गौतम बुद्ध और बौद्ध दर्शन

गौतम बुद्ध का जन्म 563 ई.पूर्व में नेपाल की तराई के लुम्बिनी वन (आधुनिक रुमिन्देइ)में हुआ था।पिता शुद्धोधन,शाक्य गण के प्रधान और माता मायादेवी कोलिय गणराज्य की कन्या थी।गौतम को देखकर कालदेव तथा कौण्डिन्य ने भविष्यवाणी की थी कि बालक या तो चक्रवर्ती राजा होगा या सन्यासी। यशोधरा उनकी पत्नी थी जो बिम्बा,गोपा,भद्रकच्छाना आदि नामों से जानी जाती थी।बुद्ध ने 29 वर्ष की अवस्था में गृहत्याग किया था।बौद्ध ग्रंथों में इसे महाभिनिष्क्रमण कहा गया है।इस कार्य के लिए जो घोड़ा उपयोग में लाया गया वह गौतम का प्रिय अश्व कंथक था।वैशाली निवासी अलारकलाम बुद्ध के पहले गुरु हुए,फिर वे राजगृह चले गए जहाँ उन्होंने रुद्रक रामपुत्र को अपना गुरु बनाया।35 वर्ष की आयु में बैशाख पूर्णिमा की रात में पीपल के वृक्ष के नीचे उरुवेला (बोधगया)में ज्ञान प्राप्त हुआ।इसके बाद ही उन्हे बुद्ध की उपाधि प्राप्त हुई।बुद्ध का अर्थ होता है प्रकाशमान अथवा जाग्रत।जो अनित्य,अनंत और आतमविहीन है।संबोधि में गौतम को प्रतीत्यसमुत्पाद के सिद्धांत का बोध हुआ था।इस सिद्धांत की व्याख्या प्रतित्यसमुत्पाद नामक ग्रंथ में  की गयी है।
ऋषिपतनम् (सारनाथ) में गौतम ने कौण्डिन्य सहित पाँच ब्राह्मण सन्यासियों को अपना प्रथम उपदेश सुनाया;जिसे बौद्ध ग्रंथों में प्रथम धर्मचक्रप्रवर्तन (धम्मचक्कपवतन)कहा गया है।सारनाथ में ही बुद्ध ने संघ की स्थापना की थी। इसके बाद गौतम बुद्ध ने धर्मप्रचार हेतु कई प्रदेशों का दौरा किया।उत्कल के तपस्सु और भल्लीक नामक सौदागर महात्मा बुद्ध के सबसे पहले उपासक थे। शाक्य गणराज्य के राजा भद्रिक,उनके सहयोगी आनंद,अनिरुद्ध,उपालि और देवदत्त ने बौद्धधर्म अपनाया। वैशाली में उन्होंने अपना 5वाँ वर्षाकाल और कौशाम्बी में 9वाँ वर्षाकाल बिताया था।उल्लेखनीय तथ्य यह है कि बौद्धधर्म का सर्वाधिक प्रचार कौशल राज्य में हुआ था जबकि बुद्ध ने सर्वाधिक धर्मोपदेश श्रावस्ती में दिए थे।भरहुत से प्राप्त अभिलेख में उद्घृत है कि अनाथपिण्डक ने 18 करोड़ स्वर्णमुद्राओं में राजकुमार जेत से खरीदकर जेतवन विहार बौद्ध संघ को प्रदान किया था।प्रसेनजीत ने सपरिवार बौद्धधर्म स्वीकार किया तथा संघ के लिए पुव्वाराम विहार बनवाया।बिम्बिसार,अजातशत्रु,प्रसेनजीत और उदयन ने बौद्ध धर्म को राजाश्रय प्रदान किया था।श्रावस्ती का प्रमुख डाकू अंगुलिमाल और वैशाली की प्रसिद्ध वेश्या आम्रपाली बुद्ध के शिष्य थे।80 वर्ष की आयु में कुशीनारा (आधुनिक कुशीनगर) के एक लोहार जाति के शिष्य चुन्द के घर शुक्करमद्दव नामक पदार्थ खाने से उनकी मृत्यु हो गयी।बौद्ध साहित्य में इस घटना को महापरिनिर्वाण बताया गया है।निर्वाण इसी जन्म में प्राप्त हो सकता है जबकि महापरिनिर्वाण मृत्यु के बाद ही सम्भव है।बुद्ध की मृत्यु के बाद उनके अवशेष को 8 भागों में विभाजित किया गया।मगध के राजा अजातशत्रु तथा इस क्षेत्र के गणराज्यों ने स्तूप का निर्माण कर इसे सुरक्षित रखा।

बौद्ध दर्शन:-बौद्ध साहित्य के अनुसार भगवान बुद्ध को संबोधि में जिस तथ्य का ज्ञान हुआ वह प्रतीत्यसमुत्पाद कहलाता है।यह 12 पदों की श्रृंखला है,जिसकी पाली ग्रंथों में एक से अधिक अवतरणों में पुनरावृत्ति मिलती है।ये कडियाँ हैं-1.जरामरण 2.जाति 3.भव (शरीर धारण करने की इच्छा)4.उपादान (सांसारिक विषयों से लिपटे रहने की इच्छा)5.तृष्णा 6.वेदना 7.स्पर्श 8.षड़ायतन(पाँच इन्द्रियाँ और मन) 9.नामरूप 10.विज्ञान 11.संस्कार12.अविद्या।इसे जरामरण की कड़ियाँ भी कहा जाता है।बुद्ध की समस्त शिक्षाओं और उपदेशों का आधारस्तम्भ है।
बौद्ध साहित्य में चार आर्यसत्य बताये गए है।1.दुःख2.दुःख की उत्पत्ति के कारण 3.दुःख निवारण 4.दुःख निवारण के मार्ग।गौतम ने अपने शिष्यों को संबोधित करते हुए कहा था कि सभी संघातिक वस्तुओं का विनाश होता है,अपनी मुक्ति के लिए उत्साहपूर्वक प्रयत्न करो।उनके अनुसार,मनुष्य पाँच मनोदैहिक तत्वों का योग है -शरीर, भाव ,ज्ञान, मनःस्थिति और चेतना।गौतम बुद्ध ने शील ,समाधि और प्रज्ञा को दुःख निरोध का उपाय बतलाया है।शील का अर्थ सम्यक् आचरण, समाधि का सम्यक् ध्यान और प्रज्ञा का सम्यक् ज्ञान होता है।प्रज्ञा,शील और समाधि के अंतर्गत ही अष्टांगिक मार्ग अपनाये जाते है।
प्रज्ञा के अंतर्गत -सम्यक् दृष्टि, सम्यक् संकल्प, सम्यक् वाक्
शील के अंतर्गत - सम्यक् कर्मांत,सम्यक् आजीव
समाधि के अंतर्गत-सम्यक् स्मृति,सम्यक् व्यायाम, सम्यक् समाधि रखे गए है।अष्टांगिक मार्ग निम्नलिखित है:-
1.सम्यक् दृष्टि -   वास्तविक स्वरूप का ध्यान।
2.सम्यक् संकल्प - आसक्ति,द्वेष तथा हिंसा से मुक्त विचार।
3.सम्यक् वाक्  -  अप्रिय वचनों का सर्वथा त्याग ।
4.सम्यक् कर्मांत -  दया, दान, सत्य ,अहिंसा आदि का अनुकरण।
5.सम्यक् आजीव - सदाचारसहित आजीविका का अनुशरण।
6.सम्यक् व्यायाम - नैतिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक उन्नति के लिए सतत प्रयत्न करते रहना।
7.सम्यक् स्मृति - मिथ्या धारणाओं का त्यागकर सच्ची धारणा ग्रहण करना।
8.सम्यक् समाधि - मन या चित की एकाग्रता।
बुद्ध ने मध्यमप्रतिपदा(तथागत मार्ग) अर्थात मध्यममार्ग अपनाने की शिक्षा दी थी।उन्होंने निर्वाण प्राप्ति के लिए सदाचार तथा नैतिकता पर आधारित दस शीलों पर सर्वाधिक बल दिया है।दस शील है:-1.अहिंसा 2.सत्य 3.अस्तेय 4.अपरिग्रह 5.ब्रह्मचर्य 6.व्याभिचार नहीं करना 7.मद्यनिषेध 8.असमय भोजन नहीं करना 9.सुखप्रद विस्तर पर नहीं सोना 10.स्त्रियों का संसर्ग नहीं करना।
बौद्ध धर्म साधना और कायाकलेश में,आत्मा में विश्वास नहीं करता।इच्छा द्वारा किया गया कार्य कर्म है।सशरीर मोक्ष की प्राप्ति सम्भव है।बुद्ध के अनुसार मनुष्य पाँच मनोदैहिक तत्वों का योग है;शरीर,भाव ,ज्ञान ,मनःस्थिति एवं चेतना।जीवन विभिन्न अवस्थाओं की संतति है,जो एक दूसरे पर निर्भर करती है।किसी अवस्था की उत्पत्ति उसकी पूर्ववर्ती अवस्था से होती है।बुद्ध के अनुसार सभी दृश्यमान वस्तुएँ वास्तविक तथा शून्यता के बीच स्थित है।बौद्ध धर्म अस्तित्व को नहीं केवल रूप को स्वीकार करता है।यह वेदों की अपौरूषता एवं आत्मा की अमरता में विश्वास नहीं करता है।पुनर्जन्म और कर्म के सिद्धांत में विश्वास करता है।बुद्ध द्वारा वैदिक अनुष्ठान,यज्ञीय कर्मकाण्ड,पशुबलि का जबरदस्त विरोध किया गया।उनकी दृष्टि में ज्ञान और नैतिकता दोनों आवश्यक थे।बुद्ध ने मध्यमप्रतिपदा (तथागत मार्ग) अर्थात मध्यमार्ग अपनाने की शिक्षा दी थी;जिसके अनुसार न तो अधिक विलास उचित है और न ही अधिक संयम।
बुद्ध की शिक्षाओं का संग्रह करने तथा उपदेशों को जन सामान्य तक पहुँचाने के लिए बौद्ध संगीतियों का आयोजन किया गया।ये चार महासंगीतियां विभिन्न समय में आयोजित की गयी थी।

प्रथम बौद्ध संगीति       समयकाल - 483 ई.पूर्व
स्थल - सप्तपर्णी गुफा (राजगृह)
सगीति अध्यक्ष - महाकस्सप
शासक - आजातशत्रु (हर्यक वंश)
इस बौद्ध संगीति में सुतपिटक और विनयपिटक नामक दो पिटकों का संग्रह किया गया।सुत्तपिटक को आनन्द ने और विनयपिटक को उपालि ने संग्रहित किया था।

द्वितीय बौद्ध संगीति      समयकाल - 383 ई.पूर्व
स्थल - चुलवग्ग (वैशाली)
शासक - कालाशोक (शिशुनाग वंश)
अध्यक्ष - सव्बकामी
इस संगीति पूर्वी भिक्षुओं (वज्जि पुत्र) और पश्चिमी भिक्षुओं के मध्य विनयसम्बन्धी नियमों को लेकर मतभेद होने के कारण भिक्षु संघ दो सम्प्रदायों 1.स्थविर (थेरवाद) और 2.महसांघिक (सर्वास्तिवाद) में विभाजित हो गया।परम्परागत नियमों में आस्था रखनेवाले भिक्षु स्थविर कहलाये और जिन भिक्षुओं ने बौद्ध संघ में कुछ नए नियमों को समावेशित कर लिया वे महासांघिक कहलाये।द्वितीय सगीति में स्थिविरवादी महाकच्चायन के नेतृत्व में और महासांघिक महाकस्सप के नेतृत्व बंट गए।कालांतर में उक्त दोनों सम्प्रदाय 18 उप-सम्प्रदाय में विभाजित हो गए।

तृतीय बौद्ध संगीति       समयकाल -250 ई.पूर्व
स्थल - पाटलिपुत्र
शासक - अशोक (मौर्य वंश)
अध्यक्ष - मोगलिपुत्त तिस्स

इस संगीति में तृतीय पिटक अभिधम्म (कथावत्थु) का संकलन हुआ;जिसमें धार्मिक सिद्धांत की दार्शनिक व्याख्या की गयी है।इस संगीति पर थेरवादियों का प्रभुत्व था।इसी संगीति में संघभेद को रोकने के लिए कड़े नियम बनाये गए।बौद्ध धर्म का साहित्य निश्चित एवं प्रामाणिक बना दिया गया।इसी आधार पर अशोक ने संघभेद रोकने सम्बन्धी राजाज्ञा प्रसारित की थी।

चतुर्थ बौद्ध संगीति       समयकाल - प्रथम शताब्दी ई.
स्थल - कुंदलवन  (कश्मीर)
अध्यक्ष - वसुमित्र       उपाध्यक्ष - अश्वघोष
शासक - कनिष्क (कुषाण वंश)

इस संगीति में महासंघिकों का बोलबाला था।बौद्धग्रंथों के कठिन अंशों पर संस्कृत भाषा में विचार-विमर्श के पश्चात् उन्हें विभाषाशास्त्र नामक टीकाओं में संकलित किया गया।इसी समय बौद्ध धर्म हीनयान और महायान नामक दो स्पष्ट व स्वतंत्र सम्प्रदायों में विभक्त हो गया।
हीनयान :- हीनयान को स्थविरवाद भी कहा जाता है।इसका शाब्दिक अर्थ होता है - निम्नमार्ग।स्थविरवादी बौद्धधर्म में किसीप्रकार का परिवर्त्तन नहीं चाहते थे।इसमें न कोई देवता है और न कोई आत्मा है।महात्मा बुद्ध को महापुरुष माना जाता है।हीनयान मूर्तिपूजा और भक्ति में विश्वास नहीं करता।एक मनुष्य दूसरे के मार्ग में केवल दृष्टान्त एवं उपदेश से सहायता कर सकता है।जो व्यक्ति अपनी साधना से निर्वाण प्राप्त करता है उसे 'अर्हत' कहा गया है।हीनयान में अर्हत पद को प्राप्त करना भिक्षुओं का आदर्श होता है।कालांतर में हीनयान सम्प्रदाय दो भागों में बंट गया - वैभाषिक और सौत्रान्तिक में।आधुनिक साँची ग्राम के एक पहाड़ी के शिखर पर स्थाविरवादियों के अवशेष प्रारम्भिक बौद्धधर्म के सर्वोत्तम चिह्न है।स्थविरवादियों की पाली सिद्धांत व्यवस्था वत्तगमनी राजा के शासनकाल में श्रीलंका के बौद्ध भिक्षुओं की पहली सभा में लेखबद्ध हुई थी।वैभाषिक का कश्मीर में उदय हुआ।यह मुख्यतः विभाषा पर आधारित था।इसे बाह्य प्रत्यक्षवाद भी कहते है।इसके अनुसार प्रत्येक वस्तु का निर्माण परमाणुओं से होता है,जो प्रतिक्षण अपना स्थान बदलते रहते है।जगत का अनुभव इन्द्रियों द्वारा होता है।धर्मजात,वसुमित्र,घोषक और बुद्धदेव प्रमुख वैभाषिक थे।सौत्रान्तिक का मुख्य आधार सुत्तपिटक है।सौत्रातिक चित्त और बाह्य दोनों की सत्ता में विश्वास करते है।इसके अनुसार बाह्य वस्तुओं को जो हम अनुभव करते है वह वस्तुतः हमारे मन का विकल्पमात्र है।

महायान :-महायान को सर्वास्तिवाद भी कहा जाता है।यह एक सुधारवादी सम्प्रदाय था।इसका अर्थ उच्चमार्ग होता है।महायान सम्प्रदाय मथुरा एवं कश्मीर के क्षेत्रों में प्रबल था।महायान सम्प्रदाय में भगवान बुद्ध को देवता माना जाता है।महायान का आदर्श बोधिसत्व है।10 शील प्राप्त करनेवाला 'पारपिता' कहलाता है।ये दस शील है -दान, शील, वीर्य, सहनशीलता, ध्यान, प्रज्ञा, उपाय, प्राणिधान, बल और ज्ञान।महायान आत्मा और पुनर्जन्म में विश्वास करता है।बौद्ध साहित्य के अनुसार बुद्ध चक्र में भगवान बुद्ध ने चार अवतार लिए है-1.क्रकुच्छहवानण्द 2.कनकभुंज 3.कश्यप और 4.शाक्यामुनी।बुद्ध का पाँचवा अवतार कल्कि में मैत्रेयी बुद्ध के रूप में होना है।बुद्ध के कुछ अन्य नाम -अवलोकितेश्वर, पद्मपाणि, मंजुश्री, वज्रपाणि और अमिताभ है।मंजुश्री का विशेष कार्य बुद्धि को प्रखर करना है।वज्रपाणि पाप और असत्य का देवता है।क्षितिगृह का अभिभावक है।स्वर्गीय बुद्ध को अमिताभ कहा जाता है।
महायान के आदितम ग्रंथों मे से एक बुद्ध के जीवन की सुवर्णित गाथा ललितविस्तर है।इस ग्रंथ के आधार पर एडविन एर्नाल्ड ने बुद्ध के जीवन पर 'द लाईट ऑफ एशिया' (The Light Of Asia)नामक महाकाव्य की रचना को थी।महायान के अधिकांश सम्प्रदायों में उत्तरकालीन ग्रंथ जो प्रधानतः ईसा की प्रारंभिक शताब्दियों में लिखे गए,इनमें बुद्ध के उपदेश है,जो संस्कृत में है;वे 'वैपुल्यसूत्र'के नाम से जाने जाते है।सद्धर्मपुण्डरीक पर्याप्त साहित्यिक महत्व के संवादों की दीर्घ श्रृंखला है।वज्रच्छेदिका में महत्वपूर्ण आत्मज्ञान सम्बन्धी लेख है।सुखावती व्यूह में अमिताभ एवं उनके स्वर्ग के ऐश्वर्य का वर्णन है।सुखावती का अर्थ आनन्दभूमि होता है।करण्डव्यूह में अवलोकितेश्वर की महानता दी गयी है।अष्टसहस्त्रीका प्रज्ञापारमिता में बोधिसत्व के आध्यात्मिक पूर्णताओं का वर्णन है।
आगे चलकर महायान भी दो शाखाओं माध्यमिक (शून्यवाद)तथा योगाचार (विज्ञानवाद)में विभाजित हो गया।शून्यवाद के प्रवर्त्तक नागार्जुन थे जिसकी प्रसिद्ध रचना 'माध्यमिककारिका'है।इसे सापेक्ष्यवाद भी कहा जाता है।नागार्जुन के अनुसार शून्यता दो प्रकार की होती है -एक अस्तित्व शून्यता और दूसरा विचार शून्यता।इनकी दृष्टि में सत्य के दो प्रकार है -1.संवृति सत्य और 2.पारमार्थिक सत्य।चक्रकीर्ती, शान्तिदेव, आर्यदेव और शांतिरक्षित इस मत के प्रमुख आचार्य थे।
विज्ञानवाद या योगाचार की स्थापना 300 ई.में मैत्रेय या मैत्रेयनाथ ने की थी।असंग और वसुबन्धु ने इसका विस्तार किया।दिङ्गनाग और धर्मकीर्ति इसके अन्य आचार्य थे।असंग कृत सुत्रालंकार योगाचार सम्प्रदाय का प्राचीनतम ग्रंथ है।जबकि योगाचार की सर्वाधिक महत्वपूर्ण रचना लंकावतारसुत्र है।विज्ञानवाद के अनुसार मन या विज्ञान के अतिरिक्त संसार में किसी भी वस्तु का अस्तित्व नहीं है।विज्ञानवादी चित्त(मन)को आलय विज्ञान कहते है।क्योंकि मन सभी विज्ञानों का घर है।कथावत्थु को विज्ञानपद भी कहा जाता है;इसकी रचना मोगलिपुत्त तिस्स ने की थी।
7-8वीं शताब्दी में बौद्धधर्म के अंदर एक नवीन सम्प्रदाय का उदय हुआ जिसका नाम वज्रयान था।इसमें मंत्रों एवं तांत्रिक क्रियाओं द्वारा मोक्ष प्राप्त करने का विधान प्रस्तुत किया गया है।वज्रयान में ईश्वरीय उपादान क्रिया की कल्पना यौन संबंध के रूप में की गयी थी।उनके अनुसार उनका विचार ऋग्वेद के जितना प्राचीन था।इस सम्प्रदाय की प्रधान देवी तारा थी।कुछ मुक्तिदात्री देवियाँ भी थी जो बुद्ध एवं बोधिसत्व की पत्नियाँ थी।वज्रयान सम्प्रदाय में छः अक्षरों का एक मंत्र -'ओम पणि पदमे हम' का जाप किया जाता था।इस सम्प्रदाय में कहा गया है कि बुद्ध की पूजा रूप शब्द स्पर्श और भोगों से की जानी चाहिए।वज्रयान के सिद्धांत मंजुश्रीमुलकल्प तथा गुहयसमाज नामक ग्रंथों में पाये जाते है।कहा जाता है कि वज्रयान के कारण बौद्धधर्म का भारत से पतन हो गया था।
बौद्धधर्म के उपदेश और सिद्धांत की भाषा अर्द्धमागधी है जो पाली लिपि में लेखबद्ध की गयी थी।सुत्तपिटक में बुद्ध के उपदेश संग्रहित है। सुत्तपिटक के पाँच निकाय है-दीघ निकाय,मज्झिम निकाय,संयुक्त निकाय,अंगुत्तर निकाय और खुद्दक निकाय।प्रथम चार में बुद्ध के उपदेश वार्तालाप रूप में दिए गए है और पाँचवा पद्यात्मक है।दीघ निकाय सुत्तपिटक का प्राचीन अंश है।महागोविन्दसुत दीघनिकाय का अंग है।खुद्दक निकाय में जातक कथाओं का वर्णन है।बुद्ध ने 550 बार जन्म लिया है।जातक कथाओं का समय 600 ई.पूर्व से लेकर 500 ई.पूर्व तक बताया जाता है।जातक कथाओं का रेखांकन साँची और भरहुत के शिल्प में मिलता है जिसका समय ईसा पूर्व 200 है।
विनयपिटक में भिक्षु और भिक्षुणियों को पालन करनेवाले नियमों का वर्णन है।विनयपिटक के चार भाग है-1.पातिमोक्ख 2.सुत्तविभंग 3.खुद्दक और 4.परिवार।पातिमोक्ख में अनुशासन सम्बन्धी विधानों तथा उनके उलंघन पर किये जानेवाले प्रायश्चितों का संकलन है।दूसरे शब्दों में पातिमोक्ख विनयपिटक से मठ या संघ सम्बन्धी नियमों की एक दीर्घ तालिका थी।समय समय पर पातिमोक्ख के विधि निषेधों का पाठ भिक्षुओं की सभा में किया जाता था।सुत्तविभंग में पातिमोक्ख के नियमों पर भाष्य प्रस्तुत किये गए है।इसके दो भाग है -1.महाविभंग और 2.भिक्खुनी विभंग।प्रथम में बौद्ध भिक्षुओं तथा दूसरे में बौद्ध भिक्षुणियों हेतु विधि निषेध वर्णित है।खुद्दक में संघीय जीवन संबंधी विधि निषेधों का वर्णन है।जिसके महावग्ग और चुलवग्ग नामक दो भाग है।चुलवग्ग में कैंडी साम्राज्य के पत्तन का उल्लेख मिलता है।
अभिधम्मपिटक प्रश्नोत्तर क्रम में है।इसमें दार्शनिक सिद्धांतों को संग्रहित किया गया है।यह मनोविज्ञान और अध्यात्मवाद से संबंधित है।मिलिंदपन्हों वैकट्रियाई शासक मिनाण्डर और बौद्ध साधू नागसेन के बीच सम्बाद है।यह प्रश्रोत्तरी रूप में है।
बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए बुद्ध ने सर्वप्रथम सारनाथ के रऋषिपतनम में बौधसंघ की स्थापना की थी।संघ में प्रविष्ट होने को उपसंपदा कहा जाता था।उपसंपदा दिलाने की प्रक्रिया प्रव्रज्या कही जाती थी।बौद्धसंघ में प्रवेश के लिए जाति पर कोई बंधन नहीं था,परंतु दास, कर्जदार, सैनिक एवं अवांछित व्यक्तियों के लिए प्रवेश निषिद्ध था।एक निश्चित परिधि में रहनेवाले भिक्षुओं द्वारा संघपरिनायक का चुनाव होता था जिसे सविधान कहा जाता था।पूर्णिमा और अष्टमी की संध्या को पाक्षिक सभा का आयोजन किया जाता था जिसे उपसोथ कहा जाता था।भिक्षुजन प्रतिपक्ष पूर्णिमा तथा अमावस्या को 'उपवसल'कृतकर्म स्वीकारोक्ति के निमित समवेत हुआ करते थे।भिक्षु अपने साथ आठ पदार्थ रख सकते थे-तीन परिधान,एक धोती,एक भिक्षापात्र,एक उस्तरा,एक सूई और एक पानी छानने का वस्त्र आदि।वस्सावास वर्षाकालीन त्रैमासिक संघ निवास था।वस्सावास के अवसान को पवर्णा कहा जाता था।गृहस्थ जीवन में रहकर ही बौद्धधर्म को माननेवाले लोगों को उपासक कहा जाता था।वैसे गृहस्थ जो कुछ समय के लिए संघवासी होते थे भीख्खुगतिय कहलाते थे।ब्रहमविहार आत्मिक अभ्यास की चार लोकोत्तर अवस्थाएं थी जो मानव को चार आधारभूत सदगुणों प्रेम, दया, हर्ष एवं सभ्यता से परिपूर्ण करती थी।बौद्धधर्म में चार दुःख है -वृद्धावस्था,रोग,सन्यासी और मृत्यु।पाँच महाचिह्न है-जन्म (कमल या सांड़),गृहत्याग (अश्व),महाबोधि (बोधिवृक्ष),प्रथम उपदेश (धर्मचक्रप्रवर्तन)और निर्वाण (पदचिह्न)।ये बौद्ध धर्म के प्रतीक बताये जाते है।बौद्ध धर्म में दक्षिण दिशा को पवित्र माना गया है।
गौतम बुद्ध द्वारा वैदिक अनुष्ठान,यज्ञीय कर्मकाण्ड और पशुबलि का जबरदस्त विरोध किया गया।इसमें सार्वभौम ईश्वर की कल्पना नहीं थी और न उनके अनुसार वेद देववाक्य ही हो सकते है। वेदमंत्र केवल जलविहीन मरुस्थल तथा पंथहीन जंगल है।बुद्ध ने ब्राह्मणीय व्यस्था पर आधारित वर्णव्यवस्था का जमकर विरोध किया।लेकिन वर्ण व्यवस्था के उन्मूलन का प्रयास केवल संघ के स्तर तक ही किया गया था।उच्च आदर्शमय जीवन व्यतीत करनेवाले तथा शुद्ध आचरण करनेवाले ब्राह्मणों की बुद्ध ने मुक्तकंठ से प्रशंसा की है।उनका प्रहार विशेष रूप से पुरोहित वर्ग पर था जो यज्ञ कराने तथा पशुबलि के लिए उत्तरदायी था।दसब्राहमण जातक मे वैद्य,संदेशवाहक,कसाई,कृषक,व्यापारी आदि रूपों में ब्राह्मणों का वर्णन है।रक्तशुद्धता के लिए क्षत्रियों में विशेष गर्व का वर्णन दीघनिकाय के अम्बट्ठसुत में है।बुद्ध ने नवीन उत्पादन व्यवस्था का प्रत्यक्ष तथा परोक्ष समर्थन किया था।बौद्ध धर्म के सिद्धांत नई आर्थिक व्यवस्था तथा उपज के अधिशेष पर विकसित हो रहे नागरीय जीवन के अनुकूल थे।सुत्तनिपात मे कृषि के लिए गाय एवं बैल की उपयोगिता का वर्णन है। इससे शहरों की स्थापना को बल मिला। छः नगरों का सम्बन्ध गौतम बुद्ध से था;वे हैं चम्पा,सारनाथ,राजगृह,साकेत,कौसाम्बी और कुशीनगर।
बौद्ध धर्म के पतन के कारण
1.व्यापारिक पतन 2.ब्राह्मण धर्म में आत्मसुधार 3.बौद्ध धर्म का ब्राह्मण धर्म में प्रचलित कुप्रथाओं का शिकार होना 4.पाली भाषा का परित्याग और संस्कृत का अपनाया जाना 5.मूर्तिपूजा का प्रचलन 6.वज्रयान का उदय;जिसमें संभोग पर अधिक बल दिया गया,जिससे धर्म का नैतिक पतन हुआ 7.तुर्की आक्रमण और 8.संघों को राजकीय संरक्षण का ना मिलना।




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