प्राचीन ऐतिहासिक धरोहर :मौर्यकालीन कला
आर्यावर्त का प्रथम साम्राज्य मगध से ही प्राचीन भारतीय इतिहास में पहले पहल कलात्मक गतिविधियों का इतिहास निश्चित रूप से शुरू होता है।राज्य की समृद्धि और मौर्य शासकों की प्रेरणा से कलाकृतियों को प्रोत्साहन मिला। मौर्यकाल में कला के दो रूप प्रचलित थे।एक राजदरबार में कार्यरत् कारीगरों द्वारा निर्मित कला ,जिसका साक्षात्कार मौर्य प्रासाद और सम्राट अशोक के भव्य स्तंभों में होता है।दूसरा वह रूप है जो परखम के यक्ष,दीदारगंज की चामर ग्राहिणी यक्षिणी तथा वेसनगर की यक्षिणी में देखने को मिलता है।राजसभा से संबंधित कला की प्रेरणा का स्रोत स्वयं सम्राट था।जबकि लोककला के यक्षिणियों में लोककला का रूप मिलता है।लोककला के रूपों की परम्परा पूर्व रूपों से काठ और मिट्टी में चली आ रही थी;अब इसे पाषाण के माध्यम से अभिव्यक्ति मिल रही है।मौर्यकाल के अधिकांश अवशिष्ट स्मारक अशोक के समय के है। चन्द्रगुप्त मौर्य कालीन स्थापत्य कला का विवरण मुख्यतः यूनानी लेखकों के विवरण से प्राप्त होता है।अर्थशास्त्र में दुर्ग विधान के अंतर्गत वास्तुकला के जिन लक्षणों का विवेचन किया गया है उसमें नगर के चतुर्दिक गहरी परिखा ,ऊंचे वप्र पर बना हुआ प्राकार,प्राकार में यथास्थान द्वार,कोष्ठ एवं अट्टालक बना होना चाहिए।यह विवरण काल्पनिक न होकर वास्तविकता पर आधारित है।मौर्यकालीन नगर विन्यास ठीक इसीप्रकार का था।इस तथ्य की पुष्टि यूनानी लेखकों के विवरणों से होती है जिन्होंने चन्द्रगुप्त मौर्य की राजधानी पातलिपुत्र एवं उसके भव्य राजप्रासाद की की है।
मौर्यकालीन राजकीय तक्षण कला का पहला और सर्वप्रमुख उदाहरण चन्द्रगुप्त मौर्य का राजप्रासाद है।यह प्रासाद मोर्य शासकों के समय में सूसा और एकबेतना से कही बढ़कर था।यह तत्कालीन पाटलिपुत्र के समीप कुम्हरार गांव के समीप था ,जो आजकल पटना शहर के अंतर्गत समाहित है।कुम्हरार की खुदाई में प्रासाद के सभाभवन के जो अवशेष प्राप्त हुए है उससे प्रासाद की विशालता का अनुमान लगाया जा सकता है।यह पूर्णतः खंभोवाला एक विस्तृत हॉल है जो लकड़ी के उच्चे धरातल पर टिका हुआ था।यह राजप्रासाद एक बड़े पार्क के बीचोबीच स्थित है।भवन के खम्भों पर सोने की लतापत्रवली तथा चांदी की चिड़िया बनी हुई थी।महल के चारो ओर कई सरोवर निर्मित किये गए थे जिसमे अनेक प्रकार की मच्छलियाँ पाली गयी थी। भवन की लंबाई 140 फीट और चौड़ाई 20 फीट थी।कुल मिलाकर 40 पाषाण स्तम्भ पाये गए है।भवन के स्तम्भ बलुआ पत्थर के बने हुए है जिसपर चमकदार पॉलिश की गयी है।इसे देखकर भारत के भ्रमण पर आये प्रसिद्ध बौद्ध यात्री फाह्यान ने अत्यंत भाव-प्रवण शब्दों में कहा कि"यह प्रासाद मानव कृति नहीं है वरन् देवों द्वारा निर्मित है।"
मौर्यकालीन नगर परियोजना का वर्णन मेगास्थनीज के इंडिका में मिलता है।उसके अनुसार पाटलिपुत्र नगर सोन और गंगा के संगम पर बसा हुआ था।नगर की लंबाई 9.5 मील और चौड़ाई 1.5मील थी। नगर के चारो ओर लकड़ी की दीवार बनी हुई थी।जिसके बीच बीच में तीर चलाने के लिए दीवार में छेद बने हुए थे।दीवारों के ऊपर 570 बुर्ज बने हुए थे।दीवार के चारों ओर एक खाई थी जो 60 फीट गहरी और 600 फीट चौड़ी थी।नगर में आने-जाने के लिए 64 द्वार निर्मित किये गए थे।1920ई. में पटना के बुलन्दीबाग में खुदाई के दौरान काष्ट निर्मित प्राचीर का एक अंश प्राप्त हुआ है जिसकी लम्बाई 150 फीट है। लकड़ी के खम्भों की जो दो पंक्तियाँ मिली है उनके बीच 14.5 फीट का अंतर है।यह अंतर लकड़ी के स्लीपरों से ढँका गया है।खम्भों के ऊपर शहतीर जुड़े हुए है। खम्भों की उंच्चाई जमीन की सतह से 12.5फीट है तथा ये जमीन के अंदर 5 फीट गहरे गड़े हुए है।सभामंडप में शिल्प स्तंभो का प्रयोग इस तथ्य की ओर इंगित करता है कि अशोक के समय में इस भवन का आवश्य सौदर्यीकरण किया गया होगा। मौर्य कला के सर्वोत्कृष्ट उदाहरण अशोक के एकाश्मक लाल बलुआ पत्थर से निर्मित स्तम्भ है।जो कि उसने अपने धम्म के प्रचार के लिए साम्राज्य के कोने कोने मे खड़े करवाए थे।इनकी संख्या 40 है और ये चुनार (बनारस,उत्तरप्रदेश)से मंगाए पत्थरों से निर्मित है।चुनार की खानों से पत्थरों को काटकर निकालना,शिल्पकला में इन एकाश्मक खम्भों को तराशकर मनमोहक रूप प्रदान करना,इन स्तंभों को देश के एक भाग से दूसरे भाग में पहुचाना ;यह शिल्पकला और तकनीकी कौशल का अनोखा प्रदर्शन है जो भारतीय इतिहास ही नहीं विश्व इतिहास के लिए भी दुर्लभ है।सम्पूर्ण स्तम्भ की उच्चाई 40 से 50 फीट है।कुछ लाटों के निर्माण में मथुरा प्रदेश से प्राप्त लाल और सफेद बलुआ पत्थर भी हुआ है। स्तंभों का निर्माण मुख्यतः दो भागों में हुआ है-1.स्तम्भ यष्टि और 2.शीर्ष भाग। शीर्ष भाग का मुख्य अंश है घंटा;जो कि अखमिनी स्तंभों के आधार के घंटों से मिलते-जुलते थे।भारतीय विद्वान इसे अवांगमुखी कमल कहते है।इसके ऊपर गोल अण्ड या चौकी है।कुछ चौकियों पर चार पशु है और चार छोटे-छोटे चक्र अंकित है तथा कुछ पर हंस पंक्ति अंकित है।चौकी पर सिंह,अश्व,हाथी तथा बैल आसीन है। रामपुरवा में नटुवा बैल ललित मुद्रा में खड़ा हैl
सारनाथ के शीर्ष स्तम्भ पर चार सिंह पीठ सटाये बैठे है जिनके मुँह चारों दिशाओं की ओर है। सिंहो के तने हुए शरीर की मांसपेशियाँ;लहलहाते हुए केशराशि तथा गठीले अंग-प्रत्यंग अत्यंत सूक्ष्मता एवं चतुरता से बनाये गए है।मौर्य शिल्पियों के रूप विधान का इतना मनोहारी दृश्य दुर्लभ है।यह मौरीकला का चरमोत्कर्ष है;उपरी सिंहो में जैसी शक्ति का प्रदर्शन है,उनकी फूली नसों में जैसी स्वाभाविकता है और उनके नीचे उकेरी आकृतियों में जो प्राणवान वास्तविकता का प्रदर्शन है उसमें कही से कला की बाल अवस्था की झलक नहीं मिलती; बल्कि यह एक सुचिंतित एवं परिष्कृत मस्तिष्क की उपज लगती है।
भारत में स्तूप निर्माण की परम्परा सर्वप्रथम मौर्यकाल में ही दिखाई पड़ता है। बौद्ध अनुश्रुति के अनुसार अपने साम्राज्य के विभिन्न भागों में 84 हजार स्तूपों का निर्माण करवाया था।साँची और भरहुत के स्तूपों का निर्माण मूल रूप से अशोक के समय ही हुआ था।शुंगों के समय साँची स्तूप का विस्तार हुआ था।इसके अतिरिक्त सारनाथ और तक्षशीला स्थित धर्मराजिका स्तूप का निर्माण इसी समय हुआ था। मौर्ययुगीन स्तूप विहार वेदिकाओं से घिरे हुए थे। बोधगया से एक वेदिका का अवशेष मिला है जिसे बोधिभण्ड नान दिया गया है।यह भी अशोक के समय का बताया जाता है।वेदिका के खंभों तथा उसको जोड़नेवाली लंबी पाषाण शीलापट्टिकाओं पर कमल की आकृति बनी हुई है।कहीं कहीं अश्व,हाथी एवं मकर आदि की आकृतियां भी उत्कीर्ण है।सारनाथ से भी अशोक के समय की एक पाषाण वेदिका मिली है।यह एकाश्मक है।इसके दो स्तंभों के बीच तीन सूचियाँ है तथा स्तंभों के ऊपर उष्णिश बना हुआ है।पाटलिपुत्र की खुदाई से तीन वेदिकाओं के टुकड़े मिले है जो अपनी चमकीली पॉलिश के कारण मौर्ययुगीन माने जाते है।साँची से मौर्य युगीन स्तूप के ईंटों के अतिरिक्त पाषाण का एक खंडित छत्र भी प्राप्त हुआ है जिससे स्पष्ट होता है कि इस समय वास्तु में पत्थर का प्रयोग होने लगा था।
अशोक ने वास्तुकला के क्षेत्र में एक नई विधा की शुरुआत की वह थी चट्टानों को काटकर कंदराओं का निर्माण। गया के निकट बराबर की पहाड़ियों में अशोक ने अपने राज्याभिषेक के 12 वें वर्ष में सुदामा गुहा आजीवकों को दान में दे दी।इस गुफा में दो कोष्ठ है;एक गोल व्यास का है जिसकी छत अर्द्ध वृत्ताकार है।इसके बाहर का मुख मण्डप आयाताकार है किन्तु छत गोलाकार है।दोनोँ कोष्ठों की भीतियां और छतों पर चमकती हुई पॉलिश है। इससे ज्ञात होता है कि चैत्य घर का मौलिक विकास अशोक के समय में ही हो गया था।जिसका विकसित रूप बाद के कालों में महाराष्ट्र के भाजा,कार्ले और कन्हेरी चैत्य गृहों में परिलक्षित होता है। अशोक के प्रपौत्र दशरथ ने नागार्जुनी पहाड़ियों में आजिवकों को तीन गुफाएं प्रदान की थी।इसमें सबसे प्रसिद्ध गोपी गुफा है जिसका सम्पूर्ण विन्यास सुरंग जैसा हुआ है।इसके मध्य में ढोलाकार छत और दोनों शिरों पर दो गोल मंडप है जिसमें से एक को गर्भगृह और दूसरे को मुखमण्डप समझा जाता है।इस गुफा में अशोककालीन गृहशिल्प की पूर्णतः रक्षा हुई है।
पशु शीर्षों की आकृतियाँ मौर्य कला को नई उच्चाइयाँ प्रदान करती है इसमे स्तंभों को सुसज्जित करने वाले पशु शीर्ष प्रमुख है। उड़ीसा की धौली चट्टान को काटकर बनाई गयी हाथी की आकृति पाषाण मूर्तिकला की उत्कृष्टता को द्योतित करता है। यहां विशालकाय हाथी के अग्र भाग को उकेरा गया है।जिसमें हाथी अपनी सूंड में कोई वस्तु लपेटकर उठा रहा है और चट्टान से बाहर निकल रहा है।उसके सूंड,पैर आदि का गठन अत्यन्त स्वाभाविक है।इसी प्रकार कलसी की चट्टान पर एक हाथी की आकृति खुदी हुई है।हाथी के पैरों के बीच ब्राह्मी लिपि में गजमत खुदा हुआ है।
मौर्ययुगीन लोककला मुख्यतः दो रूपों में विकसित हुई -एक,काले मृदभाण्डों के रूप में तो दूसरे यक्ष-यक्षिणियों की मूर्तियों के रूप में।अति मानवीय विशालकाय मुर्तियाँ खुले आकाश के नीचे स्थापित की जाती थी।ये मुर्तियाँ मथुरा से लेकर पाटलिपुत्र ,विदिशा,कलिंग और पश्चिम सुर्पारक तक पाई जाती है।इन यक्ष-यक्षिणियों की मूर्तियों की अपनी अलग विशेषता है,जिसका ठेठ रूप देखते ही पहचाना जा सकता है।परखम गांव से प्राप्त यक्ष की मुर्ति,पटना से प्राप्त यक्ष मूर्ति जिसपर ओपदार चमक है;जो मौर्यकालीन बर्तनों की अपनी खास विशेषता है,तथा एक लेख है,दीदारगंज से प्राप्त चामरग्राहिणी यक्षी और वेसनगर से प्राप्त यक्षिणी विशेष रूप से उल्लेखनीय है।ये मुर्तियाँ महाकाय है और मांसपेशियों की बलिष्ठता एवं दृढ़ता उनमें जीवंतता के साथ उत्कीर्ण की गयी है। ये पृथक रूप से खड़ी है,लेकिन उनके दर्शन का प्रभाव संमुखहीन है,मानों शिल्पी ने उन्हें सम्मुख दर्शन के लिए ही बनाया हो। उनका वेश है सिर पर पगड़ी ,कानों और भुजाओं पर उत्तरीय,नीचे धोती जो कटि प्रदेश मे मेखला से बांधी गयी है।कानों में भारी कुंडल ,गले में कांठा,छाती पर तिकोना हार और बाहुओं पर अंगद सुशोभित है।मूर्तियों को थोड़ा घटोदर दिखाया गया ।
मौर्यकालीन राजकीय तक्षण कला का पहला और सर्वप्रमुख उदाहरण चन्द्रगुप्त मौर्य का राजप्रासाद है।यह प्रासाद मोर्य शासकों के समय में सूसा और एकबेतना से कही बढ़कर था।यह तत्कालीन पाटलिपुत्र के समीप कुम्हरार गांव के समीप था ,जो आजकल पटना शहर के अंतर्गत समाहित है।कुम्हरार की खुदाई में प्रासाद के सभाभवन के जो अवशेष प्राप्त हुए है उससे प्रासाद की विशालता का अनुमान लगाया जा सकता है।यह पूर्णतः खंभोवाला एक विस्तृत हॉल है जो लकड़ी के उच्चे धरातल पर टिका हुआ था।यह राजप्रासाद एक बड़े पार्क के बीचोबीच स्थित है।भवन के खम्भों पर सोने की लतापत्रवली तथा चांदी की चिड़िया बनी हुई थी।महल के चारो ओर कई सरोवर निर्मित किये गए थे जिसमे अनेक प्रकार की मच्छलियाँ पाली गयी थी। भवन की लंबाई 140 फीट और चौड़ाई 20 फीट थी।कुल मिलाकर 40 पाषाण स्तम्भ पाये गए है।भवन के स्तम्भ बलुआ पत्थर के बने हुए है जिसपर चमकदार पॉलिश की गयी है।इसे देखकर भारत के भ्रमण पर आये प्रसिद्ध बौद्ध यात्री फाह्यान ने अत्यंत भाव-प्रवण शब्दों में कहा कि"यह प्रासाद मानव कृति नहीं है वरन् देवों द्वारा निर्मित है।"
मौर्यकालीन नगर परियोजना का वर्णन मेगास्थनीज के इंडिका में मिलता है।उसके अनुसार पाटलिपुत्र नगर सोन और गंगा के संगम पर बसा हुआ था।नगर की लंबाई 9.5 मील और चौड़ाई 1.5मील थी। नगर के चारो ओर लकड़ी की दीवार बनी हुई थी।जिसके बीच बीच में तीर चलाने के लिए दीवार में छेद बने हुए थे।दीवारों के ऊपर 570 बुर्ज बने हुए थे।दीवार के चारों ओर एक खाई थी जो 60 फीट गहरी और 600 फीट चौड़ी थी।नगर में आने-जाने के लिए 64 द्वार निर्मित किये गए थे।1920ई. में पटना के बुलन्दीबाग में खुदाई के दौरान काष्ट निर्मित प्राचीर का एक अंश प्राप्त हुआ है जिसकी लम्बाई 150 फीट है। लकड़ी के खम्भों की जो दो पंक्तियाँ मिली है उनके बीच 14.5 फीट का अंतर है।यह अंतर लकड़ी के स्लीपरों से ढँका गया है।खम्भों के ऊपर शहतीर जुड़े हुए है। खम्भों की उंच्चाई जमीन की सतह से 12.5फीट है तथा ये जमीन के अंदर 5 फीट गहरे गड़े हुए है।सभामंडप में शिल्प स्तंभो का प्रयोग इस तथ्य की ओर इंगित करता है कि अशोक के समय में इस भवन का आवश्य सौदर्यीकरण किया गया होगा। मौर्य कला के सर्वोत्कृष्ट उदाहरण अशोक के एकाश्मक लाल बलुआ पत्थर से निर्मित स्तम्भ है।जो कि उसने अपने धम्म के प्रचार के लिए साम्राज्य के कोने कोने मे खड़े करवाए थे।इनकी संख्या 40 है और ये चुनार (बनारस,उत्तरप्रदेश)से मंगाए पत्थरों से निर्मित है।चुनार की खानों से पत्थरों को काटकर निकालना,शिल्पकला में इन एकाश्मक खम्भों को तराशकर मनमोहक रूप प्रदान करना,इन स्तंभों को देश के एक भाग से दूसरे भाग में पहुचाना ;यह शिल्पकला और तकनीकी कौशल का अनोखा प्रदर्शन है जो भारतीय इतिहास ही नहीं विश्व इतिहास के लिए भी दुर्लभ है।सम्पूर्ण स्तम्भ की उच्चाई 40 से 50 फीट है।कुछ लाटों के निर्माण में मथुरा प्रदेश से प्राप्त लाल और सफेद बलुआ पत्थर भी हुआ है। स्तंभों का निर्माण मुख्यतः दो भागों में हुआ है-1.स्तम्भ यष्टि और 2.शीर्ष भाग। शीर्ष भाग का मुख्य अंश है घंटा;जो कि अखमिनी स्तंभों के आधार के घंटों से मिलते-जुलते थे।भारतीय विद्वान इसे अवांगमुखी कमल कहते है।इसके ऊपर गोल अण्ड या चौकी है।कुछ चौकियों पर चार पशु है और चार छोटे-छोटे चक्र अंकित है तथा कुछ पर हंस पंक्ति अंकित है।चौकी पर सिंह,अश्व,हाथी तथा बैल आसीन है। रामपुरवा में नटुवा बैल ललित मुद्रा में खड़ा हैl
सारनाथ के शीर्ष स्तम्भ पर चार सिंह पीठ सटाये बैठे है जिनके मुँह चारों दिशाओं की ओर है। सिंहो के तने हुए शरीर की मांसपेशियाँ;लहलहाते हुए केशराशि तथा गठीले अंग-प्रत्यंग अत्यंत सूक्ष्मता एवं चतुरता से बनाये गए है।मौर्य शिल्पियों के रूप विधान का इतना मनोहारी दृश्य दुर्लभ है।यह मौरीकला का चरमोत्कर्ष है;उपरी सिंहो में जैसी शक्ति का प्रदर्शन है,उनकी फूली नसों में जैसी स्वाभाविकता है और उनके नीचे उकेरी आकृतियों में जो प्राणवान वास्तविकता का प्रदर्शन है उसमें कही से कला की बाल अवस्था की झलक नहीं मिलती; बल्कि यह एक सुचिंतित एवं परिष्कृत मस्तिष्क की उपज लगती है।
भारत में स्तूप निर्माण की परम्परा सर्वप्रथम मौर्यकाल में ही दिखाई पड़ता है। बौद्ध अनुश्रुति के अनुसार अपने साम्राज्य के विभिन्न भागों में 84 हजार स्तूपों का निर्माण करवाया था।साँची और भरहुत के स्तूपों का निर्माण मूल रूप से अशोक के समय ही हुआ था।शुंगों के समय साँची स्तूप का विस्तार हुआ था।इसके अतिरिक्त सारनाथ और तक्षशीला स्थित धर्मराजिका स्तूप का निर्माण इसी समय हुआ था। मौर्ययुगीन स्तूप विहार वेदिकाओं से घिरे हुए थे। बोधगया से एक वेदिका का अवशेष मिला है जिसे बोधिभण्ड नान दिया गया है।यह भी अशोक के समय का बताया जाता है।वेदिका के खंभों तथा उसको जोड़नेवाली लंबी पाषाण शीलापट्टिकाओं पर कमल की आकृति बनी हुई है।कहीं कहीं अश्व,हाथी एवं मकर आदि की आकृतियां भी उत्कीर्ण है।सारनाथ से भी अशोक के समय की एक पाषाण वेदिका मिली है।यह एकाश्मक है।इसके दो स्तंभों के बीच तीन सूचियाँ है तथा स्तंभों के ऊपर उष्णिश बना हुआ है।पाटलिपुत्र की खुदाई से तीन वेदिकाओं के टुकड़े मिले है जो अपनी चमकीली पॉलिश के कारण मौर्ययुगीन माने जाते है।साँची से मौर्य युगीन स्तूप के ईंटों के अतिरिक्त पाषाण का एक खंडित छत्र भी प्राप्त हुआ है जिससे स्पष्ट होता है कि इस समय वास्तु में पत्थर का प्रयोग होने लगा था।
अशोक ने वास्तुकला के क्षेत्र में एक नई विधा की शुरुआत की वह थी चट्टानों को काटकर कंदराओं का निर्माण। गया के निकट बराबर की पहाड़ियों में अशोक ने अपने राज्याभिषेक के 12 वें वर्ष में सुदामा गुहा आजीवकों को दान में दे दी।इस गुफा में दो कोष्ठ है;एक गोल व्यास का है जिसकी छत अर्द्ध वृत्ताकार है।इसके बाहर का मुख मण्डप आयाताकार है किन्तु छत गोलाकार है।दोनोँ कोष्ठों की भीतियां और छतों पर चमकती हुई पॉलिश है। इससे ज्ञात होता है कि चैत्य घर का मौलिक विकास अशोक के समय में ही हो गया था।जिसका विकसित रूप बाद के कालों में महाराष्ट्र के भाजा,कार्ले और कन्हेरी चैत्य गृहों में परिलक्षित होता है। अशोक के प्रपौत्र दशरथ ने नागार्जुनी पहाड़ियों में आजिवकों को तीन गुफाएं प्रदान की थी।इसमें सबसे प्रसिद्ध गोपी गुफा है जिसका सम्पूर्ण विन्यास सुरंग जैसा हुआ है।इसके मध्य में ढोलाकार छत और दोनों शिरों पर दो गोल मंडप है जिसमें से एक को गर्भगृह और दूसरे को मुखमण्डप समझा जाता है।इस गुफा में अशोककालीन गृहशिल्प की पूर्णतः रक्षा हुई है।
पशु शीर्षों की आकृतियाँ मौर्य कला को नई उच्चाइयाँ प्रदान करती है इसमे स्तंभों को सुसज्जित करने वाले पशु शीर्ष प्रमुख है। उड़ीसा की धौली चट्टान को काटकर बनाई गयी हाथी की आकृति पाषाण मूर्तिकला की उत्कृष्टता को द्योतित करता है। यहां विशालकाय हाथी के अग्र भाग को उकेरा गया है।जिसमें हाथी अपनी सूंड में कोई वस्तु लपेटकर उठा रहा है और चट्टान से बाहर निकल रहा है।उसके सूंड,पैर आदि का गठन अत्यन्त स्वाभाविक है।इसी प्रकार कलसी की चट्टान पर एक हाथी की आकृति खुदी हुई है।हाथी के पैरों के बीच ब्राह्मी लिपि में गजमत खुदा हुआ है।
मौर्ययुगीन लोककला मुख्यतः दो रूपों में विकसित हुई -एक,काले मृदभाण्डों के रूप में तो दूसरे यक्ष-यक्षिणियों की मूर्तियों के रूप में।अति मानवीय विशालकाय मुर्तियाँ खुले आकाश के नीचे स्थापित की जाती थी।ये मुर्तियाँ मथुरा से लेकर पाटलिपुत्र ,विदिशा,कलिंग और पश्चिम सुर्पारक तक पाई जाती है।इन यक्ष-यक्षिणियों की मूर्तियों की अपनी अलग विशेषता है,जिसका ठेठ रूप देखते ही पहचाना जा सकता है।परखम गांव से प्राप्त यक्ष की मुर्ति,पटना से प्राप्त यक्ष मूर्ति जिसपर ओपदार चमक है;जो मौर्यकालीन बर्तनों की अपनी खास विशेषता है,तथा एक लेख है,दीदारगंज से प्राप्त चामरग्राहिणी यक्षी और वेसनगर से प्राप्त यक्षिणी विशेष रूप से उल्लेखनीय है।ये मुर्तियाँ महाकाय है और मांसपेशियों की बलिष्ठता एवं दृढ़ता उनमें जीवंतता के साथ उत्कीर्ण की गयी है। ये पृथक रूप से खड़ी है,लेकिन उनके दर्शन का प्रभाव संमुखहीन है,मानों शिल्पी ने उन्हें सम्मुख दर्शन के लिए ही बनाया हो। उनका वेश है सिर पर पगड़ी ,कानों और भुजाओं पर उत्तरीय,नीचे धोती जो कटि प्रदेश मे मेखला से बांधी गयी है।कानों में भारी कुंडल ,गले में कांठा,छाती पर तिकोना हार और बाहुओं पर अंगद सुशोभित है।मूर्तियों को थोड़ा घटोदर दिखाया गया ।
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