पल्लव कला

पल्लव शासकों ने सुदूर दक्षिण में द्रविड़ शैली के मंदिरों का निर्माण कार्य किया।इनके द्वारा बनाये गए मंदिर कांचीपुरम, महाबलिपुरम,तंजौर,तथा पुत्तडूकोराई में पाये जाते है।प्रारम्भ में मंदिरों पर काष्ठकला और कंदराकला का प्रभाव दिखाई देता है किन्तु परवर्ती मंदिर इन प्रभावों से मुक्त है।बाद में पल्लव वास्तुकला ही दक्षिण की द्रविड़ कला शैली की आधार बनी।उसी से दक्षिण भारतीय स्थापत्य की तीन प्रमुख अंगों का जन्म हुआ-1.मंडप 2.रथ तथा 3.विशाल मंदिर ।

दक्षिण भारत के इतिहास में पल्लव काल प्राचीन काल से मध्यकाल की ओर संक्रमण का प्रतीक है।यह काल परवर्ती गुप्तकाल का समकालीन है।तीन शताब्दियों के शासन के दौरान पल्लव शासकों ने मुख्यतः दो प्रकार की शैलियों में मंदिरों का निर्माण करवाया;वह है शैलकर्त्तन अर्थात पत्थरों को तराश कर और संरचनात्मक विधि।लेकिन अध्ययन की सुविधा के लिए राजाओं के शासन के दौरान बने मंदिरों के आधार पर इन्हें चार शैलियों में विभाजित किया जाता है- 1) महैंद्रवर्मन शैली (610 - 640) 2.मामल्ल शैली (640-674) 3.राजसिंह शैली (674-800) और 4.अपराजित शैली (800-900)।प्रथम दो शैली पत्थरों के तराश पर आधारित है और अंतिम दो संरचनात्मक भवन के उदाहरण है।

महेंद्र शैली - महेंद्र शैली में कठोर चट्टानों को काट कर गुहा मंदिरों का निर्माण हुआ है,जिसे मंडप कहा जाता है।ये मंदिर साधारण स्तम्भयुक्त बरामदे है जिनकी पिछली दीवार में एक या अधिक कक्ष बनाये गए हैं।मंडप के बाहर बने मुख्य द्वार पर द्वारपालों की मूर्तियाँ मिलती है जो कलात्मक रूप से ऊँच कोटि की है।मंडपों के सामने स्तंभों की एक पंक्ति मिलती है।स्तम्भ प्रायः चौकोर है जिनके ऊपर के शीर्ष सिंहाकार बनाये गए है।प्रत्येक स्तम्भ सात फीट ऊँचा है।महेंद्र शैली के मंडपों में मंडगपट्टू का त्रिमूर्ति मंडप,पल्लवरम का पंचपांडव मंडप,महैंद्रवाणी का महेंद्रविष्णु गृहमण्डप,त्रिचनापल्ली का ललितान्कुर पलवेश्वर गृहमण्डप आदि विशेष रूप से उल्लेखनीय है।इस शैली के प्रारंभिक मंडप सादे तथा अलंकरणरहित है किन्तु बाद के मंडपों को अलंकृत करने की प्रवृति दिखाई पड़ती है।पंच पांडव मंडप में छः अलंकृत स्तम्भ लगाये गये हैं।

मामल्ल शैली - इस शैली के मंदिरों का निर्माण नरसिंहवर्मन के शासनकाल में हुआ था।इसके अंतर्गत दो प्रकार के स्मारक बने-मंडप और एकाश्मक मंदिर;जिसे रथ कहा गया है।इस शैली में निर्मित सभी प्रकार के मंदिर मामल्लपूरम में विद्यमान है।यहाँ मुख्य पर्वत पर दस मंडप बनाये गए है।इनमे आदिवाराह मंडप,महिष मर्दिनी मंडप,पंच पांडव मंडप और रामानुज मंडप विशेष महत्वपूर्ण है।इन मंडपों को विशेष प्रकार से अलंकृत किया गया है।मंडपों का आकार-प्रकार बड़ा नही है।इनके स्तम्भ पहले की अपेक्षा पतले और लंबे हैं।इनके ऊपर पद्म,कुम्भ,फलक आदि उपकरण बने हुए है।स्तंभों को मंडपों में अत्यंत अलंकृत ढ़ंग से समायोजित किया गया है।मंडप अपनी मूर्तिकारी के लिए प्रसिद्ध है।इनमें उत्कीर्ण महिषमर्दिनी,अनंतशायी विष्णु,त्रिविक्रम,ब्रह्मा,गजलक्ष्मी,हरिहर आदि की मूर्तियाँ कलात्मक रूप से अत्यंत उत्कृष्ट है।पंच पांडव में कृष्ण द्वारा गोवर्धन पर्वत धारण किये जाने का दृश्य अत्यंत मनोहारी है।आदिवाराह मंडप में राज परिवार के दो दृश्यों का अंकन हुआ है।

मामल्ल शैली की दूसरी रचना रथ या एकाश्मक मंदिर है। इन्हें कठोर चट्टानों को काटकर बनाया गया है।रथ मंदिरो का आकार-प्रकार अन्य आकृतियों की अपेक्षा काफी छोटा है। ये 44 फीट लंबे,35 फीट चौड़े और 40 फीट ऊँचे है।प्रमुख रथ है-द्रौपदी रथ,धर्मराज रथ,गणेश रथ,पिंडारी रथ,वलैयं कुततैथ रथ,नकुल-सहदेव रथ,अर्जुन रथ एवं भीम रथ।पंच पाण्डव रथ दक्षिण में और बाकी उत्तर तथा उत्तर-पश्चिम में स्थित है । ये सभी शैव मंदिर है। द्रौपदी रथ सबसे छोटा है।इसमे किसी प्रकार का अलंकरण नहीं मिलता तथा यह सामान्य कक्ष की भाँति खोदा गया है।धर्मराज रथ सबसे अधिक प्रसिद्ध है। इसके ऊपर पिरामिड के आकार का शिखर बनाया गया है।मध्य में वर्गाकार कक्ष तथा नीचे स्तम्भयुक्त बरामदा है।कुर्सी से गढ़े हुए सुदृढ़ टुकड़ों तथा सिंहस्तम्भयुक्त अपनी डयोढ़ियों से यह और भी सुन्दर प्रतीत होता है।इसे द्रविड़ मंदिर शैली का अग्रदूत भी कहा जाता है।भीम,सहदेव और गणेश रथों का निर्माण चैत्यगृहों जैसा है। ये दीर्घाकार है तथा इनमें दो या दो से अधिक मंजिलें है और तिकोने किनारोंवाली पीपे जैसी छतें है।सहदेव रथ अर्धवृत्त आकारवाला है।इन रथों की संरचना के आधार पर ही परवर्ती काल में गोपुरों तथा मंदिरों के प्रवेश द्वार का खाका तैयार किया जाने लगा।मामल्ल शैली के रथ अपनी मूर्तिकला के लिए भी प्रसिद्ध है।नकुल -सहदेव रथ के अतिरिक्त अन्य सभी रथों पर विभिन्न देवी देवताओं जैसे-दुर्गा,इन्द्र,शिव,गंगा,पार्वती,हरिहर,स्कन्द,ब्रह्मा आदि की मूर्तियाँ उत्कीर्ण मिलती है।द्रौपदी रथ की दिवारों पर तक्षित दुर्गा तथा अर्जुन रथ दीवारों में बनी शिव की मूर्तियाँ विशेष रूप से प्रसिद्ध है।धर्मराज रथा पर पल्लव शासक नरसिंह वर्मन की मूर्ति उकेरी गयी है।इन रथों को सप्तपैगोडा भी कहा जाता है।

राजसिंह शैली- इस शैली के मंदिरों का जन्मदाता नरसिंहवर्मन द्वितीय थे।इसके अंतर्गत पत्थरों और ईंटों की मदद से बड़े-बड़े इमारतें बनवायी गयी।इस शैली के मंदिरों मे से महाबलीपुरम से प्राप्त होते है। ये मंदिर है-शोर मंदिर जिसे तटीय मंदिर भी कहा जाता है,ईश्वर मंदिर और मुकुंद मंदिर।शोर मंदिर इस स्थापत्य का पहला उदाहरण है।इसके अलावे उतरी अर्काट मंदिर,कांची का कैलाशनाथ मंदिर तथा वैकुण्ठ पेरुमल मंदिर उल्लेखनीय है।महाबलीपुरम का शोर मंदिर पल्लव कारीगरों के अदभूत कलाकारी का नमूना है।मंदिर का निर्माण एक विशाल प्रांगण में हुआ है जिसका प्रवेश द्वार पश्चिम की ओर है।गर्भगृह समुद्र की ओर है तथा इसके चारो ओर प्रदक्षिणा पथ है।मुख्य मंदिर के पश्चिमी किनारे पर बाद में दो और मंदिर जोड़ दिए गए है।इनमे से एक छोटा विमान है। बढ़े हुए भागों के कारण मुख्य मंदिर की शोभा में कोई कमी नहीं आई है।इसका शिखर सीढ़ीदार है और इसके शीर्ष पर स्तुपिका बनी हुई है।दीवारों पर गणेश,स्कन्द,गज,शार्दुल आदि की मूर्तियाँ उत्कीर्ण है।इसमें सिंह की आकृति को विशेष रूप से खोदकर बनाया गया है।घेरे के भव्य दीवारों पर ऊँकुडू बैठे हुए बैलों की मूर्तियाँ बनी है तथा बाहरी भागों के चारों ओर थोड़ी-थोड़ी अंतराल पर सिंह-भीति-स्तम्भ बने हुए है।

कांची स्थित कैलाशनाथ मंदिर राजसिंह शैली का चरमोत्कर्ष है।महेंद्र वर्मन द्वितीय के समय इसकी रचना पूर्ण हुई थी।द्रविड़ शैली की सभी विशेषतायें,जैसे-गोपुरम,परिवेष्ठित प्रांगण,स्तम्भयुक्त मंडप,विमान आदि मौजूद है।इसके निर्माण में ग्रेनाइट तथा बलुआ पत्थर का उपयोग किया गया है।गर्भगृह आयाताकार है जिसकी प्रत्येक भुजा 9 फीट है।इसमें पिरामिडनुमा विमान और स्तम्भयुक्त मंडप है।सम्पूर्ण मंदिर ऊँचे परकोटों से घिरा हुआ है।मंदिर में शैव सम्प्रदाय और शिव लीलाओं से संबंधित अनेक सुंदर-सुंदर मूर्ति

याँ अंकित है जो उनकी शोभा को द्विगुणित करती है।

वैकुण्ठ पेरुमल परमेश्वरवर्मन द्वितीय के कल में बना विष्णु मंदिर है जिसमें प्रदक्षिणापथयुक्त गर्भगृह है एवं सोपानयुक्त मंडप है।मंदिर का विमान वर्गाकार और चार तल्ला है।प्रत्येक तल्ले में विष्णु की अनेक मुद्राओं में मूर्तियाँ बनी हुई है।साथ ही साथ मंदिर की भीतरी दीवारों पर युद्ध,राज्याभिषेक,उत्तराधिकार चयन,नगर जीवन आदि के दृश्यों को भी अत्यंत सजीवता एवं कलात्मकता के साथ उत्कीर्ण किया गया है।ये विविध चित्र रिलीफ स्थापत्य के सुंदर उदाहरण प्रस्तुत करते है। इन चित्रों के माध्यम से तत्कालीन जीवन एवं संस्कृति की जानकारी मिलती है।मंदिर में भव्य एवं आकर्षक स्तम्भ निर्मित किये गए है।वास्तव में पल्लव वास्तुकला का विकसित रूप इन मंदिरों में दृष्टिगत होता है।


नन्दीवर्मन शैली  -    इस शैली के अंतर्गत अपेक्षाकृत छोटे मंदिरों का निर्माण हुआ।इसके उदाहरण काँची के मुक्तेश्वर मंदिर एवं मातंगेश्वर मंदिर ,ओरगड्डम का बड़मलिश्वर मंदिर,तिरुतैन का बिरटट्टानेश्वर मंदिर,गुद्दीमल्लम  का परशुरामेश्वर मंदिर आदि है।काँची के मंदिर इस शैली के प्राचीनतम नमुने है।इनमें प्रवेश द्वार पर स्तम्भयुक्त मंडप बने हुए है। इसके बाद वाले मंदिर चोल मंदिरों के पूर्ववर्ती रूप कहे जा सकते है।

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