ग्रामीण लोककला का जीवंत रूप: मिथिला पेंटिंग



मिथिला लोककला का विकास कई क्षेत्रों में विभिन्न रूपों में हुआ है। मिथीला पेंटिंग अपनी जीवंतता एवं सजीवता के लिए विश्व प्रसिद्ध है।आधुनिक युग में यह शैली स्टाईल का प्रतीक बन गया है।मिथिला की लोक चित्रकला एक अलौकिक रचना संसार का निर्माण करती है जिसमें पूरी मिथिला संस्कृति ;मिथिला की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि रची-बसि होती है।यह नायाब कला बिहार के मधुबनी,दरभंगा,सहरसा और पूर्णिया जिले के समस्त लोकजीवन को अपने में समेटे हुए है।मिथिला पेंटिंग में चित्र बनाने का कार्य तीन प्रकार से किया जाता है - 1. भित्तिचित्र 2. पट्ट चित्र तथा 3.अरिपन।तीनों चित्र मिथीलावासियों के जीवन का अभिन्न अंग है।भुमिचित्रण की परम्परा मिथिला में काफी प्रचलित है और इसमें मिथिला की संस्कृति परिलक्षित होती है।अरिपन के मूल में धार्मिक भावना प्रबल रही है।यह मिथिला की महिलाओं की मष्तिष्क की उपज है।तीज-त्यौहार तथा मंगल उत्सव के अवसर पर बिना किसी वर्ग विशेष के हर घर में आरिपन को बनते हुए आसानी से देखा जा सकता है मानों यह मैथिल लोगों के जीवन का अपरिहार्य अंग हो।कार्य प्रारम्भ होने में भले ही विलंब हो जाय परंतु बिना अरिपन कार्य की सार्थकता संदेहास्पद हो जाती है।प्रत्येक शुभ अवसर के लिए अलग-अलग अरिपन बनाने का विधान है तथा सभी अरीपनों की पृष्ठभूमि में कुछ न कुछ धार्मिक भावना अंतर्निहित होती है।अरिपन में अंकित सभी रेखाएं एवं चिन्ह प्रतीकबोधक होते है; जो पुराणों और धर्मशात्रों के गूढ़ तत्वों को द्योतित करते है।यथा, स्वाष्तिक अरिपन की चार रेखाएँ आशीर्वाद देती हुई विष्णु की चार भुजाएँ है;मध्य रेखा भूमंडल का परिचायक है।त्रिकोण रूप में पृथ्वी अरिपन मातृशक्ति बोधक है।मंदिर रूप में सांझ अरिपन ब्रह्माण्ड का परिचायक है तो अष्टदल अरिपन भगवान विष्णु का प्रतिक है।चतुः शंख अरिपन का तादात्म्य चार वेदों से बैठाया जाता है।दो परनी पतों का अरिपन जिसमें एक पते के ऊपर दूसरे पत्ते को रेखांकित किया जाता है वह वर-वधु युगलके अविरल और अविछिन्न संबंध का द्योतक है।कोजहरा में श्रीलक्ष्मी पूजा के संबंध का अरिपन मखाने के तीन पत्तों के आकार का  पृथ्वी पूजा में त्रिकोण यंत्राकार प्रतीक बनाया जाता है।इसके अतिरिक्त मिथिला पेंटिंग में बनाये जानेवाले अरिपन है- मधुश्रावणी पूजा का अरिपन,पृथ्वी पूजा का अरिपन,षष्टी पूजा का अरिपन ,तुसारी पूजा का अरिपन,षड़दल अरिपन,सुसरात्रि का अरिपन ,पुरुषों के दशपात का अरिपन,स्त्रियों के दशपात का अरिपन,साँझ अरिपन तथा मोहक अरीपन प्रमुख है।

मिथिला पेंटिंग में भित्तिचित्रण का अपना अलग ही महत्व है।धार्मिक भित्तिचित्र में शिव-पार्वती,राधा -कृष्ण,दुर्गा,काली,विष्णु,दशावतार,लक्ष्मी तथा सरस्वती की प्रमुखता  रहती है।इन चित्रों  के दार्शनिक तथ्यों में लोकजीवन सदा समाहित रहता है,जो लौकिक एवं पारलौकिक जीवन को रेखांकित करता है।भीतिचित्र में वर-कन्या,हाथी-मच्छली,तोता-मैना,सूर्य-चंद्र तथा कमल-शंख के चित्र रहते है। इन सभी चित्रों का अपना अलग-अलग दर्शन है जिसका सामाजिक जीवन से घनिष्ठ संबंध है। यथा, हाथी-घोड़ा ऐश्वर्य का,सूर्य-चंद्र दीर्घजीवन का और हंस-मयूर सुख-शांति का प्रतीक है।

कोहबर लेखन मिथिला पेंटिंग की अपनी खास विशेषता है जिसमें मंगलसूचक मान्यताएँ अंतर्निहित होती है।यह एक ज्यामितिक एवं तांत्रिक चित्रण की वैज्ञानिक पद्धति है  जो अनेक प्रतीक चिन्हों का निरूपण करती है।कोहबर में बांस ,तोता,मच्छली,कछुआ और कमल के पत्ते का चित्रण प्रमुखता से किया जाता है।बांस पुरुष लिंग एवं वंशवृद्धि तथा कमल का पत्ता स्त्री के जनन अंगों का प्रतीक है,जो मिथिला संस्कृति में प्रचिलित अभिजनन तंत्र की अवधारणा को संपुष्ट करते है।तोता ज्ञान या ज्ञान के विकास का प्रतीक है जो हमें इस बात की याद सदैव दिलाता है कि मिथिला का यह भूभाग हमेशा से ज्ञान का केंद्र रहा है जहाँ मंडन मिश्र और भारती के साथ उसका तोता भी उद्भट विद्वान था।भित्तिचित्रों में नयना-योगिन,दही का भरिया,पुरैन ,मच्छली का भरिया,सरोवर,मोर का चित्रण,गोपी लीला का चित्रण,केला का भरिया,कटहल का पेड़ , आम का पेड़,अनार का पेड़,सामा-चकेवा का चित्रण ,जट-जाटिन तथा राजा सल्हेस का चित्रण प्रमुख है।मिथिला पेंटिंग में पटचित्रों का विकास प्राचीन भारतीय चित्रकला और नेपाल की पट्टचित्र कला से हुआ है।18 वीं शताब्दी में यहाँ पटचित्रों की रचना खादी पर भी की जाती थी।बाद के कालों में इसप्रकार के चित्र कागजों पर भी उकेरे जाने लगे।मुख्यतः इसका उपयोग घरों के अंदर कमरों की साज-सज्जा के लिए किया जाने लगा है।

मिथिला पेंटिंग में विभिन्न प्रकार के रंगों का समायोजन किया जाता है।आरम्भ में ग्रामीण महिलाएं प्राकृतिक श्रोतों से खुद रंग बनाती थी।सफेद रंग चावल या उड़द के दाल से बनाया जाता था।हरा रंग सेम या विभिन्न लताओं के रस से बनाया जाता था।पीला रंग हरसिंगार के फूल से बनाये जाते थे।लाल रंग के लिए सिंदूर या कुसुम के फूल का रस व्यवहार में लाया जाता था।काले रंग के लिए कालिख प्रयुक्त होता था।चौरठ एवं सिंदूर से अरिपन बनाया जाता था।बाद के काल में खनिज रंगों का धड़ल्ले से प्रयोग होने लगा।प्रारम्भ में तुलिकाएं भी कलाकार स्वयं निर्मित करते थे। आजकल आधुनिक तुलिकाओं एवं रंगों का प्रयोग इस कला के लिए होने लगा है।अब प्रेसबोर्ड पर पेंसिल और स्याही से रेखाओं को उभरा जाने लगा है और छोटी-छोटी लकड़ी या ब्रश से रंगों को भरने का कार्य किया जाता है।

सम्पूर्ण मिथिला क्षेत्र में भाव और कला की दृष्टि से समरूपता है ;लेकिन स्थान विशेष एवं वर्ग विशेष के आधार पर कुछ विविधतायें भी परिलक्षित होती है।मधुबनी के पास जितवारपुर,लहेरियगंज,रांटी आदि अनेक गाँव है जहाँ की चित्रकला की अपनी विशेषता है।मिथिला की जितवारपुर शैली काफी प्रसिद्ध है।इस शैली मे स्त्रियाँ कागज पर नीम या बांस या सींक के सहारे पतले काले रंग से रेखांकन करती है,तत्पश्चात रेखाओं के बीच में लाल,पीले ,नीले तथा हरे रंगों को बाँस के सींक में रूई बांधकर भरती है।इसकी दूसरी उपशैली रांटी गांव की कायस्थ जाति की महिलाओं की शैली रांटी शैली है।इसमें महिलायें कागज पर काले रंग से स्पष्ट चित्रांकन करती है तथा बीच के हिस्से को विभिन्न अलंकरणों से या रूपाकारों से काले रंग से भरती भी जाती है।मिथिला की चित्रकला की एक अन्य शैली हरिजन शैली है।मधुबनी से चार किमी.दूर उत्तर लहेरियासराय की औरतें इस शैली में कार्य करती है।ये महिलाएँ मुख्य रूप से रामकथा तथा कृष्णलीला के साथ-साथ राजा सल्हेस ,दीना भद्री एवं राम रणपाल आदि लोकनायकों को अपने चचित्रों में स्थान देती है।

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