600 ई.पूर्व में उत्तर भारत की सामाजिक और आर्थिक स्थिति
छठी शताब्दी ई.पूर्व का काल नये धर्मों के विकास से संबद्ध है।इस काल में ब्राह्मणों के आनुष्ठानिक रूढ़िवादी विचारों का विरोध लगातार बढ़ रहा था।इस कारण से बहुत सारे अनीश्वरवादी धार्मिक आंदोलनों का उद्भव हुआ,इनमें से बौद्धमत और जैनमत संगठित तथा लोकप्रिय धर्मों के रूप में विकसित हुए।दोनों धर्मों के प्रवर्तकों ने शारीरिक और मानसिक कार्यों पर यथेष्ट बल दिया।वेदों के प्रभुत्व को नकारा और पशुबलि का विरोध किया,जिससे कट्टर ब्राह्मणवादी विचारों से उनका टकराव शुरू हो गया।अहिंसा के सिद्धांत के प्रचार से पहली बार कृषि के उत्थान में मदद मिली, क्योंकि पशुचारक अर्थव्यवस्था के अंतर्गत एक वर्गमील के अंदर जितने लोग रहते,उतने ही क्षेत्र में उससे दस गुनी संख्या से भी अधिक लोगों के भरण-पोषण में कृषिकार्य से मदद मिल सकती थी।लेकिन जैन धर्म में अहिंसा के सिद्धांत पर अनावश्यक जोर देने से कृषकों को प्रोत्साहन नहीं मिला, क्योंकि कृषिकार्य में कीड़े-मकोड़ो के मरने की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता था।महावीर के विचारों को ऐसे कारिगरों एवं दस्तकारों ने भी स्वीकार नहीं किया जिनके धंधे में दुसरे जीवों के मरने का खतरा मौजूद था।जैनियों द्वारा निर्धारित व्यक्तिगत सम्पति की सीमा के बारे में कहा गया है कि यह सीमा केवल भू-संपत्ति के अधिकार पर ही रोक लगाती है।इसलिये जैन धर्म के अनुयायियों ने मुख्यतः तैयार माल के व्यापार को ही प्रधानता दी और महाजनी कारोबार को अपना लिया।इससे स्पष्ट पता चलता है कि जैन धर्म शहरी संस्कृति और समुद्रीय व्यापार से इतना संबद्ध क्यों रहा?
अहिंसा के सिद्धांत के प्रचार पर जोर देने के मामले में बौद्ध धर्म, जैन धर्म के मामले में अधिक उदार था।यद्यपि बौद्ध धर्म जीव हत्या से साफ़-साफ़ परहेज करता है तथापि उसने अपने अनुयायियों को मांस खाने से कभी नहीं रोका,लेकिन शर्त्त यह थी कि उस मांस को किसी गैर बौद्ध कसाई ने काटा हो।फिर भी बुद्ध ने पशुओं की हत्या नहीं करने पर जोर दिया है।बौद्ध ग्रंथों में खा गया है कि पशुओं की रक्षा करनी चाहिए क्योंकि वे माता-पिता और सम्बन्धी की भाँति हमारे मित्र है और कृषि उनपर निर्भर है।दीर्घनिकाय में राजा महाविजित को पुरोहित द्वारा यह सलाह दी गयी है कि वह किसानों को बीज,पशु एवं औजार प्रदान करें।इसप्रकार, जैनधर्म के विपरीत बौद्धधर्म ने कृषि की तत्कालीन आवश्यकताओं की और पूरा ध्यान दिया,इसलिए गांव के लोगों ने उसे स्वीकार किया।
बौद्धधर्म और जैनधर्म दोनों ने ही व्यापार के प्रति सामान दृष्टिकोण अपनाया।प्राचीन ब्राह्मण ग्रंथों में व्यापार और कृषि का अधिकार वैश्यों को प्रदान किया गया है,जिन्हें सामाजिक धर्मशास्त्र में तीसरा स्थान प्राप्त था।संकट काल में ब्राह्मण ब्राह्मण व्यापार में लग सकते थे,लेकिन वे तरल पदार्थ,सुगन्धित द्रव्य,वस्त्र,मक्खन,अन्न आदि का व्यापार नहीं कर सकते थे।स्पष्टतया इन वस्तुओं के व्यापार में जो संलग्न रहते थे उन्हें प्राचीन विधि निर्माता हेय दृष्टि से देखते थे।मगध और अंग के निवासी सामाजिक दृष्टिकोण से हे माने जाते थे, क्योंकि वे वर्जित वस्तुओं का व्यापार करते थे।बौधायन ने एक पापकर्म के रूप में समुद्र यात्रा की निंदा की है।लेकिन इसके विपरीत बौद्ध ग्रंथों ने समंदर यात्रा को स्वीकृति प्रदान की है।बुद्ध ने व्यापार के प्रति अनुकूल दृष्टिकोण अपनाया।उन्होंने और संघ ने अनाथपिंडक और कई अन्य आमिर सौदागरों से दान के रूप में प्रचुर दन ग्रहण किया था।ब्राह्मणवादी दृष्टिकोण को देखते हुए नवोदित व्यापारी समाज के लिए यह स्वाभाविक था कि वह समर्थन के लिए बौद्धधर्म की ओर मुड़ जाय।
व्यापार और मुद्रा के प्रयोग से महाजनी कारोबार और सूदखोरी को बल मिला,लेकिन धर्मशास्त्र के लेखकों ने इन नई प्रथाओं का समर्थन नहीं किया।आपस्तम्ब नामक एक प्राचीन विधि निर्माता ने यह कहा कि सूद लेनेवालों अथवा कर्ज पर सूद के बदले,रेहन के रूप में बँधे हुए व्यक्ति के श्रम पर जीवन यापन करनेवालों का अन्न ब्राह्मणों को स्वीकार नहीं करना चाहिए।वह आगे कहता है कि सूदखोरों के पास जानेवाले ब्राह्मण को अपने पाप के लिए प्रायश्चित करना चाहिये।बौधायन ने वैश्यों के लिये महाजनी कारोबार को जायज ठहराया और सूदखोर ब्राह्मणों की भर्त्सना की।आदि बौद्धग्रंथों में न्यायसंगत आजीविका और न्यायसंगत कर्म कर्म को परिभाषित किया गया है,लेकिन उन्होंने कहीं भी सूदखोरी की भर्त्सना नहीं की।दूसरी तरफ छिट-फुट प्रसंगानुसार बुद्ध और संभवतः सूद पर कर्ज देनेवाले सेट्ठियों के बीच घनिष्ठ सम्बन्ध विद्यमान था।बुद्ध गृहस्थों को भी सलाह देते थे कि वे अपने कर्ज अदा कर दे और वे किसी भी कर्जदार को संघ में शामिल होने की इजाज़त नहीं देते थे।दूसरे शब्दों में, बौद्धधर्म ने हिन्दुधर्म से भिन्न रूप में,अप्रत्यक्ष रूप से ही सही,सूदखोरी को अपना समर्थन प्रदान किया, जो गंगाघाटी की व्यापारिक अर्थव्यवस्था की एक ख़ास विशेषता थी।
अहिंसा के सिद्धांत के प्रचार पर जोर देने के मामले में बौद्ध धर्म, जैन धर्म के मामले में अधिक उदार था।यद्यपि बौद्ध धर्म जीव हत्या से साफ़-साफ़ परहेज करता है तथापि उसने अपने अनुयायियों को मांस खाने से कभी नहीं रोका,लेकिन शर्त्त यह थी कि उस मांस को किसी गैर बौद्ध कसाई ने काटा हो।फिर भी बुद्ध ने पशुओं की हत्या नहीं करने पर जोर दिया है।बौद्ध ग्रंथों में खा गया है कि पशुओं की रक्षा करनी चाहिए क्योंकि वे माता-पिता और सम्बन्धी की भाँति हमारे मित्र है और कृषि उनपर निर्भर है।दीर्घनिकाय में राजा महाविजित को पुरोहित द्वारा यह सलाह दी गयी है कि वह किसानों को बीज,पशु एवं औजार प्रदान करें।इसप्रकार, जैनधर्म के विपरीत बौद्धधर्म ने कृषि की तत्कालीन आवश्यकताओं की और पूरा ध्यान दिया,इसलिए गांव के लोगों ने उसे स्वीकार किया।
बौद्धधर्म और जैनधर्म दोनों ने ही व्यापार के प्रति सामान दृष्टिकोण अपनाया।प्राचीन ब्राह्मण ग्रंथों में व्यापार और कृषि का अधिकार वैश्यों को प्रदान किया गया है,जिन्हें सामाजिक धर्मशास्त्र में तीसरा स्थान प्राप्त था।संकट काल में ब्राह्मण ब्राह्मण व्यापार में लग सकते थे,लेकिन वे तरल पदार्थ,सुगन्धित द्रव्य,वस्त्र,मक्खन,अन्न आदि का व्यापार नहीं कर सकते थे।स्पष्टतया इन वस्तुओं के व्यापार में जो संलग्न रहते थे उन्हें प्राचीन विधि निर्माता हेय दृष्टि से देखते थे।मगध और अंग के निवासी सामाजिक दृष्टिकोण से हे माने जाते थे, क्योंकि वे वर्जित वस्तुओं का व्यापार करते थे।बौधायन ने एक पापकर्म के रूप में समुद्र यात्रा की निंदा की है।लेकिन इसके विपरीत बौद्ध ग्रंथों ने समंदर यात्रा को स्वीकृति प्रदान की है।बुद्ध ने व्यापार के प्रति अनुकूल दृष्टिकोण अपनाया।उन्होंने और संघ ने अनाथपिंडक और कई अन्य आमिर सौदागरों से दान के रूप में प्रचुर दन ग्रहण किया था।ब्राह्मणवादी दृष्टिकोण को देखते हुए नवोदित व्यापारी समाज के लिए यह स्वाभाविक था कि वह समर्थन के लिए बौद्धधर्म की ओर मुड़ जाय।
व्यापार और मुद्रा के प्रयोग से महाजनी कारोबार और सूदखोरी को बल मिला,लेकिन धर्मशास्त्र के लेखकों ने इन नई प्रथाओं का समर्थन नहीं किया।आपस्तम्ब नामक एक प्राचीन विधि निर्माता ने यह कहा कि सूद लेनेवालों अथवा कर्ज पर सूद के बदले,रेहन के रूप में बँधे हुए व्यक्ति के श्रम पर जीवन यापन करनेवालों का अन्न ब्राह्मणों को स्वीकार नहीं करना चाहिए।वह आगे कहता है कि सूदखोरों के पास जानेवाले ब्राह्मण को अपने पाप के लिए प्रायश्चित करना चाहिये।बौधायन ने वैश्यों के लिये महाजनी कारोबार को जायज ठहराया और सूदखोर ब्राह्मणों की भर्त्सना की।आदि बौद्धग्रंथों में न्यायसंगत आजीविका और न्यायसंगत कर्म कर्म को परिभाषित किया गया है,लेकिन उन्होंने कहीं भी सूदखोरी की भर्त्सना नहीं की।दूसरी तरफ छिट-फुट प्रसंगानुसार बुद्ध और संभवतः सूद पर कर्ज देनेवाले सेट्ठियों के बीच घनिष्ठ सम्बन्ध विद्यमान था।बुद्ध गृहस्थों को भी सलाह देते थे कि वे अपने कर्ज अदा कर दे और वे किसी भी कर्जदार को संघ में शामिल होने की इजाज़त नहीं देते थे।दूसरे शब्दों में, बौद्धधर्म ने हिन्दुधर्म से भिन्न रूप में,अप्रत्यक्ष रूप से ही सही,सूदखोरी को अपना समर्थन प्रदान किया, जो गंगाघाटी की व्यापारिक अर्थव्यवस्था की एक ख़ास विशेषता थी।
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