग्य तथ्य यह है कि यह सुनिश्चित कर लेने के बाद कि कितनी लड़कियों को जिन्दा रहना चाहिए, पिता को पुत्री के जन्म या अन्य पुत्रियों की हत्या के बाद मारनेवाले पिता की रक्षा जाति औेर गोत्र का यह अत्याचारी रिवाज करता था, जो इन हत्याओं को वैसे ही पूरा करता था जैसे किसी मच्छर या अन्य परेशान करनेवाले कीड़े को समाप्त करना। रोते हुए बच्ची को चुप कराने के लिए अफीम प्रयुक्त होती थी। इसकी छोटी सी गोली इस निर्दय  हत्या के कार्य को पूरा करने के लिए पर्याप्त थी। गर्दन पर कौशलपूर्वक दबाव जो कि गले पर नाखून रखने से जाना जाता था, इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए अक्सर इस्तेमाल होता था। बंगाल और बिहार प्रांत में बालिका शिशुहत्या के लिए नमक का प्रयोग होता था जो नवजात शिशु के जीभ पर रख दिया जाता था। एक अन्य तरीका शिशु बच्चियों को जंगली जानवरों के आगे फेका जाना था। पंडिता रमाबाई ने टिप्पणी की है कि “कुछ ऐसे शिशु चोर ही नहीं है जो सिर्फ लड़कियों को चुराते है, अपितु जंगली जानवर भी इतने बुद्विमान है तथा इनका स्वाद इतना शुद्ध है कि वे ब्रिटिश कानून का उपहास करते है तथा अपनी भूख को शांत करने के लिए प्रायः लड़कियों को ही चुराते है।“ 1870 की जनगणना के प्रतिवेदन से भी इसकी पुष्टि होती है कि एक वर्ष में 300 शिशु, जो लड़कियाँ थी, भेड़ियों द्वारा अमृतसर से चुरा ली गई।
        1881 की जनगणना रिपोर्ट में बताया गया है कि भारत में पुरुषों की संख्या की तुलना में महिलाओं की संख्या 50 हजार कम थी। लिंगानुपात के इस अंतर को लानेवाले कारणों में महिलाओं के चिकित्सकीय उपचार में कमी, गर्भावस्था के दौरान उचित देखभाल एव स्वास्थ्यवर्धक भोजन का अभाव तथा बच्चियों के प्रति अवहेलना के साथ-साथ सर्वप्रमुख कारण देश के विभिन्न भागों में होनेवाली बालिका शिशुहत्या थी। 1871-72 की जनगणना के मेमोरेण्डम में हेनरी बाटरफील्ड इस बात को रेखांकित करते है कि ब्रिटिश भारत में 9.8 करोड़ पुरुष ओैर 9.25 करोड़ महिलायें थी। लिंगानुपात के ख्याल से प्रति सौ पुरुषों पर 94 महिलायें थी जबकि बालकों की तुलना में बालिकाओं की संख्या सिर्फ 87 थी। जबकि उनका मानना था कि गर्म जलवायु होने के कारण लड़कों का जन्मदर लड़कियों के जन्मदर से सिर्फ  एक प्रतिशत अधिक था। संयुक्त प्रान्त में 100 पुरुषों पर 96 महिलायें थी बरार में 93, अवध में 92, पंजाब में 83, कुर्ग में 78 तथा अजमेर में सबसे कम 49 महिलाएँ थी। तेनासरिम के कमिश्नर के अनुसार इस कमी का प्रमुख कारण शिशु जन्म के समय महिलाओं के साथ किया जाने वाला अमानवीय व्यवहार था। अजमेर में लिंगानुपात कम होने का प्रमुख कारण राजपुताना में पड़नेवाला कुख्यात अकाल था। इस दौरान जीवन को बचाने के लिए पुरुषों ने सारे संसाधनों पर अधिकार कर लिया था तथा महिलाओं को यूँ ही भूखों मरने के लिए छोड़ दिया था जिसमें अधिकांशतः बच्चियाँ थी।
        आजमगढ़ के मजिस्ट्रेट टॉमसन के अनुसार 1836 ई0 में वायस रधुवंशी और गौतमी ठाकुरों में बालिका शिशुहत्या की घटना काफी जोरां पर थी। दस हजार राजपूतों की बस्ती में एक भी लड़की नहीं मिल सकती थी। 1868 में एक अंग्रेज अधिकारी होबर्ट ने प्रतिबंधित कानून को लागू करने से पहले भारत के उन तमाम क्षेत्रों का दौरा किया जहाँ बालिका शिशुहत्यायें सबसे ज्यादा की जाती थी। उसका निष्कर्ष था कि यह भयानक कृत्य गुप्त रूप से प्रचलित है तथा खतरे की सीमा तक इसका विस्तार हो चूका है। इलाहाबाद जिले की बारा तहसील में पुरहर, कचना और भदौरिया राजपूतों में यह प्रथा बड़े पैमाने पर व्याप्त थी। 10 दिसम्बर 1839 में एक ठाकुर द्वारा  अपनी नवजात बालिका को मारने की घटना मिलती है। सिविल सर्जन के अनुसार लड़की के पेट में मदार का दूध था जिससे उसकी मृत्यु हो गई थी।43
          1838 ई0 में उŸारी भारत भयंकर अकाल की चपेट में था। इसके प्रकोप से 10 हजार प्रतिदिन के हिसाब से हिन्दुस्तानी लोग मरे। नदियाँ मृतक शरीर से पटी पड़ी थी। माताएँ अपने बच्चों को जिन्दा पानी में डाल देती थी ताकि उन्हें अपने बच्चों की मरण-यंत्रणा न देखनी पड़े। कुछ ने अपनी बच्चियों को बेंचकर रोटियों का जुगाड़ किया। आनविन को जनगणना के क्रम में पता चला कि मैनपुरी के चौहान राजपूतों में एक भी छोटी या बड़ी लड़की नहीं है, कारण यह था कि चौहान लोग अपनी लड़कियाँ मार डाला करते थे। यहीं स्थिति इटावा के ठाकुरों की भी थी। आगरा जिले में भदौरिया, मेलकिया, कूलिया और कुँवर जाति के राजपूतों में बालिका शिशु हत्या काफी प्रचलित थी। यह राजपूत जातियाँ सर्वश्रेष्ठ समझी जाती थी इसलिए यह अपनी लड़की को जिन्दा रखना अपने वंश के लिए अपमानजनक समझती थी। इन लोगों के यहाँ दहेज भी ज्यादा नहीं देना पड़ता था और न भाँड़ लोग परेशान करते थे। इनके यहाँ अपनी लड़कियों को मार डालने का कारण यह था कि यह जाति अभिमानवश रजवाड़ो में ही शादी कर सकते थे जिसके लिए बहुत रुपयों की आवश्यकता पड़ती थी।
            पंजाब प्रान्त में बालिका शिशुहत्या की निन्दनीय प्रथा का काफी प्रचार था। हिन्दू ओैर मुसलमान दोनां धर्मों के लोग इसमें शामिल थे। हिन्दुओं के कुटच वंश के राजपूतों में यह प्रथा सर्वाधिक प्रचलन में थी। कांगड़ा नरेश इस वंश के प्रमुख थे तथा राजपूतों में कोई और खानदान इनकी बराबरी का नहीं था। मुनहा वंश भी जो सतलुज से झेलम तक फैला हुआ था बालिकाओं की हत्या करता था। गुरुदासपुर, स्यालकोट और गुजरात के जिलों में यह लोग बहुत ऊँची जाति के समझे जाते थे और इसीलिए अपनी लड़कियों की नीच जाति में शादी करना अपमानपूर्ण समझकर मुलहा और कुटच दोनों ही अपनी लड़कियों को मार डालते थे। मालवा के सिक्खों में भी बालिका शिशुहत्या का प्रचलन था। ये बहुत वीर, साहसी एवं प्रभावशाली लोग थे। अम्बाला, थानेर की दक्षिणी रियासतें, नाभा, पटियाला और फरीदपुर की जाट रियासतें इन्हीं की थी। ये लोग लड़कियों की हत्या जायज मानते थे।  महाराजा दलीप सिंह ने लाहौर में बाल्यकाल में अपनी बहनों को बोरी में कसकर नदी की भेंट चढ़ते हुए अपनी आँखों से देखा था।44
         डेरा गाँजी खॉ के आसपास रहने वाले गुस्साई, भोदल ब्राह्यण और मुसलमान भी इस प्रथा के शिकार थे। मुसलमानों में गूठले और डोंगरे केवल अपनी लड़कियों को अपने से नीच घरों में न देने की वजह से हत्या करते थे। डोंगरों में लड़कियों को मारने का एक कारण यह भी था कि इनके यहाँ भी शादी में बहुत ज्यादा धन खर्च करने की प्रथा मौजूद थी। जैसे हिन्दुओं में भाट या चारण लोग प्रशंसा और निन्दा का लोभ और भय दिखाकर लड़के एवं लड़कीवालों से रुपये वसूलते थे। रुखसत के वक्त और बारात के आने के वक्त डोले पर रुपये लूटाने की प्रथा भी इनके यहाँ बहुत ज्यादा थी। जिसके कारण लड़कियों की शादी में बहुत ज्यादा खर्च हो जाया करता था। जाति गौरव के उन्माद में और विवाह के खर्च की भयंकरता के कारण ही डोंगरे लोगांं में कन्या शिशुहत्या का बहुत प्रचार था।
         काठियावाड़ के जडेजा एवं कच्छ में राजपूत हिन्दू और जैनी लोग सभी शिशु हत्या के अमानवीय प्रथा के शिकार थे। तत्कालीन लेखकों का विचार है कि यह जाति काठियावाड और कच्छ में ज्यादा नहीं तो कम से कम 5 हजार बच्चों की प्रतिवर्ष जरुर हत्या करती थी। कुछ लोगों का विचार है कि 20 हजार बच्चे हर साल यहाँ मार डाले जाते थे। यदुज जाति अपने आपको कृष्णवंशी समझती थी, इससे उच्च कोई दूसरी जाति वहाँ नहीं रहती थी। अपने से नीची जाति के लड़कों के साथ अपनी लड़कियों का विवाह करना इनके लिए असह्य था। इसके साथ ही गुजरात में आवधिक विवाह की प्रथा ने बालविवाह और बेमेल विवाहों को बढ़ावा दिया था।
        देवदासी यानी देवताओं की दासी, मंदिरों में प्राण - प्रतिष्ठित देवी - देवताओं का आजीवन सेवा करना ही उसका कर्तव्य है। इस प्रथा की जड़े धर्म तथा  अंधश्रद्धा में घँसी हुई है। मंदिर और देवदासी के बीच अटूट रिश्ता है, इसलिए प्राचीन काल में देवालयों के देवी - देवताओं की सेवा करने के लिए महिलायें आमतौर पर रहती थी। प्रत्येक देवदासी को देवालय में नाचना - गाना पड़ता था। मंदिरों में बाहर से आनेवाले खास मेहमानों के साथ शयन करना पड़ता था। इसके एवज में उसे अनाज या धनराशि प्राप्त होती थी। मंदिरों में देवदासियों की नियुक्ति मासिक अथवा वार्षिक वेतन पर की जाती थी। 19वीं शताब्दी में देवदासी प्रथा सम्पूर्ण भारत, खासकर दक्षिण भारत में एक प्रमुख सामाजिक बुराई के रुप में प्रचलित थी। यहाँ तक कि देवदासी और वेश्या समानार्थी शब्द बन गये थे। अब्बे जे0 ए0 डुबाँय ने, जिन्होंने 1792 ई0 से 1823 ई0 के बीच करीब 30 वर्षों तक भारत भ्रमण किया था, अपने संस्मरण में लिखा है कि मंदिरों में संलग्न नृत्यांगनाएँ/वेश्याएँ  मुख्य रूप से पुजारियों के उपभोग की वस्तुएँ थी, जो वेश्या दर्शनं पूण्यं पापनाशनम् जैसे निकृष्ट श्लोकों का पाठ करते थे, जिसका अर्थ होता है ‘‘वेश्या के साथ समागम पुण्य कर्म है, जो पाप का नाश करता है।’’
         देवदासी प्रथा की परम्परा अपकृष्ट मानी जाती थी क्योंकि यह विवाह परम्परा के बाहर शारीरिक सम्बन्धों को प्रोत्साहित करती थी। 1890 में किए गये एक सर्वेक्षण में 45.9 प्रतिशत देवदासियाँ यौन - व्यवसाय में संलग्न मिली और बाकी का गुजारा दिहाड़ी तथा खेतिहर मजदूरी पर आश्रित रहा था। देवदासी एक ऐसी अमानवीय क्रूर प्रथा थी जिसका शिकार दलित परिवारों की महिलायें, युवतियाँ एवं बच्चियाँ हजारों की संख्या में होती थी। रूसी विद्वान ई0 एस0 यूरलोवा के अनुसर देवदासियाँ जो नृत्यांगना के परिष्कृत नाम से जानी जाती है, कतिपय अछूत जाति के लोगों के द्वारा मंदिर में लाई जाती थी और वे मंदिर के पुजारी की सम्पिŸा मानी जाती थी। देवदासी के संतान को भगवान की संतान के नाम से पुकारा जाता था। देवदासी प्रथा केवल कर्नाटक या महाराष्ट्र में ही सीमित नहीं थी, वरन् उडीसा आन्ध्रप्रदेश, मध्यप्रदेश, राजस्थान, मद्रास व गोवा जैसे प्रदेशों में भी व्याप्त थी।45
            देवदासी प्रथा के उन्नीसवीं शताब्दी में बने रहने के पीछे कई महत्वपूर्ण कारण उŸारदायी थे। इतिहासकारों का मानना है कि अति प्राचीनकाल में सामाजिक संरचना स्त्रीप्रधान अथवा मातृसत्तात्मक परिवार पद्वति पर आधारित थी। समग्र समाज के इतिहास का अवलोकन करने पर पता चलता है कि पुरुष को अधिक श्रेष्ठ दर्जा मिला और देवदासी कुप्रथा भी उच्च-निम्न संस्कृति का अंग बनी। देवदासी अर्थात् देवताओं की दासी, परन्तु व्यवहार में वह सिर्फ पुरुषों की ही दासी बनी रही। मातृप्रधान समाज पर पितृप्रधान समाज का यह पहला आक्रमण था जिसने मातृसŸात्मक सामाजिक संरचना को छिन्न - भिन्न कर दिया।46 दूसरा प्रमुख कारण देवी कोप से बचने का एक तरीका था। समाज में आमतौर पर पुत्र न होने अथवा पुत्र जन्मते ही मृत्यु हो जाने या किसी पुत्री अथवा सबसे  छोटी पुत्री को देवताओं को समर्पित करने की प्रथा पारम्परिक तौर पर दिखाई पड़ती है। देवदासी परम्परा अगर कायम नहीं रखी गई, तब देवी का भयंकर कोप बरसेगा, ऐसा तर्क दिया जाता था।
         19 वीं शताब्दी और उसके बाद भी देवीदासी प्रथा कायम रहने की पृष्ठभूमि में भारतीय समाज का राजनैतिक अर्थशास्त्र छिपा हुआ था। एकबारगी अधिकृत रुप से कन्या देवताओं को समर्पित कर देने पर उसे कुछ अधिकार प्राप्त हो जाते थे। मंदिर में आधिकारिक तौर पर देवदासी के रूप में रहनेवाली स्त्रियों को निः शुल्क आवास की सुविधा मिली हुई थी। इसके साथ ही जीवनयापन के लिए भूमि के पट्टे भी मिलते थे। सामंतवादी सामाजिक व्यवस्था में देवदासियों की अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका सांस्कृतिक जीवन के अंतर्गत रही है। मंदिरों में देवदासियों को नाच - गाना करना पड़ता था। इस  नृत्य परम्परा का उद्द्ेश्य भले ही देवी - देवताओं को संतुष्ट करने का रहा, फिर भी मूल प्रयोजन राजा - रजवाड़ों, अमीर और सामंतों का मनोरंजन करना ही प्रमुख रहा। इसी सोच को ध्यान में रखकर इन्ही श्रीमंत वर्गो का मनोरंजन करने के लिए दासियों को राजा-महाराजाओं ने मंदिरों में आश्रय के बहाने राजाश्रय प्रदान किया तथा मंदिर की आय का एक हिस्सा देवदासियों को पारिश्रमिक के रुप में मिलता रहा।47
       भारतीय समाज में देवदासियों को अत्यंत सम्मानित पद प्राप्त था। मंदिरों में पुजारियों के बाद दूसरा स्थान देवदासियों का ही था। फिर भी देवदासियों को देवालयों के गर्भगृह में प्रवेश की अनुमति प्राप्त नहीं थी। इसके विपरीत आमजनों का प्रवेश गर्भगृह तक था इसके पीछे लैंगिक दृष्टिकोण से अपवित्रता का मुद्दा ही हावी था। सभी जातियों की कन्याएँ देवी को अर्पित करने के बावजूद अगड़े - पिछडे़ का भेदभाव देवदासियों में व्याप्त था। इसी भेदभाव की वजह से उच्चवर्गीय देवदासियाँ, निम्नवर्गीय देवदासियों से कोई सम्बन्ध नहीं रखती थी। दलित समाज में देवदासी प्रथा के अंतर्गत झुलवा लगाने की परम्परा थी। यह प्रथा किसी विधवा या वेश्या स्त्री को पत्नी के रुप में स्वीकार करते समय की जानेवाली एक रस्म  थी। झुलवा के अंतर्गत कन्या देवदासी के रजस्वला होने पर उसको शारीरिक उपभोग करने हेतु दी जानेवाली अनुमति थी। सामंतों को यह अनुमति सम्बन्धित गॉँव के धर्माधीशों द्वारा दी जाती थी। इसके बाद देवदासी भोगदासी बन जाती थी। कर्नाटक में दलित देवदासियों द्वारा नग्न जूलूस निकाला जाता था जिसे ‘सिडी आटू’ कहा जाता था, जिसमें आदिम अवस्था में देवी की उपासना औेर भक्ति की जाती थी।48
       जब कोई महिला देवदासी बन जाती थी तो उसकी बॉँह पर सम्बन्धित मंदिर की मुहर गर्म कर दाग देने की परम्परा प्रचलित थी। इसकी छाप देवदासी के शरीर पर मृत्युपर्यन्त कायम रहती थी। देवदासी की समाज में अलग पहचान होनी चाहिए इसलिए यदि उसे विवाह कर घर बसाने की इच्छा होती थी, तब भी वह ऐसा नहीं कर सकती थी। आन्ध्रप्रदेश में देवदासी प्रथा योगिनी नाम से प्रचलित थी। इसमें देवी येलम्मा को अर्पित की जानेवाली सभी कन्यायें दलित समाज की होती थी, क्योंकि उसकी देवी भी दलित थी। इन कन्याओं के उपभोग का अधिकार मात्र गॉँव के जमींदारों, अमीरों और पुजारियों को प्राप्त था। किसी भी जोगन को कोई भी जमींदार कभी भी अपनी कोठी पर बुला लेता था तथा उसके साथ शारीरिक सम्बन्ध बना लेता था। इस प्रकार धर्म की ओट में बेवश देवदासियों के यौन - शोषण का नंगा नाच होता था।
        प्राचीन काल से चली आ रही सामाजिक कुप्रथा वेश्यावृŸा 19 वीं शताब्दी में भी भारतीय समाज में बड़े पैमाने पर प्रचलित थी। 1881 की जनगणना में उल्लेख किया गया है कि अधिकांश वेश्याएँ मुस्लिम जाति से सम्बन्धित थी। इसमें वैसी हिन्दू विधवाएँ भी शामिल थी जिन्हांने अपना धर्म परिवŸार्न कर मुस्लिम धर्म को अपना लिया था। बालविवाह का प्रचलन विधवा विवाह पर प्रतिबंध तथा कुलीनवाद ने वेश्यावृŸा को काफी बढ़ावा दिया था। 1869 ई0 में अमृत बाजार पत्रिका में छपी रिपोर्ट के अनुसार कलकŸा की 90 प्रतिशत वेश्याएँ विधवा थी। कलकता औेर बम्बई जैसे शहरों में कई यूरोपीयन महिलायें थी जिन्हांने वेश्वावृŸा के पेशे को अपना लिया था। 19वीं शताब्दी के प्रारम्भिक वर्षों में पूरे देश में नियुक्त अंग्रेज सैनिकों की संख्या में वृद्धि के अनुपात में ही वेश्यावृŸा में तेजी से वृद्वि हुई। छावनी के आस- पास के इलाकों में स्थित  बाजारांं में लाल बाजार ;त्मक सपहीज ंतमंद्ध प्रणाली विकसित की गई जिससे वेश्यावृŸा के बाजार को काफी बढ़ावा मिला। अंग्रेजी कानून में वेश्यावृŸा के दायरे में विस्तार करते हुए वारंगनाओं, मैडमों एवं रखैलो को भी शामिल कर लिया गया था जिससे उनकी संख्या काफी बढ़ी। नौटंकी या नाच जैसे समाज में स्वीकृत कृत्य जो कि पूरे देश में निजी या सार्वजनिक तौर पर किए जाते थे, अश्लील माने जाने लगे तथा नाचनेवाली लड़कियों को ‘वेश्या’ का नाम दे दिया गया था।
           19वीं शताब्दी में अधिकांश मुस्लिम वेश्याओं का मानना था कि जन्नत में भी वेश्याओं के चकले चलते है। स्वर्ग में भी एक बाजार है जहाँ पुरुषों और औरतों के हुश्न का व्यापार होता है। बस जब कोई व्यक्ति सुन्दर स्त्री की ख्वाहिश करेगा तो वह उस बाजार में आएगा और अपनी पसंद की हूर्रें ले जाएगा। यह तर्क सिर्फ अपने पेशे को आध्यात्मिक चोला पहनाने के लिए था लेकिन वास्तविकता यह थी कि इसमें वहीं औरतें आती थी जो प्यार में धोखा खा चुकी थी या अपनों ,द्वारा ठुकरा दी गई थी या गरीबी की मार से भूखमरी की शिकार थी या फिर बिरादरी की गलत नीतियों का शिकार होकर इस वृŸा को भारी दिल से अपना लिया था। इस्लाम में दर्जनों औरतों को रखैल बनाकर रखने की इज़ाज़त है। यहाँ तक कि कोई व्यक्ति अपनी रखैलों को बेंच भी सकता है। इस समय मुसलमानों में ‘मुता’ की एक विचित्र प्रथा प्रचलित थी जिसके तहत किसी भी स्त्री को थोड़े समय या कुछ घंटों या कुछ दिनों के लिए बीबी बना लिया जाता था और उसके साथ सहवास किया जाता था। अय्यासी के लिए मुता करने पर औरत उस मर्द से अपनी मेहर माँॅगने की भी हकदार नहीं होती थी। यदि मुता के दिनों व घंटो में विषयभोग करने से उस स्त्री को गर्भ रह जाता था तो उसकी उस मर्द पर कोई जिम्मेदारी नहीं होती थी। कोई भी औरत कितने ही मर्दो से मुता करवा सकती थी या एक मर्द कितनी ही औरतों से मुता कर सकता था इसकी कोई निश्चित सीमा तय नहीं की गई थी।
        हिन्दुओं में वेश्यावृŸा पर आध्यात्मिक परदा पड़ा हुआ था। मथुरा एवं वृन्दावन में अधिकतर विधवाएँ संन्यासी जीवन व्यतीत करने के लिए मंदिरों में चली जाती थी जहाँ पुजारियों एवं पण्डों के जाल में फॅँसकर यौन-शोषण का शिकार हो जाती थी। इस प्रकार इहलोक और परलोक से वंचित इन महिलाओं के सामने वेश्यावृŸा को अपनाने के अतिरिक्त अन्य कोई रास्ता नहीं बचता था। रुसी लेखक यूरोलोवा कहते है कि उŸारप्रदेश में जहाँ देवदासी की प्रथा नहीं थी बज्जी जाति की महिलायें जिनकी संख्या हजार से भी अधिक थी मंदिरों में वेश्यावृŸा के द्वारा अपना पालन-पोषण करती थी। मंदिर के दासियों का परिवार भूमिहीन होता था। इनमें से 75 प्रतिशत परिवार सूदखोरों का बंधुआ मजदूर हुआ करता था। उन्होंने यह भी लिखा है कि किस प्रकार औरतें बंधक रखी जाती थी और बेंची जाती थी।  मंदिर में वेश्यावृŸा आन्ध्रप्रदेश, उड़ीसा एवं तमिलनाडु में आम जीवन का अनिवार्य अंग बन गई थी।49
          इस समय आंध्रप्रदेश के निजामाबाद जिले में अनुसूचित जाति की जोगिनों की संख्या 10 हजार के लगभग थी। इन अभागी लड़कियों की शादी ग्राम देवता के साथ सुखाड़ एवं महामारी जैसी विपदाओं से बचने के उद्देश्य से इनके माता-पिता कर देते थे। गाँव के उच्च जाति के जमींदारों एवं धनी व्यक्तियों के द्वारा जिन्होंने अपने उद्देश्य की पूŸार् हेतु इस दैविक शादी की प्रथा को प्रारम्भ किया था, इन औरतों का शारीरिक शोषण किया जाता था। सर्वप्रथम वे इन लडकियों में नशे की आदत डालते थे और बाद में उनका भरपूर यौन-शोषण कर शहर में बेंच देते थे। आन्ध्रप्रदेश, महाराष्ट्र एवं कर्नाटक में बासवी, मायम्मा, थायम्मा, पार्वती एवं जोगिन इस तरह की कई नामों से जानी जानेवाली इन औरतांं की स्थिति देवदासियों से भी बदतर थी क्योंकि इनका निवास स्थान देवमंदिर न होकर झुग्गी झोपड़ियाँ हुआ करती थी। श्रीमंत समुदाय वहीं जाकर इनका उपभोग करते थे। अगर इन्हें लड़की हुई तो उसके समक्ष जोगिन बनने के अलावा कोई विकल्प नहीं रहता था; जिनकी स्थिति बंधुआ मजदूर से भी बदतर थी। यह स्वीकृत वेश्यावृŸा माला एवं माडिंग जाति में काफी प्रचलित थी। बंगाल में वेश्यावृŸा की जड़ बहुविवाह की प्रथा में थी। इस सत्य की अभिव्यक्ति में कोई संकोच नही हैं कि अन्य राज्यों में जो अनिष्ट देवदासी प्रथा ने किया था वहीं अनिष्ट बहुविवाह की प्रथा ने बंगाल में किया। वास्तविकता तो यही है कि अन्य प्रान्तों के लोगों ने मंदिरों को वेश्यालय के रूप में परिणत कर दिया और घर को प्रदूषणमुक्त रखा था वहीं बंगाल में कुलीनों ने बहुविवाह के माध्यम से घर को वेश्यालय में परिणत कर दिया।
          रखैल रखने की प्रथा उड़ीसा में 19 वीं शताब्दी के प्रारम्भिक वर्षां में राजघरानों तथा जमींदारियों में प्रचलित थी। एस0 एस0 ‘ओ’ मेली के अनुसार करन जाति के लोगों में रखैल रखने की प्रथा थी। इस प्रथा का इतना प्रचलन था कि इसने ‘शागीर्द पेशा’ नाम को जाति का रुप धारण कर लिया जिसकी संख्या 46 हजार थी। राजाओं तथा बड़े जमींदारों के बीच लड़के की शादी के अवसर पर अपने ससुर से बडी़ संख्या में कुँवारी लड़कियों को दहेज के रुप में प्राप्त करना एक प्रमुख प्रचलन था। यह संख्या काफी अधिक 50 से 60 तक पहुँच जाती थी। इससे इस बात का अंदाजा लगाया जा सकता है कि यह संख्या निर्धारित नहीं थी। जितनी संख्या में ये विवाहित लड़कियाँ दहेज में दी जाती थी, उतनी ही दूल्हे की सामाजिक स्थिति दृढ़ मानी जाती थी। लगभग सभी राजा एवं बड़े जमींदार शादी के समय दहेज के रुप में अविवाहित लड़कियों की माँग करते थे। ये लड़किया सभी तरह के काम करती थी और उनमें जो सुन्दर होती थी, वे अपनी मालकिन के पति के साथ सोती थी। कुछ मामलों में इनमें से एक या अधिक लड़कियों को विवाह के अवसर पर ही माला पहनाई जाती थी जिसे ‘फुलवाई’ कहा जाता था और उसके साथ पटरानी अर्थात् मुख्य पत्नी की तरह व्यवहार किया जाता था।50
          19 वीं शताब्दी में पर्दाप्रथा का प्रचलन जोरों पर था खासकर उच्चवर्गीय हिन्दू और मुसलमानों में। इसने महिलाओं के स्वास्थ्य एवं शिक्षा को बुरी तरह अपनी चपेट में ले लिया था। अपनी पूरी जिन्दगी खुली हवा में साँस न ले पाने को मजबूर, वे पीढ़ी - दर - पीढ़ी कमजोर होती जाती थी मानों वे कैद में डाल दी गई हो। उनकी स्वभावतः तीव्र ज्ञानेन्द्रियाँ निष्क्रियता के कारण सुस्त पड़ जाती है, उन तक ज्ञान का प्रकाश नहीं पहुँच पाता और वे अज्ञान एवं पूर्वाग्रह में पड़ी रहती थी अंधेरे में रास्ता टटोलती समाज के रीति रिवाज के नाम पर उत्सर्ग। उनकी शारीरिक बनावट क्षीण से क्षीणतर होती जाती थी। उनकी भावनाएँ समाज के अंधविश्वासों एवं मान्यताओं के बोझ तले दब जाती थी और उनका मस्तिष्क किसी तरह के विचारों एवं ज्ञान से वंचित रह जाता था जिससे वह विश्व को देखने - समझने के काबिल नहीं रह पाती थी। इस तरह 100 में से 90 मामलों में वे स्वार्थी गुलाम की तरह होती थी जो अपनी छोटी आकांक्षाओं की पूŸार् के लिए कुछ भी कर गुजरने तथा अपने पड़ोसी या देश के बारें में कुछ भी नहीं सोच पाती थी।
        उŸारी भारत में सभी औरते घूँघट रखती थी घर में भी युवा बहुएँ या औेरतें घूँघट में अपना मुँह ढँके रहती थी। जब कभी किसी कमरे में वह होती थी और उस कमरे में परिवार के बुजुर्ग स्त्री - पुरुष या अन्य कोई आ जाता था तो वह सम्मान प्रदर्शित करने के लिए दूसरे कमरे की ओर दौड़ लगाती थी। दक्षिण भारत में रिवाज था कि औरतें घूँघट नहीं करती थी। अपने से बड़ों को सम्मान देने के लिए वहीं उठ खड़ी होती थी ओैर तब तक खड़ी रहती थी जब तक वे लोग उपस्थित रहते थे। परिवार की औरतें प्रायः अपने पतियों या घर के पुरूषों के खाना खाने के बाद ही खाना खाती थी तथा नियमानुसार पत्नी वहीं खाती थी जो उसका पति खुशी से अपनी थाली में पत्नी के लिए छोड़ दिया हो।
        19वीं शताब्दी और बाद के समय में भी मुस्लिम समाज में पर्दा का प्रचलन था। ओैरत को इज़ाज़त थी कि वह अपने पति, बाप, ससुर, बेटे, सौतेले बेटे, भाई, भतीजे औेर भाँजे के अतिरिक्त किसी के सामने बेपर्दा नहीं आ सकती थी। जवान औेरतों को पराये मर्दों से चेहरा छिपाने का हुक्म था और उसे घर से बाहर निकलते वक्त पर्दा करना चाहिए। मुसलमान औरतें अक्सर अपने चेहरे और शरीर को नकाब से ढ़ँके रहती थी। बात - चीत करते हुए उन्हें नजर नीची रखनी पड़ती थी, बनाव - श्रृंगार की नुमाइश  पर पाबंदी, ऊँची आवाज में एवं पति से दूसरी औरत के बारे में बात नहीं कर सकती थी। इत्र और सुंगध लगाकर वह लोगों की भीड़ या मस्जिद में नहीं जा सकती थी। दिन के समय में मस्जिद में आने पर प्रतिबंध लगा हआ था, वे केवल रात के अँधेरे में ही घर से बाहर कदम रखती थी। उन्हें मर्दो की भीड़ के पीछे खड़ा होना पड़ता था। औरतों को जनाजे में शामिल होने की इस्लाम में मनाही है, हिन्दू महिलायें भी अपने परिजनों की शवयात्रा में श्मशान घाटों तक नहीं जा सकती थी, और नहीं वे दाह संस्कार ही कर सकती थी। इसीतरह मुस्लिम महिलायें भी कब्रों पर ज्यादा नहीं जा सकती थी। इस्लामी कानून के अनुसार ओैरतें गैर मरहम के साथ घर से बाहर कदम नहीं रख सकती थी, अगर वह मरहम के साथ घर से बाहर निकलती थी तो वह केवल तीन दिन और 34 किलोमीटर के दायरे में ही रह सकती थी अन्यथा वह पति के साथ ही घर से बाहर निकल सकती थी।51
          उन्नीसवीं शताब्दी में महिलाओं के बीच शिक्षा की कमी को 1880 -81 की जनगणना एवं 1883 की शैक्षिक आयोग की रिपोर्ट के आधार पर समझा जा सकता है। ब्रिटिश शासन के अधीन 99,700,000 महिलाओं ओैर लड़कियों में से 995 मिलियन महिलायें लिखने - पढ़ने में असमर्थ थी। बची हुई 2 लाख महिलायें जो पढ़ना  - लिखना जानती थी उन्हें शिक्षित नहीं कहा जा सकता था। 1871 की जनगणना के मेमोरेण्डम में दिखाया गया है कि भारत की सम्पूर्ण जनसंख्या का 0.29 प्रतिशत महिलायें ही साक्षर थी, जिनका प्रतिशत 1881 में बढकर 1.33 प्रतिशत हो गया था। 1881  ई0 की जनगणना रिपोर्ट में टिप्पणी की गई है कि यह सबसे उल्लेखनीय एवं ज्ञात तथ्य है कि भारत में महिला शिक्षा का स्तर काफी निचले पायदान पर है। प्रत्येक दस हजार महिलाओं में 9972 महिलायें निरक्षर है जिसमें शिक्षित महिलाओं की संख्या सिर्फ 17 है तथा पढ़ने  - लिखनेवाली महिलाओं की संख्या 10 बताई  गई है। इस जनगणना में विभिन्न धार्मिक समूहों में महिलाओं के शिक्षा के स्तर की गणना की गई है जिसके अनुसार प्रत्येक 10 हजार की महिला जनसंख्या में जहाँ इसाईयों में शिक्षित महिलाओं की संख्या 876 थी एवं पढ़ने-लिखनेवाली महिलाओं की संख्या 1708 थी; वहीं हिन्दुओं में यह संख्या क्रमशः 9 और 16 थी, तथा मुसलमानों में 7 और 10 थी। सम्पूर्ण भारत में प्रत्येक 10 हजार में से सिर्फ 12 लड़कियाँ ही ऐसी थी जो विद्यालय जाती थी जबकि 20 ऐसी लड़कियाँ थी जिन्हें सिर्फ अक्षर का ज्ञान था।
          लड़कियों के लिए  विद्यालय जाने का समय 6 से 7 वर्ष के बीच होता था। इस छोटे से वय में वे दूसरी-तीसरी कक्षा की देशी भाषाओं की किताबें पढ़ने की

टिप्पणियाँ

  1. भारतीय समाज में महिलाओं की स्थिति के बारे में बिल्कुल सही वर्णन किया गया है। मुसलमानों में प्रचलित जिस धारणा के बारे में आपने उल्लेख किया है कि जन्नत में भी वैश्यावृत्ति होती है, उस बात को मैं भी स्वीकार करता हूँ। पौराणिक कथाओं में वर्णित अप्सराएँ क्या थीं? उन्हें देवताओं के द्वारा जब और जहाँ बुलाया जाता था जाने के लिए विवश थीं। रम्भा के साथ वरूण और मित्र के द्वारा सहवास करने से उत्पन्न पुत्र अगस्त्य ऋषि के जन्म की कथा भी मुसलमानों के उस दावों की पुष्टि करता है, जिसमें स्वर्ग में भी बहत्तर हूरों के होने का दावा किया जाता है। ये अप्सराएँ युद्ध बन्दियों की बहन, बेटी और पत्नियां ही होंगी। बाद में अप्सराएँ ही देवदासियां कहलाने लगी होंगी।

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