भारत में पर्दा प्रथा का विकास
परदा प्रथा, देवदासी प्रथा, वेश्यावृत्ति एवं सतीप्रथा वे महत्वपूर्ण कारण रहे जिन्होंने मध्ययुगीन सामाजिक परिस्थितियों में महिलाओं को निम्नत्तर स्थिति में पहुँचाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, जो बीज रूप में प्राचीन काल से ही मौजूद रहे थे। वैदिक काल मे पर्दा प्रथा का प्रचलन नहीं था। स्त्रियाँ स्वतंत्रातापूर्वक सार्वजनिक स्थानों में विचरण करती थी तथा पुरुषों के साथ मेल-जोल बढ़ा सकती थी। ऋग्वेद से पता चलता है विवाह के बाद वधु सभी आगन्तुकां को दिखलाई जाती थी। यह आशा की जाती थी कि वह वृद्धावस्था में जनसभाओं में भाषण करे। स्त्री के लिए सभावती शब्द का प्रयोग किया गया है, जो इस बात का सूचक है कि समाज मे पर्दाप्रथा का प्रचलन नहीं था। हिन्दू समाज में परदे की प्रथा ई० सन् के प्रारम्भ से प्रचलित होती हुई दिखाई पड़ती है। इसके प्रचलन का प्राचीनतम साहित्यिक साक्ष्य 100 ई0 पूर्व में प्राप्त महाकाव्यां में मिलता है। रामायण में एक स्थान पर कहा गया है कि गृह, वस्त्र, प्राकार तथा पार्थक्य सभी स्त्री के लिए व्यर्थ है, उनका चरित्र ही उनका पर्दा है। लेकिन कौशल्या, कैकयी, सीता जैसी रानियाँ कहीं भी परदा करती हुई नहीं दिखाई गई है। महाभारत की द्रौपदी सभाभवन में उन्मुक्त होकर आती थी। खासकर राजकुलों में पर्दाप्रथा का विशेष चलन दिखाई देता है, जहाँ महिलाओं को सार्वजनिक दृष्टि से बचाने के लिए पर्दा धारण करने की संस्तुति की गई है। बौद्धकाल की कुछ रानियॉँ पर्दायुक्त रथों पर यात्रा करती थी। भास के नाटकों में पर्दाप्रथा का उल्लेख मिलता है। प्रतिमा नाटक में सीता को पर्दे में दिखाया गया है। स्वप्नवासवदत्ता में पदमावती विवाह के पूर्व पर्दा धारण नहीं करती थी किन्तु विवाह के बाद वह पर्दा में रहना पसन्द करती है। हर्ष कृत नागानन्द से पता चलता है कि विवाह के पश्चात् स्त्रियॉँ पर्दे में रहती थी। भवभूति तथा माघ की रचनाओं से भी पर्दा के प्रचलित होने की सूचना मिलती है। संभव है कि तीसरी सदी के लगभग से समाज के कुलीन या राजकुल की महिलाओं में पर्दा प्रथा प्रारम्भ हुआ और इसका अनुकरण समाज के सामान्य परिवारों में भी किया जाने लगा। कालिदास ने राजमहिषियों को ‘असूर्यम्पश्या’ कहा है जिससे साबित होता है कि वे महलों से बाहर न निकलती थी और अलगाव की स्थिति में रहती थी। प्राचीनकालीन साहित्यों में प्राप्त कुछ उदाहरणों से पता चलता है कि पर्दा की प्रथा का समाज में कड़ाई से पालन नहीं किया जाता था। निम्नवर्गीय परिवारों एवं कृषक समाज में स्त्रियॉँ परदा नही करती थी। श्रमिक वर्ग की महिलायें अलगाव की स्थिति में नहीं रहती थी, वह पुरुषों के साथ खेतों,ें खलिहानों, बाग-बगीचों एवं कारखानों में बिना किसी आवरण के अक्सर दिख जाती थी। उच्चवर्गीय परिवार की महिलाओं में भी पर्दे के प्रति विरोध का भाव था। मृच्छकट्टिकम की वसंतसेना पर्दे का विरोध करती दिखाई पड़ती है। ललितविस्तर से ज्ञात होता है कि बुद्ध की पत्नी गोपा ने अपने मुँह पर घुँघट डालने का यह कहते हुए विरोध किया कि शुद्व विचारवालों के लिए बाहरी आवरण की आवश्यकता नहीं होती। कथासरित्सागर में रत्नप्रभा नामक स्त्री को स्पष्ट शब्दों में इस प्रथा का विरोध करते हुए पाया जाता है। कल्हण की राजतरंगिणी में भी पर्दाप्रथा के प्रचलन की सूचना नहीं मिलती। दसवीं सदी के अरबी लेखक अबुजैद ने कहा है कि भारतीय रानियाँ बिना किसी पर्दे के राजसभा में उपस्थित होती थी।
हिन्दू समाज में पर्दाप्रथा का व्यापक प्रचलन मुस्लिम आक्रमण के प्रभाव से हुआ था। मुस्लिम समाज में पर्दा का पालन कड़ाई से किया जाता था। पर्दा एक इस्लामी शब्द है जो अरबी भाषा से आया है। इसका अर्थ है ढ़कना या अलग करना। पर्दा का एक पहलू है बुर्का का चलन। बुर्का एक तरह का घुॅँघट है जो मुस्लिम समुदाय की महिलायें और लड़कियॉँ कुछ खास जगहों पर खुद को पुरुषों की निगाह से दूर रखने के लिए इस्तेमाल में लाती थी। भारत में हिन्दूओं में पर्दाप्रथा इस्लाम की देन है। इस्लाम के प्रभाव से तथा इस्लामी आक्रमण के समय हिन्दू स्त्रियाँ भी पर्दा करने लगी थी। एन0 एम0 जफ्फार ने पर्दा को हिन्दू स्त्रियों के लिए धार्मिक कत्तर्व्य बताया है। धार्मिक ग्रंथों के उदाहरण देते हुए उन्होंने समझाने का प्रयास किया है कि पर्दा त्यागना हिन्दू समाज में निन्दनीय समझा जाता था। हिन्दू समाज में पर्दा का पालन अनिवार्य रुप से होता था।
मुसलमानों के आगमन से पूर्व भारत में पर्दा प्रथा का अभाव था। हिन्दू स्त्रियॉँ केवल घूॅँघट के द्वारा ही अपने मुॅँह ढँका करती थी। किन्तु मुसलमानों के आगमन के पश्चात् उनकी संस्कृति के प्रभावस्वरुप पर्दाप्रथा को विशेष बल मिला और मुसलमानों की भाँॅति हिन्दुओं में भी पर्दाप्रथा पहले की अपेक्षा कठोर हो गई । कुछ मुस्लिम शासकां ने कट्टरपंथी नीति के कारण पर्दाप्रथा को बढ़ावा दिया । तो कुछ ऐसी महिलाएँ हुई जिन्हांने इसे चुनौती पेश की। रजिया सुल्तान शायद पहली मुस्लिम महिला थी जिसने लालवस्त्र पहनकर चाँदनी चौक में जनता के सम्मुख बिना पर्दे के खड़ी हुई और सुल्तान के विरुद्व बगावत करते हुए न्याय की मॉँग की थी। बाद में दिल्ली का सुल्तान बनने के बाद वह पुरुषवेश में आवरणहीन चेहरे के साथ शाही िंसंहासन पर आसीन होती थी और सरदारों के बीच बेखौफ होकर आती जाती थी। दूसरी ओर सुल्तान फिरोजशाह तुगलक ने पर्दाप्रथा के प्रचार के लिए राज्य की ओर से प्रोत्साहन प्रदान किया था। वह पहला सुल्तान था जिसने मुस्लिम औरतों को दिल्ली के बाहर स्थित मजारों पर जाने पर प्रतिबंध लगा दिया था अतः अमीरो की स्त्रियों ने डोलियों अथवा पालकियों में निकलना बंद कर दिया था। उदारवादी प्रवृति का सम्राट होने के बावजूद अकबर ने पर्दाप्रथा का समर्थन किया था। बदायूॅँनी के अनुसार यदि कोई युवती बिना बुरका अथवा बिना परदा किए सड़कों एवं बाजारों में घूमती हुई पाई जाती थी तो उसको वेश्यालय भेज दिया जाता था जहाँॅ वह वेश्या के पेशे को ग्रहण कर लिया करती थी। नूरजहाँॅ ने पर्दा प्रथा को नकारते हुए अपने पति के साथ खुले दरबार में हाजिर होती थी तथा पति की उपस्थित में अमीरों को आदेश दिया करती थी। मध्यकालीन भारत में पर्दा का इतनी कड़ाई से पालन होता था कि उदारवादी विचार रखनेवाले अमीर खुशरो ने भी; जिसने ‘लैला मजनूँ’ नामक अपनी कृति में इसका विरोध करते हुए इसकी बुराईयों का उल्लेख किया था; स्वयं अपनी पुत्री को इस बात का आदेश दे रखा था कि वह अपनी पीठ दरवाजे की ओर और मुँह दीवार की ओर करके बैठे ताकि कोई उसे देख न सके।
उच्चवर्ग के हिन्दुओं ने भी अपनी रक्त शुद्धता को बनाये रखने के लिए पर्दा का कठोरता से पालन किया। इस वर्ग में पर्दा सम्मान का माप रहा है जितनी ऊँची समाज में स्थिति रहेगी, स्त्रियॉँ उतनी ही अलग होगी। राजा और अमीर उमरा अपनी स्त्रियों के लिए पूर्णतः ढँॅकी और ताला लगी डोलियों का उपयोग करते थे। पर्दाप्रथा का कठोरता से पालन इस कदर बढ़ गया था कि उच्चवर्ग की बीमार स्त्रियों को हकीम या वैद्य भी नहीं देख सकते थे। उनकी बीमारी का पता उनके शरीर के कपड़ों से लगाया जाता था। यदि किसी स्त्री द्वारा पर्दा का कड़ाई से पालन नहीं किया जाता तो उसका पति तत्काल उसे तलाक दे देता था। हिन्दू अमीर भी मुस्लिम शासकों के तौर-तरीके अपनाने में संकेच नहीं करते थे क्योंकि उससे सामाजिक रुतवे में अभिवृद्धि होती थी। मुख्यतया आर्थिक कारणों से समाज की निम्न जातियों की स्त्रियों को पर्दे में नहीं रहना पड़ता था। कृषक स्त्रियों का विशाल समुदाय कोई चादर या विशेष रूप से बना परदा या बुर्का नहीं पहनता था और अलग-थलग नहीं रहता था। उसके हाँथ-पाँव और चेहरे खुले रहते थे। भारतीय किसान अधिक पत्नियाँ रखने का व्यय भी नहीं कर सकते थे।
मुसलमानों के आगमन से पूर्व भारत में पर्दा प्रथा का अभाव था। हिन्दू स्त्रियॉँ केवल घूॅँघट के द्वारा ही अपने मुॅँह ढँका करती थी। किन्तु मुसलमानों के आगमन के पश्चात् उनकी संस्कृति के प्रभावस्वरुप पर्दाप्रथा को विशेष बल मिला और मुसलमानों की भाँॅति हिन्दुओं में भी पर्दाप्रथा पहले की अपेक्षा कठोर हो गई । कुछ मुस्लिम शासकां ने कट्टरपंथी नीति के कारण पर्दाप्रथा को बढ़ावा दिया । तो कुछ ऐसी महिलाएँ हुई जिन्हांने इसे चुनौती पेश की। रजिया सुल्तान शायद पहली मुस्लिम महिला थी जिसने लालवस्त्र पहनकर चाँदनी चौक में जनता के सम्मुख बिना पर्दे के खड़ी हुई और सुल्तान के विरुद्व बगावत करते हुए न्याय की मॉँग की थी। बाद में दिल्ली का सुल्तान बनने के बाद वह पुरुषवेश में आवरणहीन चेहरे के साथ शाही िंसंहासन पर आसीन होती थी और सरदारों के बीच बेखौफ होकर आती जाती थी। दूसरी ओर सुल्तान फिरोजशाह तुगलक ने पर्दाप्रथा के प्रचार के लिए राज्य की ओर से प्रोत्साहन प्रदान किया था। वह पहला सुल्तान था जिसने मुस्लिम औरतों को दिल्ली के बाहर स्थित मजारों पर जाने पर प्रतिबंध लगा दिया था अतः अमीरो की स्त्रियों ने डोलियों अथवा पालकियों में निकलना बंद कर दिया था। उदारवादी प्रवृति का सम्राट होने के बावजूद अकबर ने पर्दाप्रथा का समर्थन किया था। बदायूॅँनी के अनुसार यदि कोई युवती बिना बुरका अथवा बिना परदा किए सड़कों एवं बाजारों में घूमती हुई पाई जाती थी तो उसको वेश्यालय भेज दिया जाता था जहाँॅ वह वेश्या के पेशे को ग्रहण कर लिया करती थी। नूरजहाँॅ ने पर्दा प्रथा को नकारते हुए अपने पति के साथ खुले दरबार में हाजिर होती थी तथा पति की उपस्थित में अमीरों को आदेश दिया करती थी। मध्यकालीन भारत में पर्दा का इतनी कड़ाई से पालन होता था कि उदारवादी विचार रखनेवाले अमीर खुशरो ने भी; जिसने ‘लैला मजनूँ’ नामक अपनी कृति में इसका विरोध करते हुए इसकी बुराईयों का उल्लेख किया था; स्वयं अपनी पुत्री को इस बात का आदेश दे रखा था कि वह अपनी पीठ दरवाजे की ओर और मुँह दीवार की ओर करके बैठे ताकि कोई उसे देख न सके।
उच्चवर्ग के हिन्दुओं ने भी अपनी रक्त शुद्धता को बनाये रखने के लिए पर्दा का कठोरता से पालन किया। इस वर्ग में पर्दा सम्मान का माप रहा है जितनी ऊँची समाज में स्थिति रहेगी, स्त्रियॉँ उतनी ही अलग होगी। राजा और अमीर उमरा अपनी स्त्रियों के लिए पूर्णतः ढँॅकी और ताला लगी डोलियों का उपयोग करते थे। पर्दाप्रथा का कठोरता से पालन इस कदर बढ़ गया था कि उच्चवर्ग की बीमार स्त्रियों को हकीम या वैद्य भी नहीं देख सकते थे। उनकी बीमारी का पता उनके शरीर के कपड़ों से लगाया जाता था। यदि किसी स्त्री द्वारा पर्दा का कड़ाई से पालन नहीं किया जाता तो उसका पति तत्काल उसे तलाक दे देता था। हिन्दू अमीर भी मुस्लिम शासकों के तौर-तरीके अपनाने में संकेच नहीं करते थे क्योंकि उससे सामाजिक रुतवे में अभिवृद्धि होती थी। मुख्यतया आर्थिक कारणों से समाज की निम्न जातियों की स्त्रियों को पर्दे में नहीं रहना पड़ता था। कृषक स्त्रियों का विशाल समुदाय कोई चादर या विशेष रूप से बना परदा या बुर्का नहीं पहनता था और अलग-थलग नहीं रहता था। उसके हाँथ-पाँव और चेहरे खुले रहते थे। भारतीय किसान अधिक पत्नियाँ रखने का व्यय भी नहीं कर सकते थे।
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