उत्तरवैदिक काल

उत्तरवैदिककालीन इतिहास की जानकारी ऋग्वेद को छोड़कर अन्य तीन वेदों यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद से मिलती है।इसके अतिरिक्त ब्राह्मण,आरण्यक तथा उपनिषद इस काल की जानकारी के लिए महत्वपूर्ण स्रोत साबित हुए है।ये सभी उत्तरकालीन वैदिक ग्रंथ लगभग 1000ई.पूर्व से 500ई.पूर्व के बीच उत्तरी गंगा के मैदान में रचे गए थे।इस क्षेत्र से लगभग 700 उत्तरवैदिक स्थल प्रकाश में आये है जिनको चित्रित धूसर मृदभांड स्थल के रूप में भी पहचाना गया है।
सामवेद:-ऋग्वैदिक सूक्तों को चुनकर धुन में बाँधा गया,इस  पुनर्विन्यस्त संकलन का नाम सामवेद संहिता पड़ा।इस ग्रंथ में यज्ञों के अवसर पर गाये जानेवाले मंत्र है।इनको गानेवाले पुरोहित उदगाता कहलाते थे।सामवेद के दो भाग है-आर्चिक और गान।सामवेद के प्रथम द्रष्टा जैमिनी बताये जाते है।इसमें कुल 1549 मंत्र है।प्रमुख शाखाएं है-जैमिनीय कौथुनीय और राणायनीय।सामवेद को भारतीय संगीत का जनक कहा जाता है।
यजुर्वेद :- यजुर्वेद में यज्ञों को सम्पन्न कराने में सहायक मंत्रों  का संग्रह है जिसका उच्चारण अध्वर्यु नामक पुरोहित करते थे।इस ग्रंथ में यज्ञ करने की विधियों का वर्णन है।इसके दो भाग है-कृष्ण यजुर्वेद और शुक्ल यजुर्वेद।कृष्ण यजुर्वेद की मुख्य शाखाएँ है-तैत्तिरीय, काठक, मैंत्रायिणी तथा कपिष्ठल।इनमें छन्दमंत्र और गद्यात्मक वाक्य है।शुक्ल यजुर्वेद में केवल मंत्र है।इसमें कुल 40 अध्याय है। इसकी संहिताओं को वाजसनेय भी कहा जाता है।याज्ञवल्क्य इसके प्रथम द्रष्टा थे।
अथर्ववेद:- यह संहिता लौकिक फल प्रदान करनेवाली संहिता है।अथर्ववेद में विपत्तियों और व्याधियों के निवारण के लिए तंत्र-मंत्र संगृहीत है।इसमें आये तथ्यों से आर्येत्तर लोगों के विश्वासों और रूढ़ियों का पता चलता है।अथर्वा नामक ऋषि इसके प्रथम द्रष्टा थे।दूसरे द्रष्टा अंगरीस थे।इन दोनों के नाम पर इस ग्रंथ को अथर्वांगीरस वेद भी कहा जाता है।इसकी दो शाखाये-पिप्लाद और शौनक है।सामवेद में 20 काण्ड,731 सूक्त और 5989 मंत्र है।जिसमें से 1200 मंत्र ऋग्वेद से लिए गए है।अथर्ववेद को ब्रह्मवेद भी कहा जाता है।इतिहास की दृष्टि से यह ग्रंथ बेहद ही महत्वपूर्ण है।
ब्राह्मण ग्रंथ:- वैदिक संहिताओं के बाद कई ग्रंथ लिखे गए जिन्हें ब्राह्मण ग्रंथ कहा जाता है।इसमें वैदिक अनुष्ठानों की विधियाँ संगृहीत है।इसमें उन अनुष्ठानों की सामाजिक एवं धार्मिक व्याख्या भी की गयी है।ब्राह्मण ग्रंथ विधिप्रधान है;जो अधिकांशतः गद्य में लिखे गए है।कालक्रम की दृष्टि से कृष्ण यजुर्वेद के ब्राह्मण सबसे पहले रचे गए है;फिर तैत्तिरीय ब्राह्मण,ऐतरेय और फिर कौषीतकि ब्राह्मण आते है।शतपथ ब्राह्मण सबसे बाद की रचना है।ठीक इसके पहले गोपथ ब्राह्मण की रचना हुई थी। प्रत्येक वेद के अपने-अपने ब्राह्मण है जो निम्न है:-
ऋग्वेद - ऐतरेय और कौषीतकी।
सामवेद - पंचविश, ताण्ड्य, षडविंश, अद्भुत और जैमिनी।
यजुर्वेद - तैत्तिरीय और शतपथ ब्राह्मण।
अथर्ववेद -गोपथ ब्राह्मण।
आरण्यक :-इसकी रचना वनों में पढ़ाये जाने के निमित्त होने कारण संगृहीत किया गया है।इसमें ज्ञान और चिंतन को प्रधानता दि गयी है।इन दार्शनिक रचनाओं से ही कालांतर में उपनिषदों का विकास हुआ।आरण्यक भी ब्राह्मणों की भाँति वेदों से संबंधित है जो इसप्रकार है-
ऋग्वेद - ऐतरेय और कौषीतकि आरण्यक
यजुर्वेद - तैत्तिरीय आरण्यक
सामवेद - वृहदारण्यक
अथर्ववेद - छान्दोग्य उपनिषद
उपनिषद :- ये ज्ञानमार्गी रचनाएँ है।इन्हे वेदांत भी कहा जाता है।इनकी संख्या 108 बताई जाती है।मुक्तिकोपनिषद में 108 उपनिषदों का उल्लेख मिलता है।लेकिन सर्वाधिक प्राचीन और प्रामाणिक 12 उपनिषद माने जाते है।उपनिषदों का मुख्य विषय ब्रह्मविद्या का प्रतिपादन करना है।उपनिषदों के विकास में गार्गी और मैत्रेयी का उल्लेखनीय योगदान बताया जाता है।भारत का राष्ट्रीय आदर्श वाक्य सत्यमेव जयते  मुंडकोपनिषद से उद्घृत है।
वेदों के मंत्रों का गान ब्राह्मण करते थे जो 16 पुजारियों में से एक होते थे।ऋग्वेद के मंत्र होतृ,यजुर्वेद के मंत्र अध्वर्यु तथा सामवेद के मंत्र उदगातृ के लिए निर्मित किये गए थे।

भौगोलिक विस्तार :-उत्तरवैदिक काल में आर्य लोगों का पूरब की ओर संचरण हुआ।इस क्रम में वे यमुना से बंगाल की पश्चिमी सीमा तक फैल गए।शतपथ ब्राह्मण के अनुसार विदेध माधव ने वैश्वानार अग्नि को मुख में लेकर सरस्वती से सदनीरा तक के जंगलों को जला दिया। इस कार्य में उसके पुरोहित गौतम राहुगण ने भरपूर साथ दिया था।अग्नि द्वारा दग्ध होने के कारण ब्राह्मण सदानीरा के पूर्व नहीं जाते थे और न बसते थे।मगध और अंग आर्य संस्कृति के बाहर थे।अथर्ववेद में मगध के लोगों को ब्रात्य कहा गया है।उत्तरवैदिक साहित्य में दो समुद्रों अरब सागर और हिन्द महासागर,हिमालय पर्वत की श्रेणियों तथा विंध्य पर्वत का वर्णन मिलता है।विंध्य पर्वत के आगे आर्य नहीं गए थे।ऐतरेय ब्राह्मण के अनुसार आंध्रप्रदेश में कुछ आदिवासी लोग रहते थे।इससे यह प्रतीत होता है कि आर्य लोग कृष्णा और गोदावरी नदियों से परिचित थे।दक्षिण में आंध्र, पुलिंद, शबर आदि जातियों की सत्ता थी जो वैदिक सभ्यता से अलग थे।

भौतिक विशेषतायें :- उत्तरवैदिक काल में आर्यों ने बस्तियों का निर्माण करना शुरू कर दिया था।हस्तिनापुर में मिली सामग्रियों से जिनकी तिथि 900ई.पूर्व से 500ई.पूर्व आंकी जाती है;बस्तियों और नगर जीवन के धुंधले आरम्भ का पता चलता है।उत्तरवैदिक लोग पकाई ईंटों का प्रयोग नहीं करते थे बल्कि इनके घर घास-फूस और बांस बल्लियों से निर्मित होते थे।इस काल में लोहे के औजार प्रयुक्त होने लगे थे।लगभग 1000ई.पूर्व में लोहा कर्नाटक के धारवाड़ जिले में मिलने लगा था।यहीं वह समय था जब गांधार प्रदेश में लोहे के औजार बनने लगे थे।ऊपरी गंगा के मैदानों में जंगलों को साफ करने के लिए लोहे की कुल्हाड़ी को काम में लाया गया था।उत्तरवैदिक ग्रंथों मे लोहे को श्याम या कृष्ण अयस कहा गया है।वैदिक काल के लोगों ने सर्वप्रथम धातु के रूप में ताँबे का प्रयोग किया था।वे संभवतः राजस्थान की खेतड़ी की ताँबे की खानों का इस्तेमाल करते थे।1500ई.पूर्व के ताँबे के औजार के जखीरे पश्चिमी उत्तरप्रदेश और बिहार में मिले है।
उत्तरवैदिक काल के लोग चार प्रकार के मृदभांडों से परिचित थे-1.काला और लाल मृदभांड  2.काली पलिशदार मृदभांड
3.चित्रित धूसर मृदभांड और 4.लाल मृदभांड।लाल मृदभांड उनके बीच अधिक प्रचलित था और यह सम्पूर्ण उत्तरप्रदेश में पाया गया है।लेकिन चित्रित धूसर मृदभांड उनके सर्वोपरि वैशिटी का सूचक है जिसका उपयोग उच्च वर्णों के लोग धार्मिक कृत्यों में या भोजन में या दोनों में करते थे।कौशाम्बी के उत्खननकर्त्ता ने वहां पुरुषमेघ से संबंधित एक यज्ञवेदी होने का दावा किया है।अतरंजीखेड़ा से वृत्ताकार अग्निकुंड मिले है।

राजनीतिक संगठन :- उत्तरवैदिक काल में आर्य संस्कृति का मुख्य केंद्र कुरुक्षेत्र के आस-पास का प्रदेश था।कुरु-पांचाल की संस्कृति श्रेष्ठ समझी जाती थी।अथर्ववेद में परीक्षित को विश्वजनीन अर्थात् सार्वभौम राजा कहा गया है।इसी ग्रंथ में परीक्षित को मृत्युलोक का राजा बताया गया है।इसी ग्रंथ में कुरु राज्य की समृद्धि का अत्यन्त प्रभावशाली वर्णन मिलता है।ऐतरेय ब्राह्मण के अनुसार कुरु नरेश सदा तैयार 64 योद्धाओं से घिरा रहता था। कुरु की दो राजधानियाँ थी-आसन्दीवत और काम्पिल्य।महाभारत यद्ध के बाद;जो लगभग 950ई.पूर्व में हुआ था;हस्तिनापुर बाढ़ में बह गया और कुरु वंश में जो जीवित रहे वे इलाहाबाद के निकट कौशाम्बी में बस गए।
बरेली बदायूँ और फर्रुखाबाद जिलों में फैला पांचाल राज्य अपने दार्शनिक राजाओं और तत्वज्ञानी ब्राह्मणों को लेकर विख्यात था।पांचाल जाति ऋग्वैदिक कृवि जाति से निकली थी। उपनिषद काल में पांचाल ब्राह्मण विद्या का केंद्र बन गया।राजा प्रवाहण जैवालि और ऋषि आरुणि श्वेतकेतु पांचाल देश के ही थे।शतपथ ब्राह्मण के अनुसार पांचाल नरेश शोण सात्रासाह द्वारा अश्वमेघ यज्ञ सम्पन्न कराये जाने के समय 6033बख्तरबंद योद्धा तैयार थे।
उत्तरवैदिक काल में राष्ट्र शब्द का प्रयोग होने लगा था।शतपथ ब्राह्मण में जनक को सम्राट बताया गया है।विदर्भ के राजा भोज कहलाते थे।दण्डक राज्य में भोज राजा राज्य करते थे।इनकी प्रजा सत्वत कहलाती थी।इस समय विभिन्न प्रदेशों के राजा विभिन्न नामों से जाने जाते थे।जैसे मध्यदेश का राजा राजा,दक्षिण का राजा भोज,उत्तर का राजा विराट,पूर्व का राजा सम्राट तथा पश्चिम का राजा स्वराट कहलाता था।
उत्तरवैदिक ग्रंथों से संकेत मिलता है कि राज्य के प्रधान या राजा का चुनाव होता था।राजा सारी प्रजा का स्वतंत्र स्वामी माना जाता था।लेकिन राजा के निर्वाचन में जनता का महत्वपूर्ण हाथ होता था।सभा और समिति राजा की निरंकुशता पर अंकुश लगाती थी।राजत्व के दैवी सिद्धांत की चर्चा उत्तरवैदिक ग्रंथों में मिलती है।अथर्ववेद में राजतिलकोत्सव के मंत्र लिखित है।विदथ उत्तरवैदिक काल में समाप्त हो गया।सभा और समिति थोड़े-बहुत बदलाव के साथ चलती रही।अथर्ववेद में सभा और समिति को प्रजापति की दो पुत्रियाँ कहा गया है अब सभा में स्त्रियों का प्रवेश वर्जित हो गया था।सभा न्यायालय का कार्य करने लगी थी।समिति के समर्थन पर राजा का भविष्य निर्भर करने लगा था।केंद्रीय सत्ता और सेना पर इसका प्रभाव था।
शासन संचालन का सूत्र ब्राह्मण वर्ग के पास था।इसी वर्ग से सूत और ग्रामणी की नियुक्ति होती थी जिनकी उपाधि राजकर्तृ अर्थात् राजा बनानेवाले की होती थी।इसके बाद संगृहित्रि(कोषाध्यक्ष),भागदूघ(कर संग्रह करनेवाला),सूत (राजकीय चारण,कवि या रथावाहक),क्षता (दौवारिक),अक्षवाप(जुए का निरीक्षक),पालागल(दूत,विदूषक),गोविकर्तन(आखेट के समय राजा का साथी),महिषी (पटरानी),वावाता (विशेष रानी)नामक अधिकारी शासन में राजा के सहयोगी थे।ऋग्वेद में जीवग्रीभ और उपनिषदों में उग्र के रूप में पुलिस अधिकारियों का उल्लेख है।उच्च अधिकारियों को दौवारिक कहा जाता था।राजसूय यज्ञ के दौरान राजा जिन 12 रत्नीनों के घर जाता था उसमें चार महिलाएं थीं।पुरोहितों ने कर्मकाण्डीय विधानों से राजा को प्रभावशाली बनाया था।बदले में ब्राह्मण और राजन्य वर्ग के लोग करों से मुक्त थे।नियमित कर बलि कहलाता था।पहले यह कर ऐच्छिक था उत्तरवैदिक काल में यह एक अनिवार्य कर हो गया था।
राजा को शक्तिशाली एवं प्रभुत्वशाली बनाने के लिए ब्राह्मणों ने  चार के यज्ञोंको आवश्यक बताया है।
1.राजसूय यज्ञ-दिव्यशक्ति की प्राप्ति हेतु।इस यज्ञ के दौरान रत्नहविंषि अनुष्ष्ठान होता था जिसमें राज को तक्षण और रथकार के घर जाना अनिवार्य होता था।राजसूय यज्ञ में सम्पूर्ण वर्ष के दौरान चलनेवाले अनुष्ठानों का अंत ऐसे यज्ञों से होता था जिसकी अध्यक्षता इंद्रानुसीर अर्थात् हलयुक्त इन्द्र करता था जिसका उद्देश्य पस्त प्रजनन शक्ति को पुनः जागृत करना था।
2.वाजपेय यज्ञ(रथ दौड़) -राजा की श्रेष्ठता की सिद्धि हेतु।
3.परिपशु यज्ञ -राजसी ऐश्वर्य में वृद्धि हेतु।
4.अश्वमेघ यज्ञ - दिग्विजय हेतु।इस यज्ञ में राजा द्वारा छोड़ा गया घोड़ा जिन जिन क्षेत्रों से बिना रोक-टोक के गुजरता था उन सारे क्षेत्रों को राजा का एकच्छ्त्र राज्य माना जाता था।

सामाजिक जीवन :-उत्तरवैदिक काल में समाज चार वर्णों में विभक्त था।ब्राह्मण,राजन्य या क्षत्रिय,वैश्य और शूद्र।अब इनके कर्तव्यों,अधिकारों तथा स्थिति में विभेद किया जाने लगा।ब्राह्मण कार्य पठन-पाठन,यज्ञ करना और यज्ञ कराना था।राजनय वर्ग युद्ध करता था,वैश्य पशुपालन और कृषि का कार्य करते थे तथा शूद्र ऊपर के तीन वर्णों की सेवा करते थे।वैदिक काल के अंत तक वैश्यों ने व्यापार करना शुरू कर दिया था।इस काल में केवल वैश्य ही कर चुकाते थे।शूद्र वर्ण के लोग उपनयन संस्कार के अधिकारी नहीं थे।वे गायत्री मंत्र का उच्चारण नहीं कर सकते थे।शतपथ ब्राह्मण में चार वर्णों की अंत्येष्ठि के लिए चार प्रकार के टीलों का उल्लेख मिलता है।ऐतरेय ब्राह्मण में ब्राह्मण,वैश्य और शूद्र का संबंध क्षत्रिय से दिखाया गया है।उत्तरवैदिक ग्रंथ में ब्रह्म एवं क्षत्र तथा मित्र एवं वरुण के जिस द्वंद्व का उल्लेख मिलता है,वह वास्तव में ब्राह्मण और क्षत्रिय के मनमुटाव का प्रतीक था।उपरोक्त वर्ण के अतिरिक्त समाज में व्यावसायी वर्ग की उपस्थिति दृष्टिगोचर होती है।पुरुषमेघ में विभिन्न प्रकार के व्यवसायों यथा धातुशोधक,रथकार,बढ़ई,व्यापारी,स्वर्णकार और कम्भकार आदि का वर्णन मिलता है।वैदिक समाज एक बंद व्यवस्था के तहत संचालित होता था।अथर्ववेद और पंचविश ब्राह्मण में मगध के व्रात्य मुखिया को वैदिक समाज में प्रवेश देने के लिए कर्मकाण्ड के आयोजन का वर्णन है।
उत्तरवैदिक समाज में शिक्षा पर विशेष बल दिया जाता था।छान्दोग्य उपनिषद में अध्ययन के विषयों की एक लंबी सूची दी गयी है।इसमें वेद, इतिहास, पुराण, ब्रह्मविद्या, व्याकरण, गणित, कालक्रम, तर्कशास्त्र, नीतिशास्त्र, ज्यामिति, भूगोल और सैन्यविज्ञान प्रमुख थे।वृहदारण्यक उपनिषद में याज्ञवल्कय की पत्नी मैत्रेयी और गार्गी वाचक्नवी को अत्यंत विदूषी बताया गया है।कुछ ऐसे दृष्टान्त मिलते है कि वैदिक मंत्रों की रचना गार्गी, अपाला, घोषा, बिंबवारा जैसी महिलाओं ने की थी।गार्गी तो अपनी वाक् पटुता और दार्शनिक ज्ञान के लिए अत्यधिक विख्यात थी।वृहदारण्यक उपनिषद के अनुसार याज्ञवल्क्य ने विराट नरेश की एक दार्शनिकों की सभा में गार्गी से यह कहा कि अधिक वहस न करो अन्यथा तुम्हारा सिर तोड़ दिया जायेगा।मैत्रायणी उपनिषद में नट के उल्लेख से नाटक विद्या के प्रचलन के साक्ष्य मिलते है।वाजसनेयी संहिता में शैलूव का उल्लेख मिलता है जो सम्भवतः अभिनेता रहा होगा।उत्तरवैदिक काल में रोग और निदान आदि विषयों पर भी विस्तार से चर्चा की गयी है।शांखायन ब्राह्मण के अनुसार ऋतुओं में परिवर्तन से व्याधियाँ अधिक होती थी।अथर्ववेद में तक्मन् नामक ज्वर के लक्षणों की चर्चा है।रक्त प्रवाह को रोकने के लिए बालू की पोटली का प्रयोग होता था।

उत्तरवैदिक काल में गोत्र प्रथा स्थापित हुई।गोत्र शब्द का मूल अर्थ है गोष्ठ या वह स्थान जहाँ समूचे कुल का गोधन पाला जाता था।परंतु बाद में इनका अर्थ एक ही मूल पुरुष से उत्पन्न लोगों का समुदाय हो गया।फिर गोत्र से बाहर विवाह करने की प्रथा चल पड़ी।इस समय में पिता के अधिकारों ने माता के अधिकारों को पूर्णतः आत्मसात् कर लिया था।समाज पितृसत्तात्मक था।परिवार पर पिता या बड़े भाई का स्वामित्व था।छान्दोग्य उपनिषद में परिवार में महत्व की दृष्टि से क्रमशः पिता,माता,भाई और बहन को गिनाया गया है।अथर्ववेद में कन्या के जन्म की निंदा की गयी है।लेकिन वहीं एक दूसरे ग्रंथ वृहदारण्यक उपनिषद् में विदुषी पुत्री के जन्म की कामना करनेवाले के लिए एक अनुष्ठान का जिक्र है।मैत्रायणी संहिता में स्त्री को द्यूत तथा मदिरा की श्रेणी में रखा गया है।गृहसुत्रों में घर में अग्नि प्रज्ज्वलित करने संबंधी नियमों से परिवार में बंटवारा होने की जानकारी मिलती है।उत्तरवैदिक काल में अग्नि को उक्षान्न और वशान्न की उपाधियों का प्रयोग मिलता है।
विवाह संस्कार :-गृहसुत्रों में केवल आश्वलायन और सभी धर्मसूत्रों में विवाह के 8 प्रकारों की चर्चा मिलती है।इसके अतिरिक्त अनुलोम विवाह और प्रतिलोम विवाह क8 भी चर्चा की गयी है।ऋग्वेद के अनुसार क्षत्रिय राजा असंग ने ब्राह्मण कन्या से विवाह किया था;जबकि ऋषि काक्षीवान ने क्षत्रिय राज कुमारियों से विवाह किया था। याज्ञवल्यक के अनुसार अनुलोम विवाह के अंतर्गत ब्राह्मण चार,क्षत्रिय तीन,वैश्य दो और शूद्र एक वर्ण के साथ विवाह कर सकता था।अनुलोम विवाह के अंतर्गत उच्च वर्ण का व्यक्ति निम्न वर्ण की कन्या के साथ विवाह करता था। मनु ने इसे वर्णसंकरता का कारण बताया है।प्रतिलोम विवाह उच्च वर्ण की कन्या का निम्न वर्ण की कन्या के व्यक्ति के साथ किया गया विवाह है।प्रतिलोम विवाह से उत्पन्न संतान को निकृष्ट एवं अस्पृश्य बताया गया है।अथर्ववेद में ब्रह्मचर्येण कन्या युवानं विन्दतेपतिम में कहा गया है कि ब्रह्मचर्य काल के समाप्त होने पर स्त्री योग्य युवक से विवाह करती थी।बाल विवाह नहीं होते थे।बहुविवाह और विधवा विवाह प्रचलित थे।अथर्ववेद में बहुपत्नीत्व प्रथा की चर्चा है।लेकिन ऐतरेय ब्राह्मण में स्पष्ट रूप से बहुपतित्व का निषेध किया गया है।अथर्ववेद में ही विधवा को एक के बाद एक 10 बार विवाह करने की बात स्वीकारी गयी है।इस काल ने नियोग प्रथा एक संस्था के रूप में कायम हो चुकी थी।अग्रज से पहले विवाह करनेवाले को परीविविदान तथा अनुज से पूर्व विवाह करनेवाले को परिनित कहा गया है।
धर्मशास्त्रों में वर्णित विवाह के प्रकार निम्न है :-
1.ब्रह्म विवाह - वेदज्ञ व शीलवान वर को आमंत्रित कर उपहारादि के साथ प्रदान किया जाता था।
2.दैव विवाह - सफलतापूर्वक आनुष्ठानिक यज्ञ पूर्ण करनेवाले पुरोहित के साथ कन्या का विवाह।
3.आर्ष विवाह -कन्या के पिता के द्वारा वर से याज्ञीक कार्य हेतु एक जोड़ी गाय व बैल के बदले कन्या प्रदान करना।
4.प्राजापत्य विवाह - कन्या और वर द्वारा संयुक्त रूप से सामाजिक आर्थिक कर्त्तव्य निर्वाह की वचनवद्धता के साथ विवाह।
5. गांधर्व विवाह -प्रणय विवाह;माता-पिता की अनुमति के बिना वर-कन्या का एक-दूसरे पर अनुरक्त होकर विवाह करना।
6. आसुर विवाह - कन्या के पिता या संबंधी द्वारा धन के बदले में कन्या की विक्री।
7.राक्षस विवाह - कन्या का अपहरण कर बलपूर्वक किया गया विवाह।
8.पैशाच विवाह - निकृष्टतम एवं सर्वत्र निन्दित;अचेत,सोती हुयी पागल मदमस्त कन्या के साथ छल छद्म द्वारा शारीरिक संबंध स्थापित करना।

आर्थिक जीवन :-उत्तरवैदिक काल में लोगों की जीविका का मुख्य साधन कृषि था। वैदिक ग्रंथों में छः,आठ,बारह और चौबीस बैल हल में जोते जाने की चर्चा है।अथर्ववेद में छः से बाढ़ बैल द्वारा हल खींचकर गहरी जुताई का वर्णन मिलता है।इसी ग्रन्थ में खाद के प्रयोग का भी उल्लेख है। जुताई लकड़ीवाले हल से होती थी।प्रविरवंत या पवीरव नामक शब्द धातु की चोंचवाले हल के लिए प्रयुक्त होता था।शतपथ ब्राह्मण में हल जोतने और खेती के विभिन्न कार्यों से संबंधित अनुष्ठानों का विवरण मिलता है।हल उदुम्बर नामक लकड़ी का बनाया जाता था और किसान खादिर के फाल का इस्तेमाल करते थे।शतपथ ब्राह्मण में हल संबंधी अनुष्ठान का लंबा वर्णन आया है।सीता के पिता जनक ने हल चलाया था।लेकिन उत्तरवैदिक काल में हल चलाना उच्च वर्णों के लिए वर्जित हो गया था।शतपथ ब्राह्मण में ही खेत जोतने, बीज बोने,फसल काटने और पीटकर अनाज गाहने का वर्णन मिलता है।
उत्तरवैदिक काल में जौ,गेहूँ(गोधूम),धान(ब्रीहि), दाल(माशा),तिल(श्यामला),जई(मुगद) आदि की खेती व्यापक पैमाने पर की जाती थी।वैदिक यज्ञों मे चावल के प्रयोग का विधान है।वैदिक लोगों को चावल से परिचय सबसे पहले दोआब में हुआ था।चावल के अवशेष जो हस्तिनापुर से मिले है वे ईसा पूर्व 8वीं सदी के है।इसी समय अतरंजीखेड़ा से भी चावल मिला है।यजुर्वेद में चावल के पाँच किस्मों-महाव्रीहि,कृष्णव्रीहि,शुक्लव्रीहि,आशुधान्य और हायन का वर्णन मिलता है।हायन सालभर में पकता था।सस्टिका 60 दिनों में तैयार होनेवाला धान था जिसे साठी भी कहा जाता था।उत्तरवैदिक काल में रोपाई द्वारा धान पैदा करने का तरीका प्रयोग में नहीं लाया जाता था।ईख का उल्लेख अथर्ववेद में मिलता है।गेहूं का उल्लेख ऋग्वेद को छोड़कर सभी ग्रंथों में मिलता है।
अथर्ववेद में नई नालियों में नदी का पानी ले जाने के धार्मिक अनुष्ठान का वर्णन है।इसी ग्रंथ में सिंचाई के लिए नहर खोदने का उल्लेख मिलता है।छान्दोग्य उपनिषद में टिड्डियों द्वारा फसल नष्ट होने के कारण दुर्भिक्ष का वर्णन है। इसमें अन्नावृष्टि और अतिवृष्टि से छुटकारा पाने के मंत्र का भी उल्लेख है।खेती में प्रयुक्त होनेवाला औजार दात्र या श्रीणि (दरांती) अतरंजीखेड़ा से प्राप्त हुआ है।अनाज नापने के लिए उर्दर नामक बर्त्तन माप के काम में लाया जाता था मवेशी में गाय और बैल आते थे।घोड़े, दासियाँ,खाद्य पदार्थ (वाज)अन्न की श्रेणी में आते थे।
उत्तरवैदिक काल में विभिन्न कलाओं तथा शिल्पों का उदय हुआ इसकी गणना पुरुषमेघ नामक पुस्तक में की गयी है। अनेक श्रेणियों की जानकारी मिलती है जिसका प्रधान श्रेष्ठिन कहलाता था।ऋण के लिए कुसीद और ऋण देनेवालों के लिए वैदिक ग्रंथों में कुसीदिन शब्द का प्रयोग मिलता है।अष्टाप्रूड,पाद और शतमान सोने के तीन सिक्कों का उल्लेख है।निष्क,पाद,शतमान और कृष्णल माप की भिन्न-भिन्न इकाइयाँ थी।बाट की मूलभूत इकाई कृष्णल था।रक्तिका और गूंजा भी माप की इकाई थी।रक्तिका को तुलाबीज भी कहा गया है।करीस एकप्रकार का भूमि माप था। निवर्तन भूमि माप की बड़ी इकाई थी।वाजसनेयी संहिता में 100 डाण्डोंवाले जलपोत के उल्लेखों से आर्यों के दूरस्थ प्रदेशों से होनेवाले सामुद्रिक व्यापार में संलिप्तता को द्योतित करते है।
उत्तरवैदिक काल में कराधान के स्पष्ट साक्ष्य मिलते है।पहले पहल जिन करों की जानकारी मिलती है वे बलि कहलाते है।यह एकप्रकार का भेंट था जो कुल या कबीले के लोगों द्वारा यज्ञ के अवसर पर मुखिया को दी जाती थी। अत्यधिक करारोपण के कारण शतपथ ब्राह्मण में राजा को जनता का विषमात यानी भक्षक बताया गया है।वैदिक साहित्य में किसान को जौ की संज्ञा दी गयी है और राजन्यों एवं ब्राह्मणों को जौ खानेवाले हिरण की संज्ञा दी गयी है।कृषि भूमि के व्यवस्थित सर्वेक्षण करनेवाले विशेष अधिकारी क्षेत्रकर कहलाते थे जिन्हें आगे चलकर बौद्ध ग्रंथों में रज्जुगाहक अमच्च या रज्जुग्राहक कहा गया है।

धार्मिक जीवन :-उत्तरवैदिक काल में यज्ञ प्रमुख हो गया था।यज्ञ के साथ-साथ अनेकानेक अनुष्ठान और मंत्रविधियाँ प्रचलित हुई।देवताओं में दो सबसे बड़े देवता इन्द्र और अग्नि अब उतने प्रमुख नहीं रहे।उत्तरवैदिक काल में इनकी जगह देवमंडल में सृजन के देवता प्रजापति को सर्वोच्च स्थान मिला।पशुओं के देवता रुद्र ने काफी महत्ता पाई और पशुपति के रूप में विख्यात हुए।रुद्र आरोग्यकर वनष्पतियों,महारोग और विनास के देवता थे।इनकी तुलना यूनानी देवता अपोलो से की जाती है। पुशन,जो पशुओं का रक्षक देवता माना जाता था अब शूद्रों का प्रमुख देवता बन गया। विष्णु को लोग अपना पालक और रक्षक मानने लगे।उत्तरवैदिक काल में मूर्तिपूजा के आरम्भ का आभास मिलने लगता हैदेवताओं के प्रतीक के रूप में कुछ वस्तुओं की पूजा प्रचलित हुई।विष्णु यज्ञ से संबंधित देवता था।इन्द्र ने प्लुविस के रूप में सर्पवृत्र का संहारकर शुष्क भूमि पर पानी लाया था।जोनान्स के रूप में इन्द्र ने दासों के दुर्ग को नष्ट किया था।जर्मनी के झौर और यूनान के श्रीयस इन्द्र से संबंधित देवता थे।यूनानियों ने जिस दूसरे भारतीय देवता को विजेता डायोनियसस समझा वह इन्द्र थे,पहला कृष्ण थे।मिर्जापुर जिले के एक गुफा चित्र में एक रथारोही को ऐसे चक्र से आदिवासियों पर आक्रमण करते हुए दिखाया गया है जैसे चक्र का इस्तेमाल कृष्ण करते थे।द्यौस स्वर्ग का देवता और सूर्य का पिता था।यूनानी देवता हेलियस सूर्य से संबंधित देवता बताये गए है।त्वष्टर् देवता आर्यों के शिल्प कौशल के निर्माता थे;मुख्यतः इन्द्र के हथियार बनाते थे।अश्विनकुमारों का तादात्म्य यूनानी देवता ड्यौराक्यूरी(DIOSCURI)से बैठाया जाता है।अग्नि पुजारियों के देवता थे।यह मनुष्य और देवताओं के बीच मध्यस्थ का कार्य करते थे।प्रजापति को आदिपुरुष माना जाता था।गंधर्व स्वर्ग के संगीतकार थे।ऋभू;वे बौने थे जो धातुओं पर प्रहार करते थे।आर्यपुरुष संधि और विवाहों के देवता थे।विश्वदेवा अस्पष्ट एवं अनिश्चित देवताओं का एक वर्ग था।नरकलोक का देवता वरुण था जबकि स्वर्गलोक का देवता यम था।मृत्यु का स्वामी यम को ही स्वीकारा गया है।
इस काल में देवी आकृतियाँ अपनी दैवी शक्तियों के लिए काफी लोकप्रिय हो गयी थी।इनमें अदिति,अरण्यानी,अरुंधति आदि प्रमुख थी।अदिति रहस्यात्मक तनु आकृति में देवताओं की महान माता थी।उषा अरूणोदय की देवी थी। अरुंधती एक महान रोगनाशक जड़ी-बूटी की अधिष्ठात्री देवी थी।पूतना चेचक की देवी थी।श्वानदेवी सरमा जिसे एक कुतिया के रूप में चित्रित किया गया है ;इन्द्र का संदेशवाहक थी।जबकि अरण्यानी जंगल की देवी बताई जाती है।
उत्तरवैदिक काल में धर्म का स्वरूप एकेश्वरवादी हो गया था।हिरण्यगर्भ सिद्धांत की अवधारणा प्रचलित हो गयी थी जिसके अनुसार संसार की उत्पति एक व्रह्म से बताई गयी है।सर्वप्रथम वृहदारण्यक उपनिषद में ब्रह्म का पूर्ण और निश्चित वर्णन मिलता है।ऋग्वेद में ब्रह्म का अर्थ यज्ञ से है किन्तु उपनिषदों में ब्रह्म परमतत्व का तटस्थ रूप है।छान्दोग्य उपनिषद में ब्रह्म को तत्तजलान कहा गया है।शतपथ ब्राह्मण के अनुसार जलप्लावन के समय जब सृष्टि का विध्वंस हो गया तब मनु एक जलपोत में बैठकर भीषण बाढ़ से बच गया था।
उत्तरवैदिक काल में स्तुतिपाठ देवताओं को प्रसन्न करने की प्रमुख रीति नहीं रहे।प्रत्युत् यज्ञ करना कहीं अधिक महत्वपूर्ण हो गया।इस समय यज्ञ के सामूहिक और घरेलू दोनों रूपों का प्रचलन था।

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