भारत का गौरव - नालन्दा विश्वविद्यालय





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सुभाषित रत्नसंदेह शिक्षा के महत्व पर प्रकाश डालते हुए कहता है कि ‘ज्ञानं तृतीयं मनुजस्य नेत्रं समस्ततत्वार्थ विलोक दक्षम.’ अर्थात् ज्ञान मनुष्य का तीसरा नेत्र है , जो उसे समस्त तत्वों के मूल को जानने में सहायता करता है .प्राचीन काल में भारतवासियों का पूर्ण विश्वास था कि शिक्षा द्वारा विकसित बुद्धि ही आदमी की वास्तविक शक्ति होती है .अतः इस शक्ति की प्राप्ति के लिए उन्होंने जगह-जगह शिक्षा के केंद्र खोले ,मंदिरों ,मठों ,और विहारों को शिक्षा के केंद्र के रूप में विकसित किया .उनमे से एक नालंदा महाविहार अत्यधिक प्रसिद्द हुआ .
बिहार की राजधानी पटना से दक्षिण में 40मील की दूरी पर  आधुनिक बड़गांव नामक गाँव में नालंदा महाविहार के अवशेष प्राप्त हुए है .यह स्थल प्राचीन मगध साम्राज्य की राजधानी राजगृह से सिर्फ 8 किमी . की दूरी पर अवस्थित था .चीनी यात्री ह्वेनसांग के अनुसार गुप्तवंशीय शासक कुमारगुप्त ने बौधधर्मके त्रिरत्नों के प्रति श्रद्धा व्यक्त करते हुए यहाँ पर एक बौद्धविहार की स्थापना कराई थी .कुमारगुप्त का शासन काल 415-455ई. बाते जाता है .संभव है कि कुमारगुप्त ने इसे अपने शासन के अंतिम वर्षों में बनवाना शुरू किया हो .उसके पुत्र बुधगुप्त ने अपने पिता क्र कार्य को जरी रखते हुए इसके दक्षिण में एक दूसरा विहार बनवाया था .फिर उसके उत्तराधिकारियों ने इस स्थान पर विहारों की स्थापना का कार्य जारी रखा.तथागुप्त  ने पूरब में ,बलादित्य  ने  पूर्वोत्तर दिशा में ,वज्रगुप्त ने पश्चिम में तथा पुष्यभूति वंश के शासक हर्ष ने एक और विहार बनवाया जो पूर्णतः ताम्बें का था ,तथा सभी विहारों को चारो ओर से घेरते हुए एक चाहरदीवारी का निर्माण करवा दिया था.
नालंदा महाविहार एक मील लम्बे तथा आधा मील चौड़े क्षेत्र में फैला हुआ था .भवन स्तूप एवं विहार वैज्ञानिक योजना के आधार पर बनाये गए थे .विश्वविद्यालय में आठ बड़े कमरे व्याख्यान के लिए तीन सौ छोटे कमरों का निर्माण करवाया गया था .यह सम्पूर्ण विश्वविद्यालय ईंटों की दीवारों से घिरा हुआ था .एक द्वार विद्यापीठ की ओर जाता था ,जिसमे आठ अन्य हॉल थे,जो संघाराम के बीच में स्थित थे  तथा अलग-अलग थे .बाहार की सभी कक्षाएँ ,जिनमे श्रवण आवास करते थे चार-चार मंजिली थी.
नालंदा विश्वविद्यालय छठीं शताब्दी तक अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त कर चूका था .लगता है कि हर्ष  के  समय में नालंदा को राजकीय संरक्षण प्राप्त हुआ था .हर्ष ने लगभग 100 गाँवों का राजस्व इस महाविहार को दान कर दिया था .इसके परिणामस्वरूप यह विश्वविद्यालय अंतर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय के रूप में खाती प्राप्त कर लिया .इस विश्वविद्यालय में न केवल भारत के सुदूर क्षेत्रों के विद्यार्थी शिक्षा ग्रहण करने आते थे ,अपितु चीन,मंगोलिया ,तिब्बत ,कोरिया ,मध्य एशिया आदि देशों से भी विद्यार्थीआते थे .ह्वी-ली के वर्णन पर विश्वास किया जाये तो इनकी संख्या लगभग दस हजार थी .यहाँ गुणवत्तापूर्ण शिक्षा पर विशेष बल दिया जाता था तथा शिक्षा का स्तर अत्यंत उच्च कोटि का था .इस विश्वविद्यालय में वहीँ विद्यार्थी प्रवेश प्राप्त कर सकता था ,जो प्रवेश परीक्षा में उत्तीर्ण होता था .चूकिं यहाँ के विद्यार्थियों का विश्व में अत्यधिक सम्मान था ,इसलिए सभी विद्यार्थी दाखिले के लिए प्रयत्नशील रहते थे .
























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बौद्धधर्म की महायान शाखा का केंद्र होने के बावजूद नालंदा विश्वविद्यालय का पाठ्यक्रम अत्यंत विकसित था .इसमें बौद्धधर्म के अट्ठारह सम्प्रदायों के ग्रंथो के अतिरिक्त वेड,हेतुविद्या ,शब्द्विद्या ,योगशास्त्र ,चिकित्सा ,तंत्रविद्यातथा सांख्य दर्शन के ग्रन्थ शामिल थे .प्रकाण्ड विद्वान् विभिन्न विषयों पर प्रत्येक दिन व्याख्यान दिया करते थे ,जिसमे प्रत्येक विद्यार्थी की उपस्थिति अनिवार्य थी .यहाँ की फैकल्टी काफी उन्नत थी .एक हजार शिक्षक ऐसे थे जी सूत्रों और शास्त्रों के बीच बीस संग्रहों के अर्थ समझा सकते थे .धर्म के आचार्य सहित दस ऐसे आचार्य थे ,जो पच्चास संग्रहों की व्याख्या कर सकते थे .इस विश्वविद्यालय के प्राचार्य  शीलभद्र ,अकेले ऐसे व्यक्ति थे ,जो सभी संग्रहों के ज्ञाता थे .इनके अतिरिक्त प्रमुख शिक्षकों में पूर्व-कुलपति धर्मपाल ,गुणमति ,स्थिरमति प्रभामति,जिनमित्र,ज्ञानचन्द्र आदि प्रमुख थे.
नालंन्दा विश्वविद्यालय के पुस्तकालय में ग्रंथों का विशाल संग्रह तथा प्राचीन पांडुलिपियां सुरक्षित थी .कहा जाता है कि चीनी यात्री इत्सिंग ने यहाँ रहकर चार सौ संस्कृत ग्रंथों की पांडुलिपियाँ तैयार की थी .छात्रों की सुविधा के लिए एक वृहद् पुस्तकालय की स्थापना की गयी थी ,जिसका नाम ‘ धर्मगज्ज ‘ था .यह पुस्तकालय तीन भवनों में- रत्नसागर ,रत्नोदधि ,तथा रत्नरंजक में स्थित था .विश्वविद्यालय के प्रशासनिकव्यवस्था को सुचारू रूप से चलने के लिए दो परिषदों का गठन किया गया था- बौद्धिक और प्रशासनिक .इनके ऊपर कुलपति होता था .विश्वविद्यालय का खर्च शासकों एवं अन्य दाताओं द्वारा दिए गए दान से चलता था .बताया जाता है कि इस विश्वविद्यालय को दो सौ ग्रामों का भूराजस्व प्राप्त होता था .
हर्ष के बाद भी लगभग  12 वीं शताब्दी तक नालंदा महाविहार की ख्याति बरकरार रही .9 वीं शताब्दी में इसकी प्रसिद्धि से आकर्षित होकर सुमात्रा के शासक बालपुत्रदेव ने नालंदा में एक और मठ बनवाया तथा इसके निर्वाह के लिए अपने मित्र पाल शासक देवपाल से पांच गाँव दान में दिलवाया था .पाल शासकों द्वारा विक्रमशिला को एक अन्य शिक्षा के केंद्र के रूप में विकसित किये जाने के कारण नालंदा विश्वविद्यालय की कीर्ति थोड़ी धूमिल हो गयी .12 वीं सदी के अंत में मुस्लिम आक्रान्ता बख्तियार खिलजी ने यहाँ के तमाम  भिक्षुयों की हत्या कर दी ,विश्वविद्यालय को ध्वस्त कर दिया तथा पुस्तकालय को जला कर खाक कर दिया .इसप्रकार ज्ञान का यह केंद्र समय के पन्नों में सदा के लिए ओझल हो गया .

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