भारत में आदिम मानव भाग -3

ताम्रपाषण कालीन संस्कृतियों का जन्म पत्थर एवं ताम्बे के उपकरणों के साथ-साथ प्रयोग करने के कारण हुआ था.तकनिकी दृष्टि से ताम्रपाषण अवस्था हड़प्पा की कास्ययुगीन संस्कृति से पहले की है,पर कालक्रमानुसार भारत में हड़प्पा की कांस्य संस्कृति पहले आती है और अधिकांश ताम्रपाषण संस्कृतिया बाद में.भारत में ताम्रपाषण कालीन बस्तियां दक्षिण-पूर्वी राजस्थान ,मध्यप्रदेश के पश्चिमी भाग ,पश्चिमी महाराष्ट्र और दक्षिणी-पूर्वी भारत में पाई गयी है .दक्षिण-पूर्वी राजस्थान में प्रमुख खुदाई वाले स्थल है-गिलुण्ड एवं आहार .गिलुण्ड इस संस्कृति का स्थानीय केंद्र है.यहाँ ताम्बे के टुकड़े प्रचुर मात्र में मिले है .आहार जिसे तम्बावती भी कहा जाता है,के लोग शुरू से है धातु कर्म जानते थे.गणेश्वर (राजस्थान)से मिली कुछ ताम्बे की वस्तुएं सिन्धु स्थल से मिले वस्तुओं की आकृतिओं से मिलते -जुलते है .मिटटी की एक ऐसी पिण्डिका मिली है जो सिन्धु टाइप से मिलाती-जुलती है .गणेश्वर मुख्यतः हड़प्पा के लोगो को ताम्बे की वस्तुओं की आपूर्ति करता था
  मध्यप्रदेश के पश्चिमी भाग के मालवा एवं कायथा की खुदाई हुयी है.मालवा मृदभांड को ताम्रपाषण संस्कृति में  सबसे उत्कृष्ट पाया गया है.कायथा (2000 -1800 ई.)के मृदभांडोपर हड़प्पाई प्रभाव दिखाई पड़ता है.सबसे अधिक ताम्र निधियां मध्यप्रदेश के गुन्गेरिया से प्राप्त हुयी है .इनमे 424 ताम्बे के औजार तथा हथियार एवं 102 चाँदी के पत्तर है. पश्चिमी महाराष्ट्र के जोरवे संस्कृति में जोरावे,दैमाबाद ,चंदौली,सोनगांव,इनामगाँव,प्रकाश एवं नासिक आदि स्थल आते है .मुख्यतः जोरावे संस्कृति ग्रामीण है,किन्तु दैमाबाद एवं इनामगाँव  में शहरीकरण के साक्ष्य मिलते है .200 जोरावे स्थलों में दैमाबाद सबसे बड़ा है.यहाँ से भारी मात्रा में कांसे की वस्तुएं प्राप्त हुयी है ,इनमे से कुछ वस्तुयों पर हड़प्पा का प्रभाव स्पष्ट दिखाई पड़ता है.इनामगाँव  की बस्ती किल्लेबंद है और खाईं से गहरी हुयी है.इनामगाँव में चूल्हों सहित बड़े-बड़े कच्ची मिटटी के माकन और गोलाकार गड्ढोवाले मकान मिले है.बाद के काल का पांच कमरोवाला एक मकान मिला है ,जिसमे चार कमरे आयताकार और एक कमरा वृत्ताकार है.
  सर्वप्रथम ताम्रपाषण जनों ने ही प्रायद्वीपीय भारत में बड़े-बड़े गाँव बसाये.ये लोग बहुत बड़े कृषक समुदाय से आये थे.नवदतोली के लोग चावल,गेहूं ,उड़द,मुंग,बाजार ,अलसी ,बेर तथा कई प्रकार के दलहन उपजाते थे .पूर्वी भारत में  बिहार एवं पश्चिम बंगाल से बड़ी मात्र में प्राप्त मछली पकड़ने के कांटे ,इस बात को साबित करते है कि पूर्वोत्तर भारत के लोग ताम्रपाषण काल से ही मछली खाने शौक़ीन थे .इस युग के लोग घोड़े से परिचित नहीं थे .ताम्रपाषण कालीन लगभग सभी स्थलों से चित्रित मृदभांड पाए गए है,जिससे साबित होता है किचित्रित मृदभांन्डोंके सबसे पहले प्रयोक्ता ताम्रपाषण कालीन लोग ही थे .ये लोग लिखने की कला नहीं जानते थे .पश्चिम भारत में पुएन शवाधान एवं पूर्वी भारत में आंशिक शवाधानकी प्रथा प्रचलित थी .महाराष्ट्र में मृतक उत्तर-दक्षिण सीध में तथा दक्षिण भारत में पश्चिम-पूरब सीध में रखा जाता था .महाराष्ट्र में लोग मृतक को कलश में रखकर अपने घर के अंदर गाड़ते थे .कब्र में मिटटी की हंडिया और ताम्बे की कुछ वस्तुएं राखी जाती थी .जो शायद परलोक में मृतक के इस्तेमाल के लिए उपयोगी हो सकती थी .बड़ी मात्र में मिली मिटटी की स्त्री मूर्तियों से प्रतीत होता है कि ताम्रपाषण युगीन लोग मातृदेवी की पूजा करते थे .वृषभ की मुर्तिकाएं भी मिली है ,जिससे सिद्ध होता है कि वृषभ किसी धार्मिक पंथ का प्रतिक था .

Comments

  1. सुन्दर लेख

    यहाँ मैं बताना चाहूंगा कि भारत में ताम्रपाषाणिक संस्कृतियों को कायथा संस्कृति, आहड़ संस्कृति, जोर्वे संस्कृति, मालवा संस्कृति, रंगपुर संस्कृति, तथा प्रभास संस्कृति में विभाजित किया गया है।

    साथ ही भारत में ताम्रपाषाणिक संस्कृति के अतिरिक्त भारत में ताम्रनिधि संस्कृति ,जिसे भारत की ताम्रनिधियां भी कहा जाता है, भी पायी जाती थी।
    साधारणतया सिन्धु संस्कृति के बाहर जिन खेतिहर समाजों का विकास हुआ वे प्रायः ताम्रपाषाण युगीन संस्कृति कहा जाता है।

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