आरंभिक हिन्दी

आरम्भिक हिन्दी से मतलब है,अपभ्रंश एवं अवहट्ट के बाद और खड़ी बोली के साथ हिन्दी के मानक रूप स्थिर एवं प्रचलित होने से पूर्व की अवस्था।आरम्भिक हिन्दी का फलक कई दृष्टियों से व्यापक एवं विविधतामूलक है।शुरू में हिन्दी भाषा समुच्चय के लिए प्रयुक्त होती थी।13वीं-14वीं शती में देशी भाषा को हिन्दी या हिंदवी नाम देने में अबुल हसन या अमीर खुसरो का नाम उल्लेखनीय है।15वीं-16वीं शती में देशी भाषा के समर्थन में जायसी का कथन है-"तुर्की,अरबी,हिंदवी भाषा जेति अहिं;जामे मरण प्रेम का,सवै सराहै ताहिं।"यह द्रष्टव्य है कि जायसी की कविता की भाषा अवधी है और खुसरो की देशी भाषा देहलवी।इससे स्पष्ट होता है कि उन दिनों दिल्ली के आस-पास से लेकर अवध तक के प्रांत की देशी भाषा को हिन्दी या हिंदवी नाम से अभिहित किया जाता था।दक्खिनी हिन्दी के लेखकों ने अपनी भाषा को हिन्दी या हिंदवी ही कहा है।इससे अलग भारतीय परम्परा से सम्बंधित कवि संस्कृत आदि भाषाओं की तुलना में देशी भाषा के लिए केवल भाषा या भाखा का प्रयोग करते है;जैसे
     'संस्कृत है कूपजल,भाषा बहता नीर'-कबीर
     'का भाखा का संस्कृत,प्रेम चाहिए सौच।'-तुलसी
प्रारम्भिक हिन्दी एक समूह भाषा है जिसमे आज की हिन्दी प्रदेश की 17 बोलियाँ समाहित है।यह अपभ्रंश एवं अवहट्ट के विभिन्न रूपों से निष्पन्न है।चक्रधर शर्मा गुलेरी का मानना है कि पुरानी हिन्दी अपभ्रंश,संस्कृत एवं प्राकृत से मिलती है और पिछली पुरानी हिन्दी में शौरसेनी ही हिन्दी की भूमि हुई।पुरानी हिन्दी कहाँ प्रारम्भ होती है,इसका निर्णय करना कठिन है।इन दो भाषाओं के समय और देश के विषय में कोई स्पष्ट रेखा नहीं खिंची जा सकती ।"फिर भी आरम्भिक हिन्दी का काल अनुमानतः 1000ई.से 1800ई.तक माना जा सकता है।हिन्दी साहित्य का जो आदिकाल है वह आरम्भिक हिन्दी का शौशवकाल है।इस काल की हिन्दी में अपभ्रंश के काफी रूप मिलते है।साथ ही हिन्दी के विभिन्न बोलियों का रूप इस काल में बहुत स्पष्ट नही है।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने अपना हिन्दी साहित्य का इतिहास सिद्धों की वाणियों से शुरू किया है।सरहप्पा,कनहप्पा आदि शिद्ध कवियों ने अपनी भाषा को जन से अधिक निकट रखा है।इसमें हिन्दी के रूप असंदिग्ध है। कुछ विद्वानों ने जैन कवि पुष्यदंत को हिन्दी का आदि कवि माना है।परंतु उनकी कृति 'तिसंटिठ महापुरिसगुणालंकार'की भाषा निःसंदेह अपभ्रंश है।कहीं-कहीं विकासमान हिन्दी के प्रयोग आवश्य मिल जाते है।बहुत से शोधकर्ताओं ने इन जैन कवियों की भाषा में आरंभिक हिन्दी की खोज करने का संकेत किया है।पउमचरीउ के महाकवि स्वयंभू ने अपनी भाषा को देशी भाषा कहा है।उसमें भी उदीयमान हिन्दी के छिटफुट प्रयोग मिलते है।मैथिल कवि विद्यापति की दो पुस्तकें अवहट्ट में है,परंतु पूर्वी हिन्दी के बीज उनमें भी मिलते है।अवधी के प्रथम कवि मुल्ला दाऊद की भाषा को आरंभिक हिन्दी नहीं ख जा सकता,क्योकि उनका रचना काल चौदहवीं सदी का अंतिम चरण है।नाथ योगियों की वाणी में आरम्भिक हिन्दी का अधिक निखरा रूप है।तत्सम शब्दों की बहुलता ध्यान देने योग्य है।इसी परम्परा को नामदेव,जयदेव,त्रिलोचन,बेनी,साधाना और कबीर आदि कवियों ने आगे बढ़ाया है।इससे भी स्पष्ट और परिष्कृत खड़ी बोली का दकखनी रूप है।शुद्ध खड़ी बोली के नमूने अमीर खुसरो की शायरी में प्राप्त होते है।खड़ी बोली में रोडा कवि कृत 'राउलबेली'की खड़ी बोली कुछ पुरानी है।राजस्थान के आसपास अपभ्रंश,डिंगल,पिंगल एवं शुद्ध मरू भाषा का प्रयोग होता रहा है।हिन्दी के आदिकाल का अधिकांश साहित्य राजस्थान से प्राप्त होता है।
<strong>विशेषताएं</strong>
धवनिगत विशेषतायें :- हिन्दी में ध्वनियाँ वहीं रही जो अपभ्रंश में मिलती है।किन्तु हिन्दी में कुछ नई ध्वनियों का भी विकास हुआ।अपभ्रंश में संयुक्त स्वर नहीं थे।हिन्दी में ऐ,ओ,आई,आऊ,इआ आदि संयुक्त स्वर इस काल में प्रयुक्त होने लगे।
2.सब शब्द स्वरांत होते है,व्यंजनांत नहीं;जैसे दिसा,सोहंता,जुगति,अवधू आदि।
3.अगले स्वर पर बलाघात के कारण पूर्व स्वर ह्रस्व हो जाता हैऔर कभी-कभी लुप्त भी हो जाता है।जैसे-अच्छई~छइ,अरण्य~रण्य~रन आदि।
4.ह्रस्वीकरण आरम्भिक हिन्दी में दर्शनीय है।ह्रस्व स्वरों का दीर्घ रूप अधिकांतः क्षतिपूर्ति का परिणाम है।कहीं-कहीं अकारण दीर्घीकरण भी हुए है।
5.मध्य स्वर लोप एवं अन्त्य स्वर लोप की प्रवृति भी आरम्भिक हिन्दी में मिलती है।
6.हिन्दी में अपभ्रंश के द्वित्व की जगह केवल एक वर्ण रह जाता है और पूर्ववर्ती स्वर में क्षतिपूरक दीर्घता आ जाती है।जैसे;निश्वास~निस्सास~निसास,भक्त~भत्त~भात।
7.'ऋ'हिन्दी में तत्सम शब्दों में ही लिखी जाती है किन्तु इसका उच्चारण 'री'की तरह तथा गुजराती में 'रू'की तरह होता है। ऋ के स्थान पर रि,अ,उ,इ,ई आदि कई ध्वनियाँ दिखाई पड़ती है।
8.संज्ञा-विशेषण के अंत में 'उ'पुल्लिंग की और 'इ'स्त्रीलिंग की पहचान है।
9.सवरगुंच्छ,जो प्राकृत और अपभ्रंश में बहुत अधिक थे,हिन्दी में भी प्रचलन में रहे।पश्चिमी हिन्दी की अपेक्षा पूर्वी हिन्दी में कुछ अधिक है।
10.आरम्भिक हिन्दी में अपभ्रंश की सभी व्यंजन ध्वनियाँ प्रचलित रही।लेकिन मूर्धन्य उत्क्षिप्त ड़,ढ़ हिन्दी की अपनी ध्वनियाँ है।इनका विकास अवहट्ट में ही हो गया था।
11.उष्म वर्ण 'ष'लेखन में रहा किन्तु ख उच्चारित होता है।'य'का'ज'में तथा 'व'का 'ब'में रूपांतरण हुआ है।
12.कुछ व्यंजनों के महाप्राण रूप विकसित हो गए है;जैसे,रह,न्ह,ल्ह आदि
13.विदेशी भाषाओं के प्रभाव से क़,ख़,ग़,ज़,फ़ का प्रयोग हिन्दी में मिलता है।
14.अनुनांसिक व्यंजनों में ङ्ग,ञ स्वतंत्र नहीं है;जो अवहट्ट में स्वतंत्र थे,हिन्दी संयोग रूप में आते है।परन्तु प्रायः इनके स्थान पर अनुस्वार मिलता है;जैसे गंगा,पुंज,लंक आदि।प्राचीन हिन्दी में 'ण'इतना अधिक है कि 'न' का भी 'ण'कर दिया गया है।शब्द के आदि में ण का प्रयोग विरल है।'र'और 'ल'अभेद है;कहीं र का ल,कहीं ल का र मिलता है।
15.शब्द के बीच में ख,घ,थ,ध,फ,भके स्थान पर 'ह'हो गया है।कुछ इस प्रक्रिया के कारण और कुछ व्याकरणिक रूपों के कारण आदि हिन्दी हकारबहुला लगती है।
16.शब्द के आदि में पड़नेवाले संयुक्त व्यंजनों में एक ही रह गया है।जैसे स्कन्ध से कंधा,क्रोधे से क्रोहे आदि।
17.बहुत से ऐसे शब्द मिलते है जिनमें संयोग के बीचोंबीच स्वर लाकर संयोग से काट दिया गया है;जैसे प्रकार का परकार,धर्म का धरम आदि। शब्द के बीच आनेवाले संयुक्त व्यजंन द्वित्व हो गए थे ।अवहट्ट में ऐसे बहुत से उदाहरण मिलते है;परन्तु आरम्भिक हिन्दी में बहुत अधिक उदाहरण है;जैसे दुज्जन~दुर्जन,दुटठ~दुष्ट आदि।
18.क्ष का पूर्वी बोलियों में छ और पश्चिमी बोलियों में ख हो गया है;यथा लक्ष्मण~लछमन~लखन।
19.जिन संयोगों का पहला अंग अनुनांसिक व्यंजन था,वह संयुक्त तो नही रहा,केवल अनुनांसिक व्यंजन के स्थान पर अनुस्वार कर दिया गया;जैसे-पण्डित से पंडित,खम्भ से खंभ आदि।

व्याकरणिक विशेषता  आरम्भिक हिन्दी की वियोगात्मक प्रक्रिया आगे बढ़ी है।नए-नए व्याकरणिक प्रत्यय,विशेषतः परसर्ग और क्रिदंतीय रूप विकसित हुए है।बहुत थोड़े सविभक्तिक प्रयोग हिन्दी में मिलते है।
1.आरम्भिक हिन्दी में संस्कृत,पाली एवं प्राकृत की तुलना में दो ही लिंग रह गए।नपुंसक लिंग खत्म हो गया। बचन की संख्या भी मात्र दो रह गयी-एकबचन और बहुबचन।
2.आरम्भिक हिन्दी में अधिकतम चार कारक रूप प्राप्त होते है।यहाँ रूप द्योतन के लिए परसर्गों का प्रयोग आवश्यक हो गया।आधुनिक हिन्दी में तत्सम या तद्भव संज्ञापद से संस्कृत की प्रथमा विभक्ति लुप्त हो गयी है;किन्तु पुरानी हिन्दी में'उ'विभक्ति के रूप में वर्त्तमान है।'हि'का प्रयोग मुख्यतः बहुबचन के लिए प्रायः सभी कारकों में होता है।लेकिन बहुत थोड़े सविभक्तिक प्रयोग मिलते है।प्रायः निर्विभक्तिक रूप बिना कारकीय चिह्न के सभी कारकों के अर्थ में प्राप्त होते है।
3.आरम्भिक हिन्दी में अपभ्रंश के पुरुषवाची सर्वनामों में किंचित उच्चारण भेद आवश्य हो गया है किन्तु उनकी मूल प्रकृति की समरूपता सुरक्षित है।उत्तमपुरुष में मैं  की अपेक्षा हौ व्यापक है;बाद में मइ,मैं,मुज्यु,मोंहि,मोर,मेरा आता है।उसके बाद हम,हमार,म्हारो,तोर,तेरा आदि की ध्वनि व्यवस्था है।मध्यम पुरुष में तुम,तुम्ह,तुझ,तुम्हार,तिहारो आदि तथा अन्य पुरुष में सो,से,सेइ,ताहि,ते,वे,वै;संकेतबाचक वह,ऊ,ओह,तासु,ताहि,उस;प्रश्नसूचक ज,जो,जेइ,जिन्ह,जिस तथा अनिश्चयबाचक में कोऊ,कोई,किसी आदि का प्रयोग मिलता है।
4.पुरानी हिन्दी में विशेषण के रूपों के अंत में अती प्रत्यय प्रायः मिलता है।
5.क्रियारूपों की जटिलता और लकारों की विविधरूपता अपभ्रंश में ही हो गयी थी।हिन्दी में आते-आते मुख्यतया चार लकार रह गए-सामान्य लट्(वर्त्तमान लट्),लंङ्ग(भूतकाल),लृट्(भविष्यत् काल) तथा आज्ञार्थ आदि।
6.सहायक क्रियायों एवं संयुक्त पूर्वकालिक क्रियायों का रूप स्थिर हो गया था।
7.पुरानी हिन्दी में भूतकालिक क्रिया का हत्तो,हत्ती और वर्तमानकालिक क्रिया का गया,गयी,गयो रूप मिलता है। विधि प्रेरणार्थक और कर्मवाच्य में जहाँ संस्कृत में 'ग'आता है वहीं पुरानी हिन्दी में 'ज'या 'ज्ज'आता है।यथा दीज्जै।
8.आरम्भिक हिन्दी में अपभ्रंश से विकसित क्रिया-विशेषण विशेष रूप से पाये जाते है।
9.प्रारम्भिक हिन्दी में मानक हिन्दी की तरह पदक्रम निश्चित नहीं था;जैसे-भनहिं विद्यापति,कहै कबीर सुनौ भाई साधौ,बंदौ गुरुपद पदुम परागा।लेकिन दक्खिनी हिन्दी की गद्य रचना में पदक्रम,संज्ञा-क्रिया-कर्म निश्चित हुआ मिलता है।
10.रचना की दृष्टि से संस्कृत,पालि,प्राकृत भाषाएँ योगात्मक थी।नियोगात्मक स्पष्ट रूप भी अपभ्रंश से प्रारम्भ हुई और आरम्भिक हिन्दी बहुत हद तक नियोगात्मक हो गयी।
11.अपभ्रंश और आदिकालीन हिन्दी के शब्दभंडार में विदेशी सब्दों की दृष्टि से अंतर मिलता है।अपभ्रंश में अरबी,फारसी एवं तुर्की के शब्दों की संख्या 100 से अधिक नहीं थी,किन्तु हिन्दी में इस काल में मुसलमानों के बस जाने एवं उनके शासन के कारण इन तीनों ही भाषाओं से प्रयाप्त शब्द आ गए।विदेशी शब्द प्रायः प्रथम वर्ग में आते है उसके बाद मध्य वर्ग में और अंत में निम्न वर्ग में आते है।
इसप्रकार अवहट्ट और प्रारंभिक हिन्दी को एक क्षीण रेखा अलग करती है।स्वर संकोचन की प्रवृति अवहट्ट में प्रारम्भ हो गयी थी।अपभ्रंश में किज्जिय,करिजिय आदि रूप मिलते है जिनके इय का विकास इए (कीजै)एवं इये का विकास कीजिये(मानक हिन्दी)रूप में मिलता है।

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